अंतर्वलित तंत्र (Implicate order) : ब्रह्मांड-प्रक्रिया के एकीकृत सिद्धांत की खोज अर्से से वैज्ञानिकों का सपना रहा है। पिछली शताब्दी में एकीकृत क्षेत्र सिद्धांत (Unified Field Theory) और क्वांटम सिद्धांत द्वारा इसे समझने के प्रयत्न हुए हैं। लेकिन, एकीकृत क्षेत्र सिद्धांत प्रत्येक क्षेत्र को अलग मानकर किसी बाहरी संयोजन के माध्यम से उनकी परस्पर अंतःक्रिया की अवधारणा रखता है, जिसका तात्पर्य है कि वह प्रत्येक क्षेत्र को अलग मानता है और इस प्रकार ब्रह्मांड की मशीनी अवधारणा से पूर्णतया मुक्त नहीं हो पाता-यद्यपि वह उसे चुनौती अवश्य देता है क्योंकि वह कण के बजाय क्षेत्र का आग्रह करता है। क्वांटम सिद्धांत भी इस मशीनी अवधारणा को एक गंभीर चुनौती तो देता है, पर वह उसका पूरी तरह अतिक्रमण नहीं कर पाता। डेविड बोम (David Bohm : 1917-1992 ई०) का कहना है कि यद्यपि क्वांटम सिद्धांत अनिर्धार्यता (Indeterminism) के सिद्धांत को स्वीकार करता है, लेकिन उसमें भी तत्त्वों का बुनियादी अलगाव और बाह्यता बने रहते हैं। इसके अतिरिक्त, सापेक्षता सिद्धांत और क्वांटम सिद्धांत की बुनियादी अवधारणाएं एक-दूसरी को काटती हैं और इन दोनों के बीच कोई एकीकरण संभव नहीं है।
डेविड बोम अपनी पुस्तक होलनिस एंड दि इंप्लीकेट ऑर्डर (Wholeness and the Implicate Order) में उपर्युक्त दोनों सिद्धांतों के अंतर्विरोधों और सीमाओं का निर्देशन करते हुए एक नए सिद्धांत की अवधारणा करते हैं, जिसे वह अंतर्वलित तंत्र (Implicate order) कहते हैं, जिसका तात्पर्य है कि अंशों का अलग से कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है जैसा, इसके विपरीत, मशीनी अवधारणा में होता है। प्रत्येक वस्तु प्रत्येक वस्तु में अंतर्वलित है (Everything is enfolded into everything) और इसलिए प्रत्येक अंश में समग्र या पूर्ण विद्यमान है। बोम इसे होलोग्राम (Hologram) के उदाहरण से स्पष्ट करते हैं, जिसमें एक अंश के चित्र में समग्र वस्तु के बारे में जानकारी रहती है। बोम प्रस्ताव करते हैं कि विभिन्न अंशों या कणों को केवल त्रिआयामी यथार्थ के संदर्भ में नहीं, बल्कि एक उच्चतर आयामी यथार्थ के प्रक्षेप के रूप में समझा जाना चाहिए, जिसे उनके बीच किसी अंतःक्रिया की पदावली के खाते में नही डाला जा सकता। बोम इस अविभाज्य और अविच्छिन्न यथार्थ को समग्र क्रियाशीलता (Holomovement) कहते हैं, जिसके सभी रूप अविभाज्य हैं तथा किसी एक विशिष्ट व्यवस्था से बाधित नहीं है। समग्र क्रियाशीलता के नियम को बोम समग्रत्व शास्त्र (Holonomy) की संज्ञा देते है, जिसके अनुसार प्रत्येक अंश की स्वायत्तता इस समग्रत्व से नियमित होती है, जिसका तात्पर्य यह है कि एक व्यापक संदर्भ में स्वायत्तता के ये सभी रूप एक अस्तित्व के विविध पहलू हैं, जो अंततः परस्पर अंतःक्रिया में संलग्न पृथक अस्तित्वों के बजाय एक समग्र क्रियाशीलता (Holomovement) में पर्यवसित होते हैं। बोम का मानना है कि समग्रत्व का कोई स्थिर और अंतिम लक्ष्य नहीं है; यह एक अनवरत प्रक्रिया है, जिसमें नए समग्र निरंतर प्रकट होते रहते हैं।
इसी आधार पर बोम पदार्थ और चेतना या निर्जीव और सजीव की पृथकता का खंडन करते हैं और यह स्थापित करते हैं कि अंतर्वलित जीवन (Life Implicit) ही अभिव्यक्त जीवन और निर्जीव पदार्थ का मूल है और यह मूल ही प्राथमिक, स्वयंभू और सार्वभौमिक है। यह सिद्धांत जीवन और निर्जीव पदार्थ को विच्छिन्न नहीं करता बल्कि एक में दूसरे को अंतर्वलित मानता है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि पदार्थ का या जीवन के विभिन्न रूपों का अपना कोई नियम नहीं है; लेकिन, सभी नियमों को बोम सापेक्ष स्वायत्त उप -समग्रता का नियम (Law of relative autonomous sub-totality) कहते हैं, जो अंततः अंतर्वलित जीवन के नियम अर्थात् होलोनॉमी से नियमित हैं। वह विकास-सिद्धांत (Theory of evolution) की व्याख्या करते हुए एक जीवन-रूप को अनिवार्यतः दूसरे जीवन-रूप के आधार की तरह न देखते हुए उसे विकास का सर्जनात्मक प्रकटन (Creative unfoldment) मानते हैं और इसी आधार पर यह भी प्रस्तावित करते हैं कि किसी वस्तु का कोई अंतिम लक्ष्य नहीं है क्योंकि अंतर्वलित जीवन के सिद्धांत के अनुसार विकास का हर स्तर सिर्फ एक स्तर है, जिसमें और भावी विकास के स्तर अंतर्वलित है-यह एक सार्वभौमिक निरंतर प्रक्रिया है, जिसमें हमारे साथ हमारे विचार के विषय और प्रायोगिक अन्वेषण भी शामिल है।
यह सिद्धांत, दरअस्ल, केवल अभिव्यक्त जीवन के एकत्व को ही नहीं, बल्कि समग्र अस्तित्व के एकत्व को तथा उसमें अंतर्वलित जीवन को स्वीकार करता है और इसलिए इसे अहिंसा की वैज्ञानिक तत्व-मीमांसा के रूप में देखा जा सकता है। डेविड बोम केवल भौतिकीविद् ही नहीं, आइंस्टाइन की तरह एक सामाजिक विचारक भी हैं और अपने सामाजिक विचारों को अपने वैज्ञानिक अन्वेषण की आधार-भूमि पर स्थापित करते हैं। इसीलिए वह विचार को भी एक तंत्र (System) मानते हुए समग्र मानवीय चिंतन को एकल प्रक्रिया की तरह देखते हैं। मनुष्य और प्रकृति तथा स्वयं मनुष्यों के बीच असंतुलन से चिंतित होते हुए वह इस विपत्ति का मूल कारण विचार को मानते हैं। विचार का काम समस्या को सुलझाना है; लेकिन, बोम कहते हैं, समस्या को सुलझाने का साधन ही समस्या का मूल स्रोत बन गया है क्योंकि वह उन परिणामों से बचने की कोशिश करता है, जो उसकी अपनी प्रक्रिया के सहगामी हैं। बोम इसे संपोषित असंगति (Sustained incoherence) कहते हैं।
बोम यह मानते हैं कि विचार (चेतना) और देह दोनों ही, इसलिए, एक-दूसरे को प्रभावित नहीं करते-बल्कि वे दोनों एक उच्चतर आयामी यथार्थ-एक अंतर्वलित तंत्र-के प्रक्षेप हैं और इसमें हमें न केवल इन दोनों को बल्कि सारे पदार्थ-जगत तथा अन्य लोगों, समाज और संपूर्ण मानवता को एक समग्र मानना होगा। इसलिए, उनके अनुसार, यह समझना गलत होगा कि प्रत्येक व्यक्ति एक अलग सत्ता है, जो ममेतर अर्थात् अन्य मनुष्यों और प्रकृति से अंतःक्रिया करता है-ये सभी एक ही समग्र के प्रक्षेप हैं और, इसलिए, जब कोई व्यक्ति समग्र के रूपांतरण की प्रक्रिया में भागीदारी करता है तो वह स्वयं भी रूपांतरित होता जाता है। इसे न समझने का परिणाम गंभीर भ्रम में फंसना है। कहा जा सकता है कि अलगाव का बोध एक भ्रांति है, जिससे हिंसा पैदा होती है, जबकि समग्र के आधार-नियम के रूप में अंतवर्लित जीवन का बोध अहिंसा की मनोभूमि है। अंतवर्लित तंत्र का सिद्धांत वैदिक ऋत के सिद्धांत का सहोदर ठहरता है।
विचार को एक विकसनशील तंत्र तथा विचार को ही समस्याओें का मूल मानने के कारण बोम विचार-प्रक्रिया को संवाद-आधारित मानते हैं। वह विभिन्न स्तरों पर नियमित संवाद का प्रस्ताव भी करते हैं, जिसे बोम-संवाद (Bohm-Dialogue) कहा जाता है; जिसमें संवाद के लिए समान हैसियत और मुक्त-अभिव्यक्ति को संवाद की पूर्वशर्त माना गया है। बोम का मानना था कि यदि बड़े पैमाने पर ऐसे संवाद-समूह बनाए जाएं तो समाज में अंतर्भूत अलगाव और विच्छिन्नता को मिटाने में बहुत मदद मिल सकती है। बोम स्वयं अपने संवादों-खास तौर पर दलाई लामा और जे० कृष्णमूर्ति जैसे विचारकों के साथ संवादों के लिए विख्यात रहे हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
अंबेडकर, डॉ० भीमराव : डॉ० भीमराव अंबेडकर (1891-1956 ई०) की चर्चा अक्सर संविधान निर्माता व दलितों के मसीहा के रूप में होती है। इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है कि वह अपने समय के अहिंसा के अभ्यासकों में प्रमुख थे। उन्होंने न केवल अहिंसा को अपने व्यवहार में उतारा, बल्कि उस पर निरंतर चिंतन भी किया। उनके द्वारा चलाए गए आंदोलनों, उनके द्वारा तैयार किए गए कार्यकर्ताओं, उनके द्वारा विन्यस्त की गई विधियों से अहिंसा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता प्रमाणित होती है। अहिंसा को सर्वोच्च जीवन मूल्यों में से एक मानते हुए उन्होंने उसे हमेशा व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखा और मानवाधिकार के सदंर्भ में उसकी संगति व अनिवार्यता रेखांकित की। उन्होंने उन स्थितियों को भी चिह्नित किया जो हिंसा का सबब बनती हैं और अहिंसा के प्रतिकूल मानस का निर्माण करती हैं।
डॉ० अंबेडकर और अहिंसा पर विचार को मोटे तौर पर पांच बिंदुओं में समेटा जा सकता है : (1) हिंसा की प्रकृति और तदनुकूल परिस्थिति की पहचान। (2) संकटपूर्ण अवसरों पर लिए गए निर्णय : कसौटी पर अहिंसा। (3) प्रतिरोध और अहिंसा। (4) अहिंसा-स्थापन के प्रयास। (5) अहिंसा और भविष्य-दृष्टि का प्रश्न।
हिंसा के दायरे में मात्र भौतिक क्षति या शारीरिक चोट नहीं है। मानसिक आघात, भावनात्मक उत्पीड़न भी इसी के भीतर हैं। भारतीय सदंर्भ में बात करें तो वर्ण-जाति व्यवस्था हिंसा का एक बड़ा स्रोत है। यह व्यवस्था दृश्य अथवा प्रत्यक्ष हिंसा से कहीं ज्यादा परोक्ष दमन करती है। यह जिस श्रेष्ठता-बोध को जन्म देती है, वह दूसरों को हीन मानकर ही संभव है। एक सीमा तक दूसरों को कमतर मानना भी सह्य है, लेकिन, वर्ण-श्रेष्ठता का बोध अन्यों को हीनतर होने का अहसास कराता चलता है-क्रूरतर तरीकों से। इस समाज व्यवस्था में कुछ लोग जन्मना श्रेष्ठ होते हैं तो बाकी लोग अकारण ही जन्मजात पापी, तुच्छ व अस्पृश्य तय कर दिए जाते हैं। महाराष्ट्र की ऐसी नीच समझी जाने वाली महार जाति में जन्मे भीमराव को बचपन से ही अछूतपन के दंश मिले। उन्होंने व्यक्तिगत अनुभवों को सामाजिक सरंचना के विश्लेषण में इस्तेमाल किया और हिंसा की संस्कृति-सापेक्ष व्याख्या प्रस्तुत की।
भीमराव अंबेडकर ने बहुत कठिन परिस्थितियों में पढ़ाई की। पहले तो उनके पिता ने स्थानीय पाठशाला में दाखिला कराने की कोशिश की। लेकिन, उन दिनों पाठशालाओं में अस्पृश्य बच्चों के प्रवेश पर प्रतिबंध था, लिहाजा वे रत्नागिरी से मुंबई चले आए और यहीं के एक स्कूल में बेटे को प्रवेश दिलाया। अस्पृश्य समाज में मैट्रिक पास करने वाले भीमराव पहले विद्यार्थी थे। बड़ौदा नरेश की आर्थिक सहायता से उन्होंने उच्च शिक्षा कोलंबिया विश्वविद्यालय (न्यूयार्क) में ग्रहण की। जाति संस्था का गहरा अध्ययन भी उन्होंने यहीं किया। पीएचडी उपाधि के लिए लिखे अपने शोध प्रबंध को उन्होंने कृतज्ञतापूर्वक सयाजीराव गायकवाड़, बड़ौदा नरेश को अर्पित किया। यह प्रबंध बाद में दि इवोल्युशन ऑफ प्राविंशियल फायनांस इन ब्रिटिश इंडिया शीर्षक से छपा। 1925 ई० में छपी इस किताब में उन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के आर्थिक शोषण की चर्चा की है। स्वाधीनता के प्रश्न पर विचार करते हुए इस किताब के अंतिम हिस्से में वह कहते हैं-राजनैतिक स्वाधीनता पाने के दो मार्ग हैं। एक है सैनिक शक्ति और दूसरा है नैतिक सामर्थ्य। जिस देश के पास सैनिक सामर्थ्य नहीं है, उसे अपने नैतिक सामर्थ्य को बढ़ाना चाहिए।
डॉ० अंबेडकर ने अपनी पूरी जिंदगी जातिपरक हिंसा को दूर करने तथा समतामूलक समाज की स्थापना में खपा दी। उन्होंने अपने मूकनायक (1919 ई०) पाक्षिक पत्र के एक अंक में लिखा कि यदि भारतवासियों को ब्रिटिश शासन से मुक्ति चाहिए, तो उन्हें अस्पृश्यों को पहले मुक्त करना चाहिए। यह नैतिक प्रश्न था और डॉ० अंबेडकर लगातार ऐसे प्रश्नों से भारतीय समाज का अंतःकरण झकझोरते रहे। बहिष्कृत हितकारिणी सभा (20 जुलाई, 1924 ई० को स्थापित) के द्वारा, जिसके अध्यक्ष डॉ० अंबेडकर थे, प्रकाशित पुस्तिका में स्पृश्यों और अस्पृश्यों के बीच की गहरी खाई को पाटने की जरूरत पर बल देते हुए कहा गया कि जब तक देश का इतना बड़ा तबका दीन-हीन दशा में पंगु बना हुआ है तब तक यह सारा देश भी दीन-हीन हाल में ही रहेगा।
हिंसा के बारे में कहा जाता है कि वह दुतरफा वार करती है। जिस पर हिंसा की जाती है वह तो उसका शिकार होता ही है, लेकिन जो हिंसा करता है वह भी नहीं बचता। हिंसा उसे भी अपना शिकार बनाती है। जाति-प्रथा हिंसा का ही एक रूप है। दलित तो इससे पीड़ित रहे ही हैं, तथाकथित सवर्ण भी इसके दुष्परिणामों से नहीं बचे हैं। स्वस्थ सामाजिक पुनर्रचना की शुरुआत जाति को मिटाए बिना नहीं हो सकती। जातिपरक हिंसा की प्रकृति को पहचान कर ही अंबेडकर ने उससे मुक्ति को प्राथमिक माना था।
जाति-आधारित हिंसा से मुक्ति आसान नहीं। इसे सिर्फ सवर्णों के हृदय-परिवर्तन के जरिए खत्म नहीं किया जा सकता। दलितों को अधिकार-संपन्न बनाकर, सांस्कृतिक-धार्मिक के साथ राजनीतिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में बराबरी लाकर ही यह लक्ष्य हासिल किया जा सकता है। सन् 1926 ई० के मई महीने में सतारा जिले में आयोजित जिला महार परिषद के अधिवेशन में बोलते हुए अंबेडकर ने कहा, जैसे-जैसे अस्पृश्य जन के हाथ में अधिकार आते जाएंगे, उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी, वैसे-वैसे उनकी प्रगति भी होने लगेगी। अंबेडकर द्वारा चलाए गए आंदोलनों से न केवल दलितों की वास्तविक स्थिति सार्वजनिक चर्चा का विषय बनी वरन् दलितों में क्रमशः अधिकार-चेतना व स्वाभिमान की भावना आती गई। यह नई उभरती चेतना उग्रता व हिंसा की ओर आसानी से मुड़ सकती या मोड़ी जा सकती थी, लेकिन डॉ० अंबेडकर ने बेहद सजग तरीके से उसे अहिंसक बनाए रखा, साथ ही नमनीय भी नहीं होने दिया। इसे समझने के लिए महाड़ सत्याग्रह का उदाहरण लिया जा सकता है।
समाज ने दलितों को सभी बुनियादी सुविधाओं और अधिकारों से वंचित कर रखा था। औपनिवेशिक शासन के दौरान इसमें थोड़ी तब्दीली आई। दलितों को सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश मिलने लगा। लेकिन, प्रतीकात्मक रूप में ही। एस० के० बोले नामक एक सदस्य ने बंबई असेंबली में 4 अगस्त 1923 ई० को एक प्रस्ताव पेश किया था जिसे असेंबली ने पास भी किया। इस प्रस्ताव के अनुसार पेय जल के स्रोतों कुएं, तालाब, नदी के साथ स्कूलों, अस्पतालों, कचहरियों में अछूतों के प्रवेश पर कोई प्रतिबंध नहीं रहेगा। इस प्रस्ताव के बाद महाड़ की नगरपालिका ने एक प्रस्ताव पास करके घोषित किया कि महाड़ का चवदार तालाब सार्वजनिक है और इसका पानी अस्पृश्यों सहित सभी जन के उपयोग के लिए है। डॉ० अंबेडकर ने इस कागजी अधिकार के अमली परीक्षण के लिए 19 मार्च 1927 ई० का दिन मुकर्रर किया। महाड़ परिषद में शामिल होने के लिए गांव-देहातों से करीब पांच हजार लोग इकट्ठे हुए। परिषद में भाषण देते हुए बाबा साहेब ने आह्वान किया कि अस्पृश्य (1) मृत जीवों का मांस खाना बंद करे (2) जूठे भोजन को न स्वीकारें तथा (3) ऊंच-नीच की भावना मन से निकालकर उच्च वर्ग का रहन-सहन अपनाएं। जुलूस की शक्ल में परिषद ने चवदार तालाब पहुंचकर पानी पिया और अपना हक जताया। यह गैर दलितों को स्वीकार न हुआ। प्रचार किया गया कि धर्म संकट में है। दबंगों के एक गिरोह ने परिषद पर धावा बोल दिया और भोजन कर रहे लोगों को पीट डाला। बहुत से अछूत वहीं बेहोश हो गए। दबंगों ने गांव में भी धावा बोला और जो भी कार्यकर्ता दिखा उसकी पिटाई कर दी। इस मारपीट की खबर पाते ही सदस्यों का खून खौल उठा। इनकी संख्या भी कम नहीं थी। तब तक दस हजार लोग इकट्ठे हो चुके थे। प्रतिघात की बातें होने लगीं। डॉ० अंबेडकर ने बेहोश तथा घायल लोगों को अस्पताल भिजवाया तथा अपने कार्यकर्ताओं को गंभीर वाणी में समझाया, इस समय आपे से बाहर मत होइए। अपने हाथ मत उठने दीजिए। अपने गुस्से को पी जाइए, मन शांत रखिए। हमें प्रतिघात नहीं करना है। हमें उनके वारों को सहन करना होगा और इन सनातनियों को अहिंसा की शक्ति के दर्शन कराने होंगे।
हिंसा के समक्ष न झुकते हुए भी अंबेडकर ने अपने साथियों, कार्यकर्ताओं को प्रतिहिंसक होने से बचाया। उधर ब्राह्मणों ने महाड़ के विष्णु मंदिर में सभा की और चवदार तालाब से 108 गागर पानी निकालकर, उसमें गोबर, गोमूत्र, दूध, दही मिलाकर उसे पुनः तालाब में डाला और इस तरह जल का शुद्धीकरण किया। लेकिन, बात वहीं नहीं रूकी। अछूतों पर गांव-गांव में हमले किए गए और उनका बहिष्कार किया गया। बहिष्कृत का बहिष्कार! डॉ० अंबेडकर ने बहिष्कृत भारत नामक पाक्षिक-पत्र निकाला। इसका पहला अंक 3 अप्रैल 1927 ई० को निकाला। यह पत्र 15 नवंबर 1929 ई० तक प्रकाशित होता रहा।
डॉ० अंबेडकर हिंसा की बहुस्तरीयता और जटिलता के प्रति अत्यंत सावधान थे। उन्होंने हर किस्म की हिंसा रोकनी चाही। उनके आंदोलन में ब्राह्मण भी शामिल थे। यद्यपि पिछड़ी जाति के दो नेताओं-जेधे और जवलकर ने अंबेडकर से मिलकर प्रस्ताव रखा था कि अगर वे ब्राह्मणों को अपने आंदोलन से बाहर कर दें तो सारे अब्राह्मण उनके आंदोलन में शामिल हो जाएंगे। अंबेडकर का जवाब था कि उनका आंदोलन ब्राह्मणवाद के विरुद्ध है और सभी गैर ब्राह्मण ऊंच-नीच का भेद न मानते हों, ऐसा भी नहीं है।
सत्याग्रह का अर्थ समझाते हुए 25 नवबंर 1927 ई० के अंक में अंबेडकर ने लिखा कि जिस कार्य से जन संगठित होते हैं वह सत्कार्य है और उसके लिए जो आग्रह किया जाता है वह सत्याग्रह है। इसलिए सत्याग्रह का अर्थ है सत्कार्य के लिए लोगों को एक साथ लाना। सत्याग्रह सिर्फ अहिंसा का अवलंबन लेकर किया जा सकता है, ऐसा उन्होंने जोर देकर कहा।
4 अगस्त, 1927 ई० को महाड़ नगरपालिका ने नया प्रस्ताव पासकर चवदार तालाब को सार्वजनिक घोषित करने वाले अपने पहले के निर्णय को निरस्त कर दिया। बाबा साहेब ने 25 दिसंबर 1927 ई० को पुनः महाड़ सत्याग्रह किया। इस अवसर पर उन्होंने कहा, अगर हमने चवदार तालाब का पानी नहीं पिया तो हमारी जान के लाले पड़ जाएंगे, ऐसी कोई बात नहीं है। हम तो यह दिखा देना चाहते हैं कि औरों की तरह हम भी इंसान है। उन्होंने यह भी कहा कि दो तत्त्वों पर हिंदू समाज की पुनर्रचना करनी चाहिए। वे हैं, समता और जातिविहीन समाज रचना। 26 दिसंबर को उन्होंने सत्याग्रहियों को समझाया कि सब लोग शांति से सत्याग्रह करेंगे और कितना भी कष्ट क्यों न पड़े, क्षमा-याचना करके वापस नहीं लौटेंगे। लेकिन इस बीच सनातनियों द्वारा कोर्ट में केस दायर कर दिया गया था। जिला मजिस्ट्रेट के समझाने पर अंबेडकर ने सत्याग्रह स्थगित कर दिया।
28 दिसंबर 1929 ई० को धारवाड़ में बहिष्कृत समाज की पहली परिषद को संबोधित करते हुए उन्होंने राजनैतिक ताकत हासिल करने पर जोर दिया और अंग्रेजी हुकूमत के प्रति अपना अविश्वास जताया। उनका आह्वान था, हम सबको स्वराज्यवादी होना चाहिए। लेकिन उन्होंने यह भी जोड़ा कि, पहले हमें स्वराज्य के योग्य बनना चाहिए। इस कथन का आशय था हम पहले आंतरिक हिंसा समाप्त करें, उसके बाद औपनिवेशिक हिंसा का मिलकर मुकाबला करें। 8 अगस्त 1930 ई० को अखिल भारतीय बहिष्कृत परिषद के नागपुर अधिवशेन को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि भारत को आजादी मिलनी ही चाहिए, उसे टाला नहीं जा सकता।
डॉ० अंबेडकर ने हिंसा की अवस्थिति व अवधारणा का कभी सरलीकरण नहीं किया। अहिंसा स्थापन के लिए उन्होंने हमेशा मानवाधिकारों का प्रश्न उठाया। बुनियादी अधिकारों के अभाव में हिंसा को कदापि रोका नहीं जा सकता, ऐसा उनका दृढ़ विश्वास था। उनकी भविष्यदृष्टि में हिंसा की अनुपस्थिति को संभव बनाने वाले कारकों का उपयुक्त समायोजन था। जनतंत्र पर अत्यधिक जोर देने और साधारण जनता को अधिकार संपन्न बनाने की पुरजोर वकालत करने की यही वजह थी। जिन दिनों मताधिकार पर बहस चल रही थी, उसमें हस्तक्षेप करते हुए डॉ० अंबेडकर ने सार्वभौमिक मताधिकार का समर्थन किया तथा शिक्षा व संपन्नता को आवश्यक शर्त मानने से इनकार किया। समता, स्वतंत्रता और भाईचारे को नए समाज की बुनियाद बताते हुए उन्होंने लोगों को सावधान किया कि ये मूल्य स्वयमेव नहीं मिल सकेंगे। इसके लिए निरंतर चौकन्ना रहना होगा और अवसर आने पर संघर्ष भी करना होगा। मई 1938 ई० में दक्षिण कोंकण पंचमहल अस्पृश्य परिषद को संबोधित करते हुए उन्होंने चेताया था, अंग्रेज तो देश छोड़ जाएंगे मगर तुम्हें पूंजीपतियों और पुरोहितों का सामना करना है। अन्यत्र भी उन्होंने दो दुश्मनों की शिनाख्त की पूंजीवाद और ब्राह्मणवाद। इन दोनों का अस्तित्व हिंसा पर ही निर्भर है। प्रतिरोध को इसीलिए उन्होंने अहिंसा के लिए अपरिहार्य माना। हिंदू धर्म छोड़कर जब डॉ० अंबेडकर ने दूसरा धर्म स्वीकारने का निर्णय किया तो उन्होंने इससे संबंधित चार दलीलें पेश की : (1) समाज को नीति चाहिए (2) धर्म उपयोगी, व्यवहार्य एवं विवेक पर आधारित होना चाहिए। (3) धर्म के नीति-नियम समता, स्वाधीनता तथा बंधुभाव से युक्त हों, तथा (4) धर्म दरिद्रता का उदात्तीकरण न करे। सभी धर्मों पर विचार करके उन्होंने बौद्ध मत चुना क्योंकिबुद्ध की सीख ही रक्तविहीन क्रांति द्वारा साम्यवाद ला सकती है। बुद्ध और कार्ल मार्क्स की तुलना करते हुए उन्होंने कहा, मार्क्स का मार्ग हिंसा का है, तानाशाही का है, इसलिए वह क्षणिक है। बुद्ध का रास्ता अहिंसक और प्रजातंत्रवादी है।
यह अंबेडकर का ही प्रभाव रहा कि परवर्ती दलित आंदोलन अधिक संगठित व व्यापक रूप में आगे बढ़ा। दलित समुदाय पर निरंतर हमलों के बावजूद उसने प्रतिहिंसा का रास्ता नहीं अख्तियार किया। तमाम अंबेडकरवादी कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों, संगठनों को हम प्रतिरोधी अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए देख सकते हैं। डॉ० अंबेडकर की विरासत का यह मूल्यवान पहलू है।
-बजरंगबिहारी तिवारी
अद्ल (न्याय) : इस्लाम में न्याय की अवधारणा पर बात करने से पहले उचित होगा कि सबसे पहले न्याय के अर्थ व भाव का निर्धारण कर लिया जाए और यह जान लिया जाए कि इस्लामी शब्दावली में न्याय किन अथरें में इस्तेमाल होता है ताकि इस्लाम की न्याय की अवधारणा समझने में आसानी हो।
अद्ल अरबी भाषा का शब्द है और उसका मूल शाब्दिक अर्थ समानता और बराबरी है। कुरआन में है-वह अपने पालनहार के बराबर ठहराते हैं अर्थात शिर्क करते हैं (अनआम-150) दूसरी जगह है, या उसके बराबर या उसके बदले रोजे रखना है (माइदा-95) इसका एक और अर्थ इंसाफ करना है। अंग्रेजी में इसका एक वैकल्पिक शब्द जस्टिस है और न्यायपूर्ण रवैए के लिए इस्तेमाल होता है (आक्सफोर्ड डिक्शनरी इंगलिश उर्दू)।
अद्ल (न्याय) का शब्द संज्ञा और विशेषण दोनों अथरें में इस्तेमाल होता है, संज्ञा के रूप में न्याय करने के अतिरिक्त यह अल्लाह का नाम भी है जो न्याय करता है और न्यायप्रिय है। विशेषण के रूप में अद्ल (न्याय) का शब्द न्यायशीलता के अर्थो में इस्तेमाल होता है। (नुरुल्लुगात तीसरा भाग 546) इसी प्रकार अद्ल का अर्थ न्याय व न्यायशीलता के अलावा सीधा, न्यायपूर्ण और संतुलन भी है।
अद्ल (न्याय) के बुनियादी अर्थ को सामने रखते हुए टीकाकारों ने उसकी यह परिभाषा की है-
1. दो विरोधी चरमसीमाओं के बीच ठीक अर्थात समान दूरी पर होना, और इसका विलोम जोर (अन्याय व दमन) है जिसका अर्थ मुड़ जाना है। (मुख़्तारुस्सिहाह, तहत माद्दा अदल, इब्नुलअरबी, पृ० 1161)।
2. अधिकता व न्यूनता के बीच (रहने) का ध्यान रखना और यह चीज (अद्ल) समस्त श्रेष्ठताओं की जड़ है। (अलजौहरी, पृ०166)
3. अर्थात आपसी अधिकारों में ठीक ठीक न्याय और बराबरी का ध्यान रखना और हर हकदार को उसका हक पहुंचाना और अत्याचार न करना। (अलकासमी, 3850)
4. अर्थात सारी सृष्टि के अधिकार बेलाग तरीके से देना। (इब्नुल अरबी, पृ० 1160)
5. सृष्टि में न्याय करना और ऐसे संतुलन के साथ मामला करना जिसमें किसी प्रकार का झुकाव या टेढ़ न हो (तबरी, 114)
6. अद्ल (न्याय) यह है कि न्याय दे भी और न्याय ले भी, अर्थात न किसी पर अत्याचार करे न अपने ऊपर अत्याचार होने दे। (अल-आलूसी, 217)
7. हक को हकदार तक पहुंचना और हर चीज को ठीक उसकी जगह पर रखना और यह (न्याय) जमीन में मानो अल्लाह की तुला है। (फिकरी, 134)
इस्लामी शब्दावली में अद्ल (न्याय) या अदालत (न्यायालय) से वह भाव या परिस्थिति तात्पर्य है जिसमें एक मनुष्य के अंदर हर हाल में भलाई का तत्त्व हावी रहता है और वह इस्लामी नैतिकता व शरीअत की सामान्यता पाबंदी करता है। प्रसिद्ध मुस्लिम विचारक अलमावरदी के अनुसार अद्ल (न्याय) अर्थात अदालत को नैतिक व धार्मिक पराकाष्ठा की एक अवस्था बताया गया है। एक दूसरे मुस्लिम दार्शनिक और बुद्धिजीवी इब्ने रुश्द की नजर में अद्ल (न्याय) की शर्त यह है कि मनुष्य बड़े गुनाहों को न करता हो और छोटे गुनाहों से भी बचा रहे। लेकिन क्योंकि इस प्रकार के अद्ल (न्याय) की हालत अपवाद की स्थिति में केवल औलिया अल्लाह के अंदर ही पाई जा सकती है, इसलिए कुछ दूसरे लोगों के निकट अदालत से मनुष्य की केवल वह हालत तात्पर्य है जिसमें कि वह पूरी तरह नैतिक और शरअी आदेशों की पाबंदी करने वाला हो। अद्ल (न्याय) की यही वह मूल अवधारणा है जिसे अंततः इस्लाम में न्याय की अवधारणा के रूप में स्वीकार कर लिया गया।
उन्नीसवी सदी के मध्य में उस्मानी सल्तनत में इस्लामी कानून का जो संकलन हुआ उसमें अद्ल व आदिल की परिभाषा इस प्रकार की गयी हैः अद्ल या आदिल वह है जिसमें भलाई के पहलू बुराई के पहलुओं पर हावी हुए हों।
अतः इस्लामी परिभाषा के रूप में अद्ल (न्याय) या आदिल का मतलब यह बयान किया जा सकता है कि आदिल उस व्यक्ति को कहते हैं जिसके अंदर भलाई का पहलू अधिक हो और जो अनिवार्य रूप से इस्लाम के बताए हुए भावार्थ के अनुसार अच्छे आचरण वाला हो।
इस्लाम की बुनियादी किताब कुरआन मजीद में अद्ल (न्याय) का शब्द अनेक स्थानों पर इस्तेमाल हुआ है, जिसका कुल मिला कर यह मतलब निकल कर सामने आता है कि अल्लाह का हर कार्य न्याय पर आधारित है। कायनात की व्यवस्था से लेकर मानव-समाज और शरीर तक हर चीज में उसके न्याय की विशेषता के दर्शन होते हैं। अल्लाह आदिल है, अद्ल (न्याय) को पसंद करता है और मनुष्यों के बीच अद्ल यानी न्याय करने का आदेश देता है। कुरआन की सोलहवीं सूरह नहल की आयत 90 में अल्लाह ने मानव समाज के सुधार के लिए जिन मूल चीजों का आदेश दिया है उनमें पहली चीज अद्ल (न्याय) है। सूरह नजम की आयत 16 के तहत अद्ल की व्याख्या करते हुए बीसवीं सदी के प्रख्यात इस्लामी विचारक सैयद अबुल आला मौदूदी लिखते हैं-पहली चीज अद्ल (न्याय) है जिसकी अवधारणा दो स्थाई वास्तविकताओं का मिश्रण है। एक यह कि लोगों के बीच अधिकारों में संतुलन स्थापित हो। दूसरे यह कि हरेक को उसका हक बेलाग तरीके से दिया जाए। उर्दू भाषा में इस भावार्थ को इंसाफ शब्द से अभिव्यक्त किया जाता है। मगर यह शब्द भ्रम पैदा करने वाला है। इससे व्यर्थ में यह अवधारणा पैदा होती है कि दो लोगों के बीच अधिकारों का विभाजन आधे-आधे की बुनियाद पर हो और फिर इसी से अद्ल (न्याय) का अर्थ समान अधिकारों का विभाजन समझ लिया गया है जो प्रकृति के पूरी तरह खिलाफ है। असल में न्याय जिस चीज की मांग करता है वह संतुलन है न कि समानता। कुछ स्थितियों से तो न्याय निःसंदेह समाज में मौजूद लोगों के बीच समानता चाहता है जैसे नागरिक अधिकारों में, मगर कुछ दूसरी स्थितियों में समानता पूरी तरह न्याय के विरुद्ध है जैसे मां-बाप और संतान के बीच सामाजिक व नैतिक समानता और उच्च दर्जे की सेवाएं करने वालों और निम्न स्तर की सेवा करने वालों के बीच वेतन की समानता। अल्लाह तआला ने जिस चीज का आदेश दिया है वह अधिकारों में समानता नहीं बल्कि संतुलन है और इस आदेश का तकाजा है कि हर व्यक्ति को उसके नैतिक, सामाजिक, आर्थिक, कानूनी और राजनीतिक व सांस्कृतिक अधिकार पूरी ईमानदारी के साथ दिए जाएं। (तफहीमुल कुरआन भाग-2-565)
एक और विद्वान अद्ल (न्याय) के बारे में बात करते हुए लिखते हैं-आदेशों व कष्टों (शरअी आदेशों) में भी यही बीच की राह वाला उसूल नजर आता है, आत्मा और शरीर में से किसी की जरूरतों की अवहेलना नहीं की गई बल्कि हर मामले में न्याय के लिए बीच की राह को ध्यान में रखा गया है। इस्लाम में सांसारिक इच्छाओं और शारीरिक वासनाओं में डूब जाने से रोका गया है, मगर संसार को पूरी तरह त्याग देने (संन्यास) का आदेश भी नहीं दिया गया। अर्थव्यवस्था में फिज़ूलखर्ची और कंजूसी के बीच संतुलित रास्ता अपनाने का हुक्म दिया गया है। (प्रौ० हाफिज अहमदयार, हिक्मते कुरआन, लाहौर, जुलाई- सितंबर 2009, पृ० 9)
न्याय के बारे में इस्लाम की उपरोक्त अवधारणा की व्याख्या से यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि इस्लाम मानव समाज में संतुलन को पसंद करता है। वह एक ऐसे मानव समाज का निर्माण करना चाहता है, जिसमें हर व्यक्ति और वस्तु को उसका उचित और ठीक-ठीक स्थान प्राप्त हो। यही कारण है कि जब क़ुरआन मजीद में पैगम्बरे इस्लाम हजरत मुहम्मद सल्ल० की जिम्मेदारियों को व्यक्त किया गया तो स्पष्ट रूप से बताया गया-और मुझे आदेश दिया गया है कि मैं तुम्हारे बीच न्याय करूं। (शूरा - 15)
इसकी व्याख्या में टीकाकारों ने तीन बातें कही हैं-एक यह कि नबी हर प्रकार की गुटबंदियों से ऊपर उठकर बेलाग इंसाफपसंदी पर होते हैं। उनका संबंध सारे मनुष्यों के साथ समान है और वह संबंध है न्याय का। नबी सत्य के साथी हैं चाहे वह गैर ही क्यों न हो और असत्य वालों के विरोधी हैं चाहे उसका संबंध निकटतम संबंधी से हो।
दूसरे यह कि नबी सत्य को प्रस्तुत करने में किसी के साथ भेदभाव न करें। उनके निकट सब समान हैं। जो सत्य है वह सबके लिए ठीक है और जो असत्य है वह सबके लिए गुनाह है। जो हराम है वह सबके लिए हराम है और जो अपराध है वह सबके लिए अपराध है, यहां तक कि इस दो टूक नियम-कायदे में नबी का अपना व्यक्तित्व भी अपवाद नहीं है।
तीसरे यह कि नबी का काम दुनिया में अद्ल (न्याय) स्थापित करना है। उन्हें दुनिया से असंतुलन और अन्याय को समाप्त करने के लिए इस दुनिया में भेजा गया है।
कुरआन में एक अन्य स्थान पर अल्लाह ने मनुष्यों को एकेश्वरवाद के साथ जिस चीज की शिक्षा दी है वह अद्ल (न्याय) है और इसके लिए मीजान और किस्त के शब्द इस्तेमाल किए गए हैं। (देखें सूरह रहमान की आयतें 8 व 9)
इन आयतों में अल्लाह ने कायनात की व्यवस्था में न्याय व संतुलन का उल्लेख करते हुए लोगों को बताया है कि तुम जिस कायनात में रहते हो, वह एक अच्छी-भली व संतुलित कायनात है। कायनात की एक-एक वस्तु की बनावट से लेकर मानव जीवन के संसाधनों तक हर हर चीज में संतुलन पाया जाता है, अतः अल्लाह अपनी सृष्टि अर्थात मनुष्यों से भी मांग करता है कि यदि वे चाहते हैं कि समाज शांति का घर बने तो उसमें न्याय द्वारा संतुलन स्थापित करें क्योंकि यदि कोई किसी का हक मारता है तो मानो वह प्रकृति से विद्रोह करता है- यहां तक कि बड़े बड़े अत्याचार तो दूर रहे यदि कोई माप-तोल के अंदर मामूली डंडी भी मारता है तो मानो वह कायनात की व्यवस्था से विद्रोह करता है और इस संसार की व्यवस्था में बाधा डालने का प्रयास करता है। कुरआन मजीद के अनुसार शुऐब की कौम (मदयन) केवल इसी वजह से विनष्ट कर दी गई कि वह माप-तौल में बेइमानी करती थी।
- प्रो० अख्तरुल वासे
अनासक्ति : महात्मा गांधी को, सामान्यतः, अहिंसा का पुजारी कहा जाता है और वह गलत भी नहीं है क्योंकि वह एक ओर सत्य और अहिंसा को एक ही सिक्के के दो पहलू कहते हैं और, दूसरी ओर, सत्य को ईश्वर। इसका स्पष्ट तात्पर्य है कि गांधी-विचार में अहिंसा ईश्वर का ही एक व्यावहारिक या साधनात्मक आयाम है। गांधीजी के अनुसार ईश्वर को ईश्वर के नियम से विलग नहीं किया जा सकता, जिसका मतलब यही निकलता है कि अहिंसा ईश्वर का नियम होने के नाते उसी का एक रूप है। लेकिन, महात्मा गांधी अहिंसा को भी अनासक्ति के अंतर्गत वर्गीकृत करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता की अपनी टीका को भी वह अनासक्ति योग नाम देते तथा अनासक्ति को ही गीता की केंद्रीय शिक्षा मानते हैं। अनासक्ति की अवधारणा उन्हें गीता के अपने प्रथम परिचय से ही प्रभावित करती रही। यह उल्लेखनीय है कि गांधीजी का गीता से प्रथम परिचय भारत में नहीं बल्कि इंग्लैंड में हुआ, जब दो थियोसोफीवादी भाइयों ने उनके साथ बैठकर एडविन आर्नोल्ड कृत गीता का अंग्रेजी अनुवाद मूल संस्कृत से मिलाकर पढ़ने में उनकी सहायता चाही। महात्मा गांधी ने लिखा है कि गीता के इस प्रथम पाठ में ही दूसरे अध्याय के उन श्लोकों ने उन्हें सर्वाधिक प्रभावित किया-जिसे उनके शेष जीवन की साधना कहा जा सकता है-कि विषयों का ध्यान करने से उनके प्रति आकर्षण बढ़ता है, आकर्षण से कामना उत्पन्न होती है तथा कामना से क्रोध, क्रोध से मूढ़ता, मूढ़ता से स्मृतिभ्रंश और स्मृतिभ्रंश का तात्पर्य सब कुछ का नष्ट हो जाना है। महात्मा गांधी गीता के इस दूसरे अध्याय को संपूर्ण गीता का सार तथा पूरी गीता को इस अध्याय की व्याख्या और इसीलिए अनासक्ति को गीता का सार मानते हैं। वह अनासक्ति की इस अवधारणा के समर्थन में ईशोपनिषद् के मंत्रईशावास्यमिदं यत्किंच जगत्यां जगत। तेनत्यक्तेन भुंजीथा। मा गृधः कस्यस्विद्धनम्। महात्मा गांधी इस तेनत्यक्तेन भुंजीथा अर्थात् त्यागपूर्वक भोग को ही अनासक्ति का मूलमंत्र मानते हैं तथा मंत्र के अंतिम भाग मा गृधः कस्यस्विद्धनम् अर्थात् अन्य की संपत्ति के प्रति लालच न रखने को अनासक्ति का प्रमाण।
गांधीजी अहिंसा को अनासक्ति में समाहित मानते हैं क्योंकि अनासक्ति के लिए अहिंसा अनिवार्य शर्त है, वह उसमें निहित है, उससे ऊपर नहीं जाती। गांधीजी के लिए अनासक्त का अर्थ अहंमुक्त होना है और जो अहंमुक्त है, वह हिंसक हो ही नहीं सकता। अहंमुक्त होने के लिए अहिंसा की साधना करनी ही पड़ती है। महात्मा गांधी का यह कथन भी उल्लेखनीय है कि उनके लिए गीता केवल वैदिक परंपरा के शास्त्रों को समझने की कुंजी ही नहीं है, बल्कि वह विश्व के सभी ग्रंथों को गीता की दृष्टि से ही समझते हैं और यदि गीता का केंद्रीय भाव अनासक्ति है तो कहा जा सकता है कि महात्मा गांधी के लिए अनासक्ति सभी धार्मिक परंपराओं का केंद्रीय भाव है।
द्रष्टव्य : गीता।
- नंदकिशोर आचार्य
अनुकंपा : जैन दर्शन में अनुकंपा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। अनुकंपा शब्द अनु और कंपा इन दो शब्दों से बना है। अभिधान राजेंद्र कोष में अनुकंपा शब्द की व्याख्या है-अनुरूपं कंपते चेष्टते इति अनुकंपा अर्थात् पर-पीड़ा से हृदय कंपित होना, पर-पीड़ा का स्व-संवेदन अनुकंपा है। निशीथचूर्णि १३०, औपपातिक सूत्र निर्युक्ति, सूत्रकृतांग (2.(6) 25), उत्तराध्ययन सूत्र (13.32), तत्त्वार्थ वार्तिक (1.2.30), उपासकाध्ययन (2.34), तत्त्वार्थसूत्र (1.2 वृत्ति श्रुतसागरसूरि) आदि जैन-ग्रंथों में अनुकंपा को धर्म का लक्षण एवं मूल कहा गया है।
पंचास्तिकाय (137) में कहा गया है कि प्यासे, भूखे अथवा दुःखी को देखकर जो मनुष्य स्वयं व्यथित होता हुआ उसके प्रति दया का व्यवहार करता है, वह उसकी अनुकंपा है।
अनुकंपा वहां होती है जहां करुणा होती है। करुणा और अनुकंपा सहचारी हैं। दूसरों का दुःख दूर हो यह भाव करुणाभाव है। करुणा के साथ संवेदनशीलता का घनिष्ठ संबंध है।
संवेदन गुण ही चेतना का प्रतीक है। प्राणी का जितना-जितना विकास होता जाता है, संवेदनशक्ति उतनी ही बढ़ती जाती है। इस संवेदनशक्ति का अधिक विकास होने पर प्राणी अपने से भिन्न व्यक्तियों में होनेवाली संवेदना या वेदना का स्वयं भी संवेदन करने लगता है। जिससे दूसरों को होनेवाले दुःख से वह करुणित व अनुकंपित होने लगता है। उनकी वेदना को वह स्वयं संवेदन के रूप में अनुभव करता है और उस वेदना या दुःख को मिटाने का प्रयास करता है। पर-पीड़ा का संवेदन अनुकंपा है। पर-पीड़ा से करुणित व्यक्ति अपने दुःख से ऊपर उठ जाता है और अपने सामर्थ्य का उपयोग दूसरों की सेवा में करता है। करुणा जितने ऊंचे स्तर की होगी, जितनी गहरी होगी, उतनी ही विभु होगी तथा उतनी ही ऊंचे स्तर की चेतना होगी, गहरी होगी व विभु होगी।
जो साधक पर-पीड़ा से संवेदनशील होते हैं, वे सहज ही अपने सामर्थ्य व शक्ति का उपयोग प्राणिमात्र का दुःख दूर करने में करते हैं। करुणावान् व्यक्ति को सभी अपने लगते हैं, वह व्यक्ति भी सभी को अपना लगता है। यह आत्मीयभाव माधुर्य को प्रकट करता है। उसका माधुर्य, आत्मीयभाव सब प्राणियों के प्रति सदैव बना रहता है।
अनुकंपा का उद्गम-स्थल अन्तःकरण है। दूसरे के अन्तः करण के अनुभव को अपनी अनुभूति बना लेना सहानुभूति है। जिस समय सहानुभूति या करुणाभाव होता है उस समय राग की, काम-वासना की लहरें उठना कम हो जाती हैं, मस्तिष्क का तनाव घट जाता है, अंतःप्रवेश होता है, वृत्ति अंतर्मुखी हो जाती है।
अनुकंपा का प्रारंभ निकटवर्ती विकसित प्राणियों के प्रति उत्पन्न सहानुभूति से होता है। हम अपने निकटस्थ व परिचित व्यक्तियों के अंतःकरण (हृदय) की दशा से परिचित होते हैं, अतः, उन पर करुणा आती है। जिससे हमारा संबंध व परिचय नहीं है, उनके हृदय की दशा से हम अपरिचित होते हैं, अतः, उन पर करुणा नहीं आती है। जैसे-जैसे आत्मीयता का विकास होता जाता है, करुणा का क्षेत्र बढ़ता जाता है। फिर क्रमशः मनुष्य मात्र से, पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि हिलते-चलते जीवों पर, वनस्पति आदि स्थावर जीवों पर भी करुणा आने लगती है और अंत में प्राणिमात्र के प्रति करुणा का भाव जागृत हो जाता है।
अनुकंपा और मोह में रात-दिन का अंतर है। मोह में दूसरों से सुख पाने की इच्छा होती है। अनुकंपा में दूसरों के दुःख से द्रवित होकर निजी सुख-सामग्री को समर्पित करने की भावना होती है। करुणा सब दुःखियों के प्रति समान होती है। उसमें जाति-पांति, धनी-निर्धन, छोटा-बड़ा, स्वजन-परजन, अपनापन-परायापन का भेद नहीं होता है।
अनुकंपा आत्म-विकास की ही प्रतीक है। अनुकंपावान् दूसरों के लिए अपनी वस्तुओं का, तन-मन के सुखों का त्याग करता है, भोगी दूसरों से वस्तुओं व तन-मन के सुखों को पाने के लिए लालायित रहता है। वह रात-दिन इनकी भिक्षा मांगता रहता है। अतः भिखारी होता है। सेवक दाता है, वह सतत् प्रसन्नता वितीर्ण करता रहता है।
अनुकंपा सम्यग्दर्शन का लक्षण है। अनुकंपाहीन व्यक्ति सम्यग्दृष्टि नहीं होता। सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक्चारित्र एवं मोक्ष-प्राप्ति नहीं हो सकती। साधक वह ही हो सकता है, जो सम्यग्दृष्टि है। सम्यग्दृष्टि वही है, जिसके हृदय में अनुकंपा है-तत्त्वार्थ सूत्र (अ० 1 सूत्र 1)। सभाष्य तत्त्वार्थधिगम सूत्र (1, 2) में कहा है कि तत्त्वों पर श्रद्धा करना सम्यग्दर्शन है। इस सम्यग्दर्शन के प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिक्य की
अभिव्यक्ति लक्षण हैं। प्रशम संवेगानुकंपा-स्तिक्याभिव्यक्ति लक्षणं सम्यक्त्वं। (वीरसेनाचार्य षट्खंडागम 1/1,1,4 धवला टीका) प्रशम, संवेग, अनुकंपा और आस्तिक्य की अभिव्यक्ति सम्यक्त्व का लक्षण है। करुणाए जीव- सहावस्स कम्मजणिदत्त विरोहादो। धवला टीका (पुस्तक 13 पृष्ठ 362) में करुणा को जीव का स्वभाव कहा है, अतः इसे कर्मजनित मानने में विरोध आता है। तत्त्वार्थ सूत्र (7-6) में बताया है कि अनुकंपा का भावात्मक रूप मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भाव है, अतः सभी प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव, गुणियों के प्रति प्रमोद भाव, दुःखियों के प्रति करुणाभाव तथा अविनीतों के प्रति माध्यस्थ भाव रखना चाहिए।
मेत्ता (मैत्री), करुणा, मुदिता, उपेक्षा इन चार भावनाओं को बौद्धधर्म में ब्रह्म-विहार कहा है। विभंग 642, विशुद्धिमग्ग परिच्छेद 9। पातंजल योग सूत्र में इन्हीं चार भावनाओं को समाधि का साधन कहा है। (पाद 1.33)।
जो तुम अपने लिए चाहते हो और जो अपने लिए नहीं चाहते हो, उसी प्रकार दूसरे के लिए भी चाहो। इतना ही जिनशासन है, तीर्थंकरों का उपदेश है। दूसरों को अपने स्वरूप समझना ही आत्मीयता है। आत्मीयता ही मानवता है। पर-पीड़ा से हृदय द्रवित होना दया है, करुणा है। दूसरों की अनुभूति को स्व-अनुभव करना ही स्वानुभूति व सहानुभूति है, सहृदयता है, सुहृदता है, मित्रता है। अतः अनुकंपा व मानवता के दया, सेवा, करुणा, आत्मीयता, सहृदयता, सृहृदता, मित्रता भावात्मक रूप हैं। परपीड़ा व दुःख को दूर करने के लिए निःस्वार्थ भाव से तन, मन, धन आदि से सहायता करने, सहयोग देने को ही कृपा, सेवा, परोपकार, अनुग्रह, दया, दान कहा गया है। ये अनुकंपा के क्रियात्मक रूप हैं। आत्मीयता में परायेपन का भाव नहीं रहता। सर्वात्मभाव में कोई भी जीव पराया नहीं रहता। अतः, प्राणिमात्र के प्रति सहायता का भाव होता है। वस्तुतः सक्रिय सहायता ही सेवा है। सेवा में सर्वहितकारी भाव होता है। यही मैत्रीभाव है।
सेवा वही कर सकता है, जिसका हृदय पराये दुःख से द्रवीभूत होता है। अतः सेवक अपना सुख देकर पराया दुःख अपनाने को सदैव तैयार रहता है। पराया दुःख अपना हो जाने पर प्राणी का अपना दुःख मिट जाता है। कारण कि पर-दुःख से दुःखी होने पर हृदय के द्रवीभूत होने से मैत्रीभाव की, प्रेम रस की निष्पत्ति होती है। यह रस दुःखरहित होता है। अतः, इस रस की तुलना किसी भी सांसारिक भोग के सुख से नहीं की जा सकती, क्योंकि प्रेम का रस क्षति, पूर्ति, तृप्ति एवं निवृत्ति से रहित अगाध व अनंत होता है, यह सदा नित-नूतन रहता है और उमड़ता रहता है, जबकि विषयभोग, सम्मान, संपत्ति, सत्ता आदि से मिलने वाला सांसारिक सुख, आकुलता, पराधीनता, जड़ता, हृदयहीनता आदि अगणित दोषों व दुःखों से युक्त होता है। यह क्षणिक होता है, प्रतिक्षण क्षीण होता है, इसका अंत नीरसता में होता है। यह सुख प्रतीत होता है, किंतु इसका अस्तित्व नहीं होता है। आशय यह है कि सेवाभाव की परिणति प्रेम रस में होती है। यही सच्चा सुख है, दुःखरहित सुख है।
प्रतिफल की चाह किये बिना दूसरों के हित के लिए कार्य करना या सहयोग देना ही सेवा है। सहयोग देने में प्रतिफल पाने की भावना जितनी कम होगी, वह सेवा उतनी अधिक शुद्ध व उच्चस्तर की होगी।
सेवा का महत्व बताते हुए स्थानांग सूत्र, (अष्टम् स्थान) में कहा है-कि अनाश्रित एवं असहायजनों को सहयोग एवं आश्रय देने में तत्पर रहो। अशिक्षितों को शिक्षित करने में तत्पर रहो। रोगी की सेवा में प्रसन्न-भाव से सदैव तत्पर रहो। यदि अपने सहधर्मी साथियों में किसी कारण मतभेद, कलह, विग्रह आदि खड़ा हो गया हो, तो उसे शांत कर परस्पर सद्भाव बढ़ाने में सदा तत्पर रहो।
इस संदर्भ में आवश्यक सूत्र में वर्णित भगवान महावीर और गौतम गणधर का संवाद उल्लेखनीय है-भगवन् ! जो रोगी-दुःखी की सेवा करता है वह धन्य है अथवा आपकी सेवा करता है वह धन्य है ?
गौतम ! जो रोगी - पीड़ित की सेवा करता है वह धन्य है।
भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं।
गौतम ! जो रोगी - दुःखी की सेवा करता है , वह मेरी सेवा करता है। जो मेरी सेवा करता है वह रोगी - दुःखी की सेवा करता है। यही अरिहंतों की आज्ञा पालन का सार है। इसलिए हे गौतम ! मैं कहता हूं कि जो दुःखी की सेवा करता है वह मेरी सेवा / उपासना करता है। जो मेरी सेवा करता है वह रोगी - दुःखी की सेवा करता है। अतः सेवाकारक धन्य है।
जैनधर्म में स्थानांग सूत्र स्थान नौ में सेवा के नौ प्रकार बताये हैं, यथा-दुःख से पीड़ित को (1) अन्न (2) जल (3)वस्त्र (4) पात्र (5) विश्राम देना (6) मन से दूसरे का भला चिंतन करना (7) मुख से मधुर वचन बोलकर शांति देना 8. काया से शुश्रूषा करना और 9. नम्रता का व्यवहार करना, अहंभाव का त्याग करना। इनमें से प्रथम पांच प्रकार की सेवा का संबंध वस्तुओं से है, अतः यह सेवा सीमित होती है। परंतु अंतिम चार का संबंध स्वयं से है, अतः, इनसे सेवा करने में प्रत्येक व्यक्ति स्वाधीन है। सेवा के इन रूपों का महत्त्व भी वस्तुओं के द्वारा की जाने वाली सेवा से कम नहीं है। अतः, मानव का कर्त्तव्य है कि वह अपनी सुविधा के अनुसार सेवा कर अपना व्यावहारिक एवं आध्यात्मिक जीवन उन्नत बनाए।
सेवा आध्यात्मिक दृष्टि से राग-निवारण का और भौतिक दृष्टि से सुंदर समाज के निर्माण का हेतु है। सुंदर समाज के निर्माण में ही, मानव-समाज से संबंधित विश्व की आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक आदि समस्त समस्याओं का समाधान निहित है। समस्याओं का अंत होने से समाज में सुख-शांति का प्रसार एवं वास्तविक उन्नति संभव है। जीवन के उन्नत शिखर पर चढ़ने के लिए सेवा सोपान है। सेवा से जीवन का सर्वांगीण विकास होता है।
अनुकंपा वही कर सकता है जो परदोष दर्शन नहीं करता है। परदोष दर्शन अनुकंपा का घातक है। क्योंकि वैरभाव की उत्पत्ति का मूल है- दूसरे में बुराई या दोष देखना। दूसरों के दोष-दर्शन, उनके द्वारा अपने प्रति किए गए आघात व अपकार स्मरण करने से प्रतिशोध के भाव पैदा होते हैं। परदोष-दर्शन से द्वेष, अपकार और आघात के स्मरण से प्रत्यपकार व प्रत्याघात रूप वैरभाव की ज्वालाएं ज्वलित होती हैं।
अपकारी के प्रति अपकार करना, काटने वाले को काटना पाशविक प्रकृति है, मानवीय नहीं। मानवीय प्रवृत्ति या प्रकृति में तो सहृदयता को ही स्थान है, शत्रुता को नहीं। वह शत्रुता को मित्रता से, अपकार को उपकार से जीता है, कारण कि यह नियम है कि वैर से वैर की, द्वेष से द्वेष की आग घटती नहीं, अपितु बढ़ती ही है और हृदय को दग्ध करती है जो किसी भी ज्ञानी को अभीष्ट नहीं है।
किसी भी व्यक्ति को पापी, दोषी एवं बुरा मानने से उस व्यक्ति के प्रति घृणा का भाव पैदा होता है, जो अनुकंपा का नाशक है। वस्तुतः, घृणा पाप, दोष व बुराई से होनी चाहिए, पापी से नहीं, दोष से होनी चाहिए दोषी से नहीं; बुराई से होनी चाहिये, व्यक्ति से नहीं। पाप का कारण अज्ञान है। अज्ञानी पर क्रोध, रोष व द्वेष करना अज्ञानता का ही परिचायक है। अतः, अज्ञानी जन अनुकम्पा क्षमा या सहायता का ही पात्र होता है, घृणा, द्वेष या रोष का नहीं। इसलिए ज्ञानीजनों का प्रयत्न दोषी को दंड देकर दुःखी करने का न होकर, दोषी के दोष को मिटाकर उसके दुःख मिटाने का होता है। उनके हृदय में किसी भी प्राणी के प्रति रोष, क्षोभ व क्रोध के लेश भी भाव नहीं होते हैं।
द्रष्टव्य : मैत्री।
- कन्हैयालाल लोढ़ा
अनेकांत : एक पर्याय-एक विचार को समग्र मान लेना, निरपेक्ष मान लेना, एकांतवादी दृष्टिकोण है। एक विचार को अपूर्ण और सापेक्ष मान लेना अनेकांतवादी दृष्टिकोण है। सम्यक् दर्शन का विकास अनेकांत दृष्टि के आधार पर हो सकता है। अनेकांत की मौलिक दृष्टियां दो हैं-निरपेक्ष और सापेक्ष। अस्तित्व का निर्धारण करने के लिए निरपेक्ष दृष्टि का प्रयोग करना चाहिए। संबंधों का निर्धारण करने के लिए सापेक्ष दृष्टि का प्रयोग करना चाहिए।
अनेकांत का पहला सूत्र है सापेक्षता। एक जाति को दूसरी जाति से निरपेक्ष मानकर ही परस्पर विरोधी हितों की कल्पना की जा सकती है। एक संप्रदाय को दूसरे संप्रदाय से निरपेक्ष मानकर ही विरोध का ताना-बाना बुना जा सकता है। एक व्यक्ति, एक जाति और एक संप्रदाय, दूसरे व्यक्ति, दूसरी जाति और दूसरे संप्रदाय से सापेक्ष होकर ही जी सकता है, सापेक्ष हितों को सिद्ध कर सकता है।
वर्गभेद और विरोधी हितों के सिद्धांत की सापेक्षता के संदर्भ में समीक्षा करना जरूरी है। सापेक्षता के आधार पर विरोधी हितों में भी समन्वय स्थापित किया जा सकता है। विरोधी हितों की निरपेक्षता के आधार पर मीमांसा की जाए तो उसका फलित होता है संघर्ष, हिंसा और साधनशुद्धि के सिद्धांत का परिहार।
अनेकांत का दूसरा सूत्र है समन्वय। वह भिन्न प्रतीत होने वाले दो वस्तु-धर्मों में एकता की खोज का सिद्धांत है। जो वस्तु धर्म भिन्न हैं, वे सर्वथा भिन्न नहीं हैं। उनमें अभिन्नता भी है, एकांत भी है। उस अभिन्नता के सूत्र को जानकर ही समन्वय स्थापित किया जा सकता है। सृष्टि संतुलन (इकोलॉजी) का सिद्धांत समन्वय का सिद्धांत है, एक पदार्थ से दूसरे पदार्थ के संबंध का सिद्धांत है। मैं अकेला हूं-इस सिद्धांत के आधार पर सृष्टि-संतुलन की स्थापना नहीं की जा सकती। मैं अकेला नहीं हूं, दूसरे का भी अस्तित्व है। हम दोनों में संबंध है। उस संबंध के आधार पर ही हमारी जीवन-यात्रा चलती है। इस संबंध की अवधारणा के आधार पर सृष्टि-संतुलन की व्याख्या की जा सकती है।
सह - अस्तित्व अनेकांत का तीसरा सूत्र है। जिसका अस्तित्व है, उसका प्रतिपक्ष अवश्यंभावी है-यत् सत् तत् सप्रतिपक्षम्। प्रतिपक्ष के बिना नामकरण नहीं होता और लक्षण का निर्धारण भी नहीं होता। चेतन और अचेतन में अत्यंताभाव है। चेतन कभी अचेतन नहीं होता और अचेतन कभी चेतन नहीं होता। फिर भी उनमें सह-अस्तित्व है। शरीर अचेतन है। आत्मा चेतन है। शरीर और आत्मा-दोनों एक साथ रहते हैं।
नित्य और अनित्य, सदृश और विसदृश, भेद और अभेद-ये परस्पर विरोधी हैं, फिर भी इनमें सह-अस्तित्व है। एक वस्तु में ये एक साथ रहते हैं। नित्य अनित्य से सर्वथा वियुक्त नहीं है और अनित्य नित्य से सर्वथा वियुक्त नहीं है।
यह सह-अस्तित्व का सिद्धांत जितना दार्शनिक है, उतना व्यावहारिक है। प्रणाली, रुचि, मान्यता-ये भिन्न-भिन्न होती हैं, इनमें विरोध भी होता है। सह-अस्तित्व का नियम इन सब पर लागू होता है। लोकतंत्र और अधिकनायकवाद, पूंजीवाद और साम्यवाद-ये भिन्न विचार वाली राजनीतिक प्रणालियां हैं। इनमें सह-अस्तित्व हो सकता है।या तू रहेगा या मैं, हम दोनों एक साथ नहीं रह सकते-यह एकांतवाद है। इस धारणा ने समस्या को जटिल बना दिया। एक धार्मिक विचारधारा के लोग यह सोचें-मेरे धर्म की विचारधारा को मानने वाला ही इस दुनिया में रहे, शेष सबको समाप्त कर दिया जाए-इस विचारधारा ने धार्मिक जगत की पवित्रता को नष्ट किया है। अहिंसा, मैत्री, भाईचारा-ये धर्म के प्रमुख अवदान हैं। एकांतवादी दृष्टिकोण ने मैत्री को शत्रुता में, अहिंसा को हिंसा में, भाईचारे को विरोध में बदलने की भूमिका निभाई है।
सह - अस्तित्व का सिद्धांत सहिष्णुता और वैचारिक स्वतंत्रता का मूल्य स्वीकार करता है। यदि हम सबको अपनी रुचि, अपने विचार, अपनी जीवन प्रणाली और अपने सिद्धांत में ही ढालने का प्रयत्न करें तो वैचारिक स्वतंत्रता और सहिष्णुता अर्थहीन हो जाती हैं।
प्रकृति में नानात्व है। नानात्व प्रकृति का सौंदर्य भी है। यदि सब पेड़-पौधे एक जैसे हो जाएं, यदि सब पुष्प एक जैसे हो जाएं तो सौंदर्य की परिभाषा का भी कोई अर्थ नहीं रहता। अनेकता में एकता और एकता में अनेकता का सिद्धांत सत्यं शिवं सुंदरं-तीनों के समन्वय का सिद्धांत है। यह समन्वय ही सह-अस्तित्व की आधार-भूमि बनता है।
दर्शन के क्षेत्र में अद्वैतवाद और द्वैतवाद-दो सिद्धांत प्रचलित हैं। अद्वैत के बिना एकता की और द्वैत के बिना अनेकता की व्याख्या नहीं की जा सकती। अद्वैत और द्वैत-दोनों का समन्वय ही विश्व की व्याख्या का समग्र दृष्टिकोण बनता है। चेतन ओर अचेतन में एकता के सूत्र भी पर्याप्त हैं। उनके आधार पर हम सत्ता (अस्तित्व) तक पहुंच जाते हैं। चेतन और अचेतन में अनेकता के सूत्र भी विद्यमान हैं। इस आधार पर हम सत्ता के विभक्तीकरण तक पहुंच जाते हैं। समन्वय एकता की खोज का सूत्र है, किंतु उसकी पृष्ठभूमि में रही हुई अनेकता का अस्वीकार नहीं है। इसी आधार पर हम व्यक्ति और समाज की समीचीन व्याख्या कर सकते हैं।
हर व्यक्ति में वैयक्तिक और सामुदायिक दोनों प्रकार की चेतना होती है। कुछ विचारक व्यक्ति को अधिक महत्त्व देते हैं और कुछ समाज को अधिक महत्त्व देते हैं। यह समन्वय के सिद्धांत का अतिक्रमण है। वैयक्तिक विशेषताओं को छोड़कर हम व्यक्ति का सही मूल्यांकन नहीं कर सकते। जन्मजात वैयक्तिकता के सात आधार हैं-(1) शरीर रचना, (2) आनुवंशिकता, (3) मानसिक चिंतन की शक्ति, (4) भाव, (5) संवेदन, (6) संवेग, (7) ज्ञान अथवा ग्रहण की क्षमता।
वैयक्तिक विशेषताओं की उपेक्षा कर केवल समाज-रचना की कल्पना करने वाले अपनी कल्पना को साकार नहीं कर पाते। यदि समाजवाद और साम्यवाद के साथ जन्मजात वैयक्तिक विशेषताओं का समीकरण होता तो समाज-रचना को स्वस्थ आधार मिल जाता। समाजीकरण के लिए जिन आधार सूत्रों की आवश्यकता है, वे जन्मजात वैयक्तिक विशेषताओं से जुड़े हुए हैं।
समाज-रचना का एक आधार है-परस्परोपग्रह अथवा परस्परावलंबन। समाज-रचना का दूसरा आधार है-संवेदनशीलता। समाज-रचना का तीसरा आधार है-स्वामित्व की सीमा। समाज-रचना का चौथा आधार है-स्वतंत्रता की सीमा। समाज-रचना का पांचवां आधार है- विकास-भाषा का विकास, बौद्धिक विकास, चिंतन का विकास, शिल्प और कला का विकास।
संग्रह नय अभेदप्रधान दृष्टि है। उसके आधार पर समाज-निर्माण होता है। व्यवहार नय भेदप्रधान दृष्टि है। उसके आधार पर व्यक्ति की वैयक्तिकता सुरक्षित रहती है। व्यक्ति और समाज-दोनों का समन्वय साधकर यदि व्यवस्था, नियम, कानून बनाए जाएं तो उनका अनुपालन सहज और व्यापक होगा।
कहीं व्यक्ति को गौण, समाज को मुख्य तथा कहीं समाज को गौण, व्यक्ति को मुख्य करना आवश्यक होता है। यह गौण और मुख्य का सिद्धांत समीचीन व्यवस्था के लिए बहुत उपयोगी है। भेद को गौण किए बिना समाज नहीं बनता और अभेद को गौण किए बिना व्यक्ति की स्वतंत्रता सुरक्षित नहीं रहती। अनेकांत का यह गौण-मुख्य का सिद्धांत व्यवस्था की सफलता के लिए बहुत उपयोगी है।
तारतम्य मनुष्य की प्रकृति है। रुचि की भिन्नता है। सबके विचार भी समान नहीं हैं। आचार भी सबको एक जैसा नहीं है। अनेक भाषाएं, अनेक संप्रदाय, इस बहुविध अनेकता को एकता के सूत्र में पिरोए रखने का लोकतंत्र का एक सिद्धांत है-मौलिक अधिकारों की समानता। असमानता के आधार पर पृथक्करण की नीति का नहीं, किंतुअसमानता में समानता के सूत्र को खोजने का प्रयत्न है लोकतंत्र।
अनेकता और एकता में सामंजस्य किए बिना लोकतंत्र की प्रतिमा प्रतिष्ठित नहीं हो सकती। इस सामंजस्य की प्रणाली का दार्शनिक आधार है अनेकांत। उसके अनुसार कोई भी वस्तु सर्वथा सदृश नहीं है और कोई भी वस्तु सर्वथा विसदृश नहीं है। एक सामान्य गुण सबके सदृश बनाता है और विशेष गुण उन्हें विसदृश बना रहा है। समानता का एकांतिक आग्रह उपयोगिता को समाप्त कर देता है। उस स्थिति में व्यक्तिगत विशेषताओं का उपयोग नहीं हो पाता। असमानता का ऐकांतिक आग्रह वस्तु की मौलिकता को विनष्ट कर देता है, इसलिए अनेकांत की यह घोषणा रही-वस्तु कथंचित सदृश-किसी अपेक्षा से सब वस्तुएं समान हैं। वस्तु कथंचित विसदृश-किसी अपेक्षा से सब वस्तुएं असमान हैं।
सदृशता के आधार पर एकता को पुष्ट कर सकते हैं। विसदृशता के आधार पर व्यक्ति की विशेषताओं का उपयोग कर सकते हैं। इसलिए समानता और असमानता-दोनों की सीमा का बोध करना जरूरी है। यांत्रिक समानता का आग्रह समाज को योग्य प्रतिभाओं से वंचित कर देता है। असमानता का एकांगी आग्रह समाज की अखंडता को खंडित कर देता है। इसलिए असमानता और समानता में सामंजस्य स्थापित करने का दर्शन विकसित होना चाहिए।
हिंसा बढ़ रही है। उसका सबसे बड़ा कारण है आर्थिक प्रलोभन। आर्थिक प्रलोभन को बढ़ाने का सबसे बड़ा कारण है मिथ्या अवधारणा। आर्थिक, विकास का एकांगी दृष्टिकोण शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति, भावात्मक संतुलन और पर्यावरण विशुद्धि से निरपेक्ष बन गया। यह आर्थिक विकास का एकांतवाद मानवीय मस्तिष्क को यांत्रिक बनाए हुए है। हर मनुष्य के मन में आर्थिक साम्राज्य स्थापित करने की लालसा प्रबल हो उठी है।
अनेकांत की चार प्रमुख दृष्टियां हैं-द्रव्य, क्षेत्र, काल औरभाव। किसी भी वस्तु का मूल्यांकन द्रव्य सापेक्ष, क्षेत्र सापेक्ष, काल सापेक्ष और भाव सापेक्ष होना चाहिए। निरपेक्ष मूल्यांकन अनेक उलझनें पैदा करता है। आर्थिक विकास के लिए शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक शांति, भावनात्मक संतुलन और पर्यावरण विशुद्धि गौण हो जाएं, यह अर्थनीति की विडंबना है।
यदि अर्थनीति के केंद्र में मनुष्य हो और उसका उपयोग आर्थिक साम्राज्य के लिए न किया जाए तो एक संतुलित अर्थनीति की कल्पना की जा सकती है। मनुष्य-निरपेक्ष अर्थनीति की मकड़ी अपने ही जाल में फंसी हुई है। एकांगी या निरपेक्ष दृष्टिकोण द्वारा कभी उसे बाहर नहीं निकाला जा सकता। भगवान महावीर ने उपभोग की सीमा का जो सूत्र दिया था, उसकी विस्मृति आज की बड़ी समस्या है। अनेकांत के आलोक में उसे फिर देखने का प्रयत्न करें।
अर्थ संग्रह के लिए पूरी स्वतंत्रता, उपभोग के लिए भी पूरी स्वतंत्रता-स्वतंत्रता का यह एकांतवाद आर्थिक विषमता और पर्यावरण को दूषित करने का हेतु बन रहा है। गरीबी, पर्यावरण-प्रदूषण, संघर्ष, शस्त्र-निर्माण और युद्ध-ये सब एकांगी आग्रह की निष्पत्तियां हैं। आध्यात्मिक और भौतिक-दोनों दृष्टियों के समन्वय के बिना गरीबी की समस्या को कभी नहीं सुलझाया जा सकता। उपभोग-संयम और भौतिक प्रयत्न दोनों के समन्वय के बिना पर्यावरण की समस्या को भी नहीं सुलझाया जा सकता। आवेग-संतुलन और व्यवस्था-इन दोनों के समन्वय के बिना संघर्ष को नहीं टाला जा सकता। स्वत्व की सीमा के आध्यात्मिक दृष्टिकोण और अनाक्रमण की मनोवृत्ति का विकास किए बिना शस्त्र-निर्माण के संकल्प को निरस्त नहीं किया जा सकता। मानवीय दृष्टिकोण को व्यापक बनाए बिना तथा अहं और लोभ को नियंत्रित किए बिना युद्ध की वृत्ति को समाप्त नहीं किया जा सकता। उक्त विरोधी समस्याओं में समन्वय स्थापित करना सरल नहीं है। इनकी वक्रता को मिटाने के लिए भावात्मक संतुलन और व्यवस्था-इन दोनों का समन्वय आवश्यक है। अनेकांत के द्वारा विरोधी प्रतीत होने वाली घटनाओं में भी समन्वय स्थापित किया जा सकता है। वस्तु जगत में पूर्ण सामंजस्य और सह-अस्तित्व है। विरोधी की कल्पना हमारी बुद्धि ने की है।
अनेकांत की फलश्रुति है - व्यक्ति में अनाग्रह की चेतना पैदा हो। वह घटना का विश्लेषण अनेक कोणों के आधार पर करता है, इसलिए सत्यांशों के समन्वय की दृष्टि निर्मित हो जाती है। इस भाषा के आधार पर हम कह सकते हैं-सत्यांशों को सापेक्ष और समन्वय-दृष्टि से देखने का नाम है अनेकांत।
जैन दर्शन ने प्रत्ययवाद और वस्तुवाद-इन दोनों सत्यांशों की सापेक्ष व्याख्या की है। प्रत्ययवाद और वस्तुवाद एक-दूसरे से निरपेक्ष होकर असत्यांश हो जाते हैं और परस्पर सापेक्ष होकर सत्यांश बन जाते हैं। विश्व का प्रत्येक तत्त्व नित्य और अनित्य-इन दोनों धर्मों की स्वाभाविक समन्विति है। सत्य की खोज चिंतन-मनन और दर्शन से हुई है। उसका विकास सामाजिक संदर्भ में हुआ है। चेतन और अचेतन-दोनों निरपेक्ष सत्य हैं तथा उनसे होने वाले परिवर्तन सापेक्ष सत्य हैं। निरपेक्ष और सापेक्ष-दोनों सत्यों की समन्विति ही वास्तविक सत्य है।
सत्य शाश्वत है। सत्य का अन्वेषण करने वाला उसका प्रवर्तन नहीं करता, व्याख्या करता है। भगवान महावीर सत्य के प्रवर्तक नहीं, किंतु व्याख्याता थे। उन्होंने दीर्घ तपस्या के द्वारा सत्य का साक्षात्कार किया और भाषा की सीमा में उसे अनावृत्त किया। उन्होंने देखा-सत्य का साक्षात्कार किया जा सकता है, उसकी समग्रता का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता। प्रतिपादन सत्यांश का ही किया जा सकता है। ज्ञान अपने लिए होता है और प्रतिपादन दूसरों के लिए। ज्ञान अपने-आप में प्रत्यक्ष होता है। ज्ञेय को जानते समय वह प्रत्यक्ष भी होता है और परोक्ष भी होता है। वह अपने-आप में न प्रमाण होता है और न अप्रमाण। ज्ञेय को जानते समय वह प्रमाण भी होता है और अप्रमाण भी होता है। संशयित और विपर्यस्त ज्ञान अप्रमाण होता है। निर्णयात्मक ज्ञान प्रमाण होता है। ज्ञान-विकास की तरतमता, स्वार्थ और परार्थ, प्रत्यक्ष और परोक्ष, प्रामाण्य और अप्रामाण्य-ज्ञान के इन विविध रूपों ने सत्य को विविध रूपों में विभक्त कर दिया।
सत्य की खोज के मार्ग में जितने प्रश्न, जितनी समस्याएं और जितनी उलझनें हैं, वे सब एकांतवादी लोगों ने उत्पन्न की हैं। एक एकांतवादी व्यक्ति क के सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर ख के सत्यांश को असत्यांश बतलाता है तो दूसरा व्यक्ति ख के सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर क के सत्यांश को असत्यांश बतलाकर सत्य की खोज में प्रश्न पैदा करता है। वे यथार्थ को यथार्थ रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे वचन-प्रामाण्य या शास्त्र-प्रमाण्य से ही सत्य को उपलब्ध करना चाहते हैं। उसके लिए ऋजुता या विचार-शून्यता की साधना करना नहीं चाहते। ऐसे ही लोगों ने सत्यांशों में विरोधाभास दिखाकर सत्य की अनेकरूपता और सत्यदर्शी तपस्वियों की परस्पर विसंवादिता के प्रश्न को उजागर किया है।
- आचार्य महाप्रज्ञ
अपरिग्रह : जैन नीति-मीमांसा में पंच महाव्रतों की अवधारणा के अंतर्गत अपरिग्रह को एक महाव्रत माना गया है, जिसका शाब्दिक अर्थ है असंग्रह अर्थात् आवश्यकता से अधिक वस्तु का संग्रह या स्वामित्व न रखना। यह, दरअस्ल, अहिंसा का आर्थिक आयाम है। इसे स्वामित्वमुक्ति या स्वामित्व -त्याग भी कहा जा सकता है। आवश्यकता से अधिक वस्तुओं या संपदा का संग्रह लोभ-वृत्ति का परिणाम होता है, जो अन्य के आर्थिक जीवन पर आघात के बिना संभव नहीं होता। महावीर के अनुसार दुख पर विजय आसक्ति और कामना पर विजय प्राप्त होने से होती है। इसलिए जैन-सिद्धांत में अपरिग्रह को अहिंसा की साधना के लिए आवश्यक व्रत माना गया है और यह पद मुख्यतः जैन महाव्रत के रूप में ही समझा जाता है। जो मुनियों के लिए महाव्रत है, वह साधारण गृहस्थों के लिए अणुव्रत कहा गया है, अर्थात् सामान्य गृहस्थ से मुनियों जैसे त्याग की तो अपेक्षा नहीं की जाती, लेकिन उनसे भी स्वामित्व भावना तथा संग्रह और उपभोग से संभव सीमा तक मुक्त होने की साधना की उम्मीद की जाती है। गृहस्थ के लिए इसे परिग्रह-परिमाण तथा भोगोपभोग परिमाण के रूप में बताया गया है। परिग्रह को दो रूपों में देखा गया है-द्रव्य-परिग्रह और भाव- परिग्रह। केवल वस्तुओं से बाह्य मुक्ति ही पर्याप्त नहीं है, वस्तुओं के प्रति कामना या इच्छा से भी मुक्ति होने पर ही वास्तविक अपरिग्रह संभव है। इसलिए मानसिक अपरिग्रह वृत्ति तथा बाह्य अपरिग्रह अभ्यास दोनों को आवश्यक माना गया है।
लेकिन, अपरिग्रह की अवधारणा केवल जैन नीति-मीमांसा तक ही सीमित नहीं है। जैनेतर नीति-मीमांसाओं में भी अपरिग्रह की अवधारणा को केंद्रीय माना गया है। उपनिषदों में सत्य और अहिंसा के साथ दान और आत्मत्याग का महत्त्व दर्शाया गया है (छांदोग्य)। ईशोपनिषद कहता है कि हम संसार का सुखानंद तभी प्राप्त कर सकते हैं, जब हम सांसारिक संपदा के विनाशजनक दुख के बोझ से दबे हुए न हों; हम संसार में राजाओं के समान रह सकते हैं, यदि हम लोलुपता की भावना को बिल्कुल ही आश्रय न दें। हमारा सांसारिक सुखानुभव हमारी निर्धनता के साथ सीधा संबंध रखता है। त्याग की पुकार पृथकता के भाव को सर्वथा मिटा देने के अर्थ में है और निरपेक्ष प्रेम सारे धर्म का यथार्थ सार है। बौद्ध दर्शन में तो त्याग का महत्त्व स्पष्ट ही है। वहां आवश्यक न्यूनतम से अधिक की इच्छा को धर्म-शिक्षा के विरुद्ध माना गया है। गौतमी को धर्मसार का ज्ञान देते हुए स्वयं बुद्ध का यह वचन है। दान का महत्त्व तो स्पष्टतया वहां है ही, जो अपरिग्रह की भावना के बिना संभव नहीं होता।
भारतीय षड्दर्शनों में भी सभी अपरिग्रह की आवश्यकता को स्वीकार करते हैं। न्यायवार्तिक में मिथ्याज्ञान और स्वार्थपरक मनोवृत्ति को परस्पर-संबंद्ध बताया गया है और मिथ्याज्ञान ही दुख का कारण है। न्यायसार तथा सर्वसिद्धांत-सारसंग्रह में प्रत्येक लालसा को त्याग देने तथा सांसारिक सुखों से बचने का आग्रह किया गया है। वैशेषिक दर्शन के पदार्थ धर्म संग्रह और वैशेषिक सूत्र में भूतहित की भावना को अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि के साथ आवश्यक कर्त्तव्यों में परिगणित किया गया है। भूतहित की भावना सकारात्मक अपरिग्रह का परिणाम है। सांख्य दर्शन में निःस्वार्थ कर्म को मोक्ष का अप्रत्यक्ष साधन बताया गया है। सांख्यकारिका कहती है (64) कि मोक्ष के लिए नास्मि (मैं नहीं हूं) और नाहम् (अहं भाव के अभाव) के साथ न में (मेरा कुछ नहीं है) का बोध आवश्यक है क्योंकि न में की अनुभूति होना ही नाहम् और नास्मि का प्रमाण है। इसी तरह, योग-दर्शन में तो स्पष्टतः ही अपरिग्रह को अहिंसा, सत्य, अस्तेय और जितेंद्रियता (ब्रह्मचर्य) के साथ परिगणित किया गया है (पातंजल सूत्र 2:30), जिसे जैन पंच महाव्रतों के साथ रखा जा सकता है। शंकराचार्य के अद्वैत दर्शन में भी उपदेश साहस्री (14:29) के अनुसार व्यक्तिगत अहंभाव के विचार को अयथार्थ मानने के साथ-साथ वैयक्तिक संपत्ति की यथार्थ-प्रतीति का भी समाप्त होना आवश्यक है; तभी आत्मा को जाना जा सकता है। रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैत सिद्धांत भक्ति को परिभाषित करता हुआ सब कुछ को त्यागते हुए केवल ईश्वर-प्राप्ति के प्रति प्रबल इच्छा को महत्त्व देता तथा प्राणि-मात्र के प्रति कल्याण-भावना, दया, अहिंसा, दान आदि को आवश्यक मानता है, जो अपरिग्रह-वृत्ति के बिना संभव नहीं है। (सर्वदर्शन-संग्रह, 4)।
ईसाइयत में तो ईसा का यह कथन अत्यंत प्रसिद्ध ही है कि सुई के छेद में से ऊंट गुजर सकता है, लेकिन एक धनी व्यक्ति का स्वर्ग के द्वार में प्रवेश नहीं हो सकता। संत पाल भी कहते हैं कि हम चाहे जो कुछ भी कर लें, किंतु जब तक हम अपनी स्वार्थपरता से सर्वथा मुक्ति नहीं पा लेते, तब तक त्राण संभव नहीं है। अपरिग्रह स्वार्थपरता से मुक्ति की ही साधना है।
कहा जा सकता है कि उपर्युक्त नीति-मीमां-साओं की पृष्ठभूमि में निवृत्ति-मार्गी दार्शनिक सिद्धांत हैं। लेकिन, इस्लाम भी, जो निवृत्ति-मार्ग का निषेध करता है, प्रकारांतर से अपरिग्रह को महत्त्व देता है। हलाल की संपत्ति पर व्यक्ति का पूर्ण स्वामित्व मानते हुए भी इस्लाम में उसके उपयोग के कुछ नियम बताए गए हैं, जिनके अनुसार कोई व्यक्ति अपनी संपत्ति का अपने लिए भी वैसा उपयोग नहीं कर सकता, जो नैतिकता तथा समाज के लिए हानिकारक हो। शराबखोरी, जुआ आदि तो दूर उसके रहन-सहन में शानो-शौकत दिखलाने को भी उचित नहीं माना गया है। व्यक्तिगत संपत्ति में सामाजिक हिस्सेदारी को भी स्वीकार किया गया है। कुरआन के अनुसार जहां सामर्थ्यवान व्यक्ति का यह फर्ज है कि वह सहायता मांगने वाले तथा वंचित व्यक्तियों की सहायता करे, वहां ऐसे व्यक्तियों का उसकी संपत्ति में हक स्वीकार किया गया है। कहा गया है-लोगों के धन-संपत्ति में मांगने वाले वंचित व्यक्ति का भी हक है। जकात इसी का एक रूप है और उसे इस्लाम में इबादत एक रूप स्वीकार किया गया है। महात्मा गांधी की न्यासिता की अवधारणा एक प्रकार से अपरिग्रह या अनासक्त स्वामित्व का ही सांस्थानिक रूप है जो केवल वैयक्तिक सदाशयता पर निर्भर नहीं करता। ईशोपनिषद के ईशावास्यमिदम् सर्वम् की व्याख्या करते हुए महात्मा गांधी का निष्कर्ष है कि सभी कुछ को ईश्वर को समर्पित कर देने के बाद अपने लिए आवश्यकता से अधिक न लेने का उपदेश ही इस मंत्र में दिया गया है। वह मानते हैं कि न्यासिता द्वारा ही एक अहिंसक आर्थिकी का विकास संभव हो सकता है। न्यासिता अनासक्त स्वामित्व, अपरिग्रह, शोषण मुक्ति और शोषण से उत्पन्न पाप का प्रायश्चित भी है।
- नंदकिशोर आचार्य
अमीर खुसरो : अमीर खुसरो के नाम से प्रसिद्ध यमीनुद्दीन महमूद (1252-1325 ई०) के पिता अमीर सैफुद्दीन महमूद मध्य एशिया के लाचीन नामक तुर्कों के कबीले से संबंधित उस परिवार के थे, जो चंगेज खां के हमलों से तंग आकर पहले तात्कालिक सांस्कृतिक केंद्र बल्ख और बाद में भारत आ बसा। सैफुद्दीन सिपाही थे और पटियाली (मोमिनपुर) उन्हें जागीर में मिली थी। पिता जब दिल्ली आ गए तो चार-पांच साल के खुसरो भी दिल्ली आ गए। सिपाही पिता को पढ़ने का अवसर नहीं मिला था, इसलिए वे अपनी इस कमी को खुसरो के माध्यम से पूरा करना चाहते थे।। काजी असद्दुदीन के मकतब में चार साल पढ़ने के बाद खुसरों को प्रसिद्ध सूफी संत निजामुद्दीन औलिया का मुरीद बना दिया गया। ख्वाजा निजामुद्दीन सुल्तानजी के नाम से भी जाने जाते थे। इनकी शिक्षा ने खुसरो के जीवन में सांसारिक सुखों में रहते हुए भी संतों का-सा आचरण भर दिया।
सुल्तानजी सत्ता और शासकों से दूर रहते परंतु परमप्रिय शिष्य को सत्ता-सुख प्राप्य था और सुल्तानों के विश्वासपात्र सलाहकारों में शामिल होने का गौरव भी। खुसरो के जीवन में सात-सुल्तान दिल्ली के सिंहासन पर बैठे। सभी ने उन्हें सम्मानित किया, परंतु खुसरो ने सुल्तानजी ही को सुल्तान माना। खानकाह की शिक्षा और सुल्तानजी की संगत के कारण उनका संबंध साधारण आदमी के सुख-दुख से भी उतना ही था, जितना शासक समुदाय से। शास्त्रीय संगीत और लोक-काव्य के रूप में प्रचलित उनकी रचनाएं इस बात का प्रमाण हैं कि इनका दोनों ही से रागात्मक संबंध था। अमीर खुसरो की हिंदवी कविता जहां लोक-रंजन एवं निम्न-मध्यमवर्ग के संवेदना संसार से संवाद करती है, वहीं उनकी फारसी कविता उनके आध्यात्मिक अनुभव तथा सुल्तानजी के उपदेश को अभिजात्य वर्ग तक पहुंचाती है।
उनके फारसी काव्य में सूफी-संतों का संदेश, सभी से प्रेम और ईश-भक्ति में पाखंड का विरोध मिलता है। वे मनुष्य को मानव बनाने वाले रास्तों पर चलने की प्रेरणा देते हैं। इस्लामी परंपरा के अनुसार सलाम-दूसरों के लिए सलामती की प्रार्थना करना पहला गुण है। इसी तरह सलाम का उत्तर देना सलाम करने वाले के लिए भी सलामती की दुआ करना है। यह अभिवादन अस्ल में एक दूसरे के लिए मंगल-कामना है। खुसरों कहते हैं-कम बोलने वाले पहाड़ तक सलाम का जवाब देते हैं। सलाम का जवाब देने में कंजूसी करने वाला पत्थर से भी गया-गुजरा है।
सूफीमत में प्रेम का महत्त्व सर्वविदित है, लेकिन, मुल्ला-मौलवी प्रेम में भी परकोटे बनाते हैं और प्रेमी को काफर (पथ-भ्रष्ट) कहते हैं। खुसरो कहते हैं :मैं इश्क (प्रेम) का काफर हूं मुझे मुसलमानी (इस्लामी मान्यता के अनुरूप जीवनयापन या पूजा-पाठ) की आवश्यकता नहीं। मेरी तो एक-एक नाड़ी प्रेम-रस में भीगा तार है, मुझे जनेऊ की क्या जरूरत है।
सुल्तानों की सोहबत में रहने और उनके कार्यकलापों को करीब से देखने, राज्य-विस्तार की लिप्सा और उसके लिए की जाने वाली हिंसा एक तरफ जीवन की क्षणभंगुरता का पाठ पढ़ाती तो दूसरी तरफ ख्वाजा साहिब से श्रद्धा और उनकी आध्यात्मिक शिक्षा भी उन्हें संसार की नश्वरता का ज्ञान देती। इसलिए वे कहते हैं कि जब अंत में सभी को पांव तले की खाक बन जाना है, तब क्यों न हम पांवों तले की खाक अर्थात् खाकसार (विनम्र) ही बनकर रहें।
अमीर खुसरो के नजदीक खुदा के बंदों से मुहब्बत करना भी खुदा ही से मुहब्बत करना है और इसके लिए मुल्क, मजहब, धर्मी-विधर्मी, अच्छा-बुरा, गरीब-अमीर, छोटे-बड़े, गोरे-काले की कैद बेमानी है।
अंतदृष्टि रखने वालों के निकट, वह अंधा और बेशक अंधा है जिसका आशिकों (ईश्वर के प्रेमियों) में शुमार तो हो लेकिन जो मूर्ति या श्यामवर्ण सौंदर्य की पूजा न कर सके।
सूफी संप्रदाय या तसव्वुफ सृष्टा (ईश्वर) और सृष्टि दोनों से प्रेम (इश्क) की शिक्षा देता है। सृष्टि से प्रेम को इश्के-मजाजी और सृष्टा से प्रेम को इश्के-हकीकी का नाम दिया गया है। काव्याभिव्यक्ति में ईश्वरीय प्रेम तक पहुंचने के लिए सांसारिक प्रेम को पहला सोपान माना जाता रहा है। यह वैसा ही मानना है कि शरीर ही से आत्मा तक पहुंचा जा सकता है और अंतिम अवस्था में आत्मा ही रह जाता है। ऐसे में हिज्र या फिराक (वियोग) आत्मा से परमात्मा का विछोह है तो विसाल (मिलन) इन दोनों का मिलन है। इसीलिए सूफी संत की मृत्यु को विसाल का नाम दिया जाता है। शरीर पर्दा, बाधा भी है और माध्यम भी तथा देह-त्याग पर्दा करना भी। अमीर खुसरो जीवन-पर्यंत इसी राह पर चले। यह सही है कि वे अपने समय के सुल्तानों के साथ युद्ध-भूमि तक में गए और युद्ध-बंदी भी रहे, लेकिन उन्होंने हिंसा के स्थान पर हमेशा प्रेम ही को तर्जीह दी। अपनी मस्नवी में सुल्तान को संबोधित करते हुए लिखते हैं : (1) कसाई उस गड़रिए का दुख दर्द क्या जाने, जिसने जानवर को पाला है और लकड़हारा माली की मनःस्थिति को क्या समझे जिसने बगीचे को सींचा है। अर्थात् नष्ट करने वाला सृजन करने वाले का कष्ट क्या जाने? (2) जब तुम अपने शरीर पर नश्तर नहीं झेल सकते तो दूसरे की गर्दन पर तलवार चलाने का अधिकार तुम्हें नहीं है। (3) यह क्या कि जंग में सैंकड़ों के कत्ल पर गर्व कर रहे हो। हम तो तुम्हें तब मर्द जानें जब किसी को जीवित करके दिखाओ। संगीत से उनका प्रेम भी तसव्वुफ ही की तर्बीयत का नतीजा है। खानकाहों में उर्स के अवसर पर महफिले-समाअ (श्रवण-सभा) में कव्वाल संत-शाइरों या शाइरों की शाइरी या कौल (कथन) संगीत में सुनाते हैं और सुनने वाले सभी तरह के लोग होते हैं। खुसरो की तर्बीयत ख्वाजा साहिब की छत्रछाया में हुई, इसलिए साहित्य के साथ-साथ संगीत में भी वे निष्णात हो गए। जिस तरह जीवन की क्षणभंगुरता का पाठ उन्होंने सुल्तानों के दरबार और खानकाहों से सीखा, वैसे ही साहित्य और संगीत का पाठ भी उन्होंने दोनों से, जो परस्पर विरोधी वातावरण थे, सीखा। उनसे प्रभावित भी हुए और प्रभावित किया भी। संतों और सुल्तानों के संबंध अक्सर अच्छे नहीं होते। उस काल में भी यही होता था। अमीर खुसरो इन दोनों की बीच एक पुल का काम करते रहे। यह पुल प्रेम का पुल था।
- शीन काफ निजाम
अमृतचंद्र : दिगंबर जैन परंपरा के परम आध्यात्मिक संत और गंभीर विचारक आचार्य अमृतचंद्र विक्रम की दसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हुए हैं। आचार्य अमृतचंद्र दिगंबराचार्य कुंदकुंद के ग्रंथों के अद्वितीय टीकाकार एवं अनेक मौलिक ग्रंथों के प्रणेता, रचयिता, रससिद्ध कवि, गहन तत्त्वचिंतक, आत्मानुभवी, दिग्गज विद्वान, निरभिमानी, अनुभूतिमूलक प्रतिष्ठित दिंगबराचार्य थे।
अमृतचंद्राचार्य मुख्य रूप से विशुद्ध आध्यात्मिक विचारक हैं। उनके चिंतन-मनन में तर्क व अनुभूति का सुंदर समन्वय है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में अहिंसा के प्रकरण में इसके दर्शन पग-पग पर दृष्टिगत होते हैं। इस रचना में आचार्य अमृतचंद्र ने अहिंसा का गहन, गंभीर, सूक्ष्म और विस्तृत विवेचन किया है। संस्कृत भाषा में रचित पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथ की कुल श्लोक संख्या 226 हैं जिनमें श्लोक संख्या 37 से 174 तक 138 श्लोकों में हिंसा-अहिंसा का युक्तिपूर्वक, भेदपूर्वक, सारगर्भित विवेचन किया गया है।
हिंसा शब्द हननार्थक हिंसि धातु से बना है। हिंसी का अर्थ है असद् प्रवृत्ति या असद् प्रवृत्ति पूर्वक किसी प्राणी का प्राण वियोजन। इसके विपरीत हिंसा न करना, किसी प्राणी को कष्ट न देना अहिंसा है।
दसवैकालिक सूत्र में प्राणीमात्र के प्रति संयम को अहिंसा कहा है। बुद्ध कहते हैं-जंगम और स्थावर प्राणियों का प्राणघात न स्वयं करे, न किसी अन्य से करवाए और न किसी करने वाले का अनुमोदन करें। पातंजल योग दर्शन के अनुसार अहिंसा का स्वरूप है-सब प्रकार से सब कालों में सब प्राणियों के प्रति अनभिद्रोह। गीता के अनुसार-मन वचन तथा कर्म से सर्वदा किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुंचाना अहिंसा है। महाभारत के अनुसार-मन, वाणी और कर्म से किसी की हिंसा न करना अहिंसा है।
इस प्रकार, सामान्यतः, अहिंसा शब्द का अर्थ किया जाता है हिंसा न करना। जब भी हिंसा-अहिंसा की चर्चा चलती है तो सभी कहते हैं कि दूसरे जीवों को न मारना, न कष्ट देना, न सताना अहिंसा है। हिंसा-अहिंसा का संबंध प्रायः दूसरों से ही जोड़ा जाता है। ऐसा ही सर्वाधिक लोगों का मानना है, पर यह दृष्टिकोण एकांगी है। अपनी भी हिंसा होती है अर्थात् स्व हिंसा भी होती है इस ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। जिनका जाता भी है तो वे इसका अर्थ विष-भक्षण, फांसी आदि द्वारा आत्महत्या ही मानते हैं। उसके अंतर्तम तक पहुचंने का प्रयत्न ही नहीं किया जाता है।
आचार्य अमृतचंद्र हिंसा-अहिंसा को समझाते हुए इस प्रकार कहते हैं कि-आत्मा में राग-द्वेष मोहादि विकारी भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और इन भावों का आत्मा में उत्पन्न न होना ही अहिंसा है। यही जिनागम का सार है।
मन-वचन-काय से अपने तथा पर के अथवा दोनों के परिणामों में आघात पहुंचाना तथा दुःख-संताप और कष्ट देना वस्तुतः हिंसा है। हिंसा दो प्रकार की होती है-(1) भाव हिंसा और (2) द्रव्य हिंसा। इन दोनों के स्व और पर की दृष्टि से दो-दो भेद होते हैं। इस प्रकार हिंसा के चार भेद हुए-स्वभावप्राणहिंसा, परभावप्राणहिंसा, स्वद्रव्यप्राणहिंसा, परद्रव्यप्राणहिंसा।
आत्मा में विकारीभाव राग-द्वेषादि की उत्पत्ति स्व-भावप्राणहिंसा है क्योंकि इससे स्वात्मा के शुद्धोपयोग रूप भावप्राणों का घात होता है तथा प्रमाद के कारण अपने अंगों को कष्ट देना, आत्महत्या आदि करना स्वद्रव्यप्राणहिंसा है। अन्य प्राणियों के अंतरंग को व्यंग्य, परिहास, कुवचनादि द्वारा पीड़ित करना परभावप्राणहिंसा है तथा प्रमाद के वशीभूत होकर अन्य के प्राणों को घात करना, अंग पीड़ा आदि देना पर-द्रव्यप्राणहिंसा है।
हिंसा-अहिंसा की परिभाषा को अमृतचंद्राचार्य ने बहुत व्यापक रूप दिया है। उन्होंने असत्य, स्तेय, कुशीलादि सभी पापों को हिंसा में शामिल कर लिया है, जबकि ऐसा कथन अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता। अपनी इस बात को सिद्ध करते हुए उन्होंने कहा है कि-रागभाव हिंसा है, अतः असत्य, चोरी, कुशील और परिग्रह भी रागादिरूप होने से हिंसा ही है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि हिंसा-अहिंसा का संबंध सीधा आत्मपरिणामों से है। ये दोनों ही आत्मा के विकारी-अविकारी परिणाम हैं। हिंसा-अहिंसा न तो जड़ में होती है और न ही जड़ वस्तु के कारण ही। उनकी उत्पत्ति-स्थान व कारण दोनों ही चेतन हैं। अतः हिंसा-अहिंसा का संबंध पर जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख से न होकर आत्मा में उत्पन्न होने वाले रागद्वेष मोहादि परिणामों से है। पर के कारण आत्मा में हिंसा नहीं होती।
क्रोधादि कषायों के वशीभूत होकर जब दूसरे जीवों के घात का विचार करता है, वह पहले अपने शुद्धोपयोगरूप शुद्धात्मस्वरूप का घात कर के स्वघात/आत्मघात करता है। इस क्रिया के करते ही उसके हिंसादोष लगना आरंभ हो जाता है। पर का घात न हो तो भी। यदि प्राणी की आयु शेष रहती है तो वह मरण से बच भी जाता है। अतः, अन्य जीव का घात नहीं होते हुए भी कषाय भावों से घातक का स्वघात तो होता ही है। बहुलतः देखा जाता है कि जिसका घात होता है, उसकी शारीरिक और मानसिक पीड़ा की ओर सभी ध्यान देते हैं, घातक को भला-बुरा कहते हैं, किंतु घातक की शारीरिक और मानसिक व्यथा को कोई नहीं देखता। सभी उसको अनदेखा कर देते हैं जबकि उसका नियम से आत्मघात हो रहा है।
जीवघात नहीं होने पर भी अविरमण और परिणमनरूप हिंसा हिंसादोष की भागीदार होती है, परंतु उसके अनतरंग हिंसा के भाव बने ही रहते हैं। अतः, हिंसा से विरत न होने से अथवा मन, वचन और काय से हिंसा में संलग्न रहने से ही अविरमण और परिणमनरूप हिंसा करने वाले हिंसा के भागीदार होते हैं।
अमृतचंद्राचार्य कहते हैं कि हिंसा परिणामों के अधीन है। परिणामों से ही होती है, परिणामों में ही होती है। बाह्य पदार्थों में न तो हिंसा है और न हिंसा के कारण ही हैं-सूक्ष्मापि न खलु हिंसा पर वस्तुनिबंधना भवति पुंसः/हिंसायतन निवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।।49।।
कभी-कभी जीव इतर जीवों का घात नहीं करता, जीवों को कष्ट भी नहीं पहुंचाता है, पर फिर भी वह हिंसाफल का भागी होता है। जगत में कुछ ऐसे लोग भी देखने में आते हैं जो हिंसा करके भी हिंसाफल के पात्र नहीं होते हैं। इस कथन में मूलकारण है-द्रव्य एवं भाव हिंसा। जब जीव द्रव्यहिंसा तो नहीं करता परंतु उसके अंतरंग में भावहिंसा विद्यमान होती है, तब वह भावहिंसा-फल का नियम से भागी होता है। इसी प्रकार जब जीव के भावहिंसा नहीं होती और उसके द्वारा अनेक जीवों का घात होता है, तब वह भावहिंसा के अभाव के कारण द्रव्यहिंसाफल का पात्र नहीं होता है। उदाहरण के लिए, हम मछली मारने वाले मछुआरे को लें। वह जाल फैलाए दिनभर नदी तट पर बैठा रहता है, कदाचित जाल में एक भी मछली नहीं फंसी। इस प्रकार यद्यपि उसने एक भी मछली का घात नहीं किया है, किंतु मछली मारने के भाव रहने से वह भावहिंसा-दोष से बच नहीं पाता है।
अमृतचंद्राचार्य कहते हैं कि बहुहिंसा हो, किंतु नहीं भोगना पड़े। भावों की विचित्र विडंबना है हिंसा के भाव न रहने से अनेक जीवों का घात होने पर भी जीव बहु द्रव्यहिंसा के अपराध से बच जाता है। उसे बहु-हिंसादोष का फल नहीं भोगना पड़ता। उदाहरण के लिए हम कृषक को ले सकते हैं-वह भूमि को खोदता है, हल से जोतता है, इस क्रिया से खेत में रहने वाले जीवों का घात होता है। अनेक जीव मरते हैं। परंतु अनेक जीवों के घात करने के विचार कृषक के मन में नहीं रहते। वह तो अनवरत अधिक अनाज उत्पन्न करने के भाव रखता है। उसके ऐसे भाव ही उसे बहुहिंसा के फल का पात्र नहीं होने देते हैं।
मुनि भी ऐसे ही निर्मल स्वभावी होते हैं। गमनागमन में जीव उनके पैर के नीचे आकर भले ही मर जाएं परंतु उन जीवों के मारने के भाव न रहने से बहुद्रव्यहिंसा होते हुए भी वे महान् अहिंसक कहे जाते हैं। उन्हें हिंसा दोष नहीं लगता।
अमृतचंद्राचार्य कहते हैं कि बहुहिंसा हो किंतु फल थोड़ा-सा और लघु हिंसा हो किंतु फल बहुत सा। किसी को थोड़ी भी हिंसा समय पर उदय काल में बहुत फल को देती है तथा किसी जीव को बहुत बड़ी हिंसा भी फल काल में थोड़ा फल देने वाली होती है। इसका मूल कारण यह है कि जिस समय जिस जीव के जैसे परिणाम मंद संक्लेशमय या तीव्र संक्लेशमय होते हैं, उसके जो कर्म-बंध होता है उसमें रसदान शक्ति तदनुरूप मंद या तीव्र पड़ती है और उदयकाल में तदनुरूप कम या अधिक फल देती है। बाह्य कारण तो निमित्त मात्र है। परिणामों की सरागता अथवा वीतरागता ही हिंसा-अहिंसा फल की दात्री है-एकस्याल्पा-हिंसा ददाति काले फलमनल्पम्/अन्यस्यमहा-हिंसा स्वल्प फला भवति परिपाके ।।52।।
आचार्य समझाते हैं कि यदि दो जीव मिलकर किसी जीव की हिंसा करे तो उन दोनों को भी उस हिंसा का समान फल नहीं मिलता है। जिसके अधिक कषाय सहित परिणाम होंगे, उसे अपेक्षाकृत अधिक फल मिलेगा। एक कार्य में प्रवृत्त होने पर भी एवं समान क्रिया करने भी परिणामों की तीव्रता और मंदता के कारण दो जीवों में से एक अधिक पापी बनकर अशुभ कर्म बांधता है, दूसरा कम पापी होकर उससे हल्का अशुभ कर्म बांधता है।
आचार्य कहते हैं-हिंसा पीछे, पर फल पहले, हिंसा करते हुए पहले फल और कभी हिंसा पहले और फल बाद में प्राप्त होते हैं। आचार्य इस बात पर अत्यधिक बल देते हैं कि जीव चाहे हिंसा करे या न करे, पीछे करे या पहले करे या फिर उसी समय करे, परंतु जीव के जिस समय जैसे परिणाम होंगे, उन परिणामों से जैसे उसने कर्म बांधे होंगे, समय पाकर वे कर्म उदय में आकर वैसा फल अवश्य देगें। इस प्रकार हिंसा का फल जीव को भावों के अनुसार प्राप्त होता है। चाहे दूसरे जीव की उसके द्वारा हिंसा हो अथवा न हो, यदि उसके भावों में हिंसा-रूप प्रवृत्ति है तो उसे हिंसा का फल अवश्य प्राप्त होगा।
आचार्य कहते हें-एक जीव हिंसा करता है परंतु फल के भागीदार अनेक होते हैं, इसी प्रकार अनेक जीव हिंसा करते हैं किंतु फल का भागीदार एक होता है।
उदाहरण-कर्ता एक भोक्ता अनेक-कभी-कभी सुनने में आता है कि जाते हुए सर्प का कोई एक व्यक्ति घात करता है किंतु जितने दर्शक होते हैं वे उसके मारने वाले की प्रशंसा करते हुए सर्प के मारे जाने की अनुमोदना करते हैं। वहां सर्प के घातक तथा सर्प-घाती के सभी प्रशंसक रौद्र परिणामों के कारण पापकर्म बंध करके पाप फल भोगते हैं, इस प्रकार सर्पघात एक ने किया, किंतु, सर्पघात का हिंसाजनक फल अनेक लोगों को भोगना पड़ा।
भोक्ता एक, कर्ता अनेक - इतिहास में विजय-यात्राओं के वर्णन प्राप्त होते हैं। राजा की आज्ञा से सैनिक युद्ध करते हैं। अनेक सैनिक मारे जाते हैं। बहु जीवों का घात होता है, किंतु विजय-यात्रा में हुई हिंसा का फल शासक या विजययात्रा कराने वाले को ही भोगना पड़ता है, जबकि राजा किसी जीव का घात नहीं करता। जीव-घात तो सैनिक करते हैं। लेकिन सैनिकों का भाव युद्ध में जीवघात करने का नहीं रहता। वे तो अपने शासक की आज्ञा का पालन मात्र करते हैं। आजीविका के लिए विवशतावश उन्हें ऐसा करना पड़ता है। विजययात्रा का जिम्मेदार राजा के होने से उसे ही ऐसी हिंसा का फल भोगना पड़ता है। इस प्रकार अनेक हिंसक होने पर भी हिंसा-फल का भोक्ता एक व्यक्ति ही है।
अमृतचंद्र कहते हैं कि-कार्य अहिंसक फल हिंसा का, कार्य हिंसा का, फल अहिंसा का-अनेक जीव, दिखावे के लिए तो कार्य अहिंसा के करते हैं किंतु अंतरंग में कपट भाव रखते हैं। दूसरे का सदा बुरा विचारते हैं, ऐसे जीव की अहिंसा उदयकाल में हिंसा का फल देती है।
इसी प्रकार व्यवहार में बाहर से तो व्यक्ति के हिंसा का रूप दिखाई देता है, जबकि अंतरंग में उसके अहिंसात्मक परिणाम होते हैं तो इन परिस्थितियों में ऐसे व्यक्ति को अहिंसा का पुण्यरूप-फल प्राप्त होता है-उदाहरण के लिए जैसे माता-पिता या गुरुजन बच्चों को डांटते-पीटते हैं। माता या गुरुजन का भाव बच्चे की भलाई करने का होता है। अतः, अहिंसा भाव होने से बच्चे के प्रति बाह्य हिंसा भी अहिंसा रूप ही फल देती है। उपरोक्त वर्णन से एक ही बात स्पष्ट होती है कि जीव के परिणामों-भावों के आधार पर ही हिंसा का फल मिलता है।
उपरोक्त हिंसा के रूप-स्वरूप पर विवेचन के पश्चात् आचार्य अमृतचंद्र ने आगे बताया कि वे कौन- कौनसे पदार्थ हैं जिनके उपयोग से अत्यधिक जीवों की हिंसा होती है। उन्होंने सर्वप्रथम अष्ट मूलगुणों-मद्य, मांस, मधु तथा पांच उदंबर फलों के विषय में पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में श्लोक संख्या 61 से 75 तक के पंद्रह श्लोकों में विस्तार के साथ वर्णन किया है।
आचार्य कहते हैं कि-धर्मार्थ भी जीव-घात न करें-पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में धमार्थ हिंसा को भी पाप में परिगणित किया गया है। वहां धर्म का संकेत उस धर्म से है जहां यज्ञादि में पंचेंद्रिय पशुओं को होम दिया जाता है। देवताओं के नाम पर पशुओं की बलि चढ़ाई जाती है।
अमृतचंद्राचार्य की धारणा है कि मिथ्या श्रद्धा से भी हिंसा होती है। सुख, कष्ट से होता है-इस दृष्टि से और सुखी बनने के लिए सुखी जीवों को मारना, उच्च पद प्राप्ति की कामना से समाधिस्थ गुरु का घात करना, खारपटिक न्याय से घड़े में बंद चिड़िया घड़ा फूटने पर जैसे बंधन मुक्त हो जाती है वैसे ही देह न रहने पर आत्मा का मुक्त होना, मानना, मिथ्या श्रद्धा हिंसा के कारण हैं।
हिंसाजनित पाप कर्मों से बचने के लिए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में दो स्थितियां निरुपित हैं। एक स्थित में महाव्रत धारण कर पूर्ण अहिंसक बना जा सकता है तथा दूसरी स्थिति में देशव्रत या दिग्व्रत अर्थात् मर्यादापूर्वक जीवन यापनकर यथाशक्ति अहिंसा धर्म का पालन किया जा सकता है। बिना प्रयोजन हिंसात्मक अथवा कषायवर्धक कार्य या चिंतवन करने पर पाप का संचय होता है। अहिंसक को सर्वथा इनसे बचना चाहिए। बिना प्रयोजन हिंसात्मक कार्यों में पापोपदेश, पापचर्या, हिंसात्मक उपकरणों का दान, दुःश्रुति तथा द्युत आदि हैं।
आचार्य अमृतचंद्र की धारणा है कि किसी भी रूप में, किसी भी अवस्था में किया गया घात-अपघात-आत्मघात को कभी भी अहिंसा में परिगणित नहीं किया जा सकता, किंतु सल्लेखना में कषाय भावों को घटाया जाता है। कषायभावों को घटाना ही अहिंसा भावों का प्रकट होना है क्योंकि कषाय ही तो है हिंसा के कारण। अतः सल्लेखना अहिंसाभाव को प्रकट करने के लिए ही धारण की जाती है।
आचार्य ने अहिंसाव्रत के पांच अतिचारों का वर्णन इस प्रकार किया है-(1) पशु-पक्षी आदि की नाक, कान, जीभ छेदना आदि (2) लकड़ी, बेंत, अंकुश आदि से उन्हें मारना, (3) उन्हें इच्छित प्रदेश में घूमने न देना एक स्थान में बांधकर रखना, (4) बहुत अधिक भार लादना, (5) पानी और अन्नादि न देना अथवा समय पर न देना।
ये सब बातें परिणामों को मलिन करने वाली होती हैं, अतः, अहिंसाव्रत पालने वाले व्यक्तियों को इनसे अवश्य बचना चाहिए। अहिंसा के माहात्म्य को बताते हुए आचार्य कहते हैं कि अहिंसा धर्म का पालन एक प्रकार से रसायन है। जैसे रसायन का सेवन करने वाला व्यक्ति चिंरजीवी बन जाता है, उसी प्रकार अहिंसा रूपी रसायन का सेवन करने वाला सदा के लिए अजर-अमर हो जाता है, अर्थात् अहिंसा धर्म को उत्कृष्ट रीति से पालने वालों को मोक्ष-सिद्धि हो जाती है।
संक्षेप में, यह कहा जा सकता है कि अमृत-चंद्राचार्य द्वारा पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में अभिव्यक्त हिंसा-अहिंसा व्यक्ति के जीवन में एक ओर जहां प्रामाणिकता तथा अप्रमत्तता का संचार करती है वहीं, दूसरी ओर, यह सोच भी उत्पन्न करती है कि अभीष्ट की प्राप्ति में क्या हेय है और क्या उपादेय है, क्या सार्थक है, क्या निरर्थक? जीवन कहां हिंसा से घिरा है और कहां अहिंसा से आपूरित है। वास्तव में हिंसा संसार-सागर का निमित्तकारण बनती है जबकि अहिंसा आत्म-वैभव के अभिदर्शन कराती है।
- प्रो० पी०सी० जैन
अमृतानंदमयी मां : रामकृष्ण परमहंस ने जिस विश्वमातृत्व की परिकल्पना की है, उसका मूर्तिमान रूप हम समकालीन भारत में माता अमृतानंदमयी में देखते हैं। माता अमृतानंदमयी का जन्म सन् 1953 ई० सितंबर 27 तारीख को कार्तिक नक्षत्र में वल्लिक्कावु नामक मछुआरों के द्वीप में हुआ। बचपन से ही उनमें आध्यात्मिक भाव प्रकट हुआ और वे शरीर को भूलकर ध्यानमग्न रहती थीं। गरीब घर में पैदा होने के कारण और काली लड़की होने के कारण उनको बचपन में बहुत तकलीफ झेलनी पड़ी। लेकिन, धीरे-धीरे उन्होंने अपने घर को ही आश्रम बनाया और दुनिया भर के उनके शिष्य बने। आज दुनिया भर में उनके आश्रम और सेवा केंद्र फैले हैं। अमृत विश्वविद्यालय और मेडिकल संस्थान के द्वारा भी वे जनसेवा कर रही हैं। सामाजिक जागरण के लिए कर्मरत महिला के रूप में उन्हें पुरुषवर्चस्ववाले समाज से काफी विरोध झेलना पड़ा। स्वयं वे जिस समुद्री तट के मछुआरे परिवारों के माहौल से आईं, उसमें भी पुरुष वर्ग ने प्रारंभ में उनका बड़ा विरोध किया था। लड़की होने से अपने घरमें भी अनेक तकलीफें झेलनी पड़ी। अपनी आध्यात्मिक साधना में उन्हें कई तरह के विरोध झेलने पड़े। पशु-पक्षियों से उनको आत्मिक संबंध था। वे समस्त स्त्री पुरुषों और जीव-जंतुओं को अपने बच्चों के रूप में देखती हैं और सबको मां का वात्सल्य देती हैं। समाज में उपेक्षित स्त्रियों, बच्चों, आपदाओं से पीड़ितों के लिए उनकी समाज सेवा में वरीयता है। आध्यात्मिकता को भौतिकता के साथ जोड़कर वह वात्सल्यमयी माता पूरे विश्व को अपना प्रेम बांटती हैं। उन्हे इसलिए अम्मा के नाम से ही सर्वत्र जाना जाता है। वे विश्वभर की जनता को अपनी संतान के रूप में देखती हैं। अम्मा का विचार है कि स्त्री और पुरुष समान है और वे एक पक्षी के दो पंखों के समान हैं। अगर पूछा जाय कि मनुष्य की दोनों आंखों में से कौन सी ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं-बाईं या दाईं तो बताना पड़ेगा कि दोनों का महत्त्व समान है। स्त्री और पुरुष का समाज में जो स्थान है, वह भी इसी तरह का है। स्त्री जो कर नहीं पाती है, वह पुरुष कर सकता है। कई कार्य हैं जो पुरुष कर नहीं पाता, लेकिन स्त्री कर सकती है। इस तरह समाज में एक दूसरे की जो भूमिका है उसके बारे में उनको स्वयं समझना चाहिए। तब वे एक दूसरे के मददगार बनेंगे। प्रकृति का ताल लय उसी से संतुलित रह जाएगा। स्त्री और पुरुष जब परस्पर पूरक बनते हैं तभी जीवन की पूर्णता संभव है। अम्मा का विचार है कि पुरुष भी स्त्री का अंग है, सभी बच्चे मां के शरीर के अंग बनकर ही कोख में पड़े रहते हैं। एक नई सृष्टि के संबंध में पुरुष का योगदान सिर्फ बीजदान है। पुरुष का यह बीजदान एक पल का कार्य है, लेकिन स्त्री ही उस जीव को स्वीकार करती हैं और अपने शरीर का अंग बनाती है और फिर जन्म देती है। इसलिए स्त्री मूल रूप से मां है, मातृत्व को इसलिए कोई चुनौती नहीं दे सकता। अमृतानंदमयी अम्मा भारत में स्त्री-शक्ति को जगाने के पक्ष में हैं और इसके लिए कई कार्यक्रम कर रही हैं। स्त्रियों के आध्यात्मिक विकास के लिए उनकी कई योजनाएं हैं। उन्होंने स्त्रियों वेदाध्ययन, पूजा विधियों का अध्ययन, आध्यात्मिक नेतृत्व आदि के लिए अधिकारी माना है। जब उन्होंने अपने द्वारा स्थापित मंदिरों में महिला पुरोहितों को नियुक्त किया तब परंपरावादियों ने उनका विरोध किया। लेकिन उनका दृढ़ उद्घोष था कि स्त्री को पुरोहित बनने और वेदोच्चार करने का पूरा अधिकार है। जब ब्रह्मचारिणियों को पुरोहित बनाने पर आपत्ति जताई थी तो उन्होंने बताया कि वे उस ईश्वर की उपासना करती हैं जो न पुरुष है और न स्त्री है। विश्व भर में पुरुष और स्त्री के बीच विभेदीकरण किया जाता है। उनका कहना है कि कम से कम ईश्वर के सामने यह विभेदीकरण नहीं होना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ में दिए गए अपने भाषण में उन्होंने विश्वशांति में स्त्रियों के योगदान पर बल दिया और पर्यावरण के संतुलन द्वारा मानवराशि के अस्तित्व को बनाए रखने का आह्वान किया। स्पेन के बॉसिलोना में संपन्न विश्वधमरें की संसद में अपना वक्तव्य देते हुए उन्होंने कहा कि आज हमेंऐसा धर्म और अध्यात्म चाहिए जो अपने अंदर के क्रोध को करुणा में, विद्वेष को स्नेह में, काम की चिंता को दिव्य चिंतन में, ईर्ष्या को सहानुभूति में बदल सके। निश्चित ही ममतामयी मां के रूप में स्त्री की भूमिका इस दिशा में महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वही घृणा के बदले करुणा और विद्वेष के बदले प्यार और सहानुभूति दे सकती है। पुरुष की तुलना में स्त्री इस क्षेत्र में काफी योगदान दे सकती है जैसा कि अम्मा जी स्वयं दे रही है। वे कहती हैं कि यदि तीसरा विश्वयुद्ध होगा तो वह गरीबी के खिलाफ होना चाहिए क्योंकि गरीबी ही आज दुनिया की सबसे बड़ी शत्रु है। उनके अनुसार सारा लूट-पाट, उग्रवाद, स्त्रियों का शोषण और वेश्या प्रथा गरीबी के कारण ही पनपते हैं। गरीबी शरीर को ही नहीं मन को भी दुर्बल बनाती है। इसलिए उनका विचार है कि अगर गरीबी मिटा सकें तो मानवराशि की अस्सी प्रतिशत से ज्यादा समस्याओं का समाधान भी संभव हो सकेगा। वे स्वयं गरीब विधवाओं के लिए पेंशन देकर तथा स्त्रियों के सबलीकरण के लिए विभिन्न कार्यक्रम चलाकर एक उत्तम नमूना प्रस्तुत कर रही हैं, जिसका समाज को अनुकरण करना चाहिए। अम्मा के अनुसार आज की दुनिया में लोग दो तरह की गरीबी से पीड़ित हैं। पहली कोटि में वे सब आते हैं जो खाना, वस्त्र और रहने की जगह नहीं मिलने से तकलीफ झेल रहे हैं। दूसरी कोटि में वे आते हैं जो स्नेह और करुणा के नहीं मिलने से दरिद्रता का अनुभव कर रहे हैं। इनमें दूसरी तरह की गरीबी पर हमें वरीयता क्रम में पहले विचार करना है क्योंकि अगर मन में स्नेह और करुणा है तो वे उन लोगों की पूर्ण मन से सेवा और सहायता करेंगे जो खाना वस्त्र और आवास के अभाव में तकलीफ झेल रहे हैं। उनके अनुसार स्थितियों में परिवर्तन आज के युग के कारण नहीं, बल्कि करुणा भरे दिलों के कारण ही संभव होता है। उस तरह के दिलों को बनाने में एक नया आध्यात्मिक आंदोलन आवश्यक होगा। कटुताओं को भूलकर और क्षमादान द्वारा इस दुनिया को एक नया जीवन देकर उसकी पुनर्रचना की जा सकती है। बीते हुए युग की छान-बीन करना कभी-कभी निरर्थक साबित होता है। गतकाल का राग अलापना भी निरर्थक लगता है। बदला लेने की भावना और ऊंचनीच की घिसी-पिटी धारणाएं नए विश्व की प्रगति में बाधक हैं। पूर्वग्रहों को छोड़कर तटस्थ दृष्टि से मानव प्रगति की राह खोजनी चाहिए। बाहरी भेदभाव को छोड़कर मानव और ब्रह्मांड को परस्पर जोड़ने वाली आत्मशक्ति पर विश्वास जगाने से ही नए समाज का निर्माण संभव है। इसके लिए अम्माजी इंद्रधनुष का उदाहरण देती हैं, जिसमें सात रंगों के मिलने से विशिष्ट छवि आती है और मन को विशाल बनने की प्रेरणा देती है; इंद्रधुनष तो जल्दी मिटता है, लेकिन मन को आनंद देता है। परिवार और समाज में स्त्री का सम्मान हो तभी पूरे देश में शांति और ऐश्वर्य का वातावरण बनता है। उदात्त मानव प्रेम से ही यह संभव हो सकता है। पुरुष और स्त्री समान आदर के पात्र हैं। किसी एक पात्र का वर्चस्व अकेले में नुकसान ही करता है। सामाजिक सोच में, लोगों की संकीर्ण मानसिकता में बदलाव की जरूरत है। अम्मा के अनुसार मनःस्थिति के बदलने से परिस्थिति भी बदल जाएगी। उन्होंने प्रेम और करुणा की समस्त सार्वभौमिक श्रेष्ठता को अपने जीवन और कार्यों से सिद्ध किया है। एक महान गुरु और समाज कार्यकर्ता के रूप में अम्मा का योगदान समाज के मार्गदर्शकों, विशेषकर स्त्री स्वयंसेवकों को तैयार कर समाज को शिक्षित करने और बदलने का है। वह वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को चरितार्थ करती हुई विश्वमातृभावना का संचार करती हैं। मानव समाज में एक विशेष ऊर्जा संचार करती हुई वह स्त्री-पुरुष समान भाव एवं, मानवीय प्रेम और वात्सल्य का संदेश दुनिया को दे रही हैं। अम्मा का कहना है कि जो भी तुम्हारे पास है, उसे बांटते रहो जैसे कि प्यार जितना बांटोगे उतना ही तुम्हारे पास दुगुना प्यार आएगा। राष्ट्र ने और संयुक्त राष्ट्र संघ ने अम्मा के इस महान योगदान को अंगीकार किया है। अपने जीवन के कटु अनुभवों के माध्यम से ही उन्होंने पद-दलितों के दुख दर्द को जाना। यह पृष्ठभूमि उनकी उपलब्धियों को अधिक मूल्यवान बनाती है। तीन दशकों की छोटी अवधि में अम्मा ने विश्व भर में आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात किया। हमारे पुराण ग्रंथों में जगन्माता और विश्वमातृत्व की जो परिकल्पना की गई है, उसका मानव रूप अम्मा में देख सकते हैं।
- डॉ० के०एम० मालती
अरविंद, श्री : श्री अरविंद (1872-1950 ई०) का अभिनंदन करते हुए रवि ठाकुर ने लिखा था....आग्नेय संदेशवाहक जो दिव्य प्रदीप लेकर आया है। ....मुझे आशा के अमर वैभव से प्रतिध्वनित आत्मा का महान् और उल्लासपूर्ण गीत सुनाई पड़ा। आधुनिक चिंतकों में कार्ल मार्क्स और श्री अरविंद दो ही ऐसे दार्शनिक हैं जो एक स्वर्णिम भविष्य की कल्पना करते और अपनी कल्पना को एक तर्कसंगत सुदृढ़ आधार भी प्रदान करते हैं। फर्क यही है-और यह बुनियादी फर्क है-कि कार्ल मार्क्स पदार्थ को ही नियंत्रक एवं मूल स्रोत मानते हैं जबकि श्री अरविंद पदार्थ में अंतर्निहित चेतना और उसकी प्रक्रिया को केंद्र में रखकर एक ऐसी पद्धति का निर्माण करते हैं जिसमें जीवन के किसी पक्ष की अवहेलना नहीं होती। इसीलिए श्री अरविंद का दर्शन टैगोर की तरह समन्वयवादी नहीं बल्कि अखंड-इंटीग्रल-माना जाता है।
श्री अरविंद भी हेगेल, मार्क्स और बर्गसां की तरह विकासवादी आधार पर अपने दर्शन का निर्माण करते हैं, लेकिन, उनके मतानुसार विकास-प्रक्रिया एकरेखीय नहीं है। वह त्रिआयामी है। विकास की प्रक्रिया में विस्तार, ऊर्ध्वोन्मुखता और समग्रोन्मुखता की प्रवृत्तियां एक साथ काम करती हैं। इसीलिए भौतिक तत्त्व में से चेतना का विकास होने पर भौतिक तत्त्व नष्ट नहीं हो जाता-बल्कि नया विकास पुरानी स्थिति को भी अपने में समाविष्ट करता चलता है। श्री अरविंद यह मानते प्रतीत होते हैं कि किसी भी पदार्थ में से वही चीज विकसित हो सकती है जिसकी संभावना उसमें पहले से मौजूद हो। इसका मतलब यह हुआ कि चेतना पदार्थ में पहले से किसी भी रूप में मौजूद है तो पदार्थ चेतना का मूल स्रोत और नियंत्रक तत्त्व नहीं हो सकता। चेतना के पदार्थ में निम्नतम स्तर पर प्रवेश और फिर उसके विकास की प्रक्रिया को श्री अरविंद चेतना का अवरोहण और आरोहण कहते हैं। आरोहण की इस प्रक्रिया में चेतना अन्न (वानस्पतिक जीवन), प्राण (जीव-जगत्), मन (मानव-जीवन) तक पहुंच कर ही नहीं रुकती-क्योंकि इसका कोई कारण नजर नहीं आता कि विकास की प्रक्रिया मानव-अस्तित्व तक पहुंचकर रुक जाएगी-बल्कि अतिमन और अतिमानव की स्थितियों में से गुजरते हुए चिरंतन चैतन्य का अपना मूल रूप पुनः ग्रहण करती है। इसीलिए कहा जाता है कि श्री अरविंद विकासवादी सिद्धांत की आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं। लेकिन, यह आध्यात्मिकता संन्यासी की आध्यात्मिकता नहीं है। इसमें जीवन अपनी समग्रता में निरंतर मौजूद है-यह जीवन मात्र का अध्यात्मीकरण है। श्री अरविंद का ग्रंथ दि लाइफ डिवाइन उनकी इन संकल्पनाओं की विशद व्याख्या करता है।
श्री अरविंद चेतना के अवरोहण-आरोहण की प्रक्रिया और उसके विभिन्न स्तरों का ही विवेचन कर नहीं रह जाते। अपने एक अन्य ग्रंथ दि ह्वूमन साइकिल में उन्होंने मानवीय इतिहास की प्रक्रिया का भी विवेचन किया है। अभी तक के मानवीय इतिहास को तीन चरणों में विभाजित करते हुए वे उन्हें क्रमशः प्रतीकात्मक अवस्था, प्ररूपात्मक अवस्था और व्यक्तिवादपरक अवस्था कहते हैं। प्रतीकात्मक अवस्था मूलतः धार्मिक अंतःप्रज्ञा पर आधारित है जिसमें तर्कणा का स्थान महत्त्वपूर्ण नहीं है। तर्कणा की इस उपेक्षा के कारण ही इस अवस्था के अंतर्विरोध समन्वित नहीं हो पाते और उससे एक नई अवस्था का उदय होता है जो समाज को संस्थाबद्ध करती है। लेकिन इस अवस्था में भी संस्था के सम्मुख व्यक्ति और उसका विवेक गौण हो जाता है। इस कारण संस्थाएं जड़ हो जाती हैं। इस जड़ता के खिलाफ व्यक्ति का विद्रोह तीसरी अवस्था को जन्म देता है। श्री अरविंद की मान्यता है कि इस व्यक्तिवादपरक अवस्था ने ही विज्ञान का विकास संभव किया है क्योंकि व्यक्ति अपने इंद्रिय-ज्ञान पर आधारित तर्कणा को ही सत्य की कसौटी के रूप में स्वीकार करता है। लेकिन, श्री अरविंद की मान्यता के अनुसार इंद्रिय-ज्ञान और उस पर आधारित तर्कणा चेतना के मानव-स्तर तक ही उपयोगी है। चेतना के विकास की प्रक्रिया अभी जारी है और उसका अगला लक्ष्य अतिमन या अतिमानव है। स्पष्ट है कि इस अतिमन या अतिमानव की ज्ञान-मीमांसा में ऐंद्रिक-संवेदन पर आधारित चेतना के बजाय अंतःप्रज्ञा या अंतर्बोध को केंद्रीय महत्त्व प्राप्त होगा। इसलिए केवल तर्कणा पर आश्रित रहने से काम नहीं चलेगा-तर्कणा से गुजरकर उस अंतःप्रज्ञा तक पहुंचना होगा जिसमें तर्कणा की उपलब्धियां भी शामिल होंगी। इसे तुलना करना न माना जाए तो कह सकते हैं कि जैसे कार्ल मार्क्स के आदिम कम्यून और सर्वहारा अधिनायकत्व के बाद के वर्गहीन समाज के कम्यून में फर्क है, कुछ वैसे ही श्री अरविंद की आदिम धार्मिक अंतःप्रज्ञा और अतिमन की अंतःप्रज्ञा में भी फर्क है। इतिहास की पूरी प्रक्रिया दोनों का रूपातंरण कर देती है। इसीलिए श्री अरविंद की आध्यात्मिकता में पार्थिवता का अस्वीकार नहीं है। उनकी इतिहास की व्याख्या सांख्य दर्शन की त्रिगुणात्मक प्रकृति-तमस्, रजस् और सत्त्व-पर आधारित प्रतीत होती है।
श्री अरविंद की इस व्यवस्था के अनुसार आज सबसे बड़ी आवश्यकता अंतःप्रज्ञा के विकास के लिए काम करने की है। इतिहास का अगला चरण वही है, इसलिए सभी मानवीय प्रयत्नों की दिशा वही होनी चाहिए। यही कारण था कि स्वयं श्री अरविंद ने आजादी के संघर्ष से स्वयं को प्रत्यक्षतः अलग कर अपने संपूर्ण कर्म को ही इसी दिशा की ओर मोड़ दिया। उनकी मान्यता है कि अंतःप्रज्ञा के माध्यम से ही हम संपूर्ण अस्तित्व की एकता और समग्रता का बोध कर सकते हैं और यह बोध ही वर्तमान सभी अंतर्विरोधों, अंतर्राष्ट्रीय तनावों और शोषण को मिटा सकता है। इसके बिना हम एक से दूसरी अधूरी और इसलिए अंतर्विरोध पूर्ण व्यवस्थाओं में फंसते रहेंगे।
इस प्रकार श्री अरविंद की मूल्य-मीमांसा संपूर्ण समाज द्वारा अयमात्म ब्रह्म के बोध को चरम मूल्य मानती है और उनकी ज्ञान-मीमांसा अंतःप्रज्ञा को ज्ञान का प्रामाणिक स्रोत। इसीलिए श्री अरविंद ऐसी समाज-व्यवस्था को श्रेय मानते हैं जो व्यक्ति की स्वतंत्रता का सम्मान करते हुए उसमें सामूहिक जीवन का एक अभिन्न अंग होने का बोध विकसित करे। कला, साहित्य और समाजशास्त्रीय चिंतन की दिशा भी यही होनी चाहिए। इसीलिए श्री अरविंद के शिक्षा-दर्शन में भी बालक में उन सुप्त गुणों के विकास का आग्रह है, जो उसमें स्वैच्छिक सामुदायिक जीवन-प्रवृत्ति का विकास करते हों। कुछ विषयों का ज्ञान दे देना शिक्षा नहीं है। शिक्षा बालक के सर्वांगीण विकास की वह प्रक्रिया है जो उसमें सुप्त सर्जनात्मक चेतना और प्राणशक्ति का सम्यक् विकास करती है। इसलिए शिक्षा को बालक के व्यक्तित्व में कर्म, तर्कणा और अनुभूति का समन्वित विकास करना चाहिए। स्वैच्छिक श्रम उसमें कर्म की प्रवृत्ति का विकास करता है, विज्ञान और मानविकी की विभिन्न शाखाओं का ज्ञान अपने परिवेश की समझ और तर्कशक्ति का विकास करता है तथा योग उसमें अंतःप्रज्ञा का विकास संभव करता है। इस अंतःप्रज्ञा के विकास में ही मनुष्य के लिए ईश्वरीय जीवन की प्राप्ति संभव है। श्री अरविंद की मान्यता है कि विकास की गति इसी दिशा में है, पर हम अपने प्रयत्नों द्वारा उसे और तेज कर सकते हैं।
निश्चय ही श्री अरविंद के दर्शन में पार्थिव और आध्यात्मिक दोनों का स्वीकार है, पर अंततः, वह चेतना को इंद्रियातीत मानते हैं। लेकिन यह स्पष्ट नहीं होता कि अतिमन भी मानवीय देह में निवास करने के कारण ऐंद्रिक आधार से पूर्णतः मुक्त कैसे हो सकेगा? यदि देह के बिना अतिमन का अस्तित्व संभव है तो पार्थिव जीवन का क्या होगा? पार्थिव के अध्यात्मीकरण और उसके अनस्तित्व में फर्क है। इसी प्रकार योग के आधार पर अतिमन का विकास श्री अरविंद को रहस्यवादियों की श्रेणी में प्रतिष्ठित कर देता है, जिसकी परख तर्क और ऐंद्रिक प्रमाणों के आधार पर नहीं हो सकती। श्री अरविंद के अपने जीवन और दर्शन में बहुत-सी परालौकिक या तांत्रिक प्रवृत्तियों की भी स्वीकृति है जिनका कोई वैज्ञानिक आधार अभी तक स्पष्ट नहीं है।
लेकिन परालौकिक या तांत्रिक को छोड़ देने पर भी श्री अरविंद के दर्शन में बहुत कुछ ऐसा है जो मनुष्य के स्वर्णिम भविष्य के प्रति विश्वास पैदा करता है। बीसवीं शती के अधिकांश दार्शनिकों के स्वर जब शंका और दुविधा से ग्रस्त हैं तब श्री अरविंद न केवल मानवीय भविष्य में अदम्य आस्था प्रकट करते हैं-बल्कि अपनी आस्था को एक ऐसा सुदृढ़ तर्कसम्मत आधार भी प्रदान करते हैं, जिसकी पूर्ण अवहेलना संभव नहीं है।
- नंदकिशोर आचार्य
अरस्तू : सामान्यतया, यूनानी दार्शनिक अरस्तू (384-322 ई०पू०) को अहिंसा के दार्शनिक के रूप में नहीं देखा जाता। अपने ग्रंथ पालिटिक्स में मानवेतर जीवन के प्रति अरस्तू का रूख यही बताता है कि मनुष्य अपने लिए अन्य सब जीवों का मन चाहा इस्तेमाल करता है। लेकिन, पशु-अधिकारों के समर्थक विचारकों और विद्वानों ने अरस्तू के जैविकीय लेखन में ऐसे बहुत से वक्तव्यों की ओर संकेत किया है, जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अरस्तू ने अपने उपरोक्त मंतव्य में पर्याप्त संशोधन कर लिया था। डी०एम० बाल्मे जैसे अरस्तू-विद्वानों का विचार है कि मानवेतर जगत को मानव-जगत के उपयोग के लिए मानने वाला अरस्तू का वक्तव्य शायद पालिटिक्स से पूर्व का है, क्योंकि उनके जैविकीय वक्तव्यों से उसकी संगति नहीं बैठती।
यह उल्लेखनीय है कि अपने जैविकीय अध्ययन में अरस्तू न केवल पशु-जगत को, बल्कि वनस्पति-जगत को भी मानव-जगत की संगति में देखते हैं। इस प्रकार, अरस्तू के यहां प्रकारांतर से जीवन के तात्त्विक एकत्व के बोध का प्रस्ताव है जो सभी प्रकार के जीवन के लिए समान अधिकारों का आधार है। वह लगातार उन चारित्रिकताओं पर बल देते हैं जो वनस्पति-जगत, पशु-जगत और मानव-जगत में समान हैं। जैसे मनुष्य किसी वस्तु को देखता और अपने लिए उसके उपयोग की कल्पना करता है, वैसा ही पशु भी करते हैं। मनुष्यों की तरह ही पशुओं में भी कुछ बुनियादी आवेग, जैसे भूख, नींद, गुस्सा, आनंद और कभी-कभी करुणा की भावनाएं भी पाई जाती हैं। कुछ पशुओं में निर्णय-क्षमता भी कुछ सीमा तक मिलती है। हमारे समय में पीटर सिंगर इसके समर्थन में चिंपाजी का उदाहरण देते हैं। स्टीवन एम० वाइज ने अपनी पुस्तक रैटलिंग दि केज में अरस्तू के विचारों का विश्लेषण करते हुए निष्कर्ष दिया है कि उसके अनुसार कई पशु मनुष्य की तरह ही सोचने और योजना बनाने, भावनाओं को महसूस करने तथा उनका प्रत्युत्तर देने, अन्य पशुओं की भावनाओं को समझने और अपनी जाति तथा अन्य जाति के सदस्यों को पहचानने आदि का सामर्थ्य रखते हैं।
इसीलिए अरस्तू यह मान लेते हैं कि मनुष्यों के जीवन की ही तरह पशु के जीवन का प्रयोजन वह खुद ही है और इसीलिए उसे अपने विकास के लिए अवसर और अनुकूल परिस्थिति मिलनी चाहिए। इससे यह स्वयमेव प्रमाणित हो जाता है कि मनुष्य का पशु-जीवन पर अधिकार या उसका शोषण या शिकार आदि प्राकृतिक विधि के अनुरूप न होने के कारण अनैतिक है-मांसाहार भी क्योंकि वह भी पशु के जीवन का अपनी संतुष्टि के लिए उपभोग करना है। अरस्तू के अनुसार मनुष्य के सभी कार्यों अर्थात् जीवन का प्रयोजन सुख है। स्पष्ट है कि यही प्रयोजन पशु के जीवन का भी है क्योंकि वह अपनी कई चारित्रिकताओं में मनुष्य के समान है। अपने विवेक का इस्तेमाल मनुष्य की सहज चारित्रिकता है और यह विवेक उसके सम्मुख यह स्पष्ट कर देता है कि पशु-जीवन का स्वतंत्र अस्तित्व है, वह नैतिक रूप से मनुष्य के अधिकार क्षेत्र में नही है; इसलिए मनुष्य का अपने उपयोग के लिए उसका शोषण, पीड़ा पहुंचाना या मारना नैतिक दृष्टि से अनुचित ही माना जाएगा। इस तरह के आचरण के बिना अरस्तू की सद्गुण (virtue) की अवधारणा को भी ठीक तरह से लागू नहीं किया जा सकता क्योंकि सद्गुण केवल मानव-जगत के लिए ही नहीं, पशु-जगत के लिए भी होने चाहिए-यदि उन्हें लागू करने वाला मनुष्य है।
द्रष्टव्यः बेंथम, जेरेमी; पशु-मुक्ति; रशेल्स, जेम्स; रीगन, टॉम; वाइज स्टीवन एम०।
- नंदकिशोर आचार्य
अराजकतावाद : सामान्यतः, अराजकता का अर्थ अव्यवस्था तथा अशांति से लिया जाता है। लेकिन, एक राजनीतिक अवधारणा के रूप में अराजकता का अर्थ है राजसत्ता की अनुपस्थिति। इसे किसी भी प्रकार की सत्ता की अनुपस्थिति भी कहा जा सकता है। एक राजनीतिक विचारधारा के रूप में अराजकतावाद सत्ता की उपस्थिति को व्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए आघात मानता है तथा उसके स्वतंत्र विकास के लिए यह आवश्यक मानता है कि वह किसी भी प्रकार की सत्ता के दबाव से मुक्त हो। अराजकतावाद प्रकारांतर से एक अहिंसक व्यवस्था की कल्पना करता है, जिसमें सत्ता या बलप्रयोग का कोई स्थान न हो।
अराजकतावादी दर्शन का आधार यह विश्वास है कि मनुष्य स्वभावतः उत्तम प्रकृति (Benign Nature) का है तथा सत्ता के साथ उसका संबंध उसकी प्रकृति को संस्कारित करने के बजाय विकृत कर देता है। मनुष्य की यह उत्तम प्रकृति उसके जीवन में सद्भाव, परोपकार, स्वैच्छिक सहयोग और पारस्परिकता के रूप में प्रकट होती है। महात्मा गांधी का कहना है कि यदि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति हिंसा की होती तो यह दुनिया कभी भी नष्ट हो गई होती। इसलिए यदि सभी को उनकी उत्तम प्रकृति में राज्य या किसी भी सत्ता रूप द्वारा हस्तक्षेप न करते हुए रहने दिया जाए तो स्वभावतः एक उत्तम जीवन संभव हो सकेगा। यह भी उल्लेखनीय है कि अराजकतावादी विचारक केवल राज्य संस्था के अभाव पर ही नहीं संपत्ति की संस्था के अभाव पर भी बल देते हैं। प्रसिद्ध फ्रांसीसी अराजकतावादी प्रूदों (Proudhon) की प्रसिद्ध सूक्ति है : संपत्ति चोरी है। प्रूदों का मानना है कि अपने आवास तथा बुनियादी आवश्यकताओं की स्वस्थ पूर्ति से अधिक संपत्ति रखना एक अपराध है। इसे जैन-दर्शन के अपरिग्रह व्रत के संदर्भ में व्याख्यायित किया जा सकता है।
प्रूदों ने बाजार-व्यवस्था को भी शोषण और बल पर आधारित अर्थात् हिंसक मानते हुए परस्परवाद के आधार पर आर्थिक प्रक्रिया को विकसित करने की बात कही, जिसमें स्वशासी उत्पादक आपस में न्यायसंगत विनिमय कर सकें। प्रूदों इसीलिए जमींदारी, पूंजीवादी और राष्ट्रवाद को असंगत ठहराता है।
प्रसिद्ध अराजकतावादी विचारकों में प्रूदों के अतिरिक्त गॉडविन, क्रोपाटकिन, कार्लमार्क्स, एंगेल्स, बाकुनिन, जार्ज सारेल, तोलस्तोय और महात्मा गांधी का उल्लेख किया जाता है। अमरीकी विचारक नॉजिक (Nozick) को अर्ध-अराजकतावादी विचारक माना जाता है। विलियम गॉडविन ने अपनी पुस्तक एनक्वायरी कंसर्निंग पॉलिटिकल जस्टिस में यह तर्क रखा है कि मनुष्य के नैतिक और राजनीतिक रूप से जागरूक होने के साथ-साथ वह स्वतः ही राज्य की निरंकुश सत्ता के सम्मुख झुकने से इनकार कर देता है। अतः, नैतिकता और राजनीतिक जागरूकता के बढ़ने के साथ-साथ राज-सत्ता की निर्बलता बढ़ेगी और अंततः उसका पूर्ण लोप हो जाएगा और सभी मनुष्य स्वैच्छिक संबंधों पर आधारित व्यवस्था के माध्यम से न्यायपूर्ण समाज का विकास कर सकेंगे।
कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने वर्ग-संघर्ष के आधार पर इतिहास की व्याख्या करते हुए तर्क दिया कि राज्य का जन्म स्वामी वर्ग के हितों की रक्षा के लिए हुआ है। अतः, साम्यवादी क्रांति के बाद जब समाज में वर्ग नहीं रहेंगे तो राज्य की कोई आवश्यकता न रहने के कारण वह स्वतः ही लुप्त हो जाएगा। लेकिन वर्गहीन समाज की स्थापना के लिए ये विचारक सर्वहारा के अधिनायकत्व को आवश्यक मानते हैं, जो प्रकारांतर से एक निरंकुश व्यवस्था हो जाती है। मिखाइल बाकुनिन भी एक साम्यवादी विचारक था। उसकी मान्यता है कि मनुष्य भय के कारण सत्ता के सम्मुख झुकता है-चाहे वह धर्म (ईश्वर) की सत्ता हो या राज्य की। प्रत्यक्षवादी विज्ञान की सहायता से धर्म का भय दूर किया जा सकता है, और विद्रोह द्वारा राज्य के भय का अंत किया जा सकता है। वह राज्य का अंत होने पर प्रूदों के विचारों के अनुकूल संघीय व्यवस्था का सुझाव देता है जो छोटे-छोटे पड़ौसी समूहों से बनी होगी। बाकुनिन भी निजी संपत्ति की अवधारणा को नहीं स्वीकार करता तथा उत्पादन के साधनों को सामूहिक स्वामित्व मेंरखना चाहता है।
अराजकतावादी विचारकों में रूसी विचारक प्रिंस क्रोपाटकिन का अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान है। उनकी पारस्परिक सहायता (Mutual Aid) की अवधारणा ने मानव-विकास की नई दृष्टि विकसित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका-निर्वाह किया है। क्रोपाटकिन का मानना है कि पारस्परिक सहयोग या सामाजिकता एक अंतर्जात प्रवृत्ति है और विकास की प्रक्रिया संघर्ष के बजाय सहयोग पर आधारित है। क्रोपाटकिन मानते हैं कि उपयुक्त शिक्षा और सहयोगमूलक अर्थव्यवस्था द्वारा मनुष्य में इस पारस्परिक सहयोगी की प्रवृत्ति को और अधिक विकसित किया जा सकने पर राज्य स्वतः ही अहिंसक तरीके से समाप्त हो जाएगा-क्योंकि राज्य का आधार हिंसा या बल है, पारस्परिक सहयोग नहीं। क्रोपाटकिन की व्यवस्था में निजी संपत्ति का कोई स्थान नहीं है, इसलिए विषमता का भी नहीं। जार्ज सॉरेल ने भी राज्यविहिन समाज की तो कल्पना की, लेकिन इसके लिए उसने श्रमिक संघों द्वारा क्रांति को माध्यम माना। इसलिए उसके विचार को अराजकतावादी श्रमाधिपत्यवाद (Anarcho-Syndicalism) कहा जाता है।
अराजकतावादी विचारकों में तोलस्तोय का महत्त्व इसलिए है कि वह व्यक्ति के नैतिक जीवन पर अधिक जोर देते हैं। उनके अनुसार एक सच्चा ईसाई कभी हिंसा का सहारा नहीं ले सकता, जबकि राज्य का तो आधार ही हिंसा है। वह मानते हैं कि ईश्वर का राज्य हमारे भीतर है, इसलिए उसे किसी बाहरी राज्य की आवश्यकता ही नहीं है। यदि सभी नैतिक नियमों का पालन करते रहें तो राज्य की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। तोलस्तोय बल पर आधारित राज्य को अनैतिक मानते हैं क्योंकि वह सेना के बल पर बुराई का प्रतिकार करना चाहता है, जबकि तोलस्तोय बुराई के भी अप्रतिकार (Non-resistance) की बात करते हैं। वह भी निजी संपत्ति की अवधारणा को विषमताजनक बताते हुए खारिज कर देते हैं।
अराजकतावादी विचारकों में महात्मा गांधी का स्थान बहुत विशिष्ट है क्योंकि वह व्यक्ति और व्यवस्था दोनों को सत्याग्रह की अहिंसक प्रक्रिया से गुजारकर जिस स्वराज्य की कल्पना करते हैं, उसमें प्रत्येक व्यक्ति न केवल स्वतंत्र और आत्मानुशासित है, बल्कि अन्य के प्रति उत्तरदायी भी। सत्याग्रह का तात्पर्य अन्य के प्रति अपने नैतिक कर्तव्य का आग्रह भी है। वह आर्थिक-राजनीतिक विकेंद्रीकरण तथा ग्राम-स्वराज्य की प्रक्रिया के माध्यम से एक अहिंसक समाज का स्वप्न देखते हैं। राज्य को संगठित हिंसा मानने के कारण महात्मा गांधी का राजनीतिक आदर्श शक्ति-केंद्र के रूप में राज्य का लोप तथा स्वायत्त ग्राम-गणतंत्रों की संघीय व्यवस्था है, जिसमें कोई किसी की प्रभुसत्ता के दबाव में नहीं है। इसीलिए वह पिरामिडाकार राजनीतिक संरचना की जगह सामुद्रिक वलय के रूप वाली राजनीतिक संरचना का आग्रह करते हैं। उत्पादन के बड़े साधनों पर व्यक्तिगत स्वामित्व के स्थान पर वह ट्रस्टीशिप की अवधारणा का प्रतिपादन करते हैं।
इस प्रकार, अराजकतावाद एक ऐसी अवधारणा है जो मनुष्य की उत्तम प्रकृति में विश्वास रखती तथा सत्ता के सभी रूपों-राज्य, संपत्ति और धर्म-संस्थान को सही मानव-विकास में बाधा मानती है। अराजकतावादी विचारक राज्य को ही अस्वीकार नहीं करते; वे उत्पादन के साधनों पर वैयक्तिक स्वामित्व को आर्थिक विषमता तथा राज्य की दमन-शक्ति के उपयोग के लिए भी जिम्मेदार मानते हैं। वे स्वैच्छिक संघीय व्यवस्था को राज्य का विकल्प मानते हैं। मनुष्य स्वतंत्र है तथा स्वैच्छिक पारस्परिक सहयोग ही मनुष्य-समाज के कल्याण-नैतिक और भौतिक कल्याण-का आधार हो सकता है। हिंसा-बल पर आधारित राज्य मनुष्य का वास्तविक कल्याण नहीं कर सकता।
द्रष्टव्य : क्रोपाटकिन; तोलस्तोय; गांधी, महात्मा।
- नंदकिशोर आचार्य
अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार : इतिहास में पुरातन काल से ही प्रत्येक राज्य में किसी-न-किसी प्रकार के अल्पसंख्यकों की समस्या रही है और उन्हें हिंसात्मक व्यवहार-कानूनी भेदभाव, सामाजिक अपमान-उत्पीड़न, राजनीतिक दमन आदि-का निशाना बनाया जाता रहा है। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप अल्पसंख्यकों की ओर से भी हिंसात्मक व्यवहार का सहारा लिया गया है। इसलिए यह आश्चर्यजनक है कि संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकारों की विश्व -घोषणा में अल्पसंख्यकों के अधिकारों का अलग से कोई उल्लेख नहीं किया गया है। हर्स्ट हन्नम के अनुसार इसका कारण शायद यह रहा कि अल्पसंख्यक वर्ग को अलग मानना लोकतांत्रिक अथवा साम्यवादी दोनों ही प्रकार के राज्य के प्रतिमानों के अनुकूल नहीं बैठता था। राष्ट्र-राज्य के निर्माण में विविधता के लिए सम्मान नहीं होता। यह आशंका भी रही कि अल्पसंख्यकों को एक वर्ग के रूप में विशेष संरक्षण देने से अलगाववाद की प्रवृत्ति बढ़ने का खतरा बढ़ जाता है, जबकि अंतरराष्ट्रीय कानून में अलगाव को कोई कानूनी अधिकार की मान्यता प्राप्त नहीं है।
लेकिन, इसमें कोई संदेह नहीं कि अल्प-संख्यकों की समस्या परेशानियां पैदा करती रही है और उनकी विशिष्ट हैसियत की सुरक्षा तथा उनके खिलाफ भेदभाव का व्यवहार निरपवाद रूप से रहा है। इसलिए उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। यूरोप में 1648 ई० की वेस्टफेलिया संधि में तुर्की साम्राज्य के अंतर्गत रहने वाली ईसाई जातियों की सुरक्षा को स्वीकृति दी गई। उन्नीसवीं शताब्दी में राष्ट्रवाद के विकास के साथ अल्पसंख्यकों की समस्या ने और जोर पकड़ा। 1919 ई० में पेरिस शांति सम्मेलन के अंतर्गत कई अल्पसंख्यक संधियां हुईं और राष्ट्रसंघ को इन संधियों की अनुपालना की देखरेख का अधिकार दिया गया। लेकिन, औपनिवेशिक शक्तियों ने अल्पसंख्यकों का इस्तेमाल श्वेत हितों के लिए किया। यद्यपि, संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकारों की विश्व-घोषणा में अल्पसंख्यकों का अलग से कोई उल्लेख नहीं था; लेकिन, धीरे-धीरे इस कमी को दूर करने के लिए किए गए प्रयत्नों को सफलता मिली और 1966 ई० मेंअल्पसंख्यकों के अधिकारों की संविदा पारित की गई। लेकिन, यह संविदा अल्पसंख्यक वर्ग के व्यक्ति सदस्य के अधिकारों का जिक्र तो करती है, पर एक समूह के रूप में अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर मौन है। 1969 ई० के इंटरनेशनल कन्वेंशन ऑन दि एलिमिनेशन ऑफ ऑल फॉर्म्स ऑफ रेशल डिसक्रिमिनेशन, 1978 ई० के यूनेस्को डिक्लेरेशन ऑन रेश एंड रेशल प्रिज्युडिस, 1970 ई० के यू एन कमीशन ऑन प्रिवेशन ऑफ डिसक्रिमिनेशन एंड प्रोटेक्शन ऑफ माइनोरिटीज, 1990 ई० की कांप्रेस ऑन सिक्योरिटी एंड प्रोटेक्शन इन यूरोप आदि में अल्पसंख्यकों के सामूहिक अधिकारों को मान्यता मिलती रही और अंततः 1992 ई० में अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा यू एन डिक्लेरेशन ऑन दि राइट्स ऑफ पर्संस बिलोंगिंग टू माइनोरिटीज को मान्यता दी गई। 1995 ई० में अल्पसंख्यकों के सवालों के लिए एक उपायोग का गठन भी किया गया।
अल्पसंख्यकों के अधिकारों को लेकर पहला सवाल तो यही उठता है कि अल्पसंख्यक की परिभाषा क्या होगी। एक तो अल्पसंख्यक उस वर्ग को कहेंगे जो राज्य की बाकी प्रजा से संख्या में कम हो तथा वर्चस्वशाली न हो-यदि अल्पसंख्यक होते हुए भी कोई वर्ग वर्चस्वशाली है तो उसे अल्पसंख्यक मानकर उसके लिए विशिष्ट व्यवस्था करना उचित नहीं है। दूसरे, मानवाधिकार समिति के अनुसार, जातीय, धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के साथ किसी देश में रहने वाले प्रवासी श्रमिकों अथवा यात्रियों को भी अल्पसंख्यक मानना होगा। इसी तरह दूसरा सवाल है कि उनके लिए राज्य का क्या कर्त्तव्य होगा। कहा गया है कि न केवल अल्पसंख्यक समूहों के व्यक्तियों को सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और सार्वजनिक जीवन में प्रभावशाली ढंग से भाग लेने का (दो-दो) तथा
स्वतंत्रतापूर्वक तथा बिना किसी हस्तक्षेप या भेदभाव के अपनी संस्कृति का आनंद लेने का, अपने धर्म को मानने और उस पर चलने का तथा निजी स्तर पर सार्वजनिक रूप से अपनी भाषा का इस्तेमाल करने का (धारा दो-एक) अधिकार है,
बल्कि राज्य से यह अपेक्षा की गई है कि वह उन के संरक्षण के लिए विशेष कदम उठाएगी। धारा एक (एक) में सभी राज्यों को निर्देश दिया गया है कि वे
अपने-अपने क्षेत्र में अल्पसंख्यकों के अस्तित्व तथा उनकी राष्ट्रीय या जातीय, सांस्कृतिक, धार्मिक और भाषाई पहचान की रक्षा करेंगे और उनकी इस पहचान को बढ़ावा देने के लिए उचित स्थितियों को प्रोत्साहित करेंगे।
इसी तरह धारा एक (दो) कहती है कि सभी राज्य इन उद्देश्यों को प्राप्त करने लिए कानून बनाने के साथ-साथ अन्य उपयुक्त कदम उठाएंगे।
धारा दो (पांच) अल्पसंख्यकों को इस बात का अधिकार भी देती है कि वे न केवल उस राज्य में रहने वाले अपने समूह के अन्य सदस्यों के साथ बल्कि अन्य अल्पसंख्यक समूहों और अन्य राज्यों के उन नागरिकों के साथ भी, स्वतंत्र और शांतिपूर्ण संपर्क स्थापित कर सकें, जो जातीय, धार्मिक या भाषाई संबंधों के कारण उनसे जुड़े हैं।
घोषणा के अनुच्छेद चार (पांच) में यह माना गया है कि राज्य को इस बात के लिए उपयुक्त उपाय करने चाहिए कि अल्पसंख्यक समुदाय के व्यक्ति अपने देश की आर्थिक उन्नति और विकास में पूर्ण सहभागिता करने के अवसर पा सकें। अन्य मानवाधिकार घोषणाओं में ऐसी ही आशा अन्य वंचित या पिछड़े समूहों के लिए की गई है।
यह आपत्ति की जा सकती है कि मानवाधिकार तो वे अधिकार हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्य होने के नाते प्राप्त हैं और इस दृष्टि से सभी मनुष्य समान हैं, अतः, किसी वर्ग के लिए विशेष व्यवस्था क्यों हो। लेकिन, मानवाधिकारों के विकास की प्रक्रिया में अंतरराष्ट्रीय मानव-बिरादरी द्वारा यह महसूस किया गया किसमानता का यह अधिकार कुछ समूहों के लिए अनुपलब्ध ही रहता है, जब तक उन्हें अन्य समूहों के बराबर योग्यता और हैसियत उपलब्ध न करवा दी जाए।
यहां इस बात की भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि यदि देश का समुचित विकास होना है तो किसी भी समूह का सहभागिता से वंचित रहना विकास की प्रक्रिया में अवरोध होगा क्योंकि इसका मतलब होगा एक बड़ी जनसंख्या के श्रम, शक्ति और प्रतिभा का लाभ देश को न मिल पाना। वास्तव में, जब राज्य द्वारा किसी एक वंचित समूह के लिए कुछ विशेष प्रयत्न किए जाते हैं तो यह अन्य समूहों की कीमत पर नहीं होता और उनकी योग्यता का लाभ भी अंततः बहुसंख्यक समाज को भी मिलना ही होता है। यदि अल्पसंख्यक समुदाय के वंचित समूह के लिए कुछ विशेष योजनाएं बनाई जाती हैं, जो उनके लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक तथा सार्वजनिक जीवन में सहभागिता को बढ़ावा देने वाली हों, तो इससे न केवल देश के आर्थिक विकास को गति मिलती है, बल्कि सामाजिक गैर-बराबरी और सांप्रदायिकता से और बेहतर ढंग से लड़ा जा सकता है।
लेकिन, यह देखना भी राज्य का कर्त्तव्य है कि अल्पसंख्यक समुदाय अपनी संस्कृति या परंपराओं के संरक्षण के नाम पर अपने उन सदस्यों के साथ अन्याय न कर सके जो उसके किन्हीं रिवाजों से सहमत नहीं है क्योंकि सामूहिक अधिकारों के नाम पर वैयक्तिक मानवाधिकारों को कुचला नहीं जा सकता। मानवाधिकार वे अधिकार हैं जो प्रत्येक व्यक्ति को मनुष्य होने के नाते प्राप्त हैं और जिनसे उसे किसी भी स्थिति में वंचित नहीं किया जा सकता। यदि किसी विशेष समूह में कुछ ऐसे रिवाज हैं, जो वैयक्तिक स्वतंत्रता तथा मानवाधिकारों पर आघात करते हों, तो व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करना राज्य का दायित्व हो जाता है।
- नंदकिशोर आचार्य
अशोक : सामान्यतः, इतिहास में राजाओं की प्रसिद्धि उनके युद्धों, साम्राज्य-निर्माण और कुशल शासन-प्रबंध आदि के कारण होती है; लेकिन, अशोक (273-236 ई०पू०) एक ऐसा भारतीय शासक है, जिसका इतिहास में स्थान युद्धों और साम्राज्य-विस्तार के कारण नहीं बल्कि युद्ध और शस्त्र-विजय का परित्याग कर देने के कारण हुआ। अशोक मौर्य साम्राज्य के निर्माता चंद्रगुप्त मौर्य का पौत्र तथा बिंदुसार का पुत्र था, जिसे चंद्रगुप्त द्वारा निर्मित विशाल साम्राज्य उत्तराधिकार में मिला था, जिसमें कलिंग और सुदूर दक्षिण के कुछ अंश को छोड़कर सारा भारतवर्ष सम्मिलित था। इस साम्राज्य में कलिंग को सम्मिलित करने के लिए अशोक को एक भयंकर युद्ध लड़ना पड़ा, जिसमें उसे विजय तो मिली, लेकिन इस युद्ध में हुए नर-संहार ने उसे मानसिक स्तर पर बहुत विक्षुब्ध कर दिया, जिसका विस्तृत उल्लेख उसके तेरहवें शिलालेख में मिलता है। अंततः, बौद्ध धर्म के अहिंसा के संदेश में उसे शांति मिली और उसने भविष्य के लिए शस्त्र-विजय की नीति का परित्याग करने की घोषणा कर दी तथा अपना शेष जीवन और राजकीय साधन मानव जाति में अहिंसा, शांति और नैतिक विकास के लिए समर्पित कर दिए। अशोक द्वारा इस दिशा में किए गए प्रयासों का विवरण स्वयं उसके शिलालेखों में मिल जाता है, जिनका उत्कीर्णन उसने अपने साम्राज्य के विभिन्न हिस्सों में करवाया। इन शिलालेखों के स्थानों के आधार पर ही उस साम्राज्य-विस्तार का अनुमान लगाया जाता है, जो मोटे तौर पर ईरान से दक्षिण भारत तक फैला हुआ था।
बौद्ध ग्रंथों, मुख्यतया दिव्यावदान तथा सिंहली स्रोतों के आधार पर यह माना जाता है कि अपने प्रारंभिक जीवन में अशोक बहुत क्रूर था तथा उसने निन्यानवे भाइयों का वध कर के राज्य हासिल किया था। इस कारण उसे चंडाशोक कहा जाता था। लेकिन, कलिंग युद्ध के बाद उसे बौद्ध भिक्षु उपगुप्त से मिलकर मानसिक शांति मिली और वह बौद्ध धर्म का अनुयायी हो गया। शस्त्र-विजय का परित्याग कर धर्म-विजय को अपना लक्ष्य घोषित करने के परिणामस्वरूप उसे धर्माशोक कहा जाने लगा। यह उल्लेखनीय है कि बौद्ध धर्म का अनुयायी तथा प्रचारक होने के बावजूद वह सभी संप्रदायों का आदर करता तथा उनके प्रति राज्य के व्यवहार में कोई भेदभाव नहीं बरतता था। इस दृष्टि से एक शासक के रूप में उसे सर्वधर्म समभाव का उत्साही समर्थक माना जा सकता है।
अशोक के शिलालेखों में वर्णित धर्म मूलतः अहिंसा है, जो समस्त नैतिकता की बुनियाद होने के कारण न केवल वैयक्तिक और सामाजिक बल्कि राजनैतिक जीवन का भी मूल आधार बन जाता है। अहिंसा, अशोक के लिए, एक सकारात्मक धारणा है, जिसका अर्थ यह है कि न केवल प्राणी-हिंसा न की जाए बल्कि सभी के भौतिक और नैतिक कल्याण के लिए प्रयास किए जाएं। अशोक जीवन की पवित्रता में आस्था रखता था। यह उल्लेखनीय है कि उसने राजकीय भोजनशाला में असंयमित पशु-वध पर रोक लगाकर उसे केवल एक हरिण और दो मोरों तक सीमित कर दिया और घोषणा की कि शीघ्र ही यह भी बंद कर दिया जाएगा।
अशोक ने मनोरंजन के ऐसे सभी तरीकों पर रोक लगा दी, जिनमें रक्तपात, पशु-वध और मांसाहार होता या पशुओं को क्रूरतापूर्वक परस्पर लड़ाया जाता था। उसने राजकीय शिकार-यात्राओं को भी प्रतिबंधित कर दिया तथा विहार-यात्रा के स्थान पर धर्म-यात्रा को प्रोत्साहित किया। अपने शासनकाल के छब्बीसवें वर्ष में उसने अवध्य पशुओं की एक लंबी सूची जारी की, जिसमें ऐसे पशुओं को भी अवध्य घोषित किया गया था, जो मनुष्य के लिए किसी भी प्रकार उपयोगी न भी हों। कुछ खास दिनों पर, जिनकी संख्या छप्पन थी, मछली मारना, बेचना और खाना बंद कर दिया गया। जंगलों में जीवित प्राणी रहते हैं, अतः उनके जलाए जाने पर रोक लगा दी गई। साल में कुछ पवित्र दिनों पर पशुओं का वंध्याकरण या उन्हें दागा जाना बंद कर दिया गया। मृत्यु-दंड पाए व्यक्तियों को तीन दिन की छूट दी जाती थी ताकि वे सच्चे मन से पश्चाताप कर सकें। प्रसिद्ध इतिहासकार राधाकुमुद मुखर्जी का मानना है कि अशोक ने व्यावहारिक कारणों से मृत्यु-दंड को समाप्त नहीं किया-बल्कि मानव-जीवन की पवित्रता को भी उतना महत्त्व नहीं दिया, जितना पशु-जीवन को-क्योंकि उचित और अनुचित में भेद करने का सामर्थ्य पा लेने के कारण मनुष्य उतना निर्दोष नहीं है, जितना पशु हो सकता है। इसलिए हत्यारे मनुष्यों के बजाय निर्दोष पशुओं का जीवन अधिक रक्षणीय है। यह सोचा जा सकता है कि यदि मृत्यु-दंड को लेकर किया गया आधुनिक विचार-विमर्श अशोक के काल में उपलब्ध होता तो शायद वह मृत्यु-दंड को पूर्णतया प्रतिबंधित करने की ओर भी प्रवृत्त हुआ होता।
सकारात्मक अहिंसा का हामी होने के कारण अशोक ने मनुष्यों के साथ-साथ पशु-जीवन के सरंरक्षण के लिए भी राजकीय प्रयास किए। न केवल मनुष्यों के लिए, बल्कि पशुओें के लिए भी औषधालय खुलवाए गए। जंगलों में पशु-पक्षियों के पानी पीने के लिए कुंडियां बनवाई गईं। अशोक ने ऐसे प्रयास अपने साम्राज्य की सीमा से बाहर के यूनानी राज्यों में भी किए। अशोक की अहिंसा का राजनीतिक आयाम और भी चकित कर देने वाला है। अपने सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तेरहवें शिलालेख में वह युद्ध को एक भयंकर बुराई बताते हुए राज्य द्वारा उसे पूरी तरह त्याग देने और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को मैत्री, सद्भाव और शांति के आधार पर निर्मित करने की नीति की घोषण करता तथा भेरी-घोष के स्थान पर धर्म-घोष और शस्त्र-विजय के बजाय धर्म-विजय की नीति का प्रस्ताव करता है। वह यह दावा करता है कि यह धर्म-विजय उसे अपने सभी पड़ौसी राज्यों में भी हासिल हुई है क्योंकि मनुष्यों और मनुष्येतर जीवों के कल्याण के लिए किए गए उसके प्रयासों की सीमा उसके साम्राज्य की सीमा से बाधित नहीं थी-उसने ऐसे कार्य अपने सब पड़ौसी राज्यों में भी किए। उसके द्वारा नियुक्त धर्म-महामात्र नामक अधिकारी उसके साम्राज्य के बाहर भी सबके भौतिक-नैतिक कल्याण के लिए सक्रिय रहते थे। अन्य सबसे अधिक शक्तिशाली होने पर भी उसने अपने सीमावर्ती यूनानी तथा दक्षिणी राज्यों के प्रति मैत्री और समान स्तर के संबंध विकसित किए। अपने साम्राज्य के अंतर्गत आटविक लोगों के बार-बार विद्रोह करने पर भी उसने उनका संहार कर देने के बजाय समझाने-बुझाने की नीति को ही प्राथमिकता दी। अशोक का शासन इस बात का प्रमाण है कि राज्य भी अहिंसक हो सकता है, जिसकी कल्पना महात्मा गांधी भी करते हैं।
प्रसिद्ध इतिहासकार एच०जी० वेल्स ने अपनी पुस्तक आउटलाइन ऑफ हिस्ट्री में अशोक को इसीलिए महानतम शासक (The Greatest of Kings) कहा है क्योंकि एक मनुष्य के रूप में ही नहीं, एक शासक के रूप में भी उसने अहिंसा और शांति के सिद्धांतों के आधार पर राज्य-व्यवस्था का निर्माण किया। कुछ इतिहासकारों की मान्यता है कि अशोक की अहिंसा की नीति से मौर्य-साम्राज्य कमजोर हो जाने के कारण पतनोन्मुख होता गया। लेकिन, यह मान्यता तथ्यों पर आधारित नहीं है। अशोक के उत्तराधिकारी यदि अपनी कमजोरियों के चलते उसकी नीतियों का विवेकपूर्ण संचालन न कर सके तो इसका उत्तरदायित्व अशोक और उसकी नीतियों पर नहीं डाला जा सकता। जिन साम्राज्यों ने हिंसा और शस्त्र-विजय का मार्ग कभी नहीं छोड़ा था, उनका भी पतन तो हुआ ही। इसलिए पतन के कारण अन्य ऐतिहासिक प्रवृत्तियों में खोजे जाने चाहिए, अहिंसा की नीति में नहीं। यह भी उल्लेखनीय है कि मौर्य सेना भंग नहीं कर दी गई थी और वह इतनी शक्तिशाली थी कि मौर्य सेनापति पुष्यमित्र शुंग द्वारा सफल विद्रोह कर शासक बन जाने के बाद इसी सेना द्वारा विदेशी आक्रमण का सफल प्रतिरोध किया गया था।
अंत में, अशोक के संदर्भ में प्रसिद्ध इतिहासकार रमेश चंद्र मजूमदार के इस कथन को सदैव स्मरण करना होगा कि साम्राज्य तो उठते-गिरते रहे हैं, लेकिन अशोक के माध्यम से जो गौरव भारत की नैतिक विजय को प्राप्त हुआ है, उसकी दीप्ति दो हजार साल से अधिक समय व्यतीत हो जाने पर भी धुंधली नहीं हुई है।
- नंदकिशोर आचार्य
अस्तेय : सामान्यतया अस्तेय या अचौर्य को प्रसिद्धि जैन-नीतिमीमांसा के पंच महाव्रतों में से एक के रूप में है। लेकिन, अपरिग्रह और अहिंसा की तरह अस्तेय का महत्त्व जैनेतर धर्म-दर्शनों में भी स्वीकार किया गया है। बौद्ध अष्टांग मार्ग मेंसम्यक् कर्म के साथ सम्यक् आजीव अर्थात् आजीविका के सम्यक् साधन का महत्त्व बताया गया है और चौर्य-कर्म को निश्चय ही सम्यक् आजीव नहीं माना जा सकता। भारतीय षड्दर्शनों में न्याय-दर्शन में लालच और तृष्णा को अनुचित कहा गया है, जो चौर्य-कर्म के कारण बनते हैं। वैशेषिक दर्शन में अस्तेय को ऐसे कर्तव्यों में गिना गया है, जो सब पर सब देशकालों में लागू होते हैं। इनमें सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य और भूतहित भी सम्मिलित है। योग-दर्शन में अहिंसा, अपरिग्रह के साथ अस्तेय को भी आवश्यक यम-नियमों में शामिल किया गया है। उसे अहिंसा का ही एक रूप स्वीकार किया गया है। यहूदियों के दस आदेशों में चोरी की सख्त़ मनाही की गई है। इन आदेशों को ईसाइयत में भी सम्मान किया जाता है। इस्लाम तो चोरी को इतनी बुरी बात मानता है कि चोरी करने वाले के हाथ काट देने का आदेश देता है। इस्लाम में कमाई के लिए जिन साधनों को हराम बताया गया है, उनमें गबन, रिश्वत, नाप-तौल में कमी और चोरी के साथ ब्याज, जुआ, सट्टा और क्रय-विक्रय के वे सभी साधन हराम बताए गए हैं, जो धोखे या दबाव पर आधारित है। कानून की दृष्टि से तो सभी समाजों में चौर्य-कर्म अपराध माना ही गया है। लेकिन, अस्तेय या अचौर्य की व्याख्या कानूनी नहीं बल्कि नैतिक परिप्रेक्ष्य में की जाती है क्योंकि कोई बात कानूनी तौर पर सही होते हुए भी नैतिक स्तर पर गलत हो जाती है। जुआ, सट्टा, वेश्यावृत्ति आदि को कई राज्यों में कानूनी स्वीकृति प्राप्त है; लेकिन, इस आधार पर उन्हें नैतिक नहीं माना जा सकता। इसी प्रकार यदि कोई स्थूल रूप से तो किसी की संपत्ति या वस्तु नहीं चुराता, लेकिन उसे दबाव में लाकर-जो कानूनी रूप से स्वीकार्य भी हो-उसका हक मारता है तो उसे भी नैतिक स्तर पर चोरी ही कहा जाएगा। किसी की मजबूरी का लाभ उठाना, अपने लाभ के लिए अन्य को अपर्याप्त मजदूरी या वेतन देना, बेगार लेना या इसी प्रकार की सभी कानूनसम्मत शोषणकारी गतिविधियां नैतिक स्तर पर चोरी ही कहे जाएंगे। कर बचाने के लिए चालाकियां भी इसी श्रेणी के अंतर्गत आती हैं।
तात्पर्य यह है कि यदि हम किसी की स्थूल वस्तु तो नहीं चुराते, लेकिन उसे उसके हक से वंचित कर देते है, तो उसे अस्तेय नहीं कहा जा सकेगा। दरअस्ल, अस्तेय भी अहिंसा का ही एक प्रकार है तथा जब हम किसी को धोखे या किसी भी तरह के दबाव में लाकर किसी को उसके हक से वंचित कर देते हैं तो वह भी एक प्रकार की हिंसा ही है। इस्लाम में तो उचित रूप से कमाई गई संपत्ति पर भी वंचित लोगों का हक माना गया है। कुरआन में कहा गया है लोगों की धन-संपत्ति में हक है मांगने वाले और न मांगने वाले वंचित व्यक्ति का। इसलिए व्यक्ति ही नहीं; जो व्यवस्था भी किसी को उसके हक अर्थात् रोजी, उचित मजदूरी और स्वस्थ जीवन के साधनों से वंचित रखती है, उसे नैतिक स्तर पर अहिंसक और अस्तेयवादी नहीं कहा जा सकता।
द्रष्टव्य : पंच महाव्रत।
- नंदकिशोर आचार्य
अस्सलाम (शांति) : इस्लाम में अहिंसा की सबसे महत्वपूर्ण बुनियाद इस्लाम में शांति (Peace) की अवधारणा है। शांति इस्लाम का आधार है। इस्लाम का शब्द सलम से निकला है जिसका अर्थ अरबी में शांति है। स्वयं इस शब्द का कुरआन में बार- बार इस्तेमाल हुआ है और एक बड़ी नेमत के रूप में इसका महत्त्व के साथ उल्लेख किया गया है। (2:125, 24:55, 6:82)।
हदीस में है कि शांति इस्लाम का अंश है (अस्सलाम फिल इस्लाम) कुरआन में अल्लाह के जो विभिन्न नाम बताए गए हैं उनमें एक नाम अस्सलाम (59:23) भी है। इसी प्रकार कुरआन में जन्नत को दारुस्सलाम का नाम दिया गया है। (6:2)। इस्लामी अभिवादन में, जिसके हकदार निःसंदेह गैर-मुस्लिम भी हैं, इसी शब्द अस्सलाम को अपनाया गया। हर नमाज का समापन इसी शब्द पर होता है। इस्लाम को फैलाना अम्न को बढ़ावा देना है। नबी करीम सल्ल० ने फरमाया कि सबसे बेहतर इस्लाम यह है कि तुम निर्धनों को खाना खिलाओ और जिनको तुम पहचानते हो और जिन्हें नहीं पहचानते, दोनों को सलाम करो। इस्लामी शरीअत का उद्देश्य बुनियादी तौर पर शांति की विश्वव्यापी धारणा को व्यावहारिक रूप देना है और इसका संबंध पांच चीजों से है। धर्म की सुरक्षा, जान की सुरक्षा, माल की सुरक्षा, नस्ल की सुरक्षा और बुद्धि की सुरक्षा। यही पांच अधिकार मुनष्य के मौलिक अधिकारों की भूमिका बनते हैं। अशांति और हिंसा सामान्यतया अधिकारों के हनन की बुनियाद पर ही सामने आते हैं, वर्ना मनुष्य प्राकृतिक रूप से एक शांतिप्रिय सृष्टि है।
नबी सल्ल० ने शांति की स्थापना के लिए हर प्रकार की कुरबानियां दीं। नुबूवत से पहले आपने मक्का में हिल्फल फ़ुज़ूल की संधि में स्वयं भाग लिया, जो पीड़ितों को न्याय दिलाने की लिए की गई थी। आप ऐसी संधि में भाग लेने के सदैव इच्छुक रहे। आपके पवित्र जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना हुदैबिया की संधि (6 हिजरी) है। आपने सख्त नफरत और आपसी तनाव के वातावरण में विरोधियों की एकतरफा कड़ी शतरें पर उनसे संधि कर ली। 10 हिजरी में मक्का विजय के अवसर पर आपने उन्हीं दुश्मनों को आम माफी की घोषणा करके लोगों को स्वतंत्र कर दिया जिन्होंने आपको मक्का से निकाला था, और उनके मन-मस्तिष्क से हिंसा और नफरत की बुनियाद एक तरह से समाप्त कर दी। वस्तुतः इस्लाम में शांति एक शाश्वत सिद्धांत है जब कि जंग महज एक अस्थाई और अपवादी मामला है। इसलिए रसूल सल्ल० ने फरमाया कि दुश्मन से मुक़ाबले की इच्छा न करो और अल्लाह से सुख शान्ति मांगो। (बुख़ारी, किताबुल जिहाद)।
इस्लाम के उसूलों व सिद्धांतों का मूल स्रोत कुरआन और हदीस व सुन्नत है और उनका व्यावहारिक प्रदर्शन पैगंबरे इस्लाम और आपके चुनींदा सहाबा (साथियों) के अमल की रोशनी में हुआ है। कुरआन व हदीस मूल रूप से उन्हीं नैतिक शिक्षाओं का निचोड़ है और उनकी ज्यादा साफ और निखरी हुई शक्ल है जिन को पैगंबरों और महापुरुषों ने आरंभ काल से हर जमाने में अपनी संबोधित कौम के बीच फैलाया।
पैगंबरे इस्लाम ने फरमाया कि मैं उच्च आचरण की पूर्ति के लिए (अल्लाह की ओर से) भेजा गया हूं। मानो आपके आने का उद्देश्य नैतिकता को मुकम्मल करना था और नैतिकता की यह अवधारणा आपकी अपनी गढ़ी हुई नहीं थी, वह वही थी जो हजरत आदम अलैहि० के साथ ही अल्लाह ने मानवता के मार्ग दर्शन के लिए भेज दी थी क्योंकि इसकी जरूरत पहले ही दिन से थी।
कुरआन और बाइबिल के अनुसार हिंसा की पहली घटना आदम के दो बेटों हाबील और काबील के बीच घटी, जब एक ने दूसरे की हत्या कर दी। हिंसा और अकारण हत्या की इस घटना का उल्लेख करने के बाद कुरआन में कहा गया है कि जो व्यक्ति किसी को बिना इसके कि उसने किसी की हत्या की हो या धरती पर दंगा फसाद फैलाया हो, कत्ल कर दे तो मानो उसने पूरी मानवता का कत्ल कर दिया और जिस किसी ने किसी की जान बचाई तो उसने मानो पूरी इंसानियत की जान बचाई (5:32)। पैगंबरे इस्लाम ने फरमाया कि हिंसा की इस घटना के बाद दुनिया में जो भी हिंसा की घटना घटित होती है, उसके गुनाह का एक हिस्सा काबील के सर जाता है।
एक दूसरे अवसर पर अशांति और राजनीतिक बिखराव के वातावरण में आपने मुसलमानों को जिस प्रकार का रवैया अपनाने का निर्देश दिया वह यह था-तुम आदम के दो बेटों में से एक यानी पीड़ित बेटे की तरह हो जाओ। इस्लाम के अहिंसा के दृष्टिकोण को कुरआन की उपरोक्त आयत और पैगंबरे इस्लाम की हदीस के परिपेक्ष्य में समझने और परखने की कोशिश करनी चाहिए।
- प्रो० अख्तरुल वासे
अहिंसक अर्थव्यवस्था : अहिंसक आर्थिक व्यवस्था समग्र रूप से अहिंसक समाज के परिप्रेक्ष्य में ही समझी जा सकती है। इसकी कल्पना मूल्य-आधारित और सर्वजन हितकारी व्यवस्था के रूप में की गई है। वर्तमान शोषणकारी और दीर्घ-दृष्टिविहीन अर्थव्यवस्था के विकल्प के रूप में अहिंसक अर्थव्यवस्था की अवधारणा शनैः शनैः पुख्ता होती जा रही है। यह विकल्प अभी भी एक व्यवस्थित शास्त्र के रूप में परिपक्व नहीं हुआ है, किंतु इसमें निहित कई एक मूल सिद्धांतों को आधार मानकर अहिंसक अर्थव्यवस्था का ढांचा खड़ा करने के प्रयास हो रहे हैं। समग्र जीवन को अहिंसक दृष्टि से देखने वाले मनीषियों के प्रयत्नों से धीरे-धीरे इस वैकल्पिक व्यवस्था की रूपरेखा उभर रही है। इन मनीषियों में महात्मा गांधी और विनोबा भावे का नाम सर्वोच्च है। इसे शास्त्रीय रूप देने में प्रमुख योगदान जे०सी० कुमारप्पा का रहा है जो गांधी के अर्थशास्त्री के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन विचारकों द्वारा इंगित सत्य और अहिंसा की नींव पर टिकी अहिंसक आर्थिक व्यवस्था एक वैकल्पिक अर्थव्यवस्था का प्रारूप देने में समर्थ है।
अहिंसक आर्थिक व्यवस्था की अवधारणा मुख्यतः निम्नलिखित आधार-शिलाओं पर टिकी हुई है :
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प्रकृति और मनुष्य के बीच द्वैत भाव को नकारना
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मनुष्य में निहित नैतिकता को स्वीकार करना
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अपरिग्रह का महत्त्व उजागर करना
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शारीरिक श्रम का महत्त्व समझना
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विकेंद्रीकरण, किंवा ग्राम स्वावलंबन को अर्थ व्यवस्था का आधार बनाना।
अहिंसक आर्थिक व्यवस्था चर-अचर को समाहित कर, आर्थिक व्यवहार को समग्र दृष्टि से देखने पर बल देती है। वर्तमान अर्थव्यवस्था की सोच एक प्रतिरुद्ध व्यवस्था (Close System) के दायरे में है। प्रकृति के सभी अंगों को मनुष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए आवश्यक साधन मात्र ही समझा गया है। इसके फलस्वरूप भूमि और जल का असीमित दोहन और प्रदूषण स्पष्टतः दिखाई देने लगा है। शनैः शनैः, इस विकृत सोच से उत्पन्न हुए परिणामों की गंभीरता का भान होने लगा है। जलवायु में हो रहे परिवर्तन ने, जो महद अंशो में वर्तमान उत्पादन प्रणाली और जीवन शैली की देन है, स्पष्ट कर दिया है कि यह आर्थिक व्यवस्था टिकाऊ नहीं है।
इसके विपरीत अहिंसक अर्थव्यवस्था की मूलभूत मान्यता यह है कि सभी आर्थिक क्रियाकलापों का प्रभाव समग्र विश्व पर पड़ता है-चाहे वे उत्पादन से संबंधित हो अथवा उपभोग से। इसे स्वीकार करने पर आर्थिक गतिविधियों में समाज और प्रकृति के प्रति उत्तरदायित्व की भावना स्वाभाविक ही उजागर हो जाती है। अहिंसक आर्थिक व्यवस्था का ध्येय प्राकृतिक साधनों का कम से कम अपव्यय करना और आने वाली पीढ़ी के लिए टिकाऊ व्यवस्था प्रदान करना है। इस व्यवस्था में मनुष्य को प्रकृति का एक अविभाज्य अंग माना गया है। इसलिए वर्तमान प्रदूषण बढ़ाने वाली और तुरंत लाभ का ध्येय पोषित करने वाली व्यवस्था के दूषण अहिंसक अर्थव्यवस्था में नहीं रहेंगे। संक्षेप में, अहिंसक आर्थिक व्यवस्था विवृत्त व्यवस्था (Open System) को आधारभूत मानती है। वह संकीर्ण, मानव-केंद्रित दृष्टिकोण को नकारती है।
एक दूसरा महत्त्व का अंतर इन दोनों व्यवस्थाओं में मानव की अवधारणा पर है। वर्तमान व्यवस्था में मनुष्य को होमो इकॉनोमिकस (Homo Economicus), अपने आर्थिक हित को सर्वोपरि समझने वाला प्राणी, माना गया है। लेकिन, वैकल्पिक व्यवस्था में मनुष्य को नीतिनिष्ठ होने और आर्थिक हानि-लाभ से ऊपर उठकर मानवीय संबंधों का सम्मान करने वाला चेतनाशील प्राणी समझा गया है; यद्यपि, यह कहना उचित नहीं होगा कि वैचारिक स्तर पर वर्तमान व्यवस्था उत्पादक अथवा उपभोगकर्ता के स्वार्थ को ही सर्वोपरि समझकर बृहद समाज कल्याण के प्रति उदासीन है। वर्तमान अर्थव्यवस्था के पुरोधा एडम स्मिथ ने यह सिद्ध करने की कोशिश की थी कि व्यक्ति अपने स्वार्थ की पूर्ति करने की प्रक्रिया में एक-दूसरे के सहायक बन जाते हैं। एक अदृश्य हाथ (Invisible Hand) व्यक्ति के स्वार्थों की पूर्ति के दौरान सार्वजनिक हित को फलित करता है। परंतु, अब तक के अनुभव स्पष्ट रूप से यह बतलाते हैं कि यह अदृश्य हाथ गरीबों और हाशिये पर खड़े लोगों का सहायक सिद्ध नहीं हुआ है। वर्तमान आर्थिक व्यवस्था के कारण साधन-बहुल और साधनहीन के बीच में आर्थिक अंतर कम होने की बजाय बढ़ता ही जा रहा है।
इसी प्रकार की धारणा वर्तमान में प्रचलित छन-छन कर पहुंचने वाले परिणाम (Percolation Effect) के सिद्धांत में निहित है। यह माना जाता है कि आर्थिक विकास से चाहे निम्नतम वर्ग को सीधा लाभ नहीं पहुंचे, लेकिन, यदि विकास की गति पर्याप्त हो तो धीरे-धीरे, छनकर, आर्थिक विकास के लाभ निम्नतर स्तर तक पहुंच जाते हैं। अब तक का अनुभव बताता है कि तेजी से बढ़ते आर्थिक विकास के दौरान भी छन-छन कर पहुंचने वाला प्रभाव बहुत ही धीमी गति से, और वह भी गरीबी की रेखा के निकट के परिवारों तक ही पहुंच पाता है। अंतिम छोर पर बैठे व्यक्ति के लिए यह प्रभाव मृगतृष्णा ही सिद्ध हुआ है।
अहिंसक अर्थव्यवस्था में मनुष्य अपने सामाजिक और नैतिक उत्तरदायित्व को समझते हुए अपने स्वार्थ को ही सर्वोपरि नहीं मानेगा, सर्वजन हिताय की बात सोचेगा, और उसके लिए त्याग की भावना भी असहज नहीं होगी। यदि उसके पास धन कमाने के साधन भी हैं तो उनका उपयोग वह ट्रस्टी की तरह करेगा, केवल व्यक्तिगत स्वार्थ या परिवार के कल्याण के लिए ही नहीं।
इनसे जुड़ा हुआ अहिंसक अर्थव्यवस्था का तीसरा आधार है अपरिग्रह। वर्तमान व्यवस्था अधिक से अधिक मांग उत्पन्न करने में विश्वास रखती है और ऐसी वस्तुओं और सेवाओं की मांग को भी बढ़ावा देती है जिनकी वास्तव में कोई आवश्यकता नहीं है। विज्ञापनों एवं अन्य प्रचार-प्रसार के साधनों से उपभोक्ता को प्रभावित कर मांगों में सतत् वृद्धि करते रहने का प्रयास रहता है। वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत अधिकाधिक मांगों की तुष्टि करने के प्रयत्न में स्वाभाविकतः प्राकृतिक साधनों का अविरल दोहन हो रहा है, जिसके कारण यह व्यवस्था एक टिकाऊ व्यवस्था नहीं बन पा रही। अहिंसक आर्थिक व्यवस्था अपरिग्रह के सिद्धांतों पर टिकी है। इस व्यवस्था में मांग और आवश्यकताओं में भेद किया गया है। कृत्रिम मांग को नकारा गया है और आवश्यकताओं पर भी नियंत्रण रखने पर जोर दिया गया है। अहिंसक आर्थिक व्यवस्था में विश्वास रखने वाले व्यक्ति उन साधनों का उपयोग भी आवश्यकता से अधिक नहीं करेंगे, जो दिखने में असीमित लगते हों।
अहिंसक अर्थव्यवस्था का चौथा आधार श्रम का महत्त्व है। इसे गांधी जी और उन मनीषियों ने, जिनसे गांधी प्रभावित हुए थे, श्रमोत्पन्न भोजन (Bread Labour) का नाम दिया है। इस व्यवस्था में केवल दिमागी सूझबूझ से साधनों पर अधिकार जता उनके दोहन करने के प्रयत्नों को अस्वीकार किया गया है। शारीरिक श्रम को महत्त्व देने के कारण अहिंसक व्यवस्था को मशीन-विरोधी भी समझा गया है। परंतु यह हकीकत नहीं है। इस व्यवस्था के अंतर्गत अंधाधुंध मशीनीकरण का विरोध इसलिए उचित ठहराया गया है क्योंकि हमारे जैसे देश में जहां बेरोजगारी और अर्ध-बेरोजगारी का प्रमाण अभी भी बहुत बड़ा है, मशीनीकरण उन समस्याओं को और भी जटिल बना देगा। शारीरिक श्रम को महत्त्व देने के लिए नैतिक और मानवीय पक्ष का तर्क भी दिया जा सकता है। मशीन व्यक्ति को उत्पादन-प्रक्रिया से अलग कर देती है और मार्क्स के शब्दों में, श्रमिक अलगाव (Alienation of Labour) की प्रक्रिया को सुदृढ़ करती है। अहिंसक व्यवस्था का उद्देश्य मनुष्य को एक यंत्रवत या यंत्राधीन प्राणी बनाना नहीं है।
इस व्यवस्था का एक और आधार विकेंद्रीकरण किंवा ग्राम स्वावलंबन है। स्वावलंबन का तात्पर्य यह नहीं है कि हर व्यक्ति या परिवार अपनी सभी आवश्यकताओं को स्वयं पूरा करें। इसका सही अर्थ है कि बुनियादी आवश्यकताओं, मुख्यतः, भोजन और कपड़े की पूर्ति ग्राम स्तर पर हर परिवार स्वयं अपने श्रम से करें। ग्राम स्वावलंबन में यह भी निहितार्थ है कि अंततोगत्वा ग्राम समाज के हर सदस्य को रोटी और कपड़ा मुहैया कराने का उत्तरदायित्व समाज का है, जिसे व्यक्ति का सामर्थ्य न होने पर सामूहिक प्रयासों से पूरा किया जाय।
इस प्रकार के स्वावलंबी ग्रामीण समाज में मुद्रा का महत्त्व कम हो जाएगा, और अधिकाधिक व्यवहार बार्टर अथवा पास-पड़ौस के आदान-प्रदान से संभव हो सकेगा। मुद्रा व्यवहार की सीमाएं इस व्यवस्था में समझी गई हैं। मुद्रा के माध्यम से भविष्य का सही आकलन नहीं किया जा सकता। उदाहरणार्थ, गलत नीतियों के कारण विशिष्ट प्राकृतिक साधनों के क्षरण के भविष्य में पड़ने वाले प्रभाव का मूल्यांकन सही रूप में मुद्रा में नहीं किया जा सकता। अहिंसक आर्थिक व्यवस्था के पक्षधरों का मंतव्य है कि इस व्यवस्था में, अन्य सभी प्रावधानों के साथ-साथ ग्राम स्वावलंबन पर भार देने से, व्यक्ति विकास और ग्राम स्वराज तक की यात्रा पूरी की जा सकेगी और, फलस्वरूप, एक समन्वित, संतुलित समाज की नींव रखी जा सकेगी।
उपरोक्त सभी अवधारणाओं का शास्त्रीय विवेचन कर एक संपूर्ण विधा के रूप में प्रतिष्ठित नहीं किया गया है। मुख्यतः, गांधी, विनोबा और कुमारप्पा ने अलग-अलग प्रसंगों पर इनकी चर्चा की है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है अहिंसक समाज और अहिंसक अर्थव्यवस्था का मूल स्रोत भारतीय जीवन दर्शन और उससे प्रभावित समाज व्यवस्था है। गांधी को इन विचारों को और परिपक्व करने की प्रेरणा पश्चिम के भी कई चिंतकों से, विशेषकर रस्किन, थोरो और, टॉलस्टॉय से भी मिली थी। वर्तमान अर्थव्यवस्था की विसंगतियों के कारण अब मुख्य धारा से जुड़े अर्थशास्त्रियों ने भी इस ओर सोचना शुरू किया है।
- प्रो० विजयशंकर व्यास
अहिंसक ऊर्जा (Non-violent energy) : अहिंसक ऊर्जा का तात्पर्य ऐसी ऊर्जा-प्रक्रिया से है, जो पारिस्थितिकी-मित्र, नवीकरणीय तथा लगभग प्रदूषण मुक्त हो। हरित ऊर्जा, नवीकरणीय ऊर्जा, टिकाऊ ऊर्जा, वैकल्पिक ऊर्जा आदि नामों से जानी जा रही ऊर्जा-प्रक्रिया को नैतिक शब्दावली में अहिंसक ऊर्जा कहा जा सकता है। इस ऊर्जा के स्रोतों में वायु, जल, और सौर स्रोतों के साथ वे अवशिष्ट द्रव्य (ङ्खड्डह्यह्लद्ग) भी शामिल हैं, जो अन्यथा पर्यावरण के लिए और भी हानिकारक साबित होते हैं। कुछ ऊर्जा-वैज्ञानिक इसमें आणविक ऊर्जा को भी शामिल करते हैं; लेकिन, इस पर काफी विवाद है क्योंकि आणविक विकिरण की आशंका के चलते इसे अहिंसक और प्रदूषण-मुक्त नहीं कहा जा सकता।
हरित ऊर्जा के लिए अवशिष्ट द्रव्यों के उपयोग से उनसे उत्पन्न होने वाले प्रदूषण से तो बचा ही जा सकता है, साथ ही बड़ी हद तक जीवाश्म ईधन के उपयोग से बचते हुए अतिरिक्त ग्रीन हाउस प्रभाव से भी सुरक्षा हो सकती है। इस अवशिष्ट द्रव्य में केवल बस्तियों में मिलने वाला अवशिष्ट ही नहीं, बल्कि जंगलों में पाए जाने वाली अवशिष्ट वनस्पति एक बड़ा स्रोत हो सकती है। इसी प्रकार, तालाबों, झीलों, नदियों और समुद्र जैसे जल-स्रोतों में पाए जाने वाले अपतृणों का इस्तेमाल भी ऊर्जा पैदा करने के लिए किया जा सकता है। यह ऊर्जा स्थानीय स्रोतों से स्थानीय स्तर पर पैदा की जा सकती है।
दुनिया के बहुत से देशों का ध्यान हरित ऊर्जा की ओर गया है। संयुक्त राज्य अमेरिका में कैलिफोर्निया, मैसाचूसेट्स तथा अन्य कई स्थानों पर स्थानीय हरित ऊर्जा को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। फिनलैंड, स्पेन, पुर्तगाल आदि देशों में हरित ऊर्जा को विशेष प्रोत्साहन दिया जा रहा है तथा यूरोपीय संसद ने भी हरित ऊर्जा को प्रोत्साहन देने के निर्देश दिए हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
अहिंसक खेती : कृषि परमो कर्म : उत्तम खेती , मध्यम व्यापार/नीच नौकरी भीख निदान। जीवनयापन के चार तरीकों में खेती को सर्वोत्तम बताया गया है। इसमें न धंधेबाजी है न नौकरी बजाने की विवशता। बंधीबंधाई पगार और गैर अनुपातिक लाभ का मोह भी नहीं है। खेती एक स्वस्थ जीवन शैली है, जिसमें पूरे समाज का हित है बशर्तें यह प्राकृतिक या अहिंसक तरीके से की जाए अर्थात किसान अपनी परंपराओं का ध्यान रखते हुए कृषक धर्म का पालन करे। प्रथम दृष्टया दकियानूसी लगने वाली इस बात पर कम कहा अधिक समझना वाली भावना के साथ विचार करना आवश्यक है। व्यापार और नौकरी में गृहस्थ धर्म धन कमाने, परिवार का हित साधने और आय का कु छ हिस्सा समाज को लौटाने की बात कहता है। भीख इन सबसे पल्ला झाड़कर निकृष्टतम बनी रहती है। परंतु खेती धन के बजाए पुण्य कमाने, परिवार से ज्यादा समाज-कल्याण करने और आय का कुछ ही हिस्सा उसे लौटाने से बेहतर उसे सक्षम-स्वावलंबी बनाने का आग्रह रखती है। यही भावना इसे सर्वोत्कृष्टता का दर्जा देती है।
जब किसान परंपरागत तरीके से खेती करता है तो वह अनायास ही उन सभी बातों का ध्यान रखता है जो आने वाले समय में समस्या का रुप ले सकती है। सबसे पहले है फसलचक्र के अनुसार स्थानीय फसलों की बुवाई। साल-दर-साल बोई एक ही फसल जमीन से चुनिंदा तत्त्व खींचकर उसे उजाड़ती जाती है। फसलों की अदला-बदली, उदाहरण के लिए कपास के ज्वार या मूंगफली का चक्र, इस प्रभाव को कम करती है। पुरानी कही जाने वाली खेती यह ध्यान रखती थी कि कतार में खड़ी फसल के साथ घना बोया हुआ बारीक अनाज (रागी, कोदो, कुटकी) और आसपास फैलते मटर परिवार के पौधे (मूंग, अरहर) हों, जिससे जमीन की गुणवत्ता और भुरभुरापन बना रहे। वर्षों से उसी प्रदेश में उगती पनपती स्थानीय किस्में अपने को वहां की जलवायु से अभ्यस्त कर चुकी होती हैं, इसलिए कीटों और बीमारियों का उन पर हमला इतना अकस्मात नहीं होता कि उनकी जड़ें उखड़ जाएं। फिर पूरे प्रदेश में अधिकाधिक फसलों की मिश्रित खेती ऐसे हमलों में पूरी तरह चौपट होने से बची रहती हैं। इससे आवश्यक अनाज, प्रोटीनयुक्त दलहन और तेलबीजों की आपूर्ति सुनिश्चित रहती है। खेतों के आसपास की जमीन पर उगी घास की अपनी भूमिका होती है-मिट्टी को बांधने और मवेशियों के लिए चारा उपलब्ध करवाने की। प्रदेश की मिट्टी और आबोहवा के कारण फसलों का अपना विशिष्ट स्वाद होता है। जैसे मालवा मध्यप्रदेश के पिस्सी मालवी गेहूं का। यह परंपरा से बाफला या बाटी जैसे पकवानों के खास स्वाद का आधार रहा है। इन बीजों ने देहातों के खानपान को स्वाद संपन्न रखा। किसानों ने इन्हें मौसम दर मौसम, पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुरक्षित बनाए रखा।
खेती कामों में किसान का पूरा परिवार और गांव के भूमिहीन रोजगार पाते हैं। बढ़ई हल-बैलगाड़ियों की मरम्मत का, कुम्हार मटके-घड़े बनाने का और इसी तरह जुलाहे, मोची वगैरा। जिनके पास हुनर नहीं है, वे श्रमिकों का काम पाते हैं। मेहनत में हिस्सेदारी गोवंश की भी है। गाय और बैल अपने-अपने ढंग से किसान के दाहिने और बाएं हाथ होते हैं। फसल कट जाने के बाद गांव के पुजारी, वैद्य इत्यादि का बोरी-दो बोरी का हिस्सा होता है। खेत में बिखरी बालियों पर भी बीनने वाले मजदूरों का हक और डण्ठल-पत्तियां कट कर चौपायों का भोजन बनता है। यहां हिसाब बराबर नहीं होता। जितना लिया उसे लौटाने में चार पैर आगे ही रहते हैं मूक पशु। गोबर-गोमूत्र खाद के रुप में जमीन का उपजाऊपन बनाए रखते हैं। धुआं और गंध रहित गोबर गैस का ईंधन देते हैं। मरने के बाद खाल से बनती है मशक जो कुंए से पानी खींचकर खेती की सिंचाई करती है।
परंपरागत खेती की स्वस्थ दिनचर्या ने किसान को मुंह अंधेरे उठाकर रात को जल्दी सोने को भेजा। शाम को चौपाल पर बैठाकर सामाजिक बनने और हरिनाम के साथ आत्मिक संतोष भी दिया। इस दौर में पर्र्यावरण सुरक्षित रहा। जंगल बने रहे और नदियां बहती रही। खेती ने प्रकृति की निकटता नहीं खोई और खेती के निमित्त मनुष्य की प्रकृति से आत्मीयता बनी रही। भारत तब विकसित देशों की जमात में बैठने के लिए आतुर नहीं, एक कृषि प्रधान देश था और गांवों में बसता था। देहातों की पहुंच शहरों तक नहीं थी और शहरों की दृष्टि देहातों पर नहीं। विकास की चमक-दमक गांवों तक पहुंची नहीं थी, फिर भी वे मन से संपन्न थे। खेती और देहाती समाज में अहिंसा थी।
यह उसी प्रकृति की देन है कि दुख के बगैर सुख का भान नहीं होता और हिंसा के बिना अहिंसा समझ में नहीं आती। अहिंसक कही जा सकने वाली खेती देश में हरित क्रांति के साथ पूरी तरह खत्म हो गई। पहले ज्यादा खाद-पानी मांगने वाला लाल गेहूं आया, जिसने तमाम देशी किस्मों को खेतों से खदेड़ बाहर किया। उसके साथ आई गाजर घास जो देश के ग्रामीण और शहरी इलाकों में फैलकर लहलहाने लगी। सोयाबीन ने जुबान से मूंगफली और तिल्ली के तेल का स्वाद ही भुला दिया। बीटी कपास की मांग तो प्राणों से कम कुछ नहीं है। देश की भूख मिटाने का वादा करने वाली फसलों की अपनी भी भूख थी-पानी और रासायनिक उर्वरकों की। विदेशी फसलों की यह मांग किसानों को अंततः भारी पड़ी।
प्रकृति अपने संसार की निरंतरता बनाए रखने के लिए उसमें लगातार संतुलन बनाए रखती है। आम के पेड़ पर भरभरा कर छाया बौर यदि प्रकृति की उदारता है तो आंधी वर्षा में उसका बड़ा हिस्सा झड़ जाना भी प्रकृति की कृपा है। ऐसा न हो तो सारे फूलों को फलों में बदलना पेड़ को कमजोर कर डालेगा। बहुलता और फिर उसका विनाश प्रकृति का अपना तरीका है। उत्पादन बढ़ाने और कीट-पतंगों को खत्म करने की मनुष्य की सोच इकतरफा है। इसमें असंतुलन है। एक ही पौधे में चार तरह के फल लगाना यदि जीव जगत के लिए कल्याणकारी होता तो सृष्टि में उसकी व्यवस्था लाखों वर्षों पहले हो चुकी होती। इसलिए उत्पादन बढ़ाने के लिए कोशिकाओं के साथ छेड़छाड़ करना अप्राकृतिक है और आखिर में नुकसानदायी ही सिद्ध होगा।
धरती को माता का दर्जा देने वाले किसान अधिक पैदावार के मोह में पड़कर यह भूल गए कि रासायनिक खाद का प्रयोग पृथ्वी की उर्वरा शक्ति की अवमानना है। हर जमीन का अपना एक स्वभाव होता है और उसके अनुरुप एक सी एन रेशो-कार्बन नाइट्रोजन का अनुपात। यानी वह कितने कार्बन कणों पर कितने नाइट्रोजन की मात्रा सोख पाएगी। फसल का कचरा, सूखी पत्तियां, गोबर की खाद जमीन में कार्बन की मात्रा बढा़ती है। इसके बगैर उर्वरकों के जरिए डाले हुए तत्त्व व्यर्थ हैं। इस वैज्ञानिक तथ्य की अनदेखी करने पर जमीन रूठकर अपने हाथ खींच लेती है। तब हर वर्ष अधिकाधिक उर्वरकों की आवश्यकता पड़ती जाती है। उसकी भी एक सीमा है। इस बीच जमीन की हालत बगैर भोजन लिए लगातार भारी दवाइयां निगल रहे मरीज की तरह बिगड़ती जाती है।
विदेशी बीजों ने न केवल स्थानीय देशी दलहन और तिलहन फसलों को खत्म किया, मिली जुली फसलों का चलन और फसल चक चौपट किए, खेतों की मिट्टी पलीद की। पौधों पर हरे पत्तों की जगह हरे नोट उगाने वाली नकदी फसलों को सींचने में किसानों नेकुंए और नदियां रीती कर दी। महंगे बीज और खाद खरीदने में कर्जे ऊंचे चढ़ गए। मोनोकल्चर या मीलों तक एक ही फसल की खेती की संस्कृति ने कीट-पतंगों को बुलावा दिया। फसलें उजड़ीं। जो उगीं, उनके बीज दोबारा बोने लायक नहीं पाए गए। ऐसे में हताश किसानों को एक ही विकल्प नजर आया-जमीन फट जाए और वे उसमें समा जाएं।
वैज्ञानिक कही जाने वाली खेती विफल होने पर इतनी हिंसक हो सकती है। सफल होने पर भी वह कम खतरनाक नहीं है। नकदी फसलों की नकदी जितनी मूसलधार बरस कर आती है, उतनी तेजी से विवेक बहा ले जाती है। संपन्नता की मोटरगाड़ियों पर सवार होकर फसलें, सब्जियां, दूध और युवा पीढ़ी शहर की ओर जाती है। बदले में विलासिता की गैर-जरुरी वस्तुएं ट्रकों में लदकर गांवों में पहुंचती हैं। बढ़े हुए जीवन स्तर पर लहराती है उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय विकार जैसी बीमारियों की पताका।
खेती में अहिंसा की शर्त की जो बात शुरुआत में अटपटी लगती है, इसके वर्तमान विद्रूप स्वरुप के कारण पर्याप्त स्पष्ट हो जाती है। अब खेती में व्यापार, नौकरी और भीख सब शामिल हो गए हैं। रासायनिक खेती के आदी किसानों को डर है कि इसका उपयोग बंद करने पर कीट और रोगों का प्रकोप बढ़ जाएगा। लेकिन यह अल्पकालिक होता है। तीसरे वर्ष तक खेती सामान्य की ओर लौटने लगती है। ठीक समय पर बोवनी इस समस्या का निदान है। देर से बोई गई या उस क्षेत्र के लिए असामान्य फसलें जो पकने में ज्यादा समय लेती हैं, अक्सर कीटों का शिकार होती हैं। मिश्रित फसलों से पूरी खेती चौपट होने की संभावना कम होती है। यह अपने आप में फसल बीमा है।
फसल में लगने वाले कीड़ों पर काबू पाने के लिए जैविक नियंत्रण अक्सर स्थिति पर नियंत्रण खोने की शुरुआत सिद्ध होती है। यह हिंसा है, जिसका प्रमाण समय के साथ बढ़ता जाता है। अधिकांश मामलों में बाहरी कीड़े शक्तिशाली बनकर इतना उपद्रव खड़ा कर देते हैं कि एक बड़ी समस्या बन जाते हैं। नीम की पत्तियां एक देशी और सक्षम कीटनाशक है। संपन्नता के प्रतीक ट्रेक्टरों ने बैलों की जगह लेकर उन्हें बूचड़खाने का रास्ता दिखाया। यह वही गोधन था किसान जिसकी साल में चार बार पूजा करते थे। सारा काम अकेले कर लेने का दम भरने वाले ट्रेक्टर के जीवन में ऐसा कोई दिन शायद ही आता जब किसान उस पर स्नेह लुटाए। खेती में इस तरह का भावनात्मक जुड़ाव प्राणियों से ही नहीं कटी हुई फसल से भी देखा जा सकता है। देश के कुछ भागों में कटी हुई बालियों के पूलों को उल्टा कर रखा जाता है जिससे डंठलों में शेष बचा सैप या प्राणरस भी बहकर बालियों को ही मिले और अचानक कट जाने के धक्के में राहत मिले। सन् 1924 ई० में इंदौर यात्रा के दौरान गांधीजी ने कंपोस्ट खाद बनाने की जग प्रसिद्ध इंदौर विधि में विशेष रुचि दिखाई थी। यह प्राकृतिक खेती पद्धति को अहिंसक होने का प्रमाण था।
भारत की मुख्य फसल खरीफ है। इसका मौसम के साथ तालमेल आश्चर्यकारक है। जेठ में खेत तैयार करते समय मौसम गर्म और सूखा रहता हैं। कड़ी धूप मिट्टी को तपाकर कीट-कृमियों से मुक्त कर देती है। आषाढ़ में बीज जमीन में पड़ते समय मिट्टी गर्म और नम होती है जिससे अंकुरण को बढ़ावा मिलता है। फिर लगातार वर्षा के बीच फसल बड़ी होती है। सावन की रूकरूक कर गिरती बारिश और धूप के बीच फूल खिलते हैं और दाने भरते हैं। अगहन की कड़ी धूप फसल को पूरी तरह पकने में सहायक होती है। यह ख्ेाती पारंपरिक है, पुरानी है, लेकिन अहिंसक है और वैज्ञानिक भी। सभी कृषि कार्यों के पीछे ठोस तर्क हैं जो मौसम की मार के आगे भी लंबे समय से खरे उतरते आए हैं। आज की शब्दावली में ये इकोफे्रंडली हैं। सौर और वायु ऊर्जा का भरपूर उपयोग करते हैं। पश्चिमी देश चाहें तो इस प्राकृतिक-अहिंसक खेती पर पेटेंट ले सकते हैं। दुनिया में इससे एक बेहतर जीवनशैली का ही प्रसार होगा।
- दिलीप चिंचालकर
अहिंसक चिकित्सा : अहिंसा एक विज्ञान है, लेकिन यह केवल आहार-विज्ञान का मामला नहीं है। यह उससे आगे की चीज है। आदमी क्या खाता-पीता है, इसका उतना महत्त्व नहीं है; महत्त्व उसके पीछे जो आत्म-त्याग और आत्म-संयम है, उसका है। जब हम चिकित्सा की विधियों में अहिंसा की तलाश करते हैं, तब हमारे समक्ष एक दुविधा खड़ी होती है कि प्रचारित व शासकीय रूप से मान्य चिकित्सा-विधियों में किसे अहिंसक माना जाए और किसे हिंसक।
प्राचीन भारत में केवल एक विद्या ऐसी थी जिसे सर्वतोभावेन धर्म-निरपेक्ष कहा जा सकता है। आज जिसे प्राकृतिक विज्ञान कहा जाता है और जिसके विवेचन में विशुद्ध तात्त्विक दृष्टिकोण अपनाया जाता है, वैसी ही संभाविता इस विद्या शाखा या शास्त्र में भी उपलब्ध थी। इस विद्याशाखा का नाम है-आयुर्विज्ञान-आयुर्वेद।
ऐतिहासिक दृष्टि से आयुर्विज्ञान का आरंभ भले ही अत्यंत साधारण परिस्थितियों में हुआ होगा; किंतु, प्राचीन काल में ही इसने चिकित्सा के क्षेत्र में जादू-टोना और झाड़-फूंक आधारित चिकित्सा पद्धति से हटकर तर्क पर आधारित चिकित्सा पद्धति को अपना लिया था। चरक संहिता की शब्दावली में इसे दैव-व्यपाश्रय भेषज के स्थान पर युक्ति-व्यपाश्रय भेषज कहा जाता था। भारतीय आयुर्विज्ञान में युक्ति एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण संकल्पना है। मोटे तौर पर इसका अर्थ है तर्कमूलक प्रयोग, अर्थात, यदि कोई व्यक्ति बीमार हुआ है तो उसकी बीमारी को पैदा करने और बढ़ाने वाले कई कारण रहे होंगे। अतः, उसकी चिकित्सा शुरू करने से पहले उन सभी कारणों की छानबीन करना आवश्यक होगा। इसी के साथ कुछ और करना होगा, जिससे रोगी एकदम ठीक हो जाए। यही कुछ और वह बौद्धिक अनुशासन है, जिसे युक्ति कहा गया है। द्रव्य का ज्ञान करने वाले वैद्य से युक्ति को जानने वाला वैद्य सदा श्रेष्ठ रहता है। चरक के शब्दों में : सिद्धिर्युक्तौ प्रतिष्ठिता, तिष्ठत्युपरि युक्तिज्ञो द्रव्यज्ञानवतां सदा।
आयुर्वेद का एक विलक्षण सिद्धांत यह है कि इसके अनुसार मनुष्य को ब्रह्मांड का लघु प्रतिरूप माना गया है। भारतीय परंपरा में यही आयुर्वेद आयुर्विज्ञान कहलाता है। इसके तीन प्रमुख स्रोत ग्रंथ हैं-चरक संहिता, सुश्रुत संहिता और अष्टांग संग्रह। चरक संहिता में जो चिकित्सा पद्धति सुझाई गई है, वह मुख्यतः द्रव्य/औषधि और अन्नपान पर आधारित है। शल्य चिकित्सा की आवश्यकता केवल कुछ आपवादिक प्रसंगों में ही और वह भी काफी दबी जबान से बताई गई है। चरक संहिता के रचना काल के बारे में भी अलग-अलग मत हैं। कुछ विद्वान इसे छठी सदी ईसापूर्व की या उससे भी पहले की रचना मानते हैं।
प्राचीन भारतीय आयुर्विज्ञान में अहिंसा की भावना इतनी थी कि रोग-परीक्षा (निदान) की तीन मुख्य विधियों को प्रयोग में लाने का प्रचलन था। आप्तोपवेश, प्रत्यक्षण और अनुमान। आप्तोपवेश का मतलब है निश्चित ज्ञान-स्मरण-शक्ति-संपन्न तथा कार्य-अकार्य को जानना। प्रत्यक्षण यानि स्वयं इंद्रियों और मन के द्वारा जाना गया ज्ञान तथा अनुमान अर्थात युक्ति की अपेक्षा रखने वाला ज्ञान या तर्क। यदि इन तीन प्रकार के रोग-ज्ञान कराने वाले उपायों से सावधानी पूर्वक पहले सभी तरह से रोग की परीक्षा कर निश्चय (निदान) किया जाता है तो भविष्य में चिकित्सा करते समय कभी भी असफलता नहीं होती और उसका ज्ञान सत्य होता है। इसी प्रकार सुश्रुत संहिता में भी रोग का निदान करने के लिए इंद्रिय-प्रत्यक्ष पर काफी जोर दिया गया है। हालांकि, सुश्रुत संहिता में शवच्छेदन के प्रयोग से इनकार नहीं किया गया है; लेकिन, प्राचीन काल से ही शव को छूने की धामिक वर्जनाएं भी प्रचलित रही हैं।
प्राचीन यूनानी चिकित्सा पद्धति भी भारतीय आयुर्विज्ञान की तरह प्रत्यक्ष प्रेक्षण पर ज्यादा आश्रित थी। यूनानी आयुर्विज्ञान ने विकृतिमूलक लक्षणों के प्रेक्षण में और उसका वर्गीकरण करने में विलक्षण प्रतिभा का परिचय दिया है। वहां के आचार्यों ने इस काम के लिए अपनी सभी ज्ञानेंद्रियों की भरपूर सहायता ली। उन्होंने जितना प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त किया, उतना आज भी नहीं किया जाता है। हिपोक्रेटीज के अनुयायी चिकित्सक रोगी का चेहरा देखते थे, उसके रूप, रंग और उनमें आए उतार-चढ़ाव पर ध्यान देते थे। चेहरा ही नहीं, रोगी की आंखें, कान, नाक और जीभ आदि की भी जांच करते थे। वे इस बात का ध्यान करते थे कि रोगी अपने बिस्तर पर किस करवट लेटा है, उसका शरीर नीचे की ओर खिसका हुआ है या ऊपर की ओर। लेटे-लेटे उसे हाथों में कोई हरकत हो रही है या नहीं। त्वचा, नाखून, बाल देखे जाते थे, शरीर के रंग आदि से भी जांच की जाती थी। ज्ञानेंद्रिय से तो मल-मूत्र, कफ ओर खून की भी जांच की जाती थी। काय चिकित्सक रोगी की छाती पर कान रखकर अंदर से आने वाली आवाज से भी रोग का पता लगा लेते थे। स्पर्शेंद्रिय की सहायता से रोगी के शरीर का ताप मालूम किया जाता था। परीक्षण में घ्राणेंद्रिय (नाक) और रसेंद्रिय (जीभ) का भी सहयोग लिया जाता था। जो बातें ज्ञानेंद्रियों की सहायता से नहीं जानी जा सकती थी, उसे रोगी से पूछकर जाना जाता था। संभवतः, लगभग सभी विकृति विषयक लक्षणों को भी ज्ञानेंद्रिय की मदद से जाना जा सकता था।
यूनानी चिकित्सा पद्धति की इस विशेषता की आज के युग में भी बड़ी कद्र है। साइजेरिस्ट नामक दार्शनिक एवं चिकित्सा विज्ञानी ने मेन एंड मेडिसिन नामक ग्रंथ में इस प्रसंग का विस्तार से वर्णन किया है।
प्राचीन भारतीय इतिहास में आयुर्वेद के महर्षियों में आत्रेय, चरक, सुश्रुत एवं वाग्भट्ट का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। आत्रेय (800 ई०पू०) को पहला महान भारतीय चिकित्सक एवं शिक्षक माना जाता है। वे तक्षशिला में रहते थे। बताते हैं कि सम्राट अशोक ने आयुर्वेद को राजकीय चिकित्सा शास्त्र के रूप में मान्यता दी थी। भारतीय ऋषि सुश्रुत कोदैवी शल्य चिकित्सा का पिता कहा जाता है। उन्होंने आयुर्वेद के एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ सुश्रुत संहिता की रचना की (800 ई०पू० एवं 400 ई०)। कहते हैं कि अंग्रेज चिकित्सकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान भारतीय चिकित्सकों से प्लास्टिक सर्जरी का ज्ञान लिया था। धर्मपाल का अठारहवीं सदी के भारतीय विज्ञान का अध्ययन इसे प्रमाणित करता है। यद्यपि, माना जाता है कि महात्मा बुद्ध के प्रभाव काल में अहिंसा का इतना प्रभाव था कि भारतीय सर्जरी को गहरा धक्का लगा था।
चीनी चिकित्सा (2700 ई०पू०) को भी अहिंसक चिकित्सा पद्धति के रूप में माना जाता है। इस पद्धति में दो मान्यताएं यांग एवं येन को क्रमशः सकारात्मक पुरुष और स्त्री सिद्धांत के रूप में देखा जाता है। कहते हैं कि इन दोनों शक्तियों का नियंत्रण ही अच्छे स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार है। चीन का एक्यूपंक्चर आज दुनिया भर में लोकप्रिय है।
मिश्र की चिकित्सा पद्धति भी सभ्यता की सबसे पुरानी चिकित्सा मानी जाती है। यह (2000 ई०पू०) चिकित्सा मानती है कि पेट में हानिकारक पदार्थों के इकट्ठा होने से रक्त अशुद्ध हो जाता है और उससे पीब बनने की वजह से रोग उत्पन्न होते हैं। इस चिकित्सा पद्धति में माना जाता है कि नब्ज ही हृदय की प्रतिनिधि है। इस पद्धति में रोगों की चिकित्सा के लिए एनिमा, कैथेटर, रक्त बहाना एवं अनेक औषधियों का प्रयोग किया जाता था। उस दौर की सबसे प्रमाणिक पांडुलिपि एडविन स्मिथ पेपाइरस (3000-2500 ई०पू०) एवं इबर्स पेपाइरस (1150 ई०पू०) की मानी जाती है। कहा जाता है कि इस चिकित्सा पद्धति की काफी चिकित्सा विधियां जैसे कैथेटर, एनिमा आदि आज भी चिकित्सा कार्य के लिए प्रचलन में हैं।
ग्रीक (यूनानी) चिकित्सा की बुनियादी मान्यता भी अहिंसा से प्रेरित रही है। 460-136 ई०पू० को यूनानी चिकित्सा का स्वर्णिम काल माना जाता है। इस चिकित्सा के चिंतकों ने रोग में क्या और क्यों पर सोचने को प्रेरित किया था।एस्कयूलेपियस (1200 ई०पू०) को यूनानी चिकित्सा का प्रारंभिक नेता माना जाता है। कहते है कि इनकी दो बेटियां हाइजिया एवं पेनासिया क्रमशः स्वास्थ्य की देवी एवं उपचार की देवी मानी जाती थीं। आज भी आधुनिक चिकित्सा विज्ञान में जन-स्वास्थ्य चिकित्सा का आधार हाइजिया ही है। हाइजिया का अर्थ होता है रोग से बचाव। पेनासिया का मतलब होता है रोग का नाश यानि पूर्ण स्वास्थ्य।
यूनानी चिकित्सा के महान चिकित्सक हिपोक्रेट्स (460-370 ई०पू०) आधुनिक चिकित्सा के जनक कहे जाते हैं। इन्होंने रोगों का विश्लेषण एवं वर्गीकरण किया। ये चिकित्सा आचार-संहिता के भी जनक माने जाते हैं। आज भी आधुनिक (एलोपैथिक) चिकित्सकों को हिपेक्रेटस की प्रतिज्ञा लेकर ही चिकित्सा आरंभ करनी पड़ती है।
ई०पू० के प्रथम शताब्दी में जब सभ्यता का केंद्र रोम की तरफ खिसक रहा था, तब रोम के लोगों ने यूनानी चिकित्सा के कई अच्छे पहलुओं को अपनाना शुरू कर दिया था। रोमन यूनानी लोगों से ज्यादा व्यावहारिक थे। रोमनों ने अपने लोगों के लिए साफ-सुथरे शहर और सड़कें बनाई तथा साफ पीने के पानी का इंतजाम किया। गंदे पानी के निकास तथा घरेलू कचरे के निपटारे की व्यवस्था से रोमन ज्यादा सफाई पसंद और स्वास्थ्य के प्रति समर्पित माने गए। रोमन चिकित्सा के मुख्य लोगों में गैलेन (130-205 ई०) को रोम के तत्कालीन राजा मारकस एयूरीलियस का चिकित्सक होने का गौरव प्राप्त है। इस चिकित्सा की पद्धति भी यूनानी चिकित्सा पद्धति की ही तरह थी। यह भी अहिंसक चिकित्सा पद्धति मानी गई। बाद में रोम का साम्राज्य ढहने के बाद जो समय आया (उसे मध्यकाल कहते हैं) उसमें चिकित्सा महाविद्यालयों/स्कूलों की स्थापना हुई और रोगों से बचाव के प्रयास, अध्ययन और अनुसंधान शुरू हुए।
चिकित्सा के एक और स्तंभ माने जाने वाले पैरासेल्सस (1493-1541 ई०) के दौर में आधुनिक चिकित्सा का और विकास हुआ। इसी दौर में ब्रिटिश साम्राज्य अपने दायरे बढ़ा रहा था। इसी दौर में महामारी और महामारियों की उत्पत्ति, रोगों के एक-दूसरे में फैलने के सिद्धांत ने लोकप्रियता हासिल की। 17वीं और 18वीं शताब्दी में हुए अनेक आविष्कारों ने आधुनिक चिकित्सा और सर्जरी ने तेजी से विकास करना शुरू किया।
19वीं शताब्दी के अंत में सन् 1900 ई० के बाद चिकित्सा में क्रांतिकारी बदलाव शुरू हुए। चिकित्सा में विशिष्टीकरण का आरंभ हुआ। रोगों के प्रति तार्किक और वैचारिक सोच का बढ़ावा मिला। रोगों की चिकित्सा के लिए हिंसक-अहिंसक विधियों/दवाओं का प्रयोग बढ़ा। आधुनिक चिकित्सा के विकास ने पारंपरिक और देसी चिकित्सा पद्धतियों को बेहद प्रभावित किया। आधुनिकतावादी मानसिकता ने तथाकथित आधुनिक चिकित्सा को बढ़ाने में मदद की और लगभग सभी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियां, खासकर जो वैज्ञानिक तर्क पर खरी उतरती थीं, वे भी दोयम दर्जे की बना दी गई।
18वीं शताब्दी में जब होमियोपैथी का आविष्कार हुआ, तब आधुनिक चिकित्सा का पूरे दुनिया में बोलबाला था। उस दौर के एक जाने-माने एलोपैथिक चिकित्सक डॉ० सैमुएल हैनिमैन ने रोग-विज्ञान के आधुनिक सिद्धांत को चुनौती देते हुए सदृश होमियोपैथिक चिकित्सा-विधि की वकालत की। डॉ० हैनिमेन का दावा था कि होमियोपैथी विशुद्ध अहिंसक चिकित्सा विधि है, जहां अहिंसा के सूक्ष्मतम पहलुओं को भी महत्त्व दिया जाता है। उपचार की विधि भी इतनी सरल और सुव्यवस्थित है कि शरीर के अंदर उपस्थित रोग का निवारण भी अहिंसक तरीके से ही हो जाता है। होमियोपैथी के बारे में कहा जाता है कि यह चिकित्सा की सबसे उच्चतम आदर्श पद्धति है, जिससे बहुत जल्द, बिना कष्ट के और स्थाई रूप से स्वास्थ्य अवस्था प्राप्त हो जाती है, रोग संपूर्ण रूप से मिट जाता है तथा रोगी की किसी प्रकार हानि नहीं होती।
होमियोपैथी में चिकित्सा के औषध-विज्ञान से भी ज्यादा महत्त्व होमियोपैथिक दर्शन को दिया गया है। एक भ्रम होमियोपैथी के बारे में यह फैला है कि इसमें दवाएं हिंसक होती हैं। वास्तव में वनस्पति, जंतु, रसायन, ग्रहों आदि से प्राप्त होमियोपैथिक औषधियों की निर्माण विधि अहिंसक, वैज्ञानिक और तार्किक है।
भारत में प्राकृतिक चिकित्सा विधि अब प्रचलित हो रही है। यों तो प्राचीन काल से ही आयुर्विज्ञान के विकास के साथ प्राकृतिक चिकित्सा विधि भी बढ़ी; लेकिन, अब तो इसे एक स्वतंत्र चिकित्सा विधि के रूप में देखा जा रहा है। 18वीं सदी में डॉ० जेम्स क्यूरी तथा सर जान फ्लावर ने जल-चिकित्सा के बारे में पुस्तक प्रकाशित की थी।
प्राकृतिक चिकित्सा तो विशुद्ध अहिंसक चिकित्सा-विधि है, जिसमें प्रकृति के पंच महाभूतों को जीवन के निर्माण का मूलतत्त्व माना जाता है और धारणा है कि रोग के कारक जीवाणु नहीं, शरीर में जमा विजातीय तत्त्व हैं। यदि विजातीय तत्त्वों को शरीर से निकाल दिया जाए तो रोग ठीक हो जाता है। यह भी माना जाता है कि प्रकृति स्वयं चिकित्सक हैं; अतः, शरीर में रोग को ठीक करने के लिए प्राकृतिक पंचमहाभूत ही पर्याप्त हैं।
महात्मा गांधी ने आधुनिक चिकित्सा और चिकित्सकों की यातना को गंभीर मानकर प्राकृतिक चिकित्सा की ही वकालत की। उन्होंने अपनी प्रमुख पुस्तिका कुदरती उपचार में प्रस्तावना में ही लिखा-डॉक्टरों ने हमें जड़ से हिला दिया है। डॉक्टरों से तो नीम-हकीम अच्छे... इसी में वे आगे लिखते हैं-अस्पताल पाप की जड़ है। उसकी बदौलत लोग शरीर का जतन कम करते हैं और अनीति को बढ़ाते हैं।
प्राकृतिक चिकित्सा के साथ-साथ एक्यूप्रेसर, योग, रंग- चिकित्सा, रेकी आदि चिकित्सा के नाम पर कई पद्धतियां धीरे-धीरे प्रचलित हो रही हैं। हालांकि इनका सिद्धांत अहिंसक हैं, लेकिन, इनकी वैज्ञानिकता पर अभी लोग कई सवाल खड़े करते हैं।
महात्मा गांधी एवं होमियोपैथी के आविष्कारक डॉ० हैनिमैन ने अपने तरीके से महत्त्व एवं सम्मोहन को विश्वास-चिकित्सा के रूप में अनुभव किया है। इनके अनुसार रोगी के अंदर ठीक होने की सकारात्मक भावना भी बेहतर उपचार में मदद करती है।
कहा जा सकता है कि भारत में प्रचलित चिकित्सा पद्धतियों में अधिकांश पारंपरिक एवं वैज्ञानिक चिकित्सा विधियां अहिंसा के सिद्धांतों पर खरी उतरती हैं। अहिंसा का व्यावहारिक रूप भारतीय समाज और व्यक्तियों को मूलतः प्रभावित करता है। ऐसे में अहिंसक चिकित्सा की विधियों का भविष्य उज्जवल है-यदि इसमें वैज्ञानिक शोध और विकास की प्रक्रिया जारी रहती है।
- डॉ० ए०के० अरुण
अहिंसक जैव - चिकित्सक शोध और शिक्षा : जंतु प्रादर्शों के संग्रहण व क्रूरतापूर्ण एवं हिंसक जंतु अनुप्रयोगों पर केंद्रित होने के कारण जीवन-विज्ञान की शिक्षा जंतु प्रेमियों एवं संरक्षणकर्ताओं को चिंतित करती रही है। क्या हमें प्राणी शास्त्र की शिक्षा के नाम पर जंतुओं के विच्छेदन, हत्या तथा प्राणियों के संग्रहण की वास्तव में आवश्यकता है? यह एक विडंबना ही है कि जीवन-विज्ञान का पाठ्यक्रम स्वयं ही ऐसी मानसिकता बनाता है कि जंतु या तो प्रार्दश बनकर प्रयोगशाला में सजाने के लिए होते हैं या फिर विच्छेदन के लिए। विच्छेदन प्रायोगिक परीक्षा का एक अनिवार्य अंग है, अतः, इन प्रयोजनों हेतु एक ही प्रजाति के प्राणी लाखों की संख्या में विभिन्न विद्यालयों तथा महाविद्यालयों में जीवित अथवा मृत मंगाए जाते हैं। इसके कारण न केवल प्राकृतिक असंतुलन पैदा होता है, बल्कि उस प्रजाति को संकटग्रस्त अथवा विलुप्त होने की कगार तक पहुंचा देता है जैसा कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान मेंढक के साथ हुआ है। उदाहरणस्वरूप, यदि एक राज्य में स्नातक स्तर की एक कक्षा में 30,000 विद्यार्थी एक प्रजाति के किसी एक जंतु का विच्छेदन दो बार करते हैं तो प्रतिवर्ष उस प्रजाति के 60,000 जंतु मारे जाते हैं। इस प्रकार, कुछ ही वर्षों में वह विशेष प्रजाति विनाश के कगार पर खड़ी कर दी जा सकती है। वर्तमान समय में, जबकि कम्प्यूटर आधारित कई सुरूचिपूर्ण शिक्षण विधियां इस हेतु उपलब्ध है, जीवन-विज्ञान की शिक्षा के नाम पर जंतुओं का बड़े पैमाने पर वध करवाना, जंतु पकड़ने वालों, मारने वालों, बिचौलियों एवं शिक्षकों के मध्य वर्षों से चला आ रहा अत्यंत भयानक-सा सुनियोजित षडयंत्र प्रतीत होता है।
शिक्षकों की ये घोर संवेदनहीनता विद्यार्थियों पर बहुत ही गलत प्रभाव डालती है। जंतुओं के प्रति हिंसा एवं हत्या की यह प्रवृत्ति उनके मानसिक एवं भावनात्मक धरातल को भावी जीवन में भी प्रभावित करती है। भावी समाज निर्माण एवं रचनात्मकता के लिए काम आने वाले उनके कच्चे मस्तिष्क इसके दूरगामी कुप्रभावों से ग्रसित हो सकते हैं। अमरीका व ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में विद्यार्थियों को स्वेच्छा से जंतु-विच्छेदन करने या न करने का अधिकार कानूनन प्राप्त है। इसके अतिरिक्त, यह सर्वविदित है कि जंतु-विच्छेदन की दक्षता किसी स्किल की श्रेणी में नहीं आती है। ऐसा देखने में आता हैं कि प्राणी शास्त्र के स्नातक एवं यहां तक कि स्नात्कोत्तर शिक्षा प्राप्त युवा जीविकोपार्जन के लिए अपनी जंतु-विच्छेदन की दक्षता एवं विभिन्न जंतुओं की शरीर-संरचना के ज्ञान को कभी प्रयोग नहीं कर पाते हैं। उनमें से कुछ तो शिक्षक बनकर जंतुओं को मारने एवं संग्रहित करने के चक्र को आगे प्रसारित करते हैं, जबकि अधिकतर कोई और ही रोजगार चुन लेते हैं, जिसका जंतु-संरक्षण एवं जंतु-कल्याण से दूर का भी संबंध नहीं होता है।
क्या जंतु-अनुप्रयोग तथा मानवीय विकल्पों की अहिंसा के परिप्रेक्ष्य में वैज्ञानिक सीमाएं तय की जानी चाहिए? यह प्रश्न वर्तमान परिदृश्य में अत्यंत महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है।
विश्व के अधिकतर विकसित देशों ने जीव विज्ञान की शिक्षा (विशेषकर प्रायोगिक पाठ्यक्रम) से जंतु-विच्छेदन व जीवों के प्रति हिंसक प्रयोगों को समाप्त कर दिया है। इन सभी दुष्प्रभावों द्वारा उत्पन्न संकटकालीन स्थिति से उबरने के लिए इनके आधुनिकतम विकल्प तेजी से विश्वभर के विद्यालयों, महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में स्वीकार किए जा रहे हैं। जंतु-विच्छेदन के विकल्प वे शैक्षणिक साधन हैं जो जीवों के प्रति हिंसक व्यवहार एवं प्रयोगों को प्रतिस्थापित करते हैं, मानवीय एवं स्वःविवेक की शिक्षा पर आधारित हैं, तथा जीवन के प्रति आदर का भाव उत्पन्न करते हैं। सर्वप्रथम रसैल तथा बर्च ने सन् 1954 ई० में 3-आर अवधारणा को प्रस्तुत किया जो बाद में उनकी पुस्तक The Principles of Humane Experimental Technique में 1959 ई० प्रकाशित हुई। 3-आर अवधारणा में शिक्षा, शोध कार्यों तथा प्रयोगों में जंतु-विच्छेदन एवं हिंसक जंतु प्रयोगों के संबंध में तीन प्रकार के विकल्पों, क्रमशः कमी (Reduction) शोधन (Refinement) तथा प्रतिस्थापन (Replacement) को प्रस्तुत किया गया। मेडिकल शिक्षा व जैव-चिकित्सकीय शोध में प्रथम दो विकल्प, एवं जीव-विज्ञान की शिक्षा में प्रतिस्थापन विकल्प उपयोग में लाए जा रहे हैं। चौथे आर पुर्नवास (Rehabilitation) पर अभी कार्य किया जा रहा है। आजकल, स्नातक तथा स्नात्कोत्तर कक्षाओं के लिए जंतु-विच्छेदन व शारीरिक संरचना प्रदर्शित करने वाले विभिन्न जीवों के मॉडल, मैनीकींस एवं आधुनिक तकनीकों पर आधारित कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर (Dissection Simulators जंतु प्रतिस्थापन विकल्प के रूप में सहज उपलब्ध हैं। इस तकनीकी युग में, विशेषज्ञों द्वारा किए गए जंतु-विच्छेदनों की उच्च आवर्धित तस्वीरें तथा वीडियो रिकॉर्डिंग्स जंतुओं की शरीर संरचना एवं आंतरिक संरचना को समझने में जंतु-विच्छेदन की क्षमता की तुलना में अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती हैं। आज वरचुअल प्रयोगशाला तथा त्रिआयामी बिंब एवं प्रतिरूपों के द्वारा पढ़ाए जाने वाले इंटरएक्टिव ट्यूटोरियल्स भी उपलब्ध हैं। ये सभी संसाधन जीव-विज्ञान की शिक्षा में विकल्पों के रूप में बेहतर ढंग से उपयोग किए जा सकते हैं। ये विकल्प न केवल मानवीय हैं, बल्कि विद्यार्थी प्रिय एवं रूचिकर सिद्ध होंगे तथा भारत जैसे विकासशील देश में जंतुओं की खरीद पर प्रतिवर्ष खर्च होने वाले बजट की काफी बचत कर सकते हैं। एक बार खरीदने के बाद यह विकल्प कई वर्ष बिना किसी खास देखभाल के संग्रहीत करके सैंकड़ों शिक्षकों एवं विद्यार्थियों द्वारा बारंबार प्रयोग किए जा सकते हैं। नेचर क्लब तथा जंतुओं के प्राकृतिक आवास में ही उनकी प्रजाति के लक्षण व व्यवहार का अध्ययन करवाना भी जंतु प्रादर्शों के संग्रहण का अत्यंत रुचिकर विकल्प है। इसके अतिरिक्त जंतु-कल्याण के कार्य में जुटी संस्थाएं जैसे पीपुल फॉर एथीकल ट्रीटमेंट फॉर एनिमलस (पीटा) तथा पीपुल्स फॉर एनिमल्स (पी०एफ०ए०) समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में इस विषय पर जनचेतना लाने हेतु लेख प्रकाशित करती हैँ और प्रभावी प्रचार-प्रसार भी चलाती हैं।
यद्यपि, शिक्षण में जंतुओं के प्रति की गई हिंसा के विरूद्ध दिए गए तर्कों में इतना दम हैं कि संपूर्ण विश्व में इसकी अवहेलना नहीं की जा रही, फिर भी भारत एवं कई देशों में अभी स्थिति भ्रमपूर्ण है। प्राणी शास्त्र शिक्षकों, उच्च शिक्षा के नीति-निर्धारकों तथा शिक्षक-शासकों के रवैये में परिवर्तन की गति अत्यंत धीमी है। कोई भी धर्म शिक्षा एवं मनोरंजन के लिए जंतुओं को मारने का पक्षधर नहीं है। निश्चय ही, अहिंसा व धर्म दो अलग-अलग बातें हैं, क्योंकि व्यावहारिक जीवन में देखा गया है कि एक नास्तिक भी अहिंसक हो सकता है और दूसरी ओर एक कट्टर धार्मिक व्यक्ति भी क्रूर एवं हिंसक हो सकता है जैसा कि कई धार्मिक कट्टरपंथी व्यक्ति एवं संगठन वर्तमान में भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी सक्रिय है। विख्यात दार्शनिक एवं प्रिंसटन विश्वविद्यालय अमेरिका, के प्रोफेसर पीटर सिंगर धर्म का तर्क न देते हुए अत्यंत वैज्ञानिक तरीके से अपनी पुस्तक एनिमल लिबरेशन में लिखते हैं कि नैतिकता के आधार पर पशु भी मानव के समान अधिकार रखते हैं, जीवों की हत्या भी उतना ही बड़ा अपराध है जितना मानव हत्या, अतः, दोनों अपराधों की सजा भी समान होनी चाहिए क्योंकि दोनों के अंग-तंत्र व शारीरिक संरचना समान हैं।
भारत एवं पश्चिम के अन्य विचारकों एवं जंतु कल्याण के क्षेत्र में लगे व्यक्तियों जिनमें भारत से पीपुल फॉर एनिमल्स की अध्यक्ष श्रीमती मेनका गांधी ने भी जंतु अधिकारों की बात समय-समय पर जोर देकर कही है। पश्चिम के एक अन्य प्रमुख विचारक जॉर्ज ऑरवैल ने भी अपनी पुस्तक एनिमल फॉर्म में कहा है कि मनुष्य ही एक मात्र प्राणी है जो बिना कुछ उत्पन्न किए सिर्फ उपभोग करता है-वह दूध नहीं देता, अंडे नहीं देता, तेज भागने व हल खींचने में भी असमर्थ है, फिर भी वह पृथ्वी पर उपस्थित सभी जीव- जंतुओं का राजा है। भारत के श्री अरविंद के अनुसार जीवन जीवन है, चाहें वह कुत्ते, बिल्ली का हो या मनुष्य का-जानवर एवं मनुष्य में कोई अंतर नहीं हैं, इस अंतर का विचार मानव की अपने लाभ हेतु बनाई गई एक अवधारणा मात्र है। उधर गांधीजी ने भी कहा है कि मैं समझता हूं कि कोई भी प्राणी जितना निरीह है, उस पर मनुष्यों द्वारा की जाने वाली क्रूरता से मनुष्यों द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा की आवश्यकता उतनी ही अधिक है। भारत के प्राचीन शास्त्रों में भी कहा गया है-यज्ञवत् भूमंडलम् धत्त समृगवनकाननम्। तावत् तिष्ठति मेदिन्याम् संततिः पुत्रपोत्रिकी।
अब समय आ गया है कि बुद्धिजीवी जीव-विज्ञान की शिक्षा की आड़ में पोषित अपनी इस असंवेदनशील प्रवृत्ति को छोड़ दें तथा अपने आपको पूर्ण मानसिक बदलाव के लिए तैयार करें ताकि जीवन-विज्ञान के पाठ्यक्रमों के द्वारा की जा रही जीव-हिंसा को रोका जाए। हमें जीवन विज्ञान की शिक्षा में सामाजिक विज्ञान की अवधारणाओं का समुचित प्रयोग करते हुए उस समय को पुर्नजीवित करना होगा जब प्राचीन मानव प्रकृति के स्नेहपूर्ण सानिध्य में आराम से फल-फूल रहा था। हम प्रकृति के प्रति स्नेह तथा जैव जगत के प्रति सहानुभूति रखें एवं अपनी आने वाली पीढ़ियों को शांतिपूर्ण सहजीवन का संदेश दें। मानवीय शिक्षा तथा प्राकृतिक संरक्षण ही इस अवधारणा की कुंजी है।
द्रष्टव्य : पशु-मुक्ति।
- डॉ० बी०के० शर्मा, डॉ० सीमा कुलश्रेष्ठ
अहिंसक मानव - स्वभाव : सामान्यतः, यह माना जाता रहा है कि मनुष्य स्वभाव से ही हिंसक है। यद्यपि इस मान्यता के बावजूद वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक-राजनीतिक जीवन में अहिंसा की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता; लेकिन, मान्यता के मान लेने पर एक अहिंसक मानव-समाज की अवधारणा को युटोपियाई मान लिया जाना स्वाभाविक है। यदि मनुष्य स्वभावतः हिंसक है तो उसे सुधारा नहीं जा सकता। इसलिए, इस मान्यता की वैज्ञानिकता का परीक्षण वांछनीय है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि इतिहास में लगातार युद्ध और हत्याएं मनुष्य द्वारा हिंसा का रास्ता अपनाने के ज्वलंत प्रमाण हैं। लेकिन, इनके आधार पर हिंसा को मानव-स्वभाव का अनिवार्य गुण नहीं माना जा सकता-इससे केवल इतना ही सिद्ध होता है कि कुछ परिस्थितियों में मनुष्य हिंसा का सहारा भी ले सकता है। शाकाहार और मांसाहार को लेकर भी यही तर्क दिया जा सकता है कि सभी मनुष्यों का मांसाहारी न होना इस बात के लिए यथेष्ट प्रमाण है कि मनुष्य की आहार-वरीयता उसके किसी मूल स्वभाव पर नहीं, बल्कि उपलब्धता और समाजीकरण की प्रकिया द्वारा निर्धारित होने के कारण प्रकृति-सापेक्ष एवं संस्कृति-सापेक्ष है। प्रो० ग्लेन डी० पेज के इस कथन को अवैध नहीं माना जा सकता कि अधिकतर मनुष्य हत्या नहीं करते। उन सभी मनुष्यों में, जो अभी जीवित हैं और जो कभी जीवित थे, केवल कुछ ही लोग हत्यारे हैं। आप चाहे किसी भी समाज के मानव-हत्या के आंकड़ों पर विचार करें, यही सच है। पेज का तर्क है कि युद्ध में हुई हत्याओं में मानव-समाज की आधी आबादी-स्त्रियों-की नगण्य भागीदारी है। पुरुषों के बारे में भी पेज डेव ग्रासमैन के, जो लेफ्टिनेंट कर्नल थे, युद्ध-हत्या के बारे में इस कथन से सहमत हैं कि युद्ध एक वातावरण है, जो इसमें भाग लेने वाले अठानवें प्रतिशत लोगों को मनोवैज्ञानिक रूप से दुर्बल बनाता है। दो प्रतिशत लोग, जो युद्ध में विक्षिप्त नहीं होते, पहले से ही विक्षिप्त अर्थात् आक्रामक मनोरोगी होते हैं।
महात्मा गांधी का भी हिंद स्वराज में यही कथन है कि दुनिया यदि इतने युद्धों के बाद भी टिकी हुई है, तो यह इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य स्वभाव से हिंसक नहीं है। करोड़ों परिवार परस्पर स्नेहपूर्वक रहते हैं-यही मनुष्य के स्वभावतः हिंसक न होने का प्रमाण है। परिवार नामक संस्था का विकास ही न होता, यदि मनुष्य स्वभाव से मूलतः हिंसक होता।
महात्मा गांधी और प्रो० पेज की मान्यता को तंत्रिका-विज्ञान से भी समर्थन मिलता है, जिसे ब्रूस ई० मॉर्टन ने न्यूरोरिएलिज्म कहा है। मॉर्टन के शोध का निष्कर्ष है कि मानव-मस्तिष्क में उच्चतर भावनाएं-सृजनात्मकता, परोपकार, सहयोग आदि-न्यूरोसेरेब्रल प्रणाली के अंतर्गत आती हैं, जो हर मनुष्य के मस्तिष्क में विद्यमान है और जिन्हें और सक्रिय किया जा सकता है। यह प्रणाली अहिंसक समाज का आधार मानव-मस्तिष्क में मानती है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि इस जीव-वैज्ञानिक आधार का सांस्कृतिक मानसिकता के साथ समन्वय किया जाना चाहिए। प्रसिद्ध मानवशास्त्री इरेनस इबल-इब्सफेल्ट इसीलिए अहिंसा के पीछे जीव-वैज्ञानिक आधार देखते हुए कहते हैं कि शांति के लिए विश्वव्यापी इच्छा का मूल संस्कृति एवं जीव-वैज्ञानिक सिद्धांतों के बीच टकराव में स्थित है, जिसके कारण मनुष्य अपने जीव-वैज्ञानिक और सांस्कृतिक सिद्धांतों में समन्वय लाने की इच्छा करते हैं। हमारा अंतःकरण ही हमारी उम्मीद है और इस पर आधारित विवेक-निर्देशित क्रमविकास ही शांति की ओर ले जा सकता है।
मानव मूलतः हिंसक नहीं है, इस बात का सत्यापन करते हुए दुनिया के जाने-माने जीव-वैज्ञानिकों, आनुवंशिकी विशेषज्ञों, मानव-विज्ञानियों, तंत्रिका-विज्ञानियों, मनोवैज्ञानिकों एवं समाज-विज्ञानियों ने सम्मिलित रूप से सेविले उद्घोषणा (1986 ई०) में कहा किवैज्ञानिक दृष्टि से यह कहना गलत (असत्य) होगा कि हमारे अंदर हिंसा की प्रवृत्ति हमारे पशु-पूर्वजों से उत्तराधिकार के रूप में मिली है। वैज्ञानिक दृष्टि से यह कहना असत्य होगा कि मानव-स्वभाव में, युद्ध अथवा कोई भी हिंसक व्यवहार की रचना आनुवंशिक रूप से हुई है... वैज्ञानिक दृष्टि से यह कहना असत्य है कि मानव के क्रमिक विकास में अन्य प्रकारों की तुलना में आक्रामक व्यवहारों का अधिक चुनाव हुआ है...वैज्ञानिक दृष्टि से यह कहना असत्य है कि मनुष्य का दिमाग हिंसक है... वैज्ञानिक दृष्टि से यह कहना भी असत्य है कि युद्ध का कारण अंतःप्रेरणा अथवा कोई एक प्रेरणा है। इस घोषणा में यह भी कहा गया है कि हमारा निष्कर्ष है कि मनुष्यता युद्ध के लिए जीव-विज्ञान द्वारा अभिशप्त नहीं है और जिस प्रजाति (अर्थात् मानव-जाति) ने युद्ध का आविष्कार किया, वही शांति का आविष्कार करने में भी समर्थ है।
स्पष्ट है कि हिंसा-अहिंसा का सवाल जीव-वैज्ञानिक नहीं बल्कि एक सांस्कृतिक-सामाजिक सवाल है और मनुष्य की मानसिकता के निर्माण में समाजीकरण की प्रक्रिया का गहरा प्रभाव है। हमारी समाजीकरण की प्रक्रिया अभी तक हिंसा के औचित्य या उसके द्वारा प्रदत्त बल का सम्मान करती, अर्थात् उसे वांछनीय मान लेती है। यह मनुष्य का मूल स्वभाव का नहीं बल्कि संस्कृति-सापेक्ष है। ऐसे कई जनजातीय समाजों के उदाहरण मिल जाते हैं, जिनमें हिंसा का पूर्णतः अभाव है, जबकि कथित सभ्य समाजों में वह विकराल रूप धारण कर लेती है। ब्रूस डी बोंता ने अपने शोध के दौरान ऐसे सैंतालीस जनजातीय समाजों की खोज की है, जहां अत्यधिक पारस्परिक सामंजस्य तथा नगण्यतम हिंसा है। यदि हिंसा मनुष्य का मूल स्वभाव होता तो किसी भी समाज में ऐसा होना संभव नहीं हो सकता था।
जहां तक हिंसा को पशु-स्वभाव से जोड़ने की बात है, तूलेन के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक लाहे-संग-साई ने अपने शोध द्वारा यह दिखाया है कि चूहा और बिल्ली, जो कि तथाकथित प्राकृतिक शत्रु है-सहयोग कर सकते, तथा ऐसा करते हैं। इस प्रकार की खोज मनोविज्ञान के इस रूढ़ सिद्धांत को गलत साबित करती है कि पशु-स्वभाव में अनिर्मूलनीय कलह-प्रेम का सहज ज्ञान है, जो कि लड़ाई अथवा युद्ध को अनिवार्य बना देता है। स्पष्ट है कि साई का शोध भी सांस्कृतिक प्रशिक्षण के महत्त्व को स्वीकार करता है, जिसमें इस बात की संभावना है कि पशु को भी वैज्ञानिक अनुकूलन और सामाजिक शिक्षा के सम्मिश्रण से बदला जा सकता है। अतः, हिंसा का सवाल मानव के भी मूल स्वभाव का सवाल नहीं है क्योंकि मूल स्वभाव परिवर्तनीय नहीं होता। मार्टिन लूथर किंग और सेनेटर राबर्ट केनेडी की हत्या के बाद स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के तेबीस मनोचिकित्सकों द्वारा हिंसा के सवाल पर गठित समिति का निष्कर्ष कहता है, हमारा मानव-स्वभाव के बारे में जितना ज्ञान है, उसके आधार पर हम कह सकते हैं कि हिंसा का युग समाप्त हो सकता है, यदि हम दूसरे विकल्पों को अपनाने का निश्चय करें।
द्रष्टव्य : सेविल उद्घोषणा; पेज, ग्लेन डी।
- नंदकिशोर आचार्य
( ग्लेन डी पेज की पुस्तक राजनीतिशास्त्र का हिंसामुक्त स्वरूप पर आधारित )
अहिंसक राजनीतिशास्त्र : द्रष्टव्य : पेज, ग्लेन डी०।
अहिंसक राज्य - व्यवस्था : महात्मा गांधी और उनके समानधर्मा अन्य कई विचारक राज्य को संगठित हिंसा की संज्ञा देते हैं-केवल निरंकुश राज्य को ही नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक राज्य को भी क्योंकि लोकतांत्रिक राज्य में भी सत्ता का केंद्रीकरण तो होता ही है। संसदीय लोकतंत्र में संप्रभुता वास्तविक अर्थों में संसद और कार्यपालिका में केंद्रित हो जाती है और सभी स्थानीय संस्थाएं उनके समक्ष लाचार नजर आती है। दरअस्ल, केंद्रीकरण किसी भी संस्थान को अंततः अलोकतांत्रिक और हिंसक बनाता है। महात्मा गांधी मानते हैं किएक प्रणाली के रूप में केंद्रीकरण समाज की अहिंसक संरचना के साथ मेल नहीं खाता और इसीलिए वह स्पष्ट कह देते हैं कि लोकतंत्र और हिंसा साथ-साथ नहीं चल सकते। जो राज्य आज कहने के लिए लोकतांत्रिक हैं, उन्हें या तो खुलकर सर्वसत्तात्मक बन जाना होगा, या अगर वे सच्चे लोकतांत्रिक बनना चाहते हैं तो उन्हें साहसपूर्वक अहिंसक रूप अपनाना होगा।
यदि राज्य में सत्ता का केंद्रीकरण उसे हिंसक बनाता है तो इस हिंसा का उपचार सत्ता के विकेंद्रीकरण से ही संभव है। इसीलिए गांधीजी ग्राम स्वराज्य की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, एम०एन० राय जैसे विचारक स्वायत्तशासी स्थानीय समितियों की तथा स्वयं कार्ल मार्क्स कम्यून की। इन सभी का सार तत्त्व सत्ता या संप्रभुता का लघुतम स्तर तक बंटवारा है।
सामान्यतया यह माना जाता है कि विकेंद्रीकरण का अर्थ राज्य के कार्यों या अधिकारों को एक सीमा तक स्थानीय संस्थाओं को हस्तांतरित कर देना है। लेकिन, यह वास्तविक विकेंद्रीकरण नहीं है क्योंकि इसमें स्थानीय संस्थाएं राज्य का माध्यम या अभिकर्ता हो जाती हैं, जबकि विकेंद्रीकरण का असल तात्पर्य है संप्रभुता का विकेंद्रीकरण। इसीलिए महात्मा गांधी ग्राम-स्वराज्य की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, जिसका मतलब है प्रत्येक ग्राम का एक स्वायत्त गणतंऌत्र की तरह काम करना और सभी ग्रामवासियों की ग्राम-सभा द्वारा निर्वाचित सावधि पंचायत द्वारा उसका संचालन किया जाना। यहां केंद्रीय राज्य ग्राम-राज्य से बड़ा या श्रेष्ठ नहीं, बल्कि समस्तरीय होगा।
दरअस्ल, समस्तरीयता की धारणा महात्मा गांधी के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। राय इस विकेंद्रीकरण को एक पिरामिडाकार संरचना के रूप में देखते हैं, लेकिन इस कल्पना में एक उच्चावच क्रम है क्योंकि अंततः शीर्ष प्रधान हो जाता और सारा भार बुनियाद पर पड़ता है। महात्मा गांधी विकेंद्रीकरण की अपनी कल्पना को पिरामिड की तरह नहीं बल्कि महासागरीय वलय (Oceanic circle) की तरह देखते हैं क्योंकि वह उच्चावच क्रम में नहीं, समस्तरीय है। इस रूपक को उन्हीं के शब्दों में देखा जाए तो असंख्य गांवों से बने इस ढांचे में एक के बाद एक विस्तारशील किंतु कभी ऊर्ध्वगामी न होने वाले वलय होंगे। जीवन एक समुद्री वलय की तरह होगा जिसके केंद्र में व्यक्ति होगा, फिर गांव, ग्राम-समूह और बाह्य परिधि तक इसी प्रकार के स्वायत्त किंतु परस्पर सहायक समस्तरीय संबद्ध वलय। इस महासागरीय वलय की बाह्यतम परिधि के पास आंतरिक शक्ति को कुचलने की शक्ति नहीं होगी, बल्कि वह अपने अंदर की सभी परिधियों को शक्ति प्रदान करेगी और स्वयं उनसे शक्ति प्राप्त करेगी।
इस महासागरीय वलय की विभिन्न परिधियों के पारस्परिक संबंधों का कोई स्पष्ट खाका महात्मा गांधी नहीं देते-वह ग्राम-स्वराज्य के आधार पर एक दिशा-संकेत अवश्य देते हैं, जिसके अनुसार ग्राम-पंचायत के पास अपने क्षेत्र से संबंधित वे समस्त अधिकार होंगे जो एक राज्य को होते हैं। डॉ० राममनोहर लोहिया विकेंद्रीकरण को चौखंभा राज की अवधारणा के आधार पर व्याख्यायित करते हैं और राय स्थानीय से लेकर केंद्र तक एक पिरामिडाकार संरचना द्वारा, जिसमें प्रत्येक स्तर के संस्थान को यह अधिकार हो कि वह अपने से उच्च संस्थान में अपने प्रतिनिधि को जब चाहे वापस बुला सके।
लेकिन मूल सवाल सत्ता के स्रोत का है क्योंकि जब तक किसी-न-किसी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था है, तब तक किसी-न-किसी सीमा तक सत्ता भी है। महात्मा गांधी सत्ता के दो बुनियादी प्रकार बताते हैं-एक वह जो प्रेम की कलाओं से अर्जित की जाती है और दूसरी वह जो दंड के भय द्वारा प्राप्त होती है। गांधीजी की दृष्टि मेंप्रेम पर आधारित सत्ता दंड के भय से उद्भूत सत्ता की तुलना में हजार गुना अधिक कारगर और स्थायी होती है। यह सत्ता के बारे में एक नए प्रकार का चिंतन है जो राज्य को भी एक परिवार की भावना से संचालित करने की अवधारणा पर आधारित है। महात्मा गांधी परिवार का उदारहण देते हुए कहते हैं कि परिवार में बच्चा पिता की आज्ञा का पालन थप्पड़ के भय से नहीं बल्कि उसके पीछे आहत प्रेम के कारण करता है। गांधीजी की राय में यही वह भावना है जिसके अनुसार समाज का संचालन होता है या किया जाना चाहिए। जो बात परिवार पर लागू होती है, वही समाज पर भी लागू होनी चाहिए, क्योंकि समाज भी एक वृहत्तर परिवार ही तो है। उनकी मान्यता है कि दंड भी हिंसा की भावना से प्रेरित होकर नहीं दिया जाना चाहिए। शक्ति का सही प्रयोग यह है कि वह फूल की तरह हल्के से जन-जीवन का स्पर्श करे, किसी को उसका भार महसूस नहीं होना चाहिए।
प्राचीन चिंतकों में ताओ के प्रणेता चीनी दार्शनिक लाओत्से और आधुनिक काल में थोरो, क्रोपाटकिन जैसे अराजकतावादी विचारक भी राजनीतिक-संस्थान से अधिकाधिक अहिंसक होने की अपेक्षा करते हैं। लाओत्से ताओ -ते-छिङ के एक सूत्र में कहते हैं कि कठोर शासन में असंतोष पनपता है, जबकि निष्क्रिय शासन में संतुष्टि। एक अन्य सूत्र में वह कहते हैं कि वे शासक सबसे बेहतर हैं, जिन्हें जनता शासक के रूप में नहीं जानती। राज्य के बारे में अपनी अवधारणा को अपने ताओ सिद्धांत के आलोक में व्याख्यायित करते हुए वह कहते हैं कि राज्य को भी शेष सृष्टि की तरह स्वाभाविक गति यानी निष्कर्म का पालन करना चाहिए, जिसका अर्थ है जो राज्य जितना कम शासन करे, उतना ही अच्छा है। यह धारणा थोरो की इस राय से मिलती है कि सबसे अच्छी सरकार वह है जो कम-से-कम शासन करे। प्रसिद्ध अराजकतावादी रूसी विचारक क्रोपाटकिन वास्तविक समाजवादी व्यवस्था में राज्य की नियंत्रक भूमिका के बजाय पारस्परिक सहयोग को केंद्रीय आधार मानते हैं। विनोबा अपने सर्वोदय सिद्धांत में इसे सामूहिक साधना कहते हैं।
महात्मा गांधी की ग्राम-स्वराज्य या विकेंद्रीकरण की अवधारणा इसी पारस्परिक सहयोग के भाव पर आधारित है, जिसमें गांवों, ग्राम-समूहों और वलय की बाह्य परिधियों के बीच यह पारस्परिक सहयोग ही पूरी व्यवस्था का भावात्मक या तात्त्विक आधार होगा, जिसमें सत्ता किसी शीर्ष में केंद्रित न होकर ग्राम-स्तर तक समस्तरीय तरीके से विभाजित होगी और गांव के प्रत्येक व्यक्ति को ग्राम-सभा सदस्य के रूप में अपनी राय व्यक्त करने का अधिकार होगा। व्यक्ति की स्वायत्तता इस स्वराज का आधार होगी, जिसका अतिक्रमण कोई नहीं कर सकेगा क्योंकि स्वायत्त व्यक्तियों का पारस्परिक सहयोग ही वास्तविक सहयोग है। जहां स्वतंत्रता नहीं, वहां सहयोग भी कैसे हो सकता है? दंड के बजाय प्रेम और सहयोग पर आधारित सत्ता ही वास्तविक अर्थों में अहिंसक हो सकती है।
- नंदकिशोर आचार्य
अहिंसक संप्रेषण : अहिंसक संप्रेषण मार्शल बी० रोजेनबर्ग एवं अन्य द्वारा प्रतिपादित एक ऐसी अवधारणा, विधि और कार्यक्रम है जो दो पक्षों-व्यक्तियों या समूहों-के बीच एक ऐसी संप्रेषण-प्रक्रिया विकसित करना चाहता है जिससे उनके बीच के तनाव या कलह दूर होकर आपसी सौहार्द और सहयोग की भावना का विकास हो सके। यह देखा गया है कि कई बार एक पक्ष द्वारा जिस तरह से अपनी बात कही जाती है, वह दूसरे पक्ष को कहने की विधि से ही पूर्वग्रहग्रस्त कर देती है। इसी प्रकार यह भी होता है कि अपने पूर्वग्रहों के चलते एक पक्ष दूसरे पक्ष की बात को सही परिप्रेक्ष्य में नही समझ पाता और आक्रामक रूख अख्तियार कर लेता है, जिसका नतीजा यह होता है कि दोनों के बीच की समस्या सुलझने के बजाय और जटिल हो जाती है, बल्कि कई बार संप्रेषण-विधि से ही समस्याएं पैदा हो जाती हैं। इसलिए रोजेनबर्ग एक ऐसी संप्रेषण-विधि का प्रस्ताव करते हैं, जिससे एक-दूसरे के पक्ष को सहानुभूतिपूर्ण ढंग से समझकर समस्या के समाधान में न केवल परस्पर सहयोग हो सके-बल्कि दोनों पक्षों के बीच आगे भी मैत्री और सौहार्द विकसित होता रहे। अहिंसक संप्रेषण का प्रयोजन विपरीततम परिस्थिति में भी मानवीय बने रहना है। रोजेनबर्ग मानते हैं कि इस विधि में कुछ नया नहीं है क्योंकि इस संप्रेषण विधि के इस बुनियादी आधार के बारे में सदियों से हम जानते आए हैं कि मनुष्यों का एक-दूसरे से किस प्रकार का संबंध होना चाहिए।
रोजेनबर्ग की बुनियादी मान्यता यह है कि मनुष्य सहानुभूतिपूर्ण आदान-प्रदान में सुख अनुभव करता है-देना और लेना दोनों ही सुख का एहसास करवाते हैं। लेकिन हमने इस बात को भूलकर कुछ ऐसे जीवन-असंपृक्त संप्रेषण की विधियां विकसित कर ली है; जिनसे हमारी बातचीत और व्यवहार दूसरे पक्ष को ही नहीं; हमें भी चोट पहुंचाते हैं। इसमें मूल्य-निर्णय की हमारी अभिव्यक्ति का प्राथमिक उत्तरदायित्व होता है। हम अक्सर अन्य लोगों के ऐसे कार्यों को अनैतिक घोषित कर देते हैं जो हमारे नैतिक मानदंडों के अनुसार नहीं होते। इसी का दूसरा रूप तुलनात्मक अभिव्यक्ति है। जब हम तुलनात्मक पद्धति अपनाते हैं तो सहानुभूति या संवेदनशीलता अवरुद्ध हो जाती है क्योंकि तुलना किसी-न-किसी को हीन सिद्ध करती और दोनों पक्षों के बीच संवेदनशीलता बाधित हो जाती है। दरअस्ल, हर कोई अपने विचारों और व्यवहार के लिए उत्तरदायी होता है, लेकिन जीवन-असंपृक्त संप्रेषण हमारे इस दायित्व-बोध को धुंधला कर देता है। रोजेनबर्ग यह भी मानते हैं कि अपनी इच्छाओं को जरूरतों के बजाय मांगों के रूप में रखना भी एक बाधा हो जाता है। सौहार्दपूर्ण संप्रेषण के मार्ग में आने वाली बाधाओं का वर्णन करने के बाद रोजेनबर्ग उन बाधाओं से हटकर अहिंसक संप्रेषण-विधि की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं। उनके मॉडल में चार मुख्य बिंदु हैं : पर्यवेक्षण, एहसास, जरूरतें और निवेदन : जिनके आधार पर अहिंसक संप्रेषण का विकास किया जा सकता है। रोजेनबर्ग जे० कृष्णमूर्ति के इस कथन से सहमति प्रकट करते हैं कि मूल्य-निर्णयरहित पर्यवेक्षण सबसे बड़ी बुद्धिमानी है। रोजेनबर्ग कहते हैं कि यदि हम किसी भी व्यक्ति, घटना या वस्तु का वर्णन करते हुए अपने मूल्य-निर्णय से उसको अलग रख सकें तो यह सौहार्दपूर्ण संप्रेषण में बहुत मददगार हो सकता है। पर्यवेक्षण को मूल्य-निर्णय से जोड़ने का नतीजा यह होता है कि उसे दूसरा पक्ष अपनी आलोचना समझकर हमारे पर्यवेक्षण या कथन का ही विरोध करने लग जाता है। इसलिए अहिंसक संप्रेषण की विधि में ऐसी भाषा से बचना चाहिए जो हमारे वास्तविक पर्यवेक्षण के बजाय हमारे मूल्य-निर्णय को संप्रेषित करती हो, अर्थात् हमें किसी के बारे में वर्णन करते हुए स्थिर सामान्यीकरण से बच सकना चाहिए।
रोजेनबर्ग की संप्रेषण-विधि में दूसरा आवश्यक घटक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। हमारी भावनाओं को स्पष्टता के साथ कह सकने वाली भाषा हमें तत्काल दूसरे पक्ष के साथ जोड़ देती है। यह स्पष्ट अभिव्यक्ति हमें भी भेद्य बना देती है, जिससे विवाद के समाधान में मदद मिलती है। अपनी भावनाओं की दोनों ओर से स्पष्ट अभिव्यक्ति मन को खोल देती है और इस कारण एक दूसरे को समझना आसान हो जाता है।
रोजेनबर्ग के अनुसार संप्रेषण में ग्रहण-प्रक्रिया की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका है, अर्थात् हम किसी की बात को किस रूप में ग्रहण करते हैं। वह इस ग्रहण-प्रक्रिया को चार प्रकारों में देखते हैं। एक तो यह कि हम उसे वैयक्तिक आलोचना मानकर अपने को दोष देने लगे। दूसरे यह कि उसे लेकर क्रोधित हो जाएं और दूसरे पक्ष को दोषी ठहराने लगें। तीसरा प्रकार यह है कि हम अपनी भावनाओं और जरूरतों को समझें और चौथा यह कि उस कथन से व्यंजित हो रही दूसरे पक्ष की भावनाओं और जरूरतों को समझ लें। रोजेनबर्ग मानते हैं कि हमारी भावनाओं के लिए दूसरे पर दोष लगाने के बजाय हमें उनके लिए स्वयं को उत्तरदायी मानना चाहिए। दरअस्ल, हमारी सभी व्याख्याएं और निर्णय आदि प्रकारांतर से हमारी उन जरूरतों की अभिव्यक्ति होते हैं, जो पूरी नहीं हुई होती हैं। यदि हम उन जरूरतों को सीधे ही अभिव्यक्त कर देते हैं तो उनके पूरा होने की संभावना अधिक हो जाती है क्योंकि यदि हम स्वयं अपनी जरूरतों को महत्त्व न दें तो अन्य भी उनकी तरफ से उदासीन हो सकते हैं।
रोजेनबर्ग यह मानते हैं कि अपनी जरूरतों और भावनाओं की स्पष्ट समय और अभिव्यक्ति हमें भावनात्मक गुलामी से भावनात्मक मुक्ति की ओर ले जाती है। भावनात्मक गुलामी का पहला लक्षण यह है कि हम अन्य की भावनाओं के लिए खुद को जिम्मेदार मानकर कुछ करने के लिए बाध्य होते हैं। इसके विपरीत, यह भी हो सकता है कि हम उनके लिए अपने को बिल्कुल जिम्मेदार न माने क्योंकि उस कारण हमें बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ी या पड़ सकती है और यह महसूस हो सकता है कि इस वजह से हमने अपने को नजरअंदाज किया है। रोजेनबर्ग के अनुसार भावनात्मक मुक्ति इस बात में है कि अपने मंतव्यों और कामों के लिए हम अपने को जिम्मेदार माने। इसका तात्पर्य यह है कि यदि हम दूसरों के लिए कुछ करते हैं तो अपनी करुणा या संवेदनशीलता के कारण-किसी भय, अपराध-बोध या शर्म के कारण नहीं-क्योंकि ऐसा करना दूसरे की जरूरत को पूरा करने के साथ हमें सार्थकता की अनुभूति करवाता है, अर्थात् दूसरों की जरूरतों का ख्याल करना हमारी अपनी भावनाओं का ख्याल करना है।
पर्यवेक्षण, एहसास और जरूरतों के बाद अहिंसक संप्रेषण में चौथा चरण निवेदन का है यानी हम किस प्रकार अपनी जरूरतों को संप्रेषित करते हैं ताकि अन्य सहानुभूतिपूर्वक उत्तर दे सकें। हमें अपना निवेदन स्पष्ट, सकारात्मक और सक्रियतामूलक भाषा में करना चाहिए क्योंकि अस्पष्ट भाषा आंतरिक संभ्रम बढा़ती है और हमें अवसाद से ग्रस्त कर देती है। रोजेनबर्ग कहते हैं कि यदि हम केवल अपने एहसास को ही व्यक्त करें-न कि स्पष्ट शब्दों में अपनी इच्छा को-तो दूसरे पक्ष को यह साफ होना जरूरी नहीं है कि उसे क्या करना है। शायद हम खुद भी स्पष्ट नहीं होते कि हम क्या चाहते हैं। इसी तरह, यदि हम अपनी जरूरत का निवेदन मांग की तरह करते हैं तो हमारा व्यक्तित्व अवपीड़क हो जाता है क्योंकि सुनने वाले को लगता है कि वह उसे पूरा करने को बाध्य है। ऐसी स्थिति में वह या तो समर्थन कर देता है या प्रतिरोध करता है-दोनों ही स्थितियों में वह सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार नहीं कर रहा होता। यदि दूसरा पक्ष हमारे निवेदन के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रुख अख्तियार करता है तो ही हमें उसे निवेदन मानना चाहिए-अन्य स्थितियों में वह मांग ही रहता है। इसलिए हमें अपनी भावना और जरूरत को प्रकट करते हुए दूसरे पक्ष के सम्मुख यह स्पष्ट कर सकना चाहिए कि हम मांग नहीं, निवेदन कर रहे हैं, जिसे पूरा करने को वह बाध्य नहीं है। अहिंसक संप्रेषण का प्रयोजन लोगों के व्यवहार को अपने अनुकूल बदलना नहीं, बल्कि सचाई और सहानुभूति पर आधारित ऐसा रिश्ता बनाना है, जिसमें अंततः प्रत्येक की आवश्यकताएं पूरी हो सकें।
संप्रेषण-प्रक्रिया में ग्रहण-प्रक्रिया का भी समान महत्त्व का स्थान है। इसलिए जहां अभिव्यक्ति की सचाई जरूरी है, वहीं सहानुभूतिपूर्ण ग्रहण भी। सहानुभूति का मतलब है कि हम दूसरे पक्ष की बात की पूरी संवेदना और ध्यान से सुने और हमारी संवेदना पूरी तरह से संप्रेषित हो सके। सहानुभूति या समानुभूति का तात्पर्य है अन्य की भावनाओं के प्रति सम्मानपूर्ण समझ। हम अक्सर इस सम्मानपूर्ण समझ के बजाय सलाह या आश्वासन पर बल देते हैं ताकि अपनी स्थिति को स्पष्ट कर सकें। रोजेनबर्ग कहते हैं : समानुभूति का मतलब है अपने दिमाग को खाली कर अपने समग्र अस्तित्व के साथ दूसरे को सुनना। कुछ करना, कर सकना या न कर सकना बाद की बातें हैं। किसी की बात को समानुभूति अर्थात् पूरे मनोयोग से सुनना भी कहने वाले पक्ष को मानसिक पीड़ा से उबारने में सहायक होता है।
रोजेनबर्ग मानते हैं कि अपनी भावनाओं की जिम्मेदारी स्वयं न लेना, अन्य को दोषी ठहराना, एक प्रकार की हिंसा है और यदि हमारी अभिव्यक्ति इनसे प्रेरित है तो यह हिंसक संप्रेषण को जन्म देती है। इसी प्रकार, यदि हम अन्य की भावनाओं और जरूरतों के लिए समानुभूति नहीं रखते तो यह भी हिंसक संप्रेषण है-क्योंकि इसमें हम अपना क्रोध अभिव्यक्त करते और अन्य में भी क्रोध की प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं। ऐसी स्थितियां हो सकती हैं, जिनमें संप्रेषण की गुंजाइश ही न हो और हमें बचाव के लिए बल का सहारा लेना पड़े। लेकिन, इस बल-प्रयोग का प्रयोजन अपना बचाव होना चाहिए, न कि प्रतिपक्ष को दंडित करना या पीड़ा पहुंचाना अथवा उसको बदलना। दोषारोपण और दंड अन्य में उन प्रयोजनों को प्रेरित नहीं कर सकते, जिन्हें हम उनमें देखना पसंद करते हैं।
अहिंसक संप्रेषण में किसी की प्रशंसा के भाव का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। यहां प्रशंसा का प्रयोजन अन्य को अनुकूल आचरण के लिए तैयार करना नहीं-बल्कि प्रशंसा के भाव से अपने में प्रसन्नता अनुभव करना है। ऐसी प्रशंसा स्वयमेव ही दूसरे पक्ष को भी आनंदित करती और दोनों के बीच एक स्वस्थ अहिंसक संबंध विकसित करती है।
रोजेनबर्ग ने अहिंसक संप्रेषण के लिए बहुत-सी विधियां और अभ्यास कार्यक्रम विकसित किए हैं तथा उनके शुभ परिणाम देखने में आए हैं। उनकी पुस्तक नान-वायलेंट कम्युनिकेशन : ए लैंग्वेज ऑफ कम्पैशन उनके विचारों और व्यावहारिक कार्यक्रमों की पूरी जानकारी देती है।
- नंदकिशोर आचार्य
अहिंसक समाज (Peaceful Societies) : वर्तमान में ऐसे समाज विद्यमान हैं, जिन्हें मानवशास्त्रियों व समाजशास्त्रियों द्वारा अहिंसक समाज की संज्ञा प्रदान की जाती है। यह समाज आंतरिक हिंसा एवं युद्ध से बचे व अपने सामाजिक जीवन में अंतर्वैयक्तिक सौहार्द को निरंतर बढ़ाने में अनवरत लगे रहते हैं। किसी भी समाज को अहिंसक समाज कहलाने के लिए निम्नलिखित आधार बताए जा सकते हैं (हालांकि ये आधार अंतिम नहीं हैं)-(1) जो समाज किसी मानवशास्त्री या समाजशास्त्री द्वारा विस्तृत टिप्पणी के साथ अहिंसक बताया गया हो। (2) समाजवैज्ञानिकों द्वारा समाज के अहिंसक होने के बारे में समुचित प्रमाण प्रस्तुत किए गए हों। (3) समाज के बारे में अकादमिक साहित्य उपलब्ध हो, जिसके आधार पर उसके सामाजिक, मनोवैज्ञानिक व सांस्कृतिक मानस के बारे में जानकारी प्राप्त हो सके। (4) समाज किसी युद्ध में शामिल न रहा हो। (5) समाज में गृहयुद्ध या सामूहिक हिंसा न रही हो। (6) सेना-पुलिस जैसा संगठन न रहा हो। (7) अंतर्वैयक्तिक शारीरिक हिंसा न्यूनतम या बिल्कुल न हो। (8) संरचनात्मक हिंसा न्यूनतम या बिल्कुल न हो। (9) समाज में होने वाले परिवर्तन शांतिपूर्ण हो। (10) अपने स्वभाव के मुताबिक विकास के अवसर उपलब्ध हों।
ऐसे अहिंसक समाजों को विभिन्न दृष्टिकोणों से परखने का प्रयास किया गया है। धार्मिक विश्वास एवं व्यवहार, सामाजिक-मनोवैज्ञानिक मानस, संतान की पालन-पोषण प्रक्रिया, संघर्ष-समाधान की रणनीति आदि ऐसे मुद्दे हैं, जिनके आधार पर विभिन्न विद्वानों ने इन समाजों का अध्ययन किया है। ये समाज अपने सदस्यों के भीतर एवं अन्य लोगों के प्रति सौहार्द, सौम्यता एवं दयालुता को व्यवहार में लाते हुए संघर्ष, आक्रामकता और हिंसा को निम्नतर दर्जा प्रदान करते हैं, उन्हें घटाते हैं। इस समाज के सदस्य आपसी प्रेम, पारस्परिक सम्मान और निजी मतभेदों में सहनशीलता को बढ़ाते हैं तथा प्रतिस्पर्धा, आत्मकेंद्रीयता तथा हिंसा की ओर ले जाने वाले अहंपूर्ण सामाजिक व्यवहारों को कमतर करते हैं।
अहिंसक समाज विश्व के विभिन्न हिस्सों, विभिन्न भौगोलिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों में निवास करते हैं। एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि इन समाजों का इतिहास, भूगोल, विश्वास, सामाजिक व्यवहार, जीवनशैली अलग-अलग होते हुए भी इन सभी में एक दृढ़ विश्वास यह पाया जाता है कि ये सभी अपने अहिंसक जीवन को बनाए रखना चाहते और अपनी इस अहिंसक जीवनदृष्टि के अनुसार रहना चाहते हैं। कुछ समाज बहुत एकाकी इलाकों-प्रायद्वीपों, सुदूर रेगिस्तानों, घने जंगलों-में रहते हैं। मगर इस एकाकी जीवन के भूगोल से अधिक महत्त्वपूर्ण इनका यह विश्वास है कि उन्हें अपने अहिंसक स्वभाव को बनाए रखना है। वे मानते हैं कि अहिंसा उनके लिए कारगर है।
अहिंसक समाजों का अध्ययन हमें मानवीय संबंधों के प्रति उन विभिन्न दृष्टिकोणों से परिचय कराता है, जो अहिंसा को बढ़ाने में कारगर है। अहिंसक समाजों की संख्या को लेकर विद्वान एकमत नहीं है, अतः, इनकी निश्चित संख्या बताना कठिन है, परंतु निम्नलिखित कुछ महत्त्वपूर्ण समाज अवश्य ऐसे हैं जो विद्वानों की दृष्टि में अहिंसक समाज की कसौटी पर खरे उतरते हैं : (1) अमिश (Amish)-लगभग 2 लाख लोगों का यह समुदाय पेंसिलवेनिया के गांवो, ओहियो, इंडियाना साथ ही अमेरिका व कनाडा के आसपास के इलाकों में रहता है। (2) बटेक (Batek)-लगभग 800-900 लोगों का यह समुदाय मलेशिया के जंगलों में रहता है विशेष तौर पर तमान नेगारा राष्ट्रीय उद्यान में रहता है। (3) बिरहोर (Birhor)-1991 ई० में लगभग 8000 लोगों का यह समुदाय भारत के ओडिसा, छत्तीसगढ़, पश्चिमी बंगाल एवं झारखंड में रहता है। झारखंड में इस समुदाय का घनत्व रांची, हजारीबाग और सिंहभूमि जिलों में ज्यादा है। (4) बुएद (Buid)-लगभग 4000 लोगों का यह समुदाय फिलिपींस में रहता है। (5) चेवोंग (Chewong)-यह समुदाय मलेशिया के मलय प्रायद्वीप के घने जंगलों में रहता है। (6) फिपा (Fipa)-लगभग 1,00000 लोगों का यह समुदाय तंजानिया की दो झीलों रुक्वा एवं तंगायिका के आसपास रहता है। (7) ग्वी (G/wi)-लगभग 2000 लोगों का यह समुदाय मध्य बोत्सवाना के कालाहारी रेगिस्तान में रहता है। (8) हुट्टेराईट्स (Hutterites)-लगभग 43000 लोगों का यह समुदाय अमेरिका एवं कनाडा के कुछ हिस्सों में रहता है। (9) इफालुक (Ifaluk)-लगभग 400 लोगों का यह समुदाय कैरोलिन आइलैंड पर रहता है। (10) उत्कुहिखलिक/उत्कु (Utkuhikhalik or simply Utku) और क्विपीसा (Qipisa)-उत्कु समुदाय सेंट्रल कनाडियन आर्कटिक एवं क्विपीसा समुदाय बफिन आइसलैंड पर रहता है। (11) जुहोंशी (Ju/hoansi)-लगभग 15000 लोगों का यह समुदाय बोत्सवाना/नामीबिया सरहद के सुदूर क्षेत्रों के साथ-साथ बोत्सवाना, नामीबिया एवं अंगोला के रेगिस्तानों में रहता है। (12) कादर (Kadar)-1981 ई० में लगभग 1500 लोगों का यह समुदाय भारत के तमिलनाडु एवं केरल राज्यों की सरहद के उत्तरी घाट पर्वतमाला के दक्षिणी छोर में रहता है। (13) लद्दाखी (Ladakhi)-तिब्बत का यह समुदाय हिमालय और जम्मू कश्मीर के काराकोरम दर्रे के बीच के ऊंचे पहाड़ी इलाकों में रहता है। लद्दाख मुख्यतः दो इलाकों में बांटा हुआ है-मुस्लिम बहुल जिला करगिल और बौद्ध बहुल जिला लेह। लेह जिले में 2001 ई० की जनगणना के मुताबिक 1,17,000 जनसंख्या थी, यह जिला लद्दाखी शांतिप्रियता के लिए जाना जाता है। (14) लेपचा (Lepchas)-लगभग 65000 लोगों का यह समुदाय उत्तरपूर्वी भारत के सिक्किम राज्य के कंचनजंगा पर्वतों की ऊंची पहाड़ियों पर रहता है। इनके कुछ सदस्य समीपस्थ भूटान और नेपाल में भी रहते हैं। (15) मालापंदरम (Malapandaram)-लगभग 2000 लोगों का यह समुदाय भारत के केरल राज्य के उत्तरी घाट की पहाड़ियों के जंगलों में रहता है। (16) एमबुती (Mbuti)-लगभग 15000 लोगों का यह समुदाय उत्तरीपूर्वी कांगों के जंगलों में रहता है। (17) नुबीएंस (Nubians)-लगभग 50,000 लोगों का यह समुदाय मिस्र में रहता है। (18) पालियां (Paliyans)-1981 ई० में लगभग 7000 लोगों का यह समुदाय भारत के तमिलनाडु राज्य के उत्तरी भाग में तथा आसपास के गांवों में रहता है। (19) पिआरोआ (Piaroa)-लगभग 12000 लोगों का यह समुदाय वेनेजुएला और कोलंबिया में रहता है। (20) ग्रामीण थाई (Rural Thai)-यह समुदाय थाइलैंड में रहता है। (21) सेमाई (Semai)-1983 ई० में लगभग 18500 लोगों का यह समुदाय मलेशिया के मलय प्रायद्वीप के घने जंगलों में रहता है। (22) ताहिती (Tahiti)-यह समुदाय उत्तरी पेसिफिक में फ्रेंच पोलिनेशिया के सोसायटी आइसलैंड के सबसे बड़े आइलैंड पर रहता है। (23) ट्राइस्टान आइलैंडर (Tristan Islanders)-लगभग 300 लोगों का यह समुदाय दक्षिणी अफ्रीका के केपटाउन शहर से 1800 मील की दूरी पर स्थित आइलैंड पर रहता है। (24) यनादि (Yanadi)-लगभग 4,00,000 लोगों का यह समुदाय भारत के आंध्र प्रदेश राज्य के तटीय इलाके नेल्लोर जिले में रहता है। (25) जेपोटेक (Zapotec)-लगभग 3,00,000 लोगों का यह समुदाय दक्षिणी मैक्सिको में रहता है।
- शंभू जोशी
अहिंसा : सामान्यतः, हिंसा का तात्पर्य किसी प्राणी को शारीरिक क्षति पहुंचाना अर्थात उस पर बलप्रयोग करना माना जाता है। इसलिए अहिंसा का तात्पर्य किसी को शारीरिक क्षति न पहुंचाना हो जाता है। लेकिन, यह बहुत ही सीमित अर्थ है। यदि हम किसी को शारीरिक क्षति पहुंचाए बिना भी किसी का किसी भी प्रकार से शोषण, दमन या उत्पीड़न आदि करते हैं तो वह भी हिंसा का ही एक प्रकार है क्योंकि कोई भी केवल शारीरिक अस्तित्व मात्र नहीं है। उसके अस्तित्व के भावात्मक एवं आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक अन्य आयाम भी हैं। इसलिए, यदि उन आयामों पर भी आघात होता है तो यह हिंसा ही है। सच तो यह है कि यदि हम हिंसा पहुंचाने की इच्छा भी करते हैं-चाहे पहुंचा न सकें-तब भी हमारी ओर से तो हिंसा हो ही जाती है। जैन-दर्शन में इसीलिए हिंसा को द्रव्य हिंसा और भाव-हिंसा की दो कोटियों में वर्गीकृत किया गया है। इस विश्लेषण में अहिंसा एक निषेधात्मक अवधारणा होकर नहीं रह जाती है। यदि हम अपनी ओर से किसी को शारीरिक या अन्य प्रकार की क्षति नहीं पहुंचाते तो हम अहिंसक हैं। यह निषेधात्मक या निष्क्रिय अहिंसा है। लेकिन, बहुत से विचारक अहिंसा को एक सकारात्मक या सक्रिय अवधारणा या प्रवृत्ति मानते हैं और उनके लिए निरपेक्ष अर्थात् स्वार्थरहित प्रेम की विभिन्न अभिव्यक्तियां अहिंसा है। इसलिए निरपेक्ष जीव-दया, दान, करुणा, अनुकंपा, अन्य की सहायता या सहकार, मैत्री आदि-और अन्याय के सम्मुख अहिंसक प्रतिरोध भी-अहिंसा की ही सक्रिय अभिव्यक्तियां हैं। इसीलिए तोलस्तोय जिसे निष्क्रिय प्रतिरोध कहते हैं, महात्मा गांधी उसे विकसित करते हुए सक्रिय अहिंसक प्रतिरोध या सत्याग्रह की अवधारणा में रूपांतरित कर देते हैं। महात्मा गांधी अहिंसा को सक्रिय प्रवृत्ति बना देते हैं क्योंकि वह प्रेम का रूप है और प्रेम एक सक्रिय प्रक्रिया है। दरअस्ल, महात्मा गांधी के लिए बीज अवधारणा तो प्रेम ही है, लेकिन, प्रेम शब्द के दैहिक अर्थों से संबंधित भ्रम से बचने के लिए वह अहिंसा शब्द के प्रयोग को वांछनीय मानते हैं। अहिंसा केवल प्रेम ही नहीं, आवश्यकता पड़ने पर प्रतिरोध भी हो जाती है-लेकिन प्रेमपूर्ण प्रतिरोध, जिसमें प्रतिपक्ष भी वास्तव में आत्म का ही एक रूप हो जाता है और हम उसके कल्याण के लिए भी-प्रेम के कारण-स्वयं को उत्तरदायी मानने लगते हैं।
सामान्यतः, अहिंसा को एक वैयक्तिक गुण के रूप में देखा जाता रहा है; लेकिन, महात्मा गांधी ने उसका सफल सामूहिक प्रयोग करके उसे सामूहिक गुण बना दिया तथा उसकी वांछनीयता जीवन के सभी आयामों में स्वीकृत हो गई। इसीलिए, अब केवल अंतर्वैयक्तिक संबंधों या प्रतिरोध के तरीकों में ही नहीं, बल्कि जीवन के आर्थिक-राजनीतिक, सांस्थानिक एवं संरचनागत आयामों में भी उसकी व्याप्ति को स्वीकार कर लिया गया। सरंचनागत हिंसा (Structural violence) के विश्लेषण से स्वाभाविक ही संरचनागत अहिंसा की अवधारणा को भी समर्थन मिल गया।
अतः, अहिंसा निषेधात्मक और वैयक्तिक धारणा न रहकर एक सामूहिक और सक्रिय सकारात्मक मूल्य के रूप में स्वीकृत हो गई है-वैयक्तिक, सामूहिक और संरचनागत सभी आयामों और रूपों में।
- नंदकिशोर आचार्य
अहिंसा का मनोवैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य : प्रगति के नित्य नए मानदंडों को स्पर्श करते आधुनिक मनुष्य के जीवन में लगभग उसी वेग से या उससे कुछ ज्यादा वेग से बढ़ती हिंसा आज सबके सामने एक गंभीर चुनौती बन गई है। दुर्व्यवहार, अपमान, हत्या, आत्महत्या, नरसंहार तथा युद्ध आदि विभिन्न रूपों में हिंसा मनुष्य के अस्तित्व के लिए ही खतरा बनती जा रही है। विकास और विनाश दोनों सहधर्मी-से लगने लगे हैं। विकासवाद और आनुवंशिकता के महत्त्व को स्वीकार करने वालों की मानें तो आक्रामकता (एग्रेशन) लाभप्रद या उपयोगी है, क्योंकि यह सबल और समर्थ बनाती है और सबल ही जीवित रहता है। फ्रायड ने मृत्यु की मूलप्रवृत्ति की अवधारणा प्रस्तुत करते हुए आक्रामकता और विध्वंस की प्रवृत्ति को मानव-प्रकृति का मूलभूत हिस्सा माना। इससे पनपने वाली विद्वेषभावना नाना प्रकार की हिंसा को जन्म देती है, परंतु विभिन्न समाजों और एक ही समाज के विभिन्न समुदायों में आक्रोश की अभिव्यक्ति और मात्रा में दिखने वाली भिन्नता और विविधता इसे अकाट्य मानव-नियति मानने से हमें बरजती है।
भारतीय परंपरा में जीवों को पीड़ा देना पाप और अहिंसा को परम धर्म का दर्जा दिया गया है। बौद्ध तथा जैन मत अहिंसा के आचरण पर विशेष बल देते हैं। अन्य धर्मों और नैतिक विचारकों ने भी अहिंसा के महत्त्व की ओर संकेत किया है। आधुनिक युग में महात्मा गांधी ने हिंसा की व्यापक पहचान की और उसके पीछे क्रोध, घृणा, प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या और स्वार्थ की प्रवृत्ति का सक्रिय होना प्रमुख कारण माना। उनकी दृष्टि में अहिंसा की यह अपेक्षा होती है कि मनुष्य इन सबसे विरत हो। इस प्रकार की निष्क्रिय अहिंसा को पर्याप्त नहीं मानते हुए आगे बढ़कर गांधी जी ने अहिंसा का एक सकारात्मक पक्ष भी सामने रखा। वह दूसरों के साथ प्रेम, दया, सहानुभूति, सेवा तथा सहयोग करने के लिए भी आवाहन करते हैं। वस्तुतः, अहिंसा की भावना दूसरों के अस्तित्व को और साझे के समान मानव स्वभाव का अस्तित्व स्वीकार करती है। यदि हम अपने आप को सकारात्मक रूप में देखना पसंद करते हैं तो उसी भाव से दूसरे को भी देखना चाहिए। दूसरे शब्दों में आत्मोपम्य ही इसका आधार हो सकता है। अहिंसा की कुंजी स्व और स्व से इतर या अन्य की अवधारणा में निहित है। हम स्व और इतर का विभाजन कैसे करते हैं? और यह विभाजक रेखा एक दूसरे के लिए आवाजाही को कितना अवसर देती है? इन प्रश्नों के उत्तर पर ही हिंसा और अहिंसा का भेद टिका है। प्रत्येक जैविक रचना आत्म-रक्षा चाहती है और हर रचना का आरंभ उसकी नई सीमारेखा से होता है, जो उसे दूसरे से अलग करती है। यह सीमारेखा स्व और पर, एक रचना और दूसरी रचना के अंतस्संबंध को परिभाषित करती है। सीमारेखा पारगामी और ठोस दोनों तरह की हो सकती है। वह दोनों के बीच बाधा बन अलग कर सकती है या फिर आवागमन का द्वार खोल सकती है। इस तरह हर सीमारेखा जोड़ने का भी काम करती है और अलग करने का भी। समाज में धर्म, जाति, आयु, लिंग, कुल, संपत्ति, रूप, रंग कुछ भी इस सीमारेखा की भूमिका अपना सकता है और स्व तथा पर का भेद खड़ा कर सकता है। जीवन में अर्थ ढूंढने के लिए यह विभाजन भी जरूरी है, पर, यह विभाजन कैसे किया जाए कि दोनों की पारस्परिकता बनी रहे और दोनों के बीच अंतरंग संबंध और सौहार्द बना रहे, यही सामाजिक सृजनशीलता की चुनौती होती है। यह सकारात्मक रचनाशीलता से ही संभव है। अहिंसा की संकल्पना इसी प्रकार की मानवीय रचनाशीलता का विकल्प प्रस्तुत करती है।
यह विडंबना ही है कि सभ्यता की चर्चा में अहिंसा को एक महत्त्वपूर्ण विचार का दर्जा देने पर भी मानव-इतिहास हिंसा की घटनाओं से न केवल भरा पड़ा है, बल्कि ऐसी घटनाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। बीसवीं सदी मानव इतिहास का सर्वाधिक रक्तरंजित काल है, जिसमें मानव हत्या का आंकड़ा सौ मिलियन के पार जा चुका है। इसके अंतिम दशक तक पहुंचते न पहुंचते हम संगठित हिंसा और क्रूरता के लोमहर्षक नमूने पाते है। इक्कीसवीं सदी का आरंभ भी अच्छा नहीं कहा जा सकता। विश्व के अनेक भागों में मानवीय यंत्रणा व्यापक पैमाने पर जारी है। इस हिंसक यंत्रणा की प्रौद्योगिकी और तीव्रता भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही है। उसकी मारक क्षमता दिनों दिन बढ़ रही है।
आज हिंसा की परिधि बड़ी व्यापक हो गई है। स्वार्थसाधन के उपकरण के रूप में सुविचारित और सुनियोजित हिंसा एक छोर पर है, तो आक्रोशपूर्ण आक्रामता दूसरे छोर पर। इनके बीच हिंसा के कई और रूप भी मिलते हैं। आज ये सभी मानव जीवन पर भारी हो रहे हैं। आतंकवाद के रूप में प्रायोजित संस्थागत रूप लेकर यह प्रवृत्ति व्यापक सामूहिक हिंसा को जन्म देती है। साथ ही, हिंसा कई बार अप्रत्यक्ष या प्रच्छन्न रूप में भी कार्य करती है। आज दैनंदिन अंतः क्रिया, भाषा और व्यवहार में हिंसा भिन्न-भिन्न रूपों में अभिव्यक्ति पा रही है।
मनोवैज्ञानिक शोधों से यह पता चलता है कि हिंसा क्रोध के भाव या संवेग (इमोशन) से जुड़ी है। डार्विन ने पशुओं और मनुष्यों दोनों में पाए जाने वाले संवेगों में क्रोध (एंगर) को भी सम्मिलित किया और बाद के अनेक अध्ययनों ने इस संवेग की उपस्थिति को लगभग सभी संस्कृतियों में दर्ज किया है। इस तरह क्रोध की अंतःसांस्कृतिक सार्वभौमिकता स्वीकार की गई है और उसे जैविक और प्राथमिक संवेग माना जाने लगा है। यह भी पाया गया है कि क्रोध से जुड़ी स्वायत्त तंत्रिका-तंत्र की प्रक्रिया दूसरे संवेगों से काफी अलग है। इन सबसे जीवन में क्रोध की केंद्रिकता की पुष्टि होती है। आज क्रोध की देहली (थ्रेशोल्ड) घटती जा रही है। किसी काम के पूरा होने में विलंब, मनोवांछित फल न मिलना, या फिर इच्छापूर्ति में बाधा की तात्कालिक परिणति क्रोध के रूप में दिखती है। क्रोध को भड़काने में बाह्य वातावरण में फैलती उत्तेजना और व्यक्ति तासीर (टेंपरामेंट) की भी प्रमुख भूमिका होती है। चिड़चिड़े और झक्की व्यक्ति की व्यवहार शैली ही ऐसी बन जाती है कि वे सतत आक्रोश व्यक्त करते रहते हैं।
दैनिक जीवन में, प्रायः, सभी लोग क्रोध व्यक्त करते हैं, दूसरों के क्रोध के लक्ष्य बनते हैं और उसे साहित्य तथा मीडिया के माध्यम से अनुभव भी करते हैं। यदि क्रोध के अवसरों और अनुभूतियों पर गौर करें तो यह पता चलता है कि इसमें सक्रियता, अप्रिय संज्ञान तथा भाव, असुरक्षा, शारीरिक उत्तेजना और बैचेनी विशेष रूप से उपस्थित होते हैं। क्रोध के तात्कालिक कारणों में अपमान, अन्याय, असमानता, उपेक्षा, प्रताड़ना, धोखा, बेईमानी, लक्ष्यावरोध, निराशा, अन्य व्यक्तियों के अनुचित व्यवहार और दूसरों का क्रोध प्रमुख होते हैं। क्रोध के कारणों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि बचपन के दुर्व्यवहार, पारिवारिक विघटन, भावनाओं का दमन, गर्म मिजाज और हमारी इच्छापूर्ति में बाधा या कुंठा की विशेष भूमिका है। अहंभाव को ठेस पहुंचना ही क्रोध का बीजारोपण करता है। आक्रमण और हिंसा की अभिव्यक्ति क्रोध के रूप में होती है। शिशुओं में यह भौतिक बाधा के कारण दिखता है। ऐसा यदि यह जानबूझकर हो, न कि आकस्मिक, तो क्रोध और तीव्र हो जाता है। वस्तुतः, किसी भी तरह की कुंठा इसे जन्म दे सकती है। कुंठा के स्रोत व्यक्ति के अंदर (उसकी क्षमता की असफलता) या बाहर हो सकते हैं। कोई चोट पहुंचा रहा हो तो क्रोध और भय मुख्य प्रतिक्रियाएं होती हैं। क्रोध इसलिए और भी खतरनाक है क्योंकि क्रोध से क्रोध उपजता है-उसका एक चक्र चलता है, विशेषतः यदि सामने वाले का क्रोध अयुक्तिसंगत हो। दूसरे, विशेषतः, यदि हमारे बड़े करीबी यदि निराश करें तो क्रोध और बढ़ जाता है। क्योंकि ये लोग इतने अंतरंग होते हैं कि उन्हें हमारी उस हर कमजोरी की जानकारी रहती है, जो हमें सबसे ज्यादा पीड़ा दे सकती हैं। परंतु, यदि कोई अपरिचित या अनजान व्यक्ति भी ऐसी बात या व्यवहार करता है जो हमें अपमानित करे तो उसके प्रति क्रोध आता है। व्यक्ति के बिना सामने आए भी क्रोध पैदा हो सकता है। क्र्रोध के विभिन्न कारणों से एक-सा क्रोध नहीं पनपता है।
नकारात्मक और सामाजिक रूप से अवांछित संवेग होने के कारण क्रोध को प्रायः झुठलाया जाता है, दूसरों पर प्रक्षिप्त या विस्थापित भी किया जाता है। क्रोध आंतरिक, अंतर्मन की प्रक्रिया है, परंतु लोग जानबूझकर योजना और उसके औचित्य के साथ भी इसमें शामिल होते हैं। जाति और समुदाय के समूल उन्मूलन की सामूहिक हिंसा की घटनाएं इसे दर्शाती हैं। क्रोध के अवयवों का विश्लेषण यह बताता है कि पूरी प्रक्रिया में अहं की संलग्नता प्रमुखता से होती है। प्रायः, व्यक्ति का क्रोध वास्तविक, अनुमानित या कल्पित-स्व के प्रति खतरे के प्रति एक आत्मरक्षा की प्रतिक्रिया के रूप में घटित है।
क्रोध की अभिव्यक्ति के रूप काफी भिन्न-भिन्न होते हैं और समाज में इसकी उपस्थिति लोगों द्वारा प्राप्त शक्ति और नियंत्रण की मात्रा पर निर्भर करता है। क्रोध का उद्दीपन विभिन्न समूहों में लिंग, आयु, सामाजिक वर्ग के आधार पर भिन्न-भिन्न होता है। यह पाया गया है कि नौकरी और परिवार की भूमिकाएं और अंतर्वैयक्तिक गतिकी क्रोधजनक स्थितियों को पैदा करने में प्रमुख भूमिका निभाती हैं। जो भी हो, क्रोध व्यक्तियों और समुदायों के लिए नकारात्मक फल देता है।
क्रोध और हिंसा की सैद्धांतिक व्याख्याएं कई प्रकार की हैं। मूल प्रवृत्ति मानने वालों के जैविक दृष्टिकोण में यह एक जन्मजात या नैसर्गिक मूल प्रवृत्यात्मक ऊर्जा है। पारिस्थितिकीविदों तथा उद्विकासवादियों द्वारा आक्रामकता को अनुकूलन हेतु महत्त्वपूर्ण दर्शाया गया है। इनकी मानें तो इस की प्रक्रिया आनुवंशिक है। मस्तिष्क तंत्र के अध्ययन से आक्रामक व्यवहार तथा मानव मस्तिष्क के कुछ भागों में स्नायु-रासायनिक परिवर्तनों के बीच संबंध पाया गया है। व्यक्ति और संस्कृति के स्तर पर भिन्नता का तात्पर्य यह है कि हिंसात्मक व्यवहार को मानव स्वभाव का आनुवंशिक ढंग से प्रोग्रैम वाला नहीं माना जा सकता। प्राप्त प्रमाण क्रोध के जैविक अपचयन (रिडक्शन) की पुष्टि नहीं करते।
ऐसा प्रतीत होता है कि क्रोध और आ - क्रामकता की रचना , प्रकृति और संस्कृति दोनों का ही प्रतिफल है। सामाजिक सीखने पर बल देने वाले विचारक इसे एक अर्जित व्यवहार मानते हैं, जो आगे चलकर एक स्थायी व्यक्तित्व विशेषत का रूप ले लेता है। यह भी पाया गया है कि पर्यावरण की दशाएं जैसे-पीड़ा, गर्मी, उत्तेजना, आक्रामक संकेत की उपस्थिति और संज्ञानात्मक रूप से उकसाने वाले उद्दीपक आक्रामक व्यवहार हेतु प्रेरित करते हैं।
आक्रामकता की व्याख्या करने वाले अनेक मनोवैज्ञानिक यह मानते हैं कि कुंठा इसका एक प्रमुख तात्कालिक कारण है। कुंठा-आक्रामकता, उपकल्पना आम आदमी और मनोवैज्ञानिक दोनों ही मानते हैं। आज के परिप्रेक्ष्य में सापेक्षिक वंचन, जो सामाजिक तुलना से उपजते हैं, कुंठा का प्रमुख कारण बन रहे हैं-विशेषतः जब एक व्यक्ति या समूह अपना दावा और पात्रता रखता है। संज्ञानात्मक व नवसाहचर्यवादी विचारक यह सोचते हैं कि पीड़ादायी घटनाएं नकारात्मक भाव या सांवेगिक तत्परता पैदा करती हैं, जो व्यक्ति को आक्रामक व्यवहार की ओर अग्रसर करती है।
आज सामाजिक जीवन में क्रोध और आक्रा-मकता को एक स्तर की स्वीकृति मिल रही है और अनेक माता-पिता यह मानने लगे हैं कि एक सीमा तक आक्रामकता उचित है। उनका यह विश्वास प्रतिस्पर्धा की भावना और वैयक्तिकता के प्राबल्य को लेकर उपयुक्त ठहराया जाता है। यह आज के बाजारीकरण और स्वार्थ के मूल्यों को भी दर्शाता है और वस्तुओं के भोग की प्रवृत्ति का परिणाम है, परंतु घटते संसाधनों से यह स्पष्ट होता है कि यह तरीका ज्यादा दिन नहीं चल सकेगा।
अपनी आवश्यकताओं की वृद्धि करते हुए हम अपनी मुश्किलें भी बढ़ाते हैं। आज सामान्य मनोभाव है अपना स्वार्थसाधन। प्रगति और विकास आज प्रकृति के साथ लड़ाईं में शामिल हो गया है। आज का अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य यह दिखाता है कि असंतुलित सामाजिक-राजनैतिक संरचना तथा साधनों को हथियाने की होड़ अंधी दौड़ का रूप ले रही है।
अदूरदर्शी नजरिए के कारण हम व्यक्तिनिष्ठ अवधारणा की सीमाओं को प्रायः नजरअंदाज कर जाते हैं और अनोखे अलग स्व की भावना के कारण सृष्टि के साथ निकटता तथा समानता को नहीं देखते। आधुनिक मनोविज्ञान, अधिकांशतः इस तरह के स्वच्छंद स्व को प्रतिष्ठित करता है। स्वतंत्रता की यह इच्छा हमें सामाजिक दायित्व से अलग कर देती है और स्वार्थी बनाती है। समष्टि का बोध एक बोझ बन जाता है। मैं और मेरा सामने आ जाते हैं, सामाजिक रुचि पृष्ठभूमि में चली जाती है।
आघात न पहुंचाना या जीवों को पीड़ा न देना जीवनदायी है, अतः आवश्यकता है स्वनियमन या आत्मनियंत्रण की। परस्परनिर्भर जीवन में स्व तथा अन्य एक दूसरे से विलग नहीं होते। सौहार्द, शांति और विकास तभी संभव होगा जब अहिंसा की सतत कोशिश हो। इसके लिए एक ओर हमें आक्रामकता, द्वेष, ईर्ष्या, घृणा, दमन तथा शोषण को समाप्त करना होगा, तो दूसरी ओर सहयोग, मैत्री, सौहार्द, शांति, संरक्षण और समाज में गरिमा की भी स्थापना करनी होगी। अहिंसा सभी प्राणियों के जीवन को समृद्ध करती है।
द्रष्टव्य : आक्रामकता; स्कॉट जे०पी०।
- प्रो० गिरीश्वर मिश्र
अहिंसा के पर्याय : द्रष्टव्य : प्रश्नव्याकरण।
अहिंसा दिवस : महात्मा गांधी (1869-1948 ई०) के जन्म दिवस 2 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा-दिवस घोषित किया गया है। यह विचार मूलतः एक भारतीय हिंदी शिक्षक अक्षय बकाया द्वारा रखा गया था, जिसे नोबुल पुरस्कार से सम्मानित शिरीन एबादी ने जनवरी 2004 ई० में औपचारिक रूप दिया। इस विचार ने कई भारतीय नेताओं को भी आकर्षित किया। नई दिल्ली में जनवरी 2007 ई० में एक अंतर्राष्ट्रीय सत्याग्रह सम्मेलन हुआ, जिसका केंद्रीय विषय शांति, अहिंसा और सबलीकरण-21वीं शताब्दी में गांधी-दर्शन था। इस सम्मेलन ने महात्मा गांधी के जन्म दिन को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रस्ताव करते हुए विश्व के सभी राज्यों, संयुक्त राष्ट्रसंघ की संस्थाओं तथा अन्य अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठनों से अपील की कि वे सम्मेलन के प्रस्ताव को स्वीकार करते हुए गांधी के अहिंसात्मक आदर्शों के प्रचार-प्रसार के लिए शिक्षा एवं अन्य माध्यमों से प्रयास करें। 15 जून, 2007 ई० को संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा ने प्रतिवर्ष 2 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव पारित किया ताकि शांति, सहिष्णुता, समझदारी और अहिंसा की संस्कृति का विकास हो सके। प्रस्ताव में कहा गया कि महात्मा गांधी द्वारा सामूहिक अहिंसात्मक कारर्वाई ने उपनिवेशवाद को मिटाने, लोकप्रिय संप्रभुता को स्थापित करने तथा नागरिक, राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकारों को स्थापित करने में अद्वितीय भूमिका निबाही है। महात्मा गांधी के विचारों ने कई देशों के स्वतंत्रता संघर्ष एवं मानवाधिकारों के लिए अहिंसक आंदोलनों को प्रेरणा दी है। बादशाह खान, विनोबा, नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग (जू), आंग सान सू की, थिच न्हाट हान्ह, मुबारक आवद, डेसमंड टुटू, ए०टी० आर्यरत्ने, महाघोषानंद, जैसे अनेक नेता तथा ग्लेन डी० पेज, जोहान गाल्टूंग, रिचर्ड बी० ग्रेग जैसे अंतर्राष्ट्रीय विचारक महात्मा गांधी के जीवन और विचारों के प्रभाव को स्वीकार करते रहे हैं।
द्रष्टव्य : गांधी, महात्मा।
- नंदकिशोर आचार्य
अहिंसात्मक आंदोलन : सकारात्मक या सक्रिय अहिंसा का तात्पर्य केवल अन्य की सहायता करना ही नहीं बल्कि अन्याय या असत्य का प्रतिरोध करना भी है। इसीलिए महात्मा गांधी इस प्रतिरोध को सत्याग्रह कहते हैं। लेकिन सत्य के इस आग्रह को भी अहिंसा से पृथक करके नहीं देखा जा सकता क्योंकि सत्य अर्थात् न्याय वहीं है, जहां अहिंसा है। यदि सत्य या न्याय की उपलब्धि का साधन हिंसा अर्थात् असत्य होगा तो उससे सत्य की सिद्धि नहीं हो सकेगी।
अन्याय को अस्वीकार करने का आग्रह तो तोलस्तोय और थोरो जैसे चिंतक भी करते हैं, जिनसे महात्मा गांधी स्वयं प्रभावित रहे। लेकिन, तोलस्तोय निष्क्रिय प्रतिरोध की बात करते हैं अर्थात् अन्याय को मानो मत, पर उसका सक्रिय प्रतिरोध भी मत करो। इस निष्क्रिय प्रतिरोध को भी तोलस्तोय वैयक्तिक स्तर पर देखते हैं। थोरो अन्याय से असहयोग का प्रस्ताव तो करते हैं, पर वह भी वैयक्तिक स्तर पर है। किसी सामूहिक सक्रिय प्रतिरोध की अवधारणा दोनों के ही यहां नहीं है। अहिंसा का सिद्धांत या अहिंसक प्रतिरोध की धारणा गांधीपूर्व भी मिलती है, पर गांधी उसे सक्रिय सामूहिक प्रतिरोध की अवधारणा में बदल ही नहीं देते, बल्कि उसके आधार पर दक्षिण अफ्रीका और भारत में राष्ट्रव्यापी स्तर पर उसे व्यवहार में भी लागू करने तथा आंदोलन में जरा-सी हिंसा हो जाने पर उसे वापस लेने में भी संकोच नहीं करते। गांधी से भी दो पीढ़ी पहले उन्नीसवीं सदी में ही न्यूजीलैंड में राज्य द्वारा उपनिवेशियों के हित के लिए अन्यायपूर्ण भूमि-अधिग्रहण का सामूहिक विरोध माओरी जाति के एक समुदाय द्वारा ते विति ओ रोंगोमाई (Te Whiti O Rongomai) के नेतृत्व में किया गया था, जो एक सीमा तक सफल भी हुआ। लेकिन, वह एक छोटे पैमाने पर था-एक गांव का विरोध और मसला भी उतना बड़ा नहीं था, जितना भारतीय स्वतंत्रता का सवाल। महात्मा गांधी ने जितने दीर्घकाल तक, जितने व्यापक तौर और जितने बहुआयामी स्तरों पर अहिंसक प्रतिरोध का जितने रूपों में प्रयोग किया, वह एक नई ही बात थी और अनंतर पूरी दुनिया में अहिंसक प्रतिरोध के आंदोलनों के नेतृत्व और विधियों पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा।
आज दुनिया में छोटे-बड़े न जाने कितने अहिंसक आंदोलन चल रहे हैं, जिनका सर्वेक्षणात्मक वर्णन करने के लिए भी सैकड़ों पृष्ठों की दरकार होगी। लेकिन यदि उल्लेख ही करना हो तो महात्मा गांधी के दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह, चंपारण आंदोलन, असहयोग आंदोलन, सविनय-अवज्ञा आंदोलन आदि तथा दलित विकास के उनके और गैर-राजनीतिक आंदोलन के अतिरिक्त मार्टिन लूथर किंग (जू) के नेतृत्व में संयुक्त राज्य अमेरिका में नागरिक अधिकार आंदोलन, नेल्सन मंडेला के नेतृत्व में दक्षिण अफ्रीका के रंगभेद-विरोधी आंदोलन, बर्मा में आंग सांग सूकी के सैनिक तानाशाही विरोधी आंदोलन, श्रीलंका के सर्वोदय आंदोलन, वियतनाम में थिच न्हाट हान्ह, कंबोडिया में महाघोषानंद, थाइलैंड में सुलक सिवरक्ष तथा तिब्बती स्वायत्तता के लिए दलाई लामा के नेतृत्व में किए जा रहे आंदोलनों आदि का विशेष जिक्र किया जा सकता है। इसी तरह, पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी के लिए किए जा रहे शांतिपूर्ण आंदोलनों, यूरोप में हरित आंदोलन, वर्ल्ड सोशल फोरम आदि का उल्लेख विशेष रूप से किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक देश में पर्यावरण, विस्थापितों के पुनर्वास नारी-सबलीकरण, दलित सबलीकरण, श्रमिक आंदोलन, तथा ऐसे ही अन्य असंख्य आंदोलन अहिंसक पद्धति से एक अहिंसक समाज के विकास के लिए सक्रिय हैं। अंतर्राष्ट्रीय शांतिवादी आंदोलनों को भी हम इसी श्रेणी में ले सकते हैं। मोटे तौर पर मानवाधिकारवादी आंदोलन भी अहिंसक आंदालनों की श्रेणी में ही आते हैं, जिनकी पद्धति पर महात्मा गांधी के सत्याग्रह-सिद्धांत का गहरा प्रभाव देखा जा सकता है। भारत में ही राजनीतिक स्तर पर आपातकाल-पूर्व के बिहार आंदोलन तथा गैर-राजनीतिक स्तर पर भूदान आंदोलन के साथ चिपको आंदोलन, सरदार सरोवर आंदोलन मूलतः अहिंसक आंदोलन हैं। विश्व के सभी देशों में सामाजिक न्याय, लोकतंत्र ओर वंचितों के उत्थान के लिए किए जा रहे अधिकांश आंदोलनों का स्वरूप मूलतः अहिंसक है।
द्रष्टव्य : सर्वोदय; विनोबा; नारायण, जयप्रकाश; हान्ह, थिच न्हाट; सिवरक्ष सुलक; महाघोषानंद; किंग, मार्टिन लूथर (जू); मंडेला, नेल्सन; हेवल, वाक्लाव; खान अब्दुल गफ्फार खान; टुटू डेस्मंड; शावेज सीजर; बेरीगन, डेनियल; सू की, आंग सांग आदि।
- नंदकिशोर आचार्य
आइजेले, लोरेन कोरे (Eiseley, Loren Corey) : अमेरिका के नेब्रास्का में जन्मे लोरेन कोरे आइजेले (1907-1977 ई०) को एक विचारक के रूप में एक और जहां थोरो तथा इमर्सन से प्रभावित माना जाता है तो, दूसरी ओर, चार्ल्स डार्विन से भी। वह एक मानवविज्ञानी, दार्शनिक तथा प्राकृतिक विज्ञान-लेखक थे, जिन्होंने इन विषयों पर कई पुस्तकें लिखीं। वह कान्सास और ओहियो विश्वविद्यालयों में अध्ययन के बाद पेनसिल्वानिया विश्वविद्यालय में मानव-विज्ञान विभाग के अध्यक्ष तथा विश्वविद्यालय के संग्रहालय में प्रारंभिक मानव विभाग के संग्रहाध्यक्ष भी रहे। अपनी मृत्यु के समय आइजेले पेनसिल्वानिया विश्वविद्यालय में मानव-विज्ञान तथा विज्ञान के इतिहास के बेंजामिन फे्रंकलिन प्रोफेसर थे। उनकी प्रमुख पुस्तकों में इम्मेंस जर्नी, डार्विन्स सेंचुरी, दि फर्मामेंट ऑफ टाइम, दि अनएक्सपेक्टेड युनिवर्स तथा दि स्टार थ्रोवर आदि को अत्यधिक उल्लेखनीय माना जाता है।
आइजेले की पुस्तक दि फर्मामेंट ऑफ टाइम की केंद्रीय विषय-वस्तु विज्ञान की भ्रांतियों से संबंधित है। आइजेले का मानना है कि अधिकांश वैज्ञानिक उद्यमिता ने प्रकृति के प्रति मनुष्य के उत्तरदायित्व को बहुत क्षीण कर दिया है क्योंकि अब वह अपनी अभिलाषाओं की पूर्ति कृत्रिम दुनिया से करने लगा है। आइजेले के एक मुखर प्रशंसक वेंज (Wentz) के अनुसार आइजेले बुद्ध के इस संदेश की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं कि भविष्य का रास्ता अपने अंदर बनाना होता है, न कि बाहर। आइजेले को एक प्रकार का अद्वैतवादी कहा जा सकता है क्योंकि वह प्रकृति के अन्यत्व में ही आत्म के वास्तविक केंद्र की तलाश करने का आग्रह करते अर्थात् स्व और अन्य के भेद का निषेध करते हैं।
यह उल्लेखनीय है कि आइजेले चार्ल्स डार्विन के विचारों से भी प्रभावित रहे और उनकी पुस्तक डार्विंस सेंचुरी ने विकासवाद के इतिहास को नए परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया। आइजेले का मानना है कि डार्विन और वैलेस जैसे विकासवादी इस बात को लेकर कठिनाई अनुभव करते रहे हैं कि मनुष्य के बचे रहने का मुख्य कारण उसके स्वभाव की कठोरता है, जबकि, स्वयं आइजेले की राय में, मनुष्य के बचे रहने का मुख्य कारण उसके स्वभाव की कोमलता है। आइजेले का तर्क है कि यदि मनुष्य भीतर से अपने जैसों के प्रति कोमल भाव रखने वाला प्राणी-विचित्र रूप में विशिष्ट प्रकार से स्नेहशील प्राणी न होता, तो बहुत समय पहले ही उसकी हड्डियां अफ्रीका के घास के मैदानों में भटकने वाले उन जंगली कुत्तों के हाथ लग चुकी होतीं, जहां मनुष्य ने पहले-पहल मानवीय बनने का महान साहसिक कार्य किया था। आइजेले के अनुसार मनुष्य के लिए जीवन का प्रथम साधारण अनुभव माता-पिता की देखभाल और स्नेह का होता है; इसलिए जब हम कठोरता की बात करते हैं तो स्वयं अपने ही अनुभव और दायित्व को अस्वीकार कर रहे होते हैं। यदि मनुष्यों में साथ रहने और प्रेम की प्रवृत्ति न होती तो मनुष्य का अस्तित्व ही नष्ट हो गया होता। आइजेले का यह विचार महात्मा गांधी की इतिहास की व्याख्या से मिलता-जुलता है। महात्मा गांधी भी हिंद स्वराज में यही कहते हैं कि यदि मनुष्य का मूल स्वभाव हिंसा या लड़ाई का होता तो समाज नष्ट हो गया होता। आइजेले भी यही मानते हैं कि युद्ध-वृत्ति की इतनी सारी चर्चा के बावजूद मनुष्य व्यक्तिगत रूप से युद्ध से डरता और घृणा करता है। वह यह नहीं मानते कि मनुष्य के भीतर युद्ध की कोई वृत्ति मौजूद है। इसके विपरीत, आइजेले के अनुसार,संसार में कोई अन्य प्राणी इतना प्रेम नहीं मांगता जितना मनुष्य; प्रेम के बिना जीवित रहने के लिए कोई अन्य प्राणी इतना समंजित नहीं जितना मनुष्य। उनका तात्पर्य यह है कि मनुष्य की विकास-यात्रा अभी भी जारी है। मनुष्य में कुछ अपूर्णताएं मौजूद हैं, जो एक पुराने अधिक आदिम यंत्र की प्रतिध्वनियां हैं, लेकिन स्नेह, परस्पर-सहयोग, सौंदर्य-प्रेम और भावी जीवन के स्वप्न भी उसमें देखे जा सकते हैं।
किसी समय यह माना जाता था कि मनुष्य का मन एक स्थिर अपरिवर्तनशील वस्तु है, लेकिन अब मनोविज्ञान यह मानता है कि मनुष्य में अपनी इच्छानुसार बनने का सामर्थ्य है। आइजेले मानते हैं कि मन की वरणशक्ति ने मनुष्य के लिए बड़ी भारी स्वतंत्रता के द्वार खोल दिए हैं। विकासवाद का सिद्धांत यह भी बताता है कि मनुष्य ने अब अपने विकास में हस्तक्षेप करने का सामर्थ्य पा लिया है। आइजेले के ही शब्दों में कहें तो मानव मानव होने से भी बहुत पहले सामाजिक जंतु था। पर जब उसने बड़े-बड़े समाज बनाए और उस संस्कृति-जगत का विस्तार किया, जिससे वह आज घिरा हुआ है, तो उसने किसी हद तक सचेत भाव से ही काम किया। पशु से भिन्न मनुष्य अपने समाज के स्वरूप को समझता है। उसके मन में समाज की सचेत प्रतिभा का इस दृष्टि से बड़ा भारी महत्त्व है कि भविष्य में उसका रूप क्या होगा। अपनी पुस्तक इनविजिबल पिरेमिड में आइजेले का कथन है : मनुष्य मनुष्य नहीं रहेगा यदि उसके सपने उसकी पहुंच से परे न जाते हों। उनका समाधि लेख है : हमने पृथ्वी को प्यार किया, पर यहां ठहर नहीं सके। (We loved the earth, but could not stay)।
- नंदकिशोर आचार्य
आक्रामकता : सामान्यत, मनोविज्ञान में हिंसा को मनुष्य की मूल प्रवृत्ति (Instinct) के रूप में स्वीकार किया जाता रहा है। फ्रायड ने प्रारंभ में यह सैद्धांतिक स्थापन किया था कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति यौन-भावना है, जो उसके सभी कार्य-व्यवहार की अभिप्रेरक होती है। सभ्यता का विकास तक इस मूल-प्रवृत्ति के दमन का परिणाम है। वैसे तो फ्रायडपूर्व मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स और विलियम मैक्डोगल (Mc Daugall) आदि ने भी कुछ मूल-प्रवृत्तियों को ही मानवीय व्यवहार की अभिप्रेरणा माना था, फ्रायड ने सभी प्रवृत्तियों को दो श्रेणियों में विभाजित कर दिया-यौन-संतुष्टि और आत्म-परिरक्षण। उत्तर-फ्रायड ने, लेकिन, अपनी मान्यता को संशोधित करते हुए एक नया प्रवृत्ति-द्वंद्व प्रस्तावित किया : जिजीविषा तथा मुमूर्षा। मुमूर्षा एक प्रवृत्ति है, जो मनुष्य को आत्म-विनाश अथवा पर-विनाश के लिए अभिप्रेरित करती है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि, फ्रायड के अनुसार, विनाश की प्रवृत्ति, अनिवार्यतः, किसी स्थिति की प्रतिक्रिया के रूप में नहीं प्रकट होती, बल्कि वह मनुष्य में जैविक स्तर पर अंतर्जात है। जिजीविषा और मुमूर्षा का यह द्वंद्व मनुष्य और उसकी सभ्यता के इतिहास में चलता रहता है और अवसर पाने पर विनाश प्रवृत्ति फूट पड़ती है।
विनाशात्मकता को एक मूल जैविक प्रवृत्ति समझने की मान्यता को कोनराड लोरेंज (Konrad Lorenz) की पुस्तक ऑन एग्रेसन ने और अधिक लोकप्रिय बना दिया। लोरेंज की मान्यता भी यही थी कि मानव-आक्रामकता किसी परिस्थिति की प्रतिक्रिया स्वरूप नहीं प्रकट होती-बल्कि वह उस मूल-प्रवृत्ति के प्रकट होने का अवसर मात्र होता है और मनुष्य-पशु भी-ऐसे अवसर की तलाश में रहता या कभी-कभी स्वयं ऐसा अवसर पैदा कर लेता है, जिसमें उसमें संचित आक्रामकता का विस्फोट हो सके। लोरेंज के ही शब्दों में,यह इस मूल-प्रवृत्ति की स्वतःस्फूर्तता है, जो इसे इतना खतरनाक बना देती है। लोरेंज इस मूल-प्रवृत्ति को पशु-प्रजाति के आत्म-परिरक्षण के लिए तो उपयोगी मानते हैं, लेकिन मनुष्य जाति में यह आक्रामकता उसके परिरक्षण के लिए खतरा साबित हो रही है। मनुष्य में आक्रामकता एक वंशानुगत बुराई है। लेकिन, फ्रायड और लोरेंज दोनों ही यह मानते हैं कि आक्रामकता को अभिव्यक्त होने की परिस्थिति का न मिलना अस्वास्थ्यकर होता है। फ्रायड के अनुसार, जिस प्रकार यौनेषणा का दमन मानसिक बीमारी पैदा कर सकता है, उसी प्रकार आक्रामकता की मूल प्रवृत्ति का दमन भी। इसी प्रकार लोरेंज के अनुसार, आधुनिक युग का सभ्य मानव आक्रामकता के अपर्याप्त उन्मोचन से पीड़ित रहता है। फ्रायड और लोरेंज के विचारों का समर्थन कई मनोवैज्ञानिकों द्वारा किया जाता है।
लेकिन, एरिक फ्रॉम और कई मनोवैज्ञानिकों द्वारा आक्रामकता को अंतर्जात स्वीकार नहीं किया जाता। एरिक फ्रॉम अपनी पुस्तक दि एनैटमी ऑफ हूमन डेस्ट्रक्टिवनिस में यह नहीं मानते कि मनुष्य में आक्रामकता अंतर्जात है। वह आक्रामकता को दो श्रेणियों में विभाजित करते हैं : मृद या सौम्य (Benign) आक्रामकता तथा उग्र (Malignant) आक्रामकता। मृदु या सौम्य के अंतर्गत आत्मरक्षात्मक आक्रामकता के साथ वह छद्म आक्रामकता भी आ जाती है, जैसे अनियोजित दुर्घटना, खेल या कभी-कभी आत्माग्रही आक्रामकता-अर्थात् आक्रामकता के ऐसे रूप जिनका प्रयोजन किसी पर आघात करना या हानि पहुंचाना नहीं होता। उग्र आक्रामकता में वह क्रूरता और विनाशात्मक स्वभाव को शामिल करते हैं, जिसका इरादा हिंसा करने का हो या जिसे हिंसा और क्रूरता में सुख मिलता हो। एरिकफ्रॉम की राय में उग्र आक्रामकता भी अंतर्जात नहीं बल्कि एक मानसिक बीमारी है, जो मनुष्य के वातावरण और पालन-पोषण की परिस्थितियों तथा कई तरह के विफलता-बोध आदि से पैदा हो सकती है। उदाहरणार्थ वह एडोल्फ हिटलर के मनोवैज्ञानिक अध्ययन के माध्यम से अपनी स्थापना को प्रमाणित करते हैं-उसके बचपन, स्त्रियों से उसके संबंध तथा अन्य कई बातों की व्याख्या करते हुए। एरिकफ्राम सौम्य अथवा आत्मपरिरक्षात्मक आक्रामकता को हिंसक नहीं मानते-लेकिन उग्र आक्रामकता को, आत्महिंसा तथा परहिंसा को-जो मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक ही ग्रंथि के दो रूप हैं-मनुष्य और समाज और सभ्यता के लिए विनाशकारी होने के कारण अवांछनीय और त्याज्य मानते हैं। लेकिन, साथ ही, वह फ्रायड अथवा लोरेंज जैसे मनोवैज्ञानिकों की तरह आक्रामकता, हिंसा अथवा विनाशात्मकता को किसी अंतर्जात मूलप्रवृत्ति के रूप में स्वीकार नहीं करते। वह अपने समर्थन में बहुत से मनोवैज्ञानिक अध्ययनों, विशेषतया जे०पी० स्कॉट, को भी उद्धृत करते हैं। जिसे एरिक फ्रॉम सौम्य आक्रामकता कहते हैं, वह अंतर्जात नहीं बल्कि आत्मरक्षात्मक, और गैर-इरादतन तथा स्थिति विशेष के उत्तर स्वरूप है-किसी अंतर्जात मूलप्रवृत्ति की तुष्टि के लिए नहीं; इसी तरह, उग्र आक्रामकता भी अंतर्जात नहीं, बल्कि मनुष्य के बचपन के परिवेश, उसके गलत लालन-पालन, उपसांस्कृतिक प्रभाव तथा विफलता-बोध आदि से विकसित होती है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि हिंसा की प्रवृत्ति मनुष्य का मूल स्वभाव या अंतर्जात प्रवृत्ति नहीं बल्कि परिवेश के कारण अर्जित है और यदि पारिवारिक-सामाजिक परिवेश (जिसमें आर्थिक-राजनीतिक परिवेश भी सम्मिलित है) से जिस हद तक हिंसा को जन्म देने वाले तत्त्वों को मिटाया जा सके तो मनुष्य के हिंसक होने की संभावना भी उतनी ही कम हो जा सकती है।
द्रष्टव्य : स्कॉट, जे०पी०।
- नंदकिशोर आचार्य
आचारांग सूत्र : आचारांग सूत्र वह ग्रंथ है, जिसमें अर्हंत महावीर द्वारा प्रतिपादित अहिंसा की तर्कसंगत परिभाषा की आधारभूत अवधारणा का स्पष्ट और प्राचीनतम रूप ही नहीं, उसकी व्यापकता और सार्वभौमिकता स्थापित करने के सशक्त सूत्र उपलब्ध हैं। अहिंसा की आधारशिला रखते हुए उन्होंने कहाः सर्वप्रथम मनीषियों को अपने-अपने सिद्धांतों में स्थापित करवाकर मैं पूछता हूँ-हे मनीषियों! आपको दुःख प्रिय है या अप्रिय? (4/2/25)
यदि आप कहें , हमें दुःख प्रिय नहीं है , तो आपका सिद्धांत सम्यग् है। मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जैसे आपको दुःख प्रिय नहीं है , वैसे ही सब प्राणी , भूत , जीव और सत्त्वों के लिए दुःख अप्रिय , अशांतिजनक और महाभयंकर है। (4/2/26)
मैं कहता हूं-जो अर्हत् अतीत में हुए हैं, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे वे सब ऐसा आख्यान करते हैं, ऐसा भाषण करते हैं, ऐसा प्रज्ञापन करते हैं और ऐसा प्ररूपण करते हैं - किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्त्व का हनन नहीं करना चाहिए, उन पर शासन नहीं करना चाहिए, उन्हें दास नहीं बनाना चाहिए, उन्हें परिताप नहीं देना चाहिए, उनका प्राण - विनियोजन नहीं करना चाहिए। (4/1/1)
यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। आत्मज्ञ अर्हतों ने लोक को जानकर इसका प्रतिपादन किया। (4/1/2)
जिसे तू हनन योग्य मानता है , वह तू ही है। जिसे तू आज्ञा में रखने योग्य मानता है , वह तू ही है। जिसे तू परिताप देने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू दास बनाने योग्य मानता है, वह तू ही है। जिसे तू मारने योग्य मानता है, वह तू ही है। (5/5/101)
आचारांग में श्रमण के आदर्श आचार का निरूपण किया गया है, जो जनसामान्य के आचरण का भी आधार है। महावीर ने सम्यक् आचार का प्रतिपादन कर प्रकृति एवं समाज में अहिंसा पर आधारित जीवन-शैली का सर्वांगीण विवरण प्रस्तुत किया है।
आचारांग दो श्रुत-स्कंधों में विभक्त है। प्रत्येक श्रुत-स्कंध का अध्ययनों तथा प्रत्येक अध्ययन का उद्देशों या चूलिकाओं में विभाजन है। प्रथम श्रुत-स्कंध में नौ अध्ययन एवं चौंवालीस उद्देश हैं। मूलतः, यह गद्य रचना है, जिसमें कहीं-कहीं पद्यांशों का प्रयोग हुआ है।
आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध में समता, अहिंसा और संयम की साधना का विवेचन है। यह साधना आत्मा (ब्रह्म) की ओर प्रेरित होने से इसका अपरनाम ब्रह्मचर्य भी है।
प्रथम अध्ययन (शस्त्र-परिज्ञा) में हिंसा के बाह्य और आंतरिक साधनों के स्वरूप का सम्यक् बोध ही इसका विषय है। इस अध्ययन में सात उद्देशक हैं। प्रथम व द्वितीय उद्देशकों में आत्म-अस्तित्व की जिज्ञासा और इस जटिल संसार में निरापद रूप से जीते हुए उचित दिशा में बढ़ने संबंधी उहापोह है। अस्तित्व के साथ ही क्रिया की, और बंधन से अछूते रहने के लिए विवेक की चर्चा है। इसी विवेक के आधार के रूप में अहिंसा को स्थापित किया गया है। हिंसा के विभिन्न कारणों को सूचित करने के बाद उसके साधन के रूप में शस्त्र परिभाषित किया है। शेष उद्देशकों में क्रमशः पृथ्वी, जल आदि व्यक्त-अव्यक्त चेतना वाले षट्कायिक जीवों की हिंसा एवं उनकी चेतनता की विवेचना की गई है।
हिंसा से विरत रहने के लिए विवेक और संयम के क्षेत्र की व्यापकता बताते हुए महावीर ने मानव इतिहास में सर्वप्रथम इस जगत से परे सूक्ष्म जीवन की अवधारणा को सशक्त रूप से प्रस्तुत किया है। महावीर का षड्जीव निकाय का यह भौतिक सिद्धांत आचारांग के इसी प्रथम अध्ययन में उपलब्ध है। पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि तत्त्वों पर आधारित और पोषित सूक्ष्म जीवों के चैतन्य और उनके प्राणों की वेदना को मानवीय अनुभूति के आधार पर मार्मिक शब्दों में पारिभाषित और स्थापित किया है।
महावीर कहते हैं-पृथ्वीकायिक जीव (और उसी प्रकार जल, वायु, अग्नि और वनस्पति कायिक भी) जन्मना इंद्रिय-विकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाले होते हैं। शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर जैसे जन्मना इंद्रिय-विकल अंधे मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को होती है। मनुष्य को मूर्च्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव को होती है।
यही नहीं वनस्पति जगत की मानव शरीर से तुलना तो अकाट्य प्रमाण के रूप में प्रस्तुत की गई है-मैं कहता हूं-यह मनुष्य शरीर भी जन्मता है, यह वनस्पति भी जन्मती है। यह मनुष्य-शरीर भी बढ़ता है, यह वनस्पति भी बढ़ती है। यह मनुष्य-शरीर भी चैतन्ययुक्त है, यह वनस्पति भी चैतन्ययुक्त है। यह मनुष्य-शरीर भी छिन्न होने पर म्लान होता है, यह वनस्पति भी छिन्न होने पर म्लान होती है। यह मनुष्य-शरीर भी आहार करता है, यह वनस्पति भी आहार करती है। यह मनुष्य-शरीर भी अनित्य है, यह वनस्पति भी अनित्य है। यह मनुष्य-शरीर भी अशाश्वत है, यह वनस्पति भी अशाश्वत है। यह मनुष्य-शरीर भी उपचित और अपचित होता है, यह वनस्पति भी उपचित और अपचित होती है। यह मनुष्य-शरीर भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होता है, यह वनस्पति भी विविध अवस्थाओं को प्राप्त होती है। (1/6/118)
इस प्रकार, अहिंसा के तात्त्विक चिंतन के तार्किक आधार को मानवीय संवेदना के धरातल पर स्थापित कर, व्यवहार शुद्धि और आत्म शुद्धि के साधन के रूप में प्रस्तुत करने का प्रथम सफल प्रयास इस अध्ययन में दृष्टिगोचर होता है।
द्वितीय अध्ययन ( लोकविजय ) में संसार (बंधन) पर विजय प्राप्त करने के साधनों का वर्णन है, जिनमें मुख्य हैं-संयम में पुरुषार्थ, अंतरंग शत्रुओं पर विजय और अप्रमत्तता। इसमें छः उद्देशक हैं।
तृतीय अध्ययन (शीतोष्णीय) में अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में तनिक भी विचलित न होने और समत्वभाव रखते हुए साधना में निरंतर सजग रहने की चर्चा है। इस अध्ययन में चार उद्देशक हैं।
चतुर्थ अध्ययन (सम्यक्त्व) के अनुसार जीव-अजीव तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप पर श्रद्धा होने से आत्मा प्राणि-मात्र को आत्मोपम्यदृष्टि से देखता है और उनका अहित नहीं करता, उन्हें पीड़ा नहीं पहुंचाता। यह अध्ययन अहिंसा की इस भावना को ही शुद्ध, नित्य और सनातन धर्म के रूप में प्रतिपादित करता है। इस अध्ययन में चार उद्देशक हैं।
पांचवां अध्ययन (लोकसार) यह बताता है कि लोक का सार धर्म है, धर्म का सार ज्ञान है, ज्ञान का सार संयम और संयम का सार मोक्ष है। इस अध्ययन में छः उद्देशक हैं।
छठे अध्ययन ( धूत ) में राग-द्वेष आदि मानसिक विकार या अशुद्धि को दूर कर आत्म-शुद्धि करने का स्पष्ट निर्देश है। इस अध्ययन में पांच उद्देशक है।
सातवां अध्ययन महापरिज्ञा है। वर्तमान में यह अध्ययन अनुपलब्ध है।
आठवें अध्ययन (विमोक्ष) में आठ उद्देशक हैं। इनमें विशेषतः श्रमण के दैनंदिन आचार और शुद्ध समाधि की और प्रेरित त्यागमय जीवन का वर्णन हुआ है।
नवें अध्ययन (उपाधानश्रुत) में भगवान महावीर के साधना काल का सबसे मार्मिक, प्रेरणास्पद, प्राचीन और प्रामाणिक वर्णन है।
द्वितीय श्रुतस्कंध (परिशिष्टात्मक) में श्रमण आचार के नियमों का पर्याप्त स्पष्टता एवं विस्तार के साथ विवेचन हुआ है तथा तप-ध्यान और समभाव की साधना एवं मानसिक शुद्धि के उपाय बताए गए हैं। द्वितीय श्रुत-स्कंध में तीन चूलिकाएं हैं, जो 16 अध्ययनों में विभाजित हैं। द्वितीय श्रुत-स्कंध में श्रमण के लिए निर्देशित व्रतों व तत्संबद्ध भावनाओं का स्वरूप भिक्षु-चर्या, आहार-पान-शुद्धि, शय्या-संस्तरण-ग्रहण, विहार-चर्या, चातुर्मास्य-प्रवास, भाषा, वस्त्र, पात्र, आदि उपकरण, मल-मूल-विसर्जन आदि के संबंध में नियम-उपनियम आदि का विवेचन किया गया है।
आचारांग श्वेतांबर मान्यता के अनुसार भगवान महावीर के उपदेश के गणधरों द्वारा संकलित बारह अंग-शास्त्रों (श्रुत अथवा गणिपिटक) का प्रथम अंग है। इसका प्रथम श्रुत-स्कंध अशोककालीन प्राकृत अभिलेखों से भी प्राचीन है। आचारांग की सूत्रात्मक शैली उसे उपनिषदों का निकटवर्ती और स्वयं भगवान महावीर की वाणी होने की ओर इंगित करती है। भाव, भाषा और शैली तीनों के आधार पर यह सम्पूर्ण पालि और प्राकृत साहित्य में प्राचीनतम है। जर्मनी के प्रसिद्ध भारतीय-विद्या-वेत्ता डॉ० हेरमान याकोबी ने भी इसका काल निर्धारण करते हुए छंद आदि की दृष्टि से अध्ययन करके यह निश्चय किया था कि आचारांग के प्राचीन अंश ई०पू० चौथी शताब्दी के अंत से लेकर ई०पू० तीसरी शताब्दी के प्रारंभ से प्राचीन नहीं लगते। उसके द्वितीय श्रुत-स्कंध के रूप में जो आचारचूला जोड़ी गई है, वह ई०पू० दूसरी या प्रथम शती से परवर्ती नहीं है।
आचारांग वास्तव में द्वादशांगात्मक वाङ्मय में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और संपूर्ण जैन आचार का प्रतिनिधि ग्रंथ है। आचारांग पर आचार्य भद्रबाहु द्वारा निर्युक्ति श्री जिनदासगणि द्वारा चूर्णि, श्री शीलांकाचार्य द्वारा टीका तथा श्री जिनहंस द्वारा दीपिका की रचना की गई। जैन वाङमय के प्रख्यात अध्येता डॉ० हेरमान याकोबी ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया तथा इसकी गवेषणापूर्ण प्रस्तावना लिखी। आचारांग के प्रथम श्रुत-स्कंध का प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् प्रो० वाल्टर शूब्रिंग ने संपादन किया तथा सन् 1910 ई० में लिप्ज्ग से इसका प्रकाशन किया। आधुनिक विद्वानों ने भी इस शास्त्र पर विभिन्न भाषाओं में प्रचुर कार्य किया है और कर रहे हैं।
द्रष्टव्य : पर्यावरण चेतना : आचारांग सूत्र।
- सुरेंद्र बोथरा
आतंकवाद : सामान्य रूप में आतंकवाद शब्द का अर्थ है जनता के किसी वर्ग विशेष या सरकार को आतंकित करने या दबाब बनाने के लिए बल तथा हिंसा का प्रयोग करना। लेटिन में टेरए शब्द का प्रयोग डराने के अर्थ में किया जाता है। अतः आतंकवादी को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जो अत्यधिक भय तथा आक्रांता की विकट उत्पन्न कर दे। वेबस्टर इंटरनेशनल डिक्शनरी में दबाव डालने के लिए आतंक के योजनाबद्ध तरीके से प्रयोग को आतंकवाद कहा गया है। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में इसे एक ऐसे राजनीतिक शब्द के रूप में परिभाषित किया गया है, जिसका संबंध क्रांतिकारी क्रियाकलाप से है। तथापि, आतंकवाद कोई जन आंदोलन नहीं होता, बल्कि इसे लोगों के एक समूह द्वारा चलाया जाता है। आतंकवादी तथा विध्वंसक क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम 1987 ई० (टाडा) में आतंकवादी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया था, जो अनियमित रूप से लोगों की हत्या या हिंसा करता है, जो समुदाय की आवश्यक सेवाओं तथा संचार के साधनों की तोड़फोड़ करता है। यह निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए संपत्ति को नुकसान पहुंचाता है- (1) जनता या जनता के किसी वर्ग को डराने के लिए (2) विभिन्न धार्मिक, जातीय, भाषाई या क्षेत्रीय समूहों या जातियों या समुदायों के बीच सौहार्द पर प्रतिकूल प्रभाव डालने के लिए (3) विधि द्वारा स्थापित सरकार पर दबाव डालने या आतंकित करने के लिए (4) देश की प्रभुता और अखंडता को खतरे में डालने के लिए।
डेविड कार्लटन और कार्लों शेरिफ द्वारा संपादित इंटरनेशनल टेरेरिज्म एंड वर्ल्ड सिक्योरिटी नामक पुस्तक में इंटरनेशनल टेरेरिज्म : ए न्यू मोड ऑफ कंफ्लिक्ट नामक आलेख में एम० जोंकिंसि ने आतंकवाद की परिभाषा करते हुए लिखा है कि हिंसा की धमकी, व्यक्तिगत हिंसात्मक कृत्य और लोगों को आतंकित करने के उद्देश्य से किया गया हिंसा का विचार आतंकवाद है। पाल विल्किंसन के अनुसार-राजनीति में आतंकवाद ब्लैकमेल, जबरदस्ती और अल्पसंख्यकों के संकल्प को बहुसंख्यकों के निर्णय के विरूद्ध और उसके ऊपर लागू करने का हथियार है।
वर्तमान परिस्थिति में आतंकवाद दो स्वरूपों में मौजूद है-(अ) सरकार विरोधी या गैरसरकारी समूहों द्वारा लागू किया जाने वाला आतंकवाद (ब) राजकीय आतंकवाद यानि राष्ट्रीय राज्यों द्वारा काम में लाया जाने वाला आतंकवाद। दोनों ही किस्मों की एक जैसी मानवीय प्रकृति और व्यवहार है, यद्यपि संगठनात्मक स्वरूप भिन्न है। गैर-सरकारी आतंकवाद किसी नियमों या प्रक्रियाओं को मानने के लिए बाध्य नहीं है और जब कोई सरकार, राजकीय आतंकवाद को अपनाती है तो वह बुनियादी राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानूनों, सम्मेलनों तथा संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा सन् 1966 ई० में आयोजित दो अधिवेशनों द्वारा पारित मानव-अधिकारों का हनन करती है।
आतंकवाद का विकास रुग्ण, सामाजिक परकीयकरण या एकाकीपन भाव के परिणामस्वरूप होता है। प्रदत्त परिस्थिति से असंतोष हताशा और निराशा इसका मुख्य कारण है। जब तक सामाजिक व्यवस्था रुग्ण बनी रहेगी और उसकी जड़ में सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक अन्याय विद्यमान रहेगा, तब तक आतंकवाद के पनपने की परिस्थिति बनी रहेगी। भले ही यह अन्याय काल्पनिक हो या यथार्थ, इसके परिणामस्वरूप शांति व्यवस्था बनाए रखना कठिन है। अध्ययन के सुविधा की दृष्टि से इसके मूल कारणों को निम्न रूप में अभिव्यक्त किया जा सकता है।
किसी भी आतंकवादी समुदाय के कार्य का मानवता से मेल नहीं खाता है। आतंकवादी गतिविधियों के परिणामस्वरूप न जाने कितने मानवीय एवं जीवन मूल्यों का अवमूल्यन हुआ है। इसका आंकड़ा संग्रह करना संभव नहीं है। इनकी गतिविधियों के परिणामस्वरूप मानव का जीवन आतंकित ही नहीं हुआ है, बल्कि उसका अस्तित्व भी संकटमय हो गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि जीवन-मूल्य सदा के लिए पृथ्वी से विलीन हो गया है। यही कारण है कि जिसने आतंकवादी की भावना को बढ़ावा दिया है, उसी को उसने पीड़ित किया है। आज जिस समाज/संगठन या व्यक्ति ने प्रतिशोध की भावना जागृत कर जिस आतंकवादी को जन्म दिया है, वही आतंकवादी अंततः उसके लिए खतरा बन गया है।
आतंकवादी संगठनों के सदस्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करने पर स्पष्ट होता है कि इनमें सम्मिलित अधिकांश व्यक्ति मध्यम एवं निम्न वर्गीय लोग होते है। इससे स्पष्ट होता है कि आतंकवाद को पनपाने के लिए आर्थिक स्थिति भी जिम्मेदार है। गरीबी में पला बच्चा जब बड़ा होता है और पेट भरने के लिए उसे कोई उपाय नहीं सूझता, तब दर-दर की ठोकर खाने के बाद वह किसी ऐसे गिरोह में जा मिलता है, जो उसकी उदरपूर्ति तो करता है, किंतु उसका उपयोग आतंकवादी गतिविधि कराने में करता है-चाहे उत्तर प्रदेश के दस्यु सरगना ददुआ का गिरोह या चंदन तस्कर वीरप्पन का गिरोह या नक्सलवादी। सभी की एक ही कहानी है। खुले और स्वतंत्र कॉरपोरेट पूंजीवादी समाज में असमानता की स्थिति अमीर और गरीब के मध्य बढ़ती खाई को प्रदर्शित करती है। इसके परिणामस्वरूप वह समता और न्याय-संबंधित धारणा की पोल खोलती है। यह इसके अमानवीय चेहरे को स्पष्ट करती है। कॉरपोरेट पूंजीवादी नीति के पक्षधर निंरतर यह प्रचार करते रहे है कि उन्होंने इस नीति के द्वारा अत्यधिक न्यायिक व समता वाले समाज की स्थापना की है; परंतु इस नीति के विगत 200 वर्षों का इतिहास स्पष्ट करता है कि यह अत्यधिक अन्यायकारी और असमानता वाला सामाजिक ढांचा है। अमीर व गरीब के मध्य खाई बढ़ती जा रही है। आज अमीर अधिक अमीर होते जा रहे तो गरीबी की संख्या भी प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। आतंकवाद रूपी समस्या का यह खाई एक मुख्य कारण प्रतीत होता है।
आतंकवाद का एक प्रमुख कारण सांप्रदायिक तथा जातिगत आधार पर समाज में विरोध है। जातिवाद और सांप्रदायिकता की कोख से ही भाई-भतीजावाद, पक्षपात, वर्गवाद, भाषावाद और गुटबंदी का जन्म होता है। राष्ट्रीय मंच पर किसी नेतृत्वकारी बुलंद शख्सियत की गैर मौजूदगी की स्थिति में गुटबंदी और वर्गवाद दिन-प्रतिदिन ताकतवार होते जाते हैं। यह जहर सामाजिक आर्थिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में फैलने के साथ-साथ हमारे राजनीतिक जीवन को भी नष्ट कर रहा है।
नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक (आईडंटिटी एंड वायलैंस : दी ईल्यूजन ऑफ आईडंटिटी) में स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त किया है किआज की दुनिया में टकराव का एक प्रमुख स्रोत हमारा यह मानना है कि धर्म या संस्कृति के आधार पर मनुष्य का श्रेणीकरण किया जाना चाहिए। इस प्रकार एक ही श्रेणी में जकड़कर पेश करने की पद्धति में मौलिक विश्वास उसकी शक्ति में अपार वृद्धि करके दुनिया को अत्यधिक ज्वलनशील बना देता है। इस विशेष प्रकार का विभाजक विचार इस पारस्परिक धारणा के विपरीत तो है ही कि हम सब मनुष्य प्राणी सामान्यतया एक समान नहीं है, इस अधिक संभव परंतु कम चर्चित धारणा के विरूद्ध भी है कि हम मनुष्य अपनी विविधता में एक-दूसरे से भिन्न है। दुनिया को आज धर्मों या सभ्यताओं या संस्कृतियों के समूह के रूप में देखा जाने लगा है। और उनकी अन्य पहचानों, जैसे वर्ग, लिंग, व्यवसाय, भाषा, विज्ञान, नैतिकता तथा राजनीति के एकदम उपेक्षा कर दी जाती है। यह विशेष विभाजन दुनिया के लोगों के उस बहुलता पूर्ण विभाजन की तुलना में जिसमें हम रह रहे हैं, कहीं ज्यादा संघर्षकारी बना देता है। उच्च विचारधाराओं के सरलीकरण से निम्न राजनीति में भयंकर हिंसा पनपने लगती है।
इसी के साथ, इस हिंसा के प्रतिरोधक वैश्विक प्रयत्न भी इसी धारणा के शिकार होकर अपने कार्य में सफल नहीं हो पाते हैं-वे खुलकर या निहित रूप से इसी मान्यता के आधार पर, कि दुनिया धर्मों में बंटी है, अपनी योजनाएं बनाते है और प्रतिरोध के अन्य संभव मार्गों पर ध्यान नहीं देते।
प्रश्न यह उठता है कि इस आतंकवाद रूपी समस्या का समाधान कैसे करे। कोई भी समाज, राज्य और देश आतंकवाद से मुकाबला एक स्तर पर नहीं कर सकता है, इसे कई स्तरों पर करना होगा। आतंकवाद के वास्तविक समाधान हेतु तात्कालिक उपायों के साथ हमें इसके मूल कारणों का निवारण करना होगा जो निम्नवत् है-
(1) संवैधानिक व्यवस्थाओं के दुरुपयोग पर रोक की व्यवस्था, (2) राष्ट्रीय समस्याओं पर आम सहमति पर बल, (3) सामाजिक उत्थान व विकास को बढ़ावा देने के उपाय करना, (4) आर्थिक असंतुलन को दूर करने के लिए नीति बनाना, (5) रोजगार के उचित साधन उपलब्ध करवाने का प्रयास, (6) देशवासियों में एकता की भावना को बढ़ावा देने का प्रयास, (7) उचित शिक्षा का प्रचार-प्रसार करना और (8) पांथिक कट्टरवादिता पर अंकुश लगाना।
वास्तव में अहिंसक जीवन-दृष्टि का स्वीकार ही इसका स्थाई समाधान है। साध्य-साधन की एकता, विकेंद्रीकृत अर्थ-व्यवस्था, सर्वधर्म समभाव, शोषणविहीन समाज-रचना, अहिंसक शिक्षा, अंतर्राष्ट्रीयता की भावना का विस्तार, और भय के बजाय प्रेम के मनोविज्ञान को अपनाना ही इसके उपाय हो सकते हैं।
- डॉ० राकेश कुमार झा
आत्मरक्षात्मक हिंसा : द्रष्टव्य : क्रांतिकारी हिंसा।
आदिग्रंथ : द्रष्टव्य : नानक, गुरु।
आध्यात्मिक आर्थिकी : सामान्यतः, आर्थिकी का संबंध मनुष्य के भौतिक जीवन और उत्पादन-वितरण व्यवस्था से माना जाता है तथा आधुनिक अर्थशास्त्र तो आर्थिक जीवन को अपने ही स्वायत्त नियमों द्वारा संचालित मानकर उसमें किसी भी तरह के बाहरी हस्तक्षेप-विशेषतया राज्य के हस्तक्षेप-को अनुचित मानता है। एडम स्मिथ ने भी अपनी पुस्तक मोरल सेंटीमेंट्स में नैतिकता के सवाल उठाए थे, लेकिन अंततः उनको दरकिनार करते हुए उन्हें भी, अंततः, यही मानना पड़ा कि मनुष्य का आर्थिक जीवन और विकास उसकी बुनियादी स्वार्थवृत्ति से प्रेरित है। कींस जैसे अर्थशास्त्री ने भी आर्थिक विकास की वर्तमान प्रक्रिया में नैतिक सवालों को-चाहे सौ वर्ष की अवधि के लिए ही सही-अप्रासंगिक और विकास-विरोधी करार दिया था।
लेकिन विचारकों का एक वर्ग ऐसा भी है जो न केवल आर्थिक व्यवस्था और विचारों को नैतिकता या आध्यात्मिकता के घेरे में देखता है, बल्कि धर्म या आध्यात्मिकता के आर्थिक आयाम की बात भी करता है, जिसका तात्पर्य है कि धर्म या आध्यात्मिकता को भी अर्थशास्त्र की पदावली में व्यक्त हो सकना चाहिए-अर्थात् वे भी आर्थिक सवालों की अवहेलना नहीं कर सकते। महात्मा गांधी ऐसे विचारकों में अग्रणी हैं जो यह मानते हैं कि आध्यात्मिक नियम के प्रवर्तन का अपना कोई विशिष्ट क्षेत्र नहीं है। इसके विपरीत, वह जीवन के दैनंदिन क्रियाकलाप के माध्यम से ही स्वयं को अभिव्यक्त करता है। इस प्रकार, यह आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों को प्रभावित करता है। यहां यह स्मरणीय है कि महात्मा गांधी के लिए नैतिक ही आध्यात्मिक है और नैतिकता का बीज है सकारात्मक अहिंसा अर्थात् प्रेम।
अमरीकी प्रोफेसर सैम हिग्गिनबॉटम (Sam Higginbottom) ने एक पत्र में महात्मा गांधी के समक्ष यह विचार प्रस्तुत किया था कि आर्थिकी से विलग धर्म में विश्वास नहीं किया जा सकता। यदि धर्म सचमुच कुछ है तो उसे जरूरत पड़ने पर आर्थिक संदर्भ में रूपातंरित हो सकना चाहिए। महात्मा गांधी ने इस मंतव्य से अपनी पूरी सहमति प्रकट करते हुए कहा कि इसी तरह आर्थिकी को भी धार्मिक या आध्यात्मिक संदर्भो में रूपांतरित हो सकना चाहिए। उनके अनुसार, इस प्रकार की धर्मयुक्त आर्थिकी या आर्थिकीयुक्त धर्म की योजना में शोषण और अमेरिकीकरण के लिए कोई स्थान ही नहीं बचता।
धर्म और राजनीति के संबंध में महात्मा गांधी के विचारों को लेकर काफी बहस होती रही है; लेकिन, गांधी जी आर्थिक जीवन और धर्म (नैतिकता या आध्यात्मिकता) को भी परस्पर रूपांतरित हो सकने वाला मानते हुए यह कहते हैं कि वह अर्थशास्त्र अनैतिक और इसीलिए पापयुक्त है जो किसी व्यक्ति अथवा राष्ट्र के नैतिक कल्याण को क्षति पहुंचाता हो। तदनुसार, वह अर्थशास्त्र पापयुक्त है जो यह अनुमति देता है कि एक देश दूसरे देश को लूट ले। यही नहीं, वह उन वस्तुओं के उपभोग को भी पाप मानते हैं, जिनके उत्पादन से श्रमिकों का शोषण किया जाता हो। इसीलिए वह कहते हैं, शोषित श्रम द्वारा तैयार की गई वस्तुओं को खरीदना और उनका इस्तेमाल करना पापयुक्त है। लेकिन, इसी तरह नीतिशास्त्र अर्थात् धर्म से भी वह यह मांग करते हैं कि उसे अच्छा अर्थशास्त्र साबित हो सकना चाहिए। उन्हीं के शब्दों में, सच्चा नीतिशास्त्र वही माना जा सकता है जो नीतिशास्त्र होने के साथ-साथ अच्छा अर्थशास्त्र भी हो। वह दुर्बल लोगों की कीमत पर शक्तिशाली लोगों द्वारा धनसंचय संभव करने वाले अर्थशास्त्र को मौत का पैगाम बताते हुए उसी अर्थशास्त्र को सच्चा मानते हैं, जो सामाजिक न्याय सुनिश्चित कर सके।
इस धर्मयुक्त आर्थिकी या आर्थिकीयुक्त धर्म के लक्षणों को स्पष्ट करते हुए वह एक ओर स्वेच्छापूर्ण त्याग या अपरिग्रह अथवा संयमित उपभोग का प्रस्ताव करते हैं क्योंकि वह व्यक्ति और समाज के आध्यात्मिक उत्कर्ष का माध्यम है, वहीं विवशताजन्य होने के कारण गरीबी को अभिशाप मानते हैं। दूसरी ओर, संपत्ति के निजी संचय को वह केवल गरीबों के लिए ही हानिकारक नहीं, बल्कि स्वयं अमीरों के लिए भी नैतिक या धार्मिक दृष्टि से पतनकारी मानते हैं क्योंकि, निजी व्यक्तियों द्वारा पूंजीसंचय हिंसक तरीकों को अपनाए बिना संभव नहीं है। जब उनसे यह कहा गया कि अनुचित तरीकों को अपनाए बिना भी धनवान हुआ जा सकता है तो उनका जवाब था कि ऐसे प्रयास की असफलता असंदिग्ध है क्योंकि हम एक साथ ही बुद्धिमान, संयत और क्रोधोन्मत्त नहीं हो सकते। यहां ईसा के उस कथन की याद आती है जिसके अनुसार सुई के छेद से ऊंट का गुजरना तो संभव है, पर स्वर्ग के द्वार से किसी धनवान का गुजरना संभव नहीं है।
स्पष्ट है कि ऐसी आर्थिकी का विकास भी एक आध्यात्मिक प्रवृत्ति का ही कार्य है, जिसमें शोषण, दमन और उत्पीड़न संभव न हो सके। महात्मा गांधी ऐसी आर्थिकी को गरीब और अमीर दोनों के नैतिक-आध्यात्मिक विकास के लिए तो अनिवार्य मानते ही हैं क्योंकि इससे गरीबी के कारण हो रहे नैतिक पतन को और अमीरी की मूल हिंसा को रोका जा सकता है; लेकिन, साथ ही, वह वास्तविक अर्थों में एक स्वाधीन समाज के लिए भी शोषणरहित व्यवस्था को एक आवश्यक शर्त के रूप में देखते हैं। वह जहां दरिद्रों के लिए आर्थिक को ही आध्यात्मिक मानते और कहते हैं कि उनके लिए तो ईश्वर मक्खन अैार रोटी के रूप में ही प्रकट हो सकता है, वहीं यह भी स्पष्ट स्वीकार करते हैं कि आर्थिक समानता के बिना अहिंसक स्वाधीनता भी संभव नहीं है बल्कि आर्थिक समानता अहिंसक स्वाधीनता की सर्वकुंजी (Master key) है।
आर्थिकीयुक्त धर्म और धर्मयुक्त आर्थिकी का यह विचार रस्किन के अनटु दिस लास्ट और अन्य निबंधों में भी अभिव्यक्ति पाता है, जिसका अनुवाद महात्मा गांधी ने सर्वोदय शीर्षक से किया था। रस्किन की दृष्टि में भी आर्थिकी को अनिवार्यतः नीतिशास्त्र और आध्यात्मिकता से जोड़कर देखा जाना चाहिए। रस्किन भी एक नैतिक और आध्यात्मिक आर्थिकी की वांछनीयता को स्वीकार करते हैं; लेकिन, गांधी का विशिष्ट अवदान यह है कि वह उस धर्म या नीतिशास्त्र को भी सच्चा नहीं मानते जो आर्थिक सवालों अर्थात् शोषण, विषमता और गरीबी की समस्याओं की संरचनागत अवहेलना करता है। वैयक्तिक स्तर पर तो सभी धर्म दया और दान को सद्गुण के रूप में स्वीकार करते हैं, लेकिन, वे अर्थ-व्यवस्था पर संरचनागत स्तर पर विचार नहीं करते। गांधी वैयक्तिक सद्गुणों के विकास को पर्याप्त महत्त्व देते हैं, लेकिन, वह यह भी स्पष्ट समझते हैं कि संरचनागत विश्लेषण और पुनर्व्यवस्था के बिना आर्थिकी और आध्यात्मिकता को एक-दूसरे के साधन-साध्य के रूप में विकसित नहीं किया जा सकता।
- नंदकिशोर आचार्य
आध्यात्मिक नारीवाद : नारीवाद विमर्श का केंद्रीय मूल्य है स्त्री के अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा और एक अहिंसक समाज का वास्तविक तात्पर्य है सभी प्रकार के सामाजिक संबंधों में प्रत्येक व्यक्ति के स्वतंत्र व्यक्तित्व की स्वीकृति और सम्मान, क्योंकि यदि सामाजिक संबंध किसी भी प्रकार के दमन-शोषण-उत्पीड़न पर टिके हों तो उन्हें अहिंसक नहीं कहा जा सकता। इसलिए नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा के बिना किसी भी प्रकार के अहिंसक समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती। नर-नारी समानता इसीलिए अहिंसक समाज की एक अनिवार्य पूर्व-शर्त है। यहां मुझे आचार्य श्री महाप्रज्ञ के एक व्याख्यान का स्मरण हो आता है जिसमें उन्होंने प्रतिपादित किया था कि मूल्य तो समता है और अहिंसा उस मूल्य की सिद्धि की प्रक्रिया अर्थात् समता साध्य और अहिंसा साधन। समता केवल भौतिक नहीं, आध्यात्मिक भी। यदि हम सभी आत्माओं को समान नहीं मानते तो भौतिक स्तर पर भी उनकी समानता का औचित्य सिद्ध करना मुश्किल होगा।
महात्मा गांधी जीवन को मूलतः एक नैतिक साधना मानते हैं-सत्य की साधना-और जीवन का यह प्रयोजन जितना पुरुष के लिए महत्त्वपूर्ण है, उतना ही स्त्री के लिए भी। पुरुष और नारी के जीवन-मूल्य भिन्न नहीं हो सकते-चाहे भौतिकवादी दर्शन-प्रणाली से विचार किया जाए अथवा अध्यात्मवादी पद्धति से। यह उल्लेखनीय है कि सामान्यतः आध्यात्मिकता का आग्रह करने वाले विचारकों में स्त्री के अधिकारों या उसके जीवन के प्रयोजन को लेकर इतनी खुली स्वीकृति कम ही दिखाई देती है। बुद्ध तक ने अपने संघ में स्त्रियों को शामिल होने की अनुमति देते हुए संदेह प्रकट किया था कि जो संघ हजार वर्ष तक चलता, वह अब केवल पांच सौ वर्ष तक ही चल पाएगा। कबीर तथा अधिकांश मध्यकालीन संतों के लिए तो वह नरक का द्वार ही थी। अभी भी अधिकांश धर्मसंघों का नेतृत्व पुरुष ही करते हैं-यह मानते हुए भी कि धार्मिक निष्ठा में सामान्यतः स्त्रियां पुरुषों से आगे रहती हैं।
इस दृष्टि से महात्मा गांधी का स्त्री-विमर्श विशेष उल्लेखनीय है। भारतीय समाज में स्त्रियों के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश में तो महात्मा गांधी के आंदोलनों की उल्लेखनीय भूमिका रही ही है, लेकिन, एक विचारक के रूप में भी उन्हें एक मुकम्मल नारीवादी कहा जा सकता है-उनके नारीवाद को उनकी नैतिक-आध्यात्मिक दृष्टि से अलग करके नहीं समझा जा सकता-लेकिन उनकी नैतिकता की अवधारणा की व्याप्ति में सारा भौतिक जीवन भी समाहित है।
स्त्री-पुरुष समानता का मुख्य आधार है नारी के स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा और इस प्रतिष्ठा का मूल तत्त्व है : अपने अस्तित्व पर नारी का अपना अधिकार। स्वतंत्र व्यक्तित्व का तात्पर्य है कि उसका अस्तित्व किसी अन्य का उपकरण नहीं है। यही कारण है कि जब महात्मा गांधी स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा का आग्रह करते हैं तो सर्वप्रथम उनका ध्यान इसी बात की ओर जाता है कि स्त्री को उपकरण-टूल-न समझा जाए। स्त्री का उपकरण बनाया जाना ही उसके प्रति हिंसा का मूल कारण है। लेकिन, विडंबना यह है कि स्वयं स्त्री भी अपने को वैसा ही मानने लगी है जैसे उसके जीवन का प्रयोजन पुरुष-केंद्रित हो। इसलिए स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा की प्रक्रिया में महात्मा गांधी के लिए प्राथमिक महत्त्व की बात यह है कि स्त्री इस पुरुष-केंद्रित जीवन-प्रयोजन की अवधारणाा से मुक्त होकर अपने को उपकरण नहीं, बल्कि एक स्वतंत्र अस्तित्व समझे। इसीलिए महात्मा गांधी कहते हैं : स्त्री को चाहिए कि वह स्वयं को पुरुष के भोग की वस्तु मानना बंद कर दे। इसका इलाज पुरुष की अपेक्षा स्वयं स्त्री के हाथों में ज्यादा है। उसे पुरुष की खातिर, जिसमें पति भी शामिल है, सजने से इनकार कर देना चाहिए। तभी वह पुरुष के साथ बराबर की साझीदार बन सकेगी। वह स्त्रियों को काम-वासना की पूर्ति का माध्यम मानने वाली पुरुष-मनोवृत्ति की आलोचना करते हुए स्त्रियों से आग्रह करते हैं कि उन्हें इस प्रवृत्ति के विरुद्ध विद्रोह कर देना चाहिए। उन्हीं के शब्दों में-यदि मैंने स्त्री के रूप में जन्म लिया होता तो मैं पुरुष के इस दावे के विरुद्ध विद्रोह कर देता कि स्त्री उसके मनबहलाव के लिए पैदा हुई है। वह तो यहां तक कह देते हैं कि स्त्री को काम-वासना की पूर्ति का माध्यम बना देने के कारण संसार उनके वास्तविक अवदान से वंचित हो गया है, क्योंकि उसी कारण स्त्री अपनी अंतनिर्हित शक्ति का प्रयोग संसार के कल्याण के लिए नहीं कर पाई है। तोलस्तोय के हवाले से गांधी कहते हें कि स्त्री पुरुष के सम्मोहन से आक्रांत कर दी गई है जबकि वह, वस्तुतः पुरुष से श्रेष्ठ है। वह लिखते हैं : यदि पुरुष ने अपने अविवेकपूर्ण स्वार्थ के वशीभूत होकर स्त्री की आत्मा को इस तरह न कुचला होता और स्त्री आनंदोपभोग की शिकार न बन गई होती तो उसने संसार को अपनी अंतर्निहित अनंत-शक्ति का परिचय दे दिया होता। जब स्त्री को पुरुष के बराबर अवसर प्राप्त हो जाएंगे और वह परस्पर सहयोग और संबंध की शक्तियों का पूरा-पूरा विकास कर लेगी तो संसार स्त्री-शक्ति का उसकी संपूर्ण विलक्षणता और गौरव के साथ परिचय पा सकेगा।
यही कारण है कि महात्मा गांधी स्त्री का अपनी देह पर अधिकार इस सीमा तक स्वीकार करते हैं कि यदि पति भी पत्नी के पास केवल वासना-पूर्ति के प्रयोजन से जाए तो पत्नी को उसे मना कर देने का पूरा अधिकार है। वह इसे भी सत्याग्रह का एक रूप बताते हुए कहते हैं कि-विवाह का आदर्श है शारीरिक सम्मिलन के माध्यम से आध्यात्मिक सम्मिलन की प्राप्ति। विवाह के फलस्वरूप जिस मानव-प्रेम की अवतारणा होती है, वह दिव्य अथवा सार्वभौम प्रेम तक पहुंचने की एक सीढ़ी है। इसलिए विवाह का वास्तविक प्रयोजन एक-दूसरे के आत्मिक उत्कर्ष में सहयोगी होना है। यह दोनों के आत्मिक उत्कर्ष की संयुक्त साधना है। लेकिन यदि विवाह इस प्रयोजन को पूरा नहीं करता और केवल वासना-पूर्ति का माध्यम बनकर रह जाता है तो विवाह के वास्तविक प्रयोजन से भटककर वह ऐंद्रिक संतुष्टि मात्र रह जाता है-उसमें से वह प्रेम-तत्त्व मिट जाता है जो ईश्वर के निकट या आत्मोत्कर्ष अथवा आत्मसिद्धि की ओर ले जाता है। लेकिन, यह उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी काम-वासना की पूर्ति से ऊपर उठने की बात करते हुए भी काम-प्रेरित संभोग को पाप या कलंक नहीं मानते। वह लिखते हैं : काम-वासना की तुष्टि के लिए किया गया संभोग पशुत्व की ओर प्रत्यावर्तन है, अतः मनुष्य को इससे ऊपर उठने का प्रयास करना चाहिए। लेकिन पति-पत्नी यदि ऐसा करने में असफल हो जाएं तो इसे पाप अथवा कलंक का विषय नहीं माना जा सकता। गांधीजी के लिए इसका अर्थ केवल इतना ही है कि पशुत्व से मुक्ति की साधना अधूरी है और उसके लिए अधिक प्रयास की आवश्यकता है। यह उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी नारी को नरक का द्वार नहीं मानते-जैसा कि कबीर मानते हैं-बल्कि वह पुरुष को काम-वासना के लिए अधिक आक्रामक एवं जिम्मेदार मानते और नारी को उससे सम्मोहित बताते हैं क्योंकि पुरुष-प्रधान व्यवस्था के कारण स्त्री अपनी सार्थकता पुरुष में खोजने की आदी बना दी गई है।
बहुत-से मित्रों को इस बात पर आश्चर्यमिश्रित दुख हो सकता है कि विवाह के आत्मिक उत्कर्ष में बाधा बन जाने पर महात्मा गांधी विवाह-बंधन को तोड़ने के अधिकार को भी मान्यता दे देते हैं। विवाह, उनकी दृष्टि में, अनुशासन की एक व्यवस्था है और यदि एक साथी अनुशासन को तोड़े तो दूसरे को विवाह-बंधन को तोड़ने को हक पहुंचता है। यहां तोड़ना नैतिक अर्थ में है, भौतिक अर्थ में नहीं। महात्मा गांधी इस बंधन-विच्छेद को तलाक नहीं मानते। वह कहते हैं कि पति या पत्नी उसी ध्येय की पूर्ति के लिए अलग होंगे जिसके लिए वे विवाह-बंधन में बंधे थे। वह यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि यदि तलाक ही एकमात्र विकल्प हो तो नैतिक प्रगति में बाधा डालने के बजाय उस विकल्प को अपनाना बेहतर होगा।
महात्मा गांधी आर्थिक स्तर पर भी स्त्री के आत्मनिर्भर होने का समर्थन करते हैं। यद्यपि वह गृहस्थी के कर्तव्यों को ही स्त्री के लिए प्राथमिक मानते हैं, लेकिन, साथ ही, यह स्पष्ट कर देते हैं कि स्त्रियों को ऐसी किसी कानूनी निर्योग्यता का शिकार नहीं बनाया जाना चाहिए जो पुरुष पर लागू नहीं होती। महात्मा गांधी यह मानते हैं कि हमारे नीति-नियम स्त्रियों के साथ न्याय नहीं करते और इसलिए वह एक ऐसा प्रस्ताव करते हैं जो संस्कृति के कथित पहरेदारों को उत्तेजित कर सकता है। वह कहते हैं कि शास्त्रों का संपादन करके उन बातों को निकाल दिया जाना चाहिए जो स्त्रियों के स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रतिष्ठा तथा उनके आत्मोत्कर्ष में बाधक हों और इसके लिए वह स्वयं स्त्रियों से ही आगे आने का आग्रह करते हैं। वह लिखते हैं : इसके लिए हमें सीता, दमयंती और द्रौपदी जैसी निर्मल, दृढ़ और आत्मनियंत्रित महिलाएं पैदा करनी होंगी। यदि हम यह कर सकें तो हिंदू समाज इन आधुनिक बहिनों को भी वही आदर देगा जो वह बीते युग की महान देवियों को देता आया है। उनके शब्द भी शास्त्र के समान प्रामाणिक माने जाएंगे। हम अपनी स्मृतियों में उन पर कहीं-कहीं किए गए आक्षेपों के लिए शर्म महसूस करेंगे ओर जल्दी ही उन्हें भुला देंगे।
यह उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी यौन-शिक्षा का भी समर्थन करते हैं। उनका तर्क है कि इस शिक्षा के बिना काम के आवेग को जीतना और उसका उदात्तीकरण करना संभव नहीं है। उनका कहना है कि इस शिक्षा से बच्चों के मन में अपने-आप यह बात घर कर जानी चाहिए कि मनुष्य और पशु के बीच एक मौलिक भेद है और वह यह कि प्रकृति ने मनुष्य को सोचने और महसूस करने, दोनों की योग्यताएं देकर विशेष रूप से उपकृत किया है। महात्मा गांधी कहते हेँ कि जिन लड़के-लड़कियों के प्रशिक्षण का दायित्व उन पर था, उन्हें उन्होंने, अपने तरीके से, यह ज्ञान देने का प्रयत्न किया है, क्योंकि उसके बिना वे ऐसा ज्ञान चुराकर प्राप्त करते जिससे उनके भटकने की अधिक संभावना होती।
दरअस्ल, महात्मा गांधी के अनुसार यदि जीवन एक नैतिक-आध्यात्मिक साधना है तो स्त्रियों को उन सब बातों को अस्वीकार कर देना चाहिए जो उनकी इस नैतिक साधना में बाधक हों। इसके लिए सर्वाधिक अनिवार्य है अपनी स्वतंत्रता और समानता का आग्रह, क्योंकि स्वतंत्रता के बिना नैतिकता का कोई अर्थ नहीं है। नैतिक नियम आत्मोत्कर्ष का माध्यम तभी बनते हैं जब वे आत्म-प्रसूत या स्वतंत्र वरण हों, आरोपण नहीं। इसीलिए महात्मा गांधी स्त्रियों से स्वतंत्रता के दमन के विरुद्ध अहिंसक विद्रोह का प्रस्ताव करते हैं। उन्हीं के शब्द हैं : इसलिए स्त्रियों को मेरी सलाह है कि वे सभी अवांछनीय और निकम्मी बंदिशों के खिलाफ सविनय विद्रोह करें। बंदिशें वे ही फायदा पहुंचा सकती हैं जो स्वैच्छिक हों। सविनय विद्रोह से कोई हानि होने की आशंका नहीं है, क्योंकि उसके मूल में शुद्धता और सुविवेचित प्रतिरोध होते हैं।
महात्मा गांधी पुरुषों से भी स्त्रियों को उनका उचित स्थान देने का आग्रह करते हैं, लेकिन वह स्त्रियों को पुरुषों के अनुग्रह पर नहीं छोड़ देते, बल्कि अपने अधिकारों के लिए स्त्रियों से संघर्ष का आह्वान करते हैं : पुरुष के फंदे से आजाद होकर स्त्री जब अपने पूर्ण उत्कर्ष को प्राप्त होगी और पुरुषकृत विधान तथा उसके द्वारा संगठित संस्थाओं के विरुद्ध विद्रोह करेगी तो उसका विद्रोह अहिंसक होते हुए भी बड़ा प्रभावकारी सिद्ध होगा। कुछ लोग यह आपत्ति कर सकते हैं कि महात्मा गांधी स्त्रियों से आत्म-बलिदान और त्याग आदि गुणों की अपेक्षा करते और इस प्रकार उन्हें प्रकारांतर से कष्ट उठाते रहने के लिए प्रेरित करते हैं। लेकिन त्याग और बलिदान की अपेक्षा तो वह पुरुषों से भी करते हैं तथा उन्हें भी अन्याय के प्रतिकार के लिए अहिंसक तरीके अपनाने की सलाह ही देते हैं। लेकिन, यह उल्लेखनीय है कि वह बलात्कार की परिस्थिति में स्त्रियों से हिंसा-अहिंसा का विचार छोड़कर अपनी रक्षा करने का समर्थन करते हैं। दरअस्ल, स्त्री को वासना-पूर्ति का उपकरण मात्र मानना ही उसके साथ हो रहे अन्याय के मूल में है और इसीलिए गांधी यह अनिवार्य मानते हैं कि जब तक उसके अस्तित्व को वासना-पूर्ति से अलग करके नहीं देखा जाता, तब तक एक व्यक्ति के रूप में उसका स्वतंऌत्र अस्तित्व प्रतिष्ठित नहीं हो सकता।
- नंदकिशोर आचार्य
आमटे, बाबा : प्रतिष्ठित मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित मुरलीधर देवीदास आमटे (26 दिसंबर, 1914 ई०-9 फरवरी 2008 ई०), जो बाबा आमटे के नाम से विख्यात थे, आधुनिक भारत के प्रमुख समाजसेवी के रूप में जाने जाते हैं। समाज से परित्यक्त लोगों और कुष्ठ रोगियों के लिए उन्होंने अनेक आश्रमों और समुदायों की स्थापना की। इनमें चंद्रपुर, महाराष्ट्र स्थित आनंदवन का नाम सर्वाधिक प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने वन्य-जीवन संरक्षण तथा नर्मदा बचाओ आंदोलन जैसे सामाजिक कार्यों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। 9 फरवरी, 2008 ई० को बाबा आमटे का 94 साल की आयु में चंद्रपुर जिले के वरोरा स्थित अपने निवास में निधन हो गया। वह कुछ समय से बीमार थे और हाल ही में उन्हें रक्त कैंसर होने का पता चला था। उनके परिवार में दो पुत्र और दो पुत्रियां हैं।
बाबा आमटे का जन्म महाराष्ट्र स्थित वर्धा जिले के हिंगणघाट गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम देवीदास आमटे एवं माता का नाम लक्ष्मीबाई था। उनकी पढ़ाई क्रिश्चियन मिशन स्कूल, नागपुर में हुई और फिर उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की और कई दिनों तक वकालत भी की। देश की आजादी की लड़ाई में बाबा आमटे शहीद राजगुरू के साथी रहे थे। इसी दौरान बाबा आमटे गांधीजी से मिले और उनके अहिंसा के दर्शन से प्रभावित होकर उनके साथ हो गए। विनोबा भावे से प्रभावित बाबा आमटे ने सारे भारत का दर्शन किया और इस दर्शन के दौरान उन्हें गरीबी, अन्याय आदि के भी दर्शन हुए और इन समस्याओं को दूर करने की अपराजेय ललक उनके मन में समा गई।
1936 ई० में बाबा ने मध्यप्रदेश के दुर्ग शहर में वकालत शुरू की। कुछ दिनों बाद उन्होंने वकालत छोड़ दी, क्योंकि वकालत करके केवल पैसा कमाने में बाबा को रूचि नहीं थी। इसके अतिरिक्त, वकालत के व्यवसाय के बारे में ही उन्हें आपति थी क्योंकि वकील अपराधी का बचाव करते समय पैसा कमा लेता है, जबकि एक मजदूर को उसके श्रमानुसार मजदूरी नहीं मिलती। इस समय तक उनके मन में यह बात स्पष्ट रूप से आ गई थी कि श्रम से ही आत्मशुद्धि होती है। अपने निर्णय के समर्थन में उन्होंने कहा कि अपराधियों का बचाव करके प्रतिघंटा पचास रुपयों में अपने को बेच डालने वाली वकालत मैंने छोड़ दी और श्रमिकों के श्रम का उचित मुआवजा दिलाने की वकालत मैंने स्वीकार कर ली। इसी समय उन्हें इस बात का भी अहसास हुआ कि लोगों से दूर भागकर वैयक्तिक मुक्ति का मार्ग अपने लिए नहीं है। उन्हें पूरा विश्वास हुआ कि लोगों में, लोगों के साथ रहकर ही काम करना चाहिए।
शारीरिक परिश्रम और अंतरजातीय आवास की कल्पना को साकार करने तथा गांधी-विनोबा से प्रेरित होकर उनकी कल्पना का साम्यकुल साकार करने हेतु श्रम आश्रम की शुरूआत की। यह एक विलक्षण प्रयोग था। श्रम आश्रम में उनके साथ 25-30 लोगों का परिवार था, इसमें सभी जाति के लोग थे जैसे-हरिजन, ईसाई, भिखारी, चर्मकार, महार, दिहाड़ी आदि। मध्यमवर्गीय व्यावसायिक, हिंदू, मुसलमान, स्त्री-पुरुष आदि भिन्न वर्गों के लोगों के साथ मिलकर बाबा ने श्रम पर आधारित सामुदायिक जीवन जीने का एक प्रयोग शुरू किया। ये सभी अपनी सारी कमाई इकट्ठा करते, साथ-साथ रहते और सभी का खाना एक साथ एक ही जगह होता-न कोई विषमता, न अस्पृश्यता के लिए अवसर, सभी एक दूसरे से समानता का बर्ताव करते थे।
श्रमाश्रम से पैदा होने वाली साग-सब्जियों की टोकरी लेकर सब्जी मंडी जाकर बेचना, खेती में काम करना, हिसाब-किताब रखना आदि के साथ शौचालयों की सफाई, सिर पर मल से भरी बाल्टियों को ढोकर उन्होंने 9 महीनों तक मेहतर का काम किया।
बाबा आमटे पहले क्रांतिकारियों के संपर्क में आए; लेकिन, जब समझा कि यह सही है कि स्वतंत्रता किसी भी क्रांति की आवश्यक शर्त होती है, परंतु वह सामाजिक क्रांति के लिए पर्याप्त नहीं है तथा सशस्त्र क्रांति की भी सीमाएं होती हैं तो वह गाँधीजी के तत्कालीन रचनात्मक कार्य एवम् मार्ग की ओर मुड़े।
1942 ई० में उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में जेल में बंद राष्ट्रीय नेताओं का प्रतिनिधित्व करने के लिए वकीलों को सुचारू रूप से संगठित किया। इस साहस के लिए बाबा को जेल में डाला गया।
बाबा आमटे ने जीवन पर्यंत कुष्ठरोगियों, आदिवासियों और मजदूर-किसानों के साथ काम किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने वर्तमान विकास के जनविरोधी चरित्र को समझा और वैकल्पिक विकास की क्रांतिकारी जमीन तैयार की। कुष्ठ रोग को जानने ओर समझने में अपना पूरा ध्यान लगाने के उद्देश्य से चंद्रपुर जिले के वरोरा गांव के निकट घने जंगलों के बीच सात रोगियों के साथ आनंदवन नामक स्थित आश्रम की स्थापना की। कुष्ठरोग के बारे में और ज्ञान प्राप्त करने के लिए सन् 1949 ई० में कलकत्ता में स्कूल ऑफ ट्रापिकल मेडिसीन में कुष्ठ रोग पर अध्ययन किया। इसी समय सल्फोन ड्रग (ष्ठष्ठस्) का कुष्ठ रोग की चिकित्सा हेतु आविष्कार हुआ। प्रशिक्षण प्राप्त करने के पश्चात् बाबा इस चमत्कारिक औषधि को लेकर केवल वरौरा ही नहीं, आस-पास के 60 देहातों में चिकित्सा करते रहे। शीघ्र ही उन्होंने 11 साप्ताहिक चिकित्सा केंद्र स्थापित किए, जो 50 कि०मी० तक के क्षेत्र में थे, जिनमें 4000 रोगी थे। बाबा ने इनका इलाज प्रारंभ कर दिया था। लेकिन धीरे-धीरे उन्हें अहसास हुआ कि इस शारीरिक कोढ़ से अधिक गंभीर और खतरनाक बीमारी तो मन का कोढ़ है। बाबा ने कुष्ठपीड़ितों के लिए एक स्वास्थ्य कार्यक्रम बनाया और उसके लिए कुछ मित्रों की मदद से 1949 ई० में महारोगी सेवा समिति की नींव डाली गई थी। आधी सदी से अधिक समय तक यह आश्रम विकास के विलक्षण प्रयोगों की कर्मभूमि बना तथा आज यह आश्रम हताश और निराश कुष्ठ रोगियों के लिए आशा, जीवन और सम्मानजनक जीवन जीने का केंद्र बन चुका है।
1949 ई० में बाबा ने 50 एकड़ भूमि सरकार से प्राप्त की तथा अपनी पत्नी साधना ताई एवं पुत्र विकास और प्रकाश आमटे तथा 6 कुष्ठ रोगी आदि को लेकर काम की शुरूआत की और इस बंजर जमीन पर बाबा ने बस्ती बसाई। 21 जून 1949 ई० में जब विनोबा तेलंगाना की ओर भूदान पदयात्रा के लिए रवाना हुए, उसके पूर्व इस आनंदवन का उद्घाटन किया। कालांतर में यहां सामान्य अस्पताल, कॉलेज, स्कूल, संधिनिकेतन, उतरायण, गोकुल, युवाग्राम, स्नेहसावली एवं अन्य और कई संस्थाएं स्थापित की गई। इसके अनंतर अशोक वन, सोमनाथ लोक-विरादरी प्रकल्प (आदिवासियों के लिए), नागेपल्ली प्रकल्प भी स्थापित किए गए, जिनमें रोगियों की चिकित्सा के साथ सामुदायिक जीवन के प्रयोग हो रहे हैं।
राष्ट्रीय विकास, शांति, सहयोग के लिए तथा देश को एकता के सूत्र में बांधने हेतु बाबा ने दो बार भारत जोड़ो अभियान आयोजित किया। इसके तहत 1985 ई० में बाबा आमटे ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक यात्रा की। इस आंदोलन को चलाने के पीछे उनका मकसद देश में एकता की भावना को बढ़ावा देना और पर्यावरण के प्रति लोगों को जागरूक करना था। विकास के नाम पर नर्मदा बांध के रूप में मानव संसाधनों का विनाश और वहां के आदिवासियों को उनकी पारंपरिक जीवन-प्रणाली के अनुसार जीने का अधिकार छीनने वाली जो परियोजना भारत में बनाई जा रही थी, उसके विरोध में तथा वहां के मूल निवासियों के पक्ष में जनसाधारण को जाग्रत करने के उद्देश्य से बाबा आमटे नर्मदा तट पर रहने गए। देश के पर्यावरण-वादियों ने जुलाई 1988 ई० में बाबा आमटे की अगुवाई में आनंदवन में देश के प्रमुख पर्यावरण-वादियों का मेला आयोजित किया और बड़ बांधों के विरोध में आनंदवन घोषणा पत्र तैयार किया गया।
बाबा आमटे ने नर्मदा समस्या का गहन अध्ययन किया था। अपनी दो पुस्तकों-क्राय दि बिलेवड नर्मदा, नर्मदा परियोजना : विरोधाचे मुदद् आधि पर्यायी दृष्टिकोण में पर्यावरणवादियों की भूमिका स्पष्ट रूप से प्रस्तुत की। बाबा ने आंदोलन, मोर्चों, सत्याग्रहों, व्याख्यानों, पत्रकों आदि सभी गतिविधियों में भाग लिया।
बाबा आमटे ने कुछ साहित्यिक रचनाएं भी की हैं, जैसे जिनमें ज्वाला आणि फुले (मराठी कविता), वर्कर्स यूनिवर्सिटी (मराठी व हिंदी), सार्वजनिक संस्थाचे संचालन (मराठी), माती जागवील त्याला मत (मराठी), उज्वल उद्यासाठी (मराठी), करूणेचा कलाम (मराठी कविता) आदि प्रमुख हैं।
जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता मुरलीधर देवीदास आमटे उर्फ बाबा आमटे को पद्म भूषण और महाराष्ट्र सरकार के सर्वोच्च सम्मान महाराष्ट्र भूषण सहित कई पुरस्कार प्राप्त हुए है। उन्हें दिए गए कुछ प्रमुख सम्मान और पुरस्कार इस प्रकार हैं।
* अमेरिका का डेमियन डट्टन पुरस्कार (1983 ई०)। इसे कुष्ठ रोग के क्षेत्र में कार्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान समझा जाता है।
* एशिया का नोबल पुरस्कार कहे जाने वाले रेमन मॅगसेसे (फिलीपींस) 1985 ई०।
* मानवता के लिए किए गए अतुलनीय योगदान के लिए 1988 ई० में घनश्यामदास बिड़ला अंतरराष्ट्रीय सम्मान।
* मानवाधिकार के क्षेत्र में दिए गए योगदान के लिए 1988 ई० में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार सम्मान।
* 1990 ई० में 8,84,000 अमेरिकी डॉलर का टेंपलटन पुरस्कार दिया गया। धर्म के क्षेत्र का नोबल पुरस्कार नाम से मशहूर इस पुरस्कार में विश्व में सबसे अधिक धन राशि दी जाती है।
* पर्यावरण के लिए-किए गए योगदान के लिए 1991 ई० में ग्लोबल 500 संयुक्त राष्ट्र सम्मान।
* स्वीडन ने 1992 ई० में राइट लाइवलीहुड सम्मान दिया।
* भारत सरकार ने 1971 ई० में पद्मश्री सम्मान दिया।
* 1986 ई० में पद्मभूषण दिया। नर्मदा आंदोलन में सहभागी होने के बाद पद्मश्री और पद्मविभूषण पुरस्कार बाबा आमटे ने सैद्धांतिक विरोध के कारण सरकार को वापस लौटाया।
* 1985-86 ई० में पूना विश्वविद्यालय ने डी-लिट् उपधि दी।
- मिथिलेश कुमार
आर्थिक अहिंसा : लिआनेल रोबिंस ने अर्थशास्त्र को ऐसे विज्ञान के रूप में परिभाषित किया है जो मानव-व्यवहार का अध्ययन साध्यों और वैकल्पिक उपयोगिता वाले सीमित साधनों के संबंध के रूप में करता है। यद्यपि यह समझने की जरूरत है कि यह मानव-व्यवहार का अध्ययन है, न कि उत्पादन और वितरण अथवा धन और संपदा का, लेकिन प्रारंभिक दौर में इसे साध्यों और साधनों अथवा अच्छे बुरे साध्यों के बीच तटस्थ ही समझा जाता था। तथापि, अर्थशास्त्र में हो रहे विकास-नियमन और परिष्कार सही और उचित साध्यों तथा सही और उचित साधनों की वांछनीयता के बारे में उचित रूप से सजग हुए हैं। विशेषतया विकास-अर्थशास्त्र इसका पूरा ख्याल रखता है। फिर भी, अर्थशास्त्र को प्राथमिक रूप से ऐसे साधनों का अध्ययन समझा जाता है, जो साध्यों की तुष्टि के वैकल्पिक उपयोग रखते हैं-और साध्यों को एक लंबे समय तक वांछनीय अथवा अवांछनीय नैतिक या अनैतिक, मानव-मूल्यों या सामाजिक मूल्यों पर आधारित अथवा उनसे निरपेक्ष मांगों की तुष्टि माना जाता था।
अहिंसा का अर्थशास्त्र और आधुनिक अर्थशास्त्रीय सिद्धांत एक मामले में परस्परोन्मुख है। दोनों ही कामनाओं, जरूरतों और मांगों में भेद करते हैं। मनुष्य असीमित कामनाएं रख सकता है। उनका साधनों द्वारा समर्थित होना आवश्यक नहीं है। जरूरतें जीवन की बुनियादी आवश्यकताएं हैं, जो भौतिक जरूरतों के अलावा अन्य बातों पर भी निर्भर करती है। मांगें वे कामनाएं और जरूरतें हैं, जिन्हें पूरा करने के लिए किसी मनुष्य के पास आवश्यक साधन उपलब्ध होते हैं।
भगवान महावीर ने विसर्जन का सिद्धांत प्रतिपादित किया है, जिसका तात्पर्य है अन्य के साथ साझा (आधुनिक अर्थशास्त्र के वितरण से भिन्न)। इस सिद्धांत पर चलने से संपत्ति और आय का ऐसा वितरण होता है, जो दरिद्रता को मिटाता है। विसर्जन आर्थिक असमानता और गरीबी को, जो हिंसा का रूप है, दूर करने का साधन है। महात्मा गांधी की ट्रस्टीशिप की अवधारणा में भी जैन-दर्शन के विसर्जन की अवधारणा की स्वीकृति है।
अहिंसक आर्थिकी के लिए शांति एक पूर्व शर्त है। अशांति पैदा करने वाला हर मानव-व्यवहार हिंसक होता है क्योंकि कलह शारीरिक, मानसिक, भावात्मक या व्यवहारगत प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से लोगों को आघात पहुंचाती है। कलह का शमन करने के लिए उसके उत्प्रेरक कारणों को समझने की जरूरत है। सामान्यतया कलह जिन कारणों से होती है, उनमें राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा और मनोवैज्ञानिक कारणों के अलावा आर्थिक स्वार्थों को भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कई बार उचित ही ऐसी आशंकाएं प्रकट की गई हैं कि आर्थिक विकास और उसकी रणनीतियां हिंसा उत्पन्न करती हैं। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार महावीर की दृष्टि में आर्थिक विकास वहीं तक स्वीकार्य है, जहां तक वह तीन बुनियादी शर्तों को पूरा करता है। ये हैं : (1) अहिंसा और साधनों की पवित्रता (2) नैतिक मूल्यों का निर्वहन (3) स्वार्थ पर नियंत्रण।
अधिकांश आधुनिक आर्थिक विकास इन तीनों आधारभूत सिद्धांतों का पालन करता नहीं लगता। कई रूपों में हिंसा की जाती है। बहुत से विशाल उद्योग-जैसे मांस, मत्स्य तथा मुर्गी उत्पादन आदि-प्रतिमाह लाखों पशुओं और पक्षियों की हत्या करते हैं-जंगलों में शिकार को छोड़ भी दें तो। श्रमिकों के शोषण और बाल श्रम जैसे अन्य कई तरीकों से भी हिंसा की जाती है। लेकिन, कोई भी यह समझता नहीं लगता कि इस हिंसा की आर्थिक और सामाजिक कीमत भी कितनी अधिक है। कई तरीकों से नैतिक मान्यताओं का अतिक्रमण होता है, जैसे अल्कोहल पेयों का उत्पादन, खाद्य वस्तुओं एवं औषधियों में मिलावट, गुणवत्ताहीन वस्तुओं का उत्पादन, फरेब भरे अनुबंध, समय पर भुगतान न करना, कंपनी के शेयरधारकों को झूठी या भ्रामक सूचनाएं देना आदि।
स्वार्थ पर नियंत्रण के सिद्धांत का अतिक्रमण तो स्वयं एक नियम ही बन गया है। सभी आर्थिक गतिविधियों जैसे निवेश, उत्पादन, वितरण, आमदनी एवं उपभोग आदि में स्वार्थवृत्ति पर नियंत्रण किया जाना चाहिए। वास्तव में, अधिकांश सामाजिक और आर्थिक कलह संपत्ति-स्वामित्व के लिए अबाध कामना, बेलगाम संपदा-संग्रहण, अनैतिक तरीकों का इस्तेमाल तथा उपभोग की असीम भूख से उत्पन्न होते हैं, जिसमें न स्वयं स्वास्थ्य की चिंता की जाती है और न उस धरती के स्वास्थ्य की जिस पर पूरा मानव-समाज निवास करता है।
इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि समकालीन आर्थिक विकास के बहुत सारे पहलू जैन-दर्शन अथवा अहिंसा-दर्शन के बुनियादी सिद्धांतो का निषेध करते हैं। कल्याण को उपभोग की मात्रा से जोड़कर देखा जाता है-जिसमें अल्कोहल पेयों अथवा अन्य अपव्ययी पद्धतियों से किया जाने वाला उपभोग भी शामिल है। राष्ट्र की आर्थिक समृद्धि को भी सकल राष्ट्रीय आय से मापा जाता है, जिसका आधार सकल राष्ट्रीय उत्पाद होता है। आधुनिक अर्थशास्त्र भी अब यह स्वीकार करने लगा है कि यह एक अपर्याप्त और भ्रामक संकेतक है। इसलिए सारी व्यवस्था का असंगति और हिंसा पैदा करना स्वाभाविक ही है।
स्वार्थ पर नियंत्रण के अभाव के ही कारण संसाधनों की विशाल बर्बादी वाला स्वच्छंद उपभोगवाद रहा है। उपभोगवाद को अधिकांश लोग जीवन-शैली के रूप में स्वीकार कर रहे हैं, जो सभी प्रकार की हिंसा का-राष्ट्रों के बीच युद्ध का भी-कारण है। अहिंसक आर्थिकी की मांग है कि उपभोगवाद की ओर ले जाने वाली संपदा की लालसा को नियंत्रित किया जाना चाहिए।
कुछ सद्भावी समूह आशा की किरणें हैं। मानव-कल्याण को मापने और उसकी बढ़ोत्तरी के लिए गंभीर प्रयास किए जा रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम में मानव कल्याण के मापन के लिए मानव-विकास तालिका (एचडीआई) में उन संकेतकों को शामिल किया है, जिनका संबंध केवल सकल राष्ट्रीय उत्पाद से नहीं बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, बाल-मृत्यु, और दीर्घ जीवन जैसे संकेतकों से भी है। ज्ञान-केंद्रों में नीतिशास्त्र को महत्त्व दिया जाने लगा है। सामाजिक दायित्व कारपोरेट प्रबंधन में एक नया आयाम है। ये परिवर्तन न केवल अर्थशास्त्र बल्कि सभी समाज-विज्ञानों में अहिंसा के परिप्रेक्ष्य और अभिव्यक्तियों को आत्मसात् करने का रास्ता बना रहे हैं। सामाजिक अनुसंधान के लिए यह एक वृहत् क्षेत्र है, जिसमें असीम संभावनाएं हैं। सभी समाज-वैज्ञानिकों को इस प्रतिमान-परिवर्तन का सामना करने के उद्यम में अपनी बौद्धिक प्रतिभा और संसाधनों को सामूहिक रूप से लगाना होगा। विश्व को अभी, सदियों नहीं तो दशकों तक, इस आर्थिक अहिंसा की मंजिल की ओर बढ़ते जाना है, जो एक सुखी और शांतिपूर्ण मानव-समाज के लिए अत्यावश्यक है।
द्रष्टव्य : अहिंसक अर्थव्यवस्था; कुविकास; आध्यात्मिक आर्थिकी।
- डॉ० एस०आर० मोहनोत
( हिंदी रूपांतरण : नंदकिशोर आचार्य )
आर्थिक मानवाधिकार : एक अहिंसक समाज के लिए यह आवश्यक आर्थिक शर्त है कि प्रत्येक व्यक्ति को गरिमा के साथ जीने के सामान्य साधन उपलब्ध हों और उसका शोषण न किया जा सके। इसलिए मानवाधिकार केवल राजनीतिक आयाम तक सीमित नहीं हैं। उनका आर्थिक आयाम भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इस आर्थिक आयाम का एक पहलू है उन आर्थिक अधिकारों की व्यवस्था करना जो संयुक्त राष्ट्र संघ की मानवाधिकारों की विश्व-घोषणा (1948 ई०) और आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों की संविदा (1966 ई०) में उल्लिखित हैं। लेकिन, साथ ही, यह विचार करना भी जरूरी है कि किस तरह की आर्थिक व्यवस्था न केवल उन अधिकारों की उपलब्धि में बल्कि अन्य मानवाधिकारों ओर मानवीय गरिमा की प्रतिष्ठा में सहायक सिद्ध हो सकती है।
विश्व घोषणा में उल्लिखित अधिकारों की बात करने से पूर्व यह स्मरण कर लेना आवश्यक है कि पहली धारा में ही सभी व्यक्तियों को जन्म से ही स्वतंत्र और गरिमा तथा अधिकारों में समान माना गया है; अर्थात्, स्वतंत्रता, गरिमा और समानता को उन बुनियादी मूल्यों के रूप में स्वीकार किया गया है, जो सभी मानवाधिकारों की प्रेरणा हैं। इस प्रकार आर्थिक समानता एक बुनियादी मानवाधिकार के रूप में स्वयमेव ही स्वीकृत हो जाती है। सत्रहवीं धारा में प्रत्येक व्यक्ति को अकेले या अन्य के साथ संपत्ति रखने का अधिकार दिया गया है, जिसे कोई मनमाने तौर पर नहीं छीन सकता। तेबीसवीं धारा में प्रत्येक मनुष्य को रोजगार के अधिकार के साथ रोजगार चुनने की उसकी स्वतंत्रता, बेरोजगारी के विरूद्ध सुरक्षा तथा काम की उचित परिस्थितियों के अधिकार को भी मान्यता दी गई है। इसी धारा में प्रत्येक रोजगारशुदा व्यक्ति को उचित और अनुकूल पारिश्रमिक और चौबीसवीं धारा में आराम, अवकाश और सवैतनिक दृष्टियों के अधिकार को मान्यता दी गई है। करीब-करीब यही बातें आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों की संविदा में भी कही गई हैं। संविदा की धारा ग्यारह (दो) में प्रत्येक व्यक्ति के भूख से मुक्त रहने के अधिकार को मान्यता दी गई है। यद्यपि, प्रत्येक राष्ट्र को इस बात की छूट है कि वह अपनी आवश्यकता और संसाधनों के अनुरूप अपनी नीतियों और व्यवस्था का निर्माण करे; लेकिन, आर्थिक मानवाधिकारों की पृष्ठिभूमि में स्पष्टतः एक समतामूलक और सामाजिक न्याय पर टिकी ऐसी शोषणविहीन अर्थ-व्यवस्था का सपना सक्रिय है, जो मानवीय गरिमा तथा स्वतंत्रता के भाव को पुष्ट करती हो।
कुछ लोग सत्रहवीं धारा में उल्लिखित वैयाक्तिक संपत्ति के अधिकार और समतामूलक या शोषणविहीन समाज की कल्पना में विरोध देख सकते हैं; लेकिन, संपत्ति, रोजगार व उचित पारिश्रमिक आदि से संबंधित धाराओं को एक-दूसरी के साथ रखकर पढ़ा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार का तात्पर्य शोषण पर आधारित या शोषण को जन्म देने वाली संपत्ति के अधिकार से नहीं हो सकता। यहां संपत्ति का अर्थ केवल उस संपत्ति से है, जो प्रत्येक मनुष्य की भौतिक और आत्मिक आवश्यकताओं की स्वस्थ व संतुलित पूर्ति के लिए आवश्यक है। रोजगार का अधिकार भी संपत्ति के अधिकार के समतुल्य ही है। यह भी ध्यातव्य है कि विश्व-घोषणा या आर्थिक अधिकारों वाली संविदा में कहीं भी संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार का उल्लेख नहीं है।
दरअस्ल, जैसा कि जॉन लॉक का विचार है, संपत्ति का अधिकार व्यक्ति की राजनीतिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति-स्वातंत्र्य की गारंटी करता है। यही बात रोजगार के अधिकार के संदर्भ में कही जा सकती है। रोजगार का अधिकार संपत्ति के अधिकार का ही स्थानापन्न है। इसके अतिरिक्त, यदि पूंजीवादी आर्थिक विकास का विश्लेषण किया जाए तो भी स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक मनुष्य को अपनी पसंद के रोजगार और उचित मुआवजे के साथ सामाजिक सुरक्षा का अधिकार मिलने पर शोषण संभव ही नहीं रह जाता। पश्चिमी देशों की समृद्धि बहुत हद तक अविकसित या विकासशील देशों के शोषण पर टिकी है, जिसके लिए इन देशों के राजनीतिक स्वांतत्र्य एवं अधिकारों का हनन होता रहा है। इस प्रकार आर्थिक जीवन में मानवाधिकारों को प्रतिष्ठा का तात्पर्य एक ऐसी अर्थ-व्यवस्था का विकास हो जाता है, जो प्रत्येक व्यक्ति से उसकी योग्यता के अनुसार काम ले और उसे उसकी आवश्यकता के अवसर दे।
मानवाधिकारों के संदर्भ में अर्थ-व्यवस्था पर विचार करते हुए यह भी स्मरणीय है कि अर्थ-व्यवस्था न केवल ऐसी हो, जो प्रत्येक व्यक्ति को उसके आर्थिक अधिकारों की उपलब्धि करवा सके, बल्कि वह ऐसी भी हो जो अन्य क्षेत्रों में भी मानवाधिकारों को पुष्ट करने वाली हो। आधुनिक उत्पादन प्रणाली ऐसी है जो पर्यावरण, स्वास्थ्य और मानवीय गरिमा पर निरंतर आघात करती है और निश्चय ही इसे प्रमाणित करने के लिए अब किन्हीं आंकड़ों की आवश्यकता नहीं है; जबकि मानवाधिकार घोषणा स्पष्ट रूप से प्रत्येक व्यक्ति के लिए काम की उचित परिस्थिति और स्वास्थ्य के लिए अनुकूल परिस्थितियों को एक बुनियादी मानवाधिकार मानता है। आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक मानवाधिकारों की संविदा के अनुच्छेद बारह में स्पष्ट कहा गया है कि सभी सदस्य राष्ट्र प्रत्येक व्यक्ति के लिए शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य की उच्चतम सीमा के अधिकार को स्वीकार करते हैं और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए राज्य द्वारा करणीय उपायों में पर्यावरण एवं औद्योगिक स्वास्थ्य-विज्ञान के विकास का अलग से उल्लेख किया गया है।
आर्थिक मानवाधिकारों की बात केवल विश्व घोषणा अथवा संविदा तक ही सीमित नहीं है। 1986 ई० में साधारण-सभा द्वारा पारित विकास के अधिकार की घोषणा को भी इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस घोषणा के अनुच्छेद प्रथम में विकास के अधिकार को व्यक्ति का अहस्तांतरणीय अधिकार माना गया है और इसके अंतर्गत उसके तथा समूह के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक विकास में भागीदारी करने, योगदान करने तथा उसका लाभ लेने के अधिकार को मान्यता दी गई है ताकि सभी प्रकार के मानवाधिकारों और बुनियादी स्वतंत्रताओं की पूर्ण सिद्धि हो सके। इस घोषणा के अनुच्छेद द्वितीय में व्यक्ति मनुष्य को विकास का केंद्रीय भोक्ता बताया गया है और उसकी सहभागिता और लाभों की गारंटी की गई है। विकास-अधिकार घोषणा की धारा आठ (एक) में सभी राज्यों से राष्ट्रीय स्तर पर, विकास के अधिकार के लिए सभी प्रकार के कदम उठाने तथा सबके लिए अवसरों की समानता, बुनियादी संसाधनों तक पहुंच, शिक्षा, स्वास्थ्य-सेवा, भोजन, आवास, रोजगार तथा आय के न्यायोचित वितरण की गारंटी की बात की गई है।
विकास की परिभाषा को लेकर अर्थशास्त्रियों में बहुत बहस होती रही है। लेकिन, बीसवीं सदी के आखिरी दशक तक यह बात स्वीकार कर ली गई कि विकास को मानवाधिकारों के संदर्भ में पुनर्व्याख्यायित किया जाना चाहिए। इस पुनर्व्याख्या में गरीबी समाप्त करने के साथ-साथ स्त्रियों की स्थिति में सुधार और पर्यावरण संरक्षण को भी शामिल किया जाने लगा। 1983 ई० में वियना में आयोजित मानवाधिकारों पर विश्व-सम्मेलन में शामिल एक सौ सत्तर राष्ट्रों ने यह स्वीकार किया कि लोकतंत्र, विकास तथा मानवाधिकार परस्पराश्रित हैं।
यहां इस बात का जिक्र भी अस्थाने नहीं होगा कि श्रमिकों के अपने आर्थिक अधिकारों के लिए संघ बनाने और हड़ताल करने के अधिकार को भी मान्यता दी गई है (संविदा, धारा आठ)। संविदा में राज्य से यह अपेक्षा भी की गई है कि वह व्यक्ति और समुदाय के रोजगार में साधनों का सम्मान करते हुए उनके संसाधनों के विकास तथा आवश्यक प्रशिक्षण आदि के लिए भी व्यवस्था करेगा।
हम किस तरह की आर्थिक प्रक्रिया और व्यवस्था को वरीयता देते हैं, इसी से यह भी तय हो जाता है कि मनुष्य और जीवन की हमारी चिंता की मूल प्रेरणा और स्वरूप क्या हैं, यानी हमारी जीवन दृष्टि मानवपरक है या मानव-निरपेक्ष। इसलिए उन समाजों को, जो अपने को मानवीय, लोकतांत्रिक ओर सामाजिक न्याय का पक्षधर मानते हैं, अपनी अर्थ-व्यवस्था को भी इस तरह विकसित करना होगा, जिसमें मानवीय स्वतंत्रता यानी मनुष्य की मात्र गरिमा और अधिकारों की पुष्टि होती रहे। यदि आर्थिक मानवाधिकारों की व्यावहारिक प्रतिष्ठा नहीं होती है तो मनुष्य और मनुष्य के बीच गैर-बराबरी तथा विभिन्न जातियों, रंगों और संप्रदायों के बीच वैमनस्य और युद्धों को रोकना भी संभव नहीं होगा। मानवाधिकार विश्व घोषणा की प्रस्तावना में विभिन्न राष्ट्रों के बीच मैत्रीपूर्ण संबंधों के विकास और दुनिया के सब लोगों की अभाव से मुक्ति को अनिवार्य माना गया है। मानवाधिकारों को पुष्ट करने वाली आर्थिक प्रक्रिया का विकास इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक अनिवार्य कदम है।
- नंदकिशोर आचार्य
आर्थिक विकास : द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते ही विश्व भर में वि-उपनिवेशीकरण का सिलसिला शुरू हुआ और मानव समाज का एक विशाल हिस्सा आजाद हो गया। इसके साथ ही नव स्वतंत्र राष्ट्रों के सम्मुख यह प्रश्न खड़ा हुआ कि वे अपने नागरिकों को किस प्रकार गरीबी, निरक्षरता और सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ेपन से बाहर लाएं। विश्व समुदाय ने महसूस किया कि उपर्युक्त कार्य को संपन्न किए बिना टिकाऊ शांति, सौहार्द तथा सहयोग का माहौल दुनिया में नहीं बन सकता। यही कारण था कि संयुक्त राष्ट्र ने सान फ्रांसिस्को चार्टर में उच्च जीवन-यापन स्तर, पूर्ण रोजगार तथा सामाजिक-आर्थिक प्रगति के लिए उपयुक्त स्थितियां तैयार करने की बात की।
इसके साथ ही विकास और उसके सभी आर्थिक आयामों पर चर्चा होने लगी।
अर्थशास्त्र में विकास (Development) और संवृद्धि (Growth) में फर्क किया जाता है, यद्यपि आम बोलचाल में ऐसा नहीं होता। विकास संवृद्धि की अपेक्षा एक व्यापकतर अवधारणा है। वस्तुतः, संवृद्धि विकास का हिस्सा है।
आर्थिक संवृद्धि का अर्थ होता है राष्ट्र द्वारा उत्पादन की जाने वाली वस्तुओं और सेवाओं के परिमाण में निरंतर वृद्धि। आम तौर से इसे सकल घरेलू उत्पाद या सकल राष्ट्रीय आय में बढ़ोतरी के रूप में व्यक्त किया जाता है। याद रहे कि इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता कि उत्पादित वस्तुओं और सेवाओं से नैतिक दृष्टि से आम आदमी या समाज का भला होता है या नहीं। इससे भी कोई वास्ता नहीं होता कि संवृद्धि का क्या दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। बाजार-संचालित अर्थव्यवस्था में उन्हीं वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन होता है, जिनकी बाजार में मांग होती है। क्योंकि उत्पादन का लक्ष्य अधिकाधिक लाभ कमाना होता है, इसलिए लागत को येन-केन-प्रकारेण कम करने की कोशिश की जाती है।
उपर्युक्त कथन को स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण लें। पहला उदाहरण जुए का है। अमेरिका के नेवाडा राज्य के लास वेगास और चीन के मकाओं में द्यूतक्रीड़ा वैध है। वहां जितने ही अधिक लोग जुआ खेलने आएंगे, वहां की आय उतनी ही बढ़ेगी तथा उनकी संवृद्धि की दर ऊंची उठेगी। यहां इससे कोई वास्ता नहीं है कि जुए का समाज और राष्ट्र पर क्या असर पड़ेगा। नैतिकता तथा जुए के खेल में शामिल होने वाले के भविष्य तथा मनोदशा पर पड़ने वाले प्रभाव से भी कोई लेना देना नहीं होता।
इसी प्रकार पेय जल प्रदूषित होने तथा मच्छरों की भरमार से पानी के सफाई के लिए तथा मच्छरों से मुक्ति के लिए लोग उपयुक्त उपकरण लगाएंगे, जिससे उनकी मांग और फिर उनका उत्पादन बढ़ेगा। इस प्रकार संवृद्धि की रफ्तार ऊंची होगी। इसी तरह सार्वजनिक परिवहन विश्वसनीय और आरामदेह न होने पर अगर लोग मोटर गाड़ियों की मांग करते हैं तो इससे उनका उत्पादन बढ़ेगा और आर्थिक संवृद्धि की दर भी बढ़ेगी, भले ही चार-पांच आदमियों को ले जाने वाली मोटर गाड़ी में एक या दो व्यक्ति जाएं तथा ईंधन की मांग, सड़क पर भीड़भाड़ और प्रदूषण तथा शोरशराबा बढ़े। दुर्घटना होने की आशंका अधिक हो जाए। इन सब कुप्रभावों से संवृद्धि का कोई लेना देना नहीं है। पर्यावरण एवं आम जन के ऊपर क्या असर पड़ सकता है, इधर ध्यान नहीं देना होता है।
यदि उत्पादन के क्रम में बच्चों को काम पर लगा, कारखाने का कचरा नदी या नाले में होने वाले प्रदूषण का बिना ख्याल किए ही गिरा और श्रम कानूनों को तोड़ श्रमिकों से अधिकाधिक काम ले उत्पादन लागत घटाने की छूट से आकर्षित हो पूंजीपति अधिक निवेश करें तो उत्पादन बढ़ेगा और संवृद्धि की दर ऊपर उठेगी।
कई देशों की राष्ट्रीय आय इसलिए बढ़ी है कि उनके यहां कोई ऐसे प्राकृतिक संसाधन हैं, जिनकी मांग और कीमतें लगातार ऊपर चढ़ रही हैं। उदाहरण के लिए अरब देशों को लें। वहां कच्चे तेल का बड़ा भंडार है। उसकी मांग और कीमत बढ़ने से उनकी राष्ट्रीय आय तेजी से बढ़ी है और उनकी संवृद्धि दर काफी ऊंची हुई है। इन देशों की स्थिति को देखकर कह सकते हैं कि आर्थिक संवृद्धि की रफ्तार तेज होने से कोई जरूरी नहीं है कि वहां के आम लोग खुशहाल हों, उन्हें सत्ता में भागीदारी मिले और वहां प्रगतिशील विचार और उदार दृष्टि आए। हम सऊदी अरब को देखें। तेल के कारण आर्थिक संवृद्धि की दर वहां बहुत ऊंची है, मगर बढ़ी हुई समृद्धि का सबसे अधिक लाभ सत्ता के शीर्ष पर बैठे या उससे जुड़े लोगों को ही मिलता है-सर्वसाधारण को नहीं। न वहां संसदीय जनतंत्र सच्चे अर्थ में है और न आधुनिक जीवन दृष्टि। स्त्रियों को पुरुषों के बराबर अधिकार नहीं है। दंड संहिता मध्ययुगीन है। स्पष्ट है कि केवल आर्थिक संवृद्धि की दर बढ़ने से न आम जनता का कल्याण हो सकता है और न ही सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्य आधुनिक हो सकते हैं।
आर्थिक संवृद्धि मात्र पर जोर देने से बाजार रूढ़िवाद निश्चित रूप से हावी हो जाएगा। पर्यावरण, श्रमिकों, बच्चों, बूढ़ों, महिलाओं आदि के हितों की रक्षा असंभव होगी तथा समाज के कमजोर एवं पिछड़े वर्गों के हितों के लिए न कानून बनेंगे न कल्याणकारी योजनाएं चलेंगी। आरक्षण बेमानी हो जाएगा तथा प्राकृतिक संपदा की रक्षा असंभव।
आर्थिक संवृद्धि की अपेक्षा आर्थिक विकास एक व्यापक अवधारणा है। वस्तुतः, आर्थिक विकास में आर्थिक संवृद्धि शामिल होती है, मगर कतिपय अनिवार्य शर्तों के साथ। आर्थिक विकास के लिए उपयुक्त तकनीकी एवं सांस्थानिक परिवर्तन अपरिहार्य होते हैं। अतः, आर्थिक विकास की स्थिति में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के साथ ही उसके वितरण और समाज की आर्थिक संरचना में परिवर्तन जरूरी है। गरीबों की `िस्थ्ाित में बदलाव, सकल घरेलू उत्पाद में प्राथमिक क्षेत्र के सापेक्ष योगदान में कमी, उत्पादन में औद्योगिक एवं सेवाओं के क्षेत्र के दबदबे में वृद्धि, उत्पादन की प्रौद्योगिकी एवं संगठन में परिवर्तन, शिक्षा के स्तर और श्रमिकों के कौशल में तेजी से सुधार, जीवन मूल्यों की संकीर्णता से मुक्ति तथा श्रमशक्ति की बढ़ती गतिशीलता एवं जनतंत्र का बोलबाला आर्थिक विकास के साथ जुड़े होते हैं। प्रख्यात अर्थशास्त्री दिवंगत डुडले सियर्स पूछते हैं गरीबी का क्या हो रहा है? बेरोजगारी का क्या हो रहा है? असमानता का क्या हो रहा है? अगर ये तीनों पहले से कम उग्र हुई हैं तो निस्संदेह देश विशेष में आर्थिक विकास हुआ है। अगर ये तीनों या इनमें से एक या दो उग्रतर हुई हैं तो स्थिति को विकास नहीं कहा जा सकता, भले ही प्रति व्यक्ति औसत आय में वृद्धि हुई हो। (देखें, Dudley seers, The meaning of Developments, International Development Review, December v~{~)।
अतः, हर स्थिति में आर्थिक संवृद्धि के साथ रोजगार में वृद्धि होने पर ही हम कह सकते हैं कि विकास हो रहा है। रोजगारविहीन आर्थिक संवृद्धि की अवस्था विकास नहीं मानी जा सकती। आर्थिक संवृद्धि की उच्च दर और तेज गति के बावजूद अगर धर्मांधता बढ़े तथा जनतांत्रिक व्यवस्था शिथिल पड़ जाए तो वहां विकास की अनुपस्थिति मानी जाएगी। विस्तृत चर्चा के लिए देखें, बेजामिन एम० फ्रीडमैन, द मॉरल कॉन्सिक्वेंसेज ऑफ इकॉनमिक ग्रोथ, न्यूयार्क, 2005, पृ० 3-102 और पृ० 297-395।
आर्थिक संवृद्धि विकास की ओर ले जा रही है या नहीं, इसका उत्तर चार बातों पर निर्भर है। पहली, उसकी कसौटी आम आदमी होना चाहिए। उसकी स्थिति में बेहतरी आनी चाहिए। दूसरी, आम आदमी का रवैया समाज के अन्य लोगों तथा दूसरे देशों या प्रदेशों से आने वालों के प्रति दोस्ताना होना चाहिए। धार्मिक कठमुल्लापन, संप्रदायवाद, जातिवाद और अंधविश्वास कम हो। तीसरी, विभिन्न प्रकार के प्रदूषण न बढ़ें तथा पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। चौथी, सरकार की अर्थव्यवस्था में सक्रिय भूमिका हो, जिससे बाजार की शक्तियों और आर्थिक संवृद्धि के स्वरूप और नियंत्रित कर सही दिशा दी जा सके।
प्रो० अमर्त्स सेन ने अपनी पुस्तक डेवलपमेंट एज फ्रीडम में विकास को स्वतंत्रता की दिशा में ले जाने वाला कहा है। सब तरह की पराधीनता या बंधन से मुक्ति विकास की कसौटी होनी चाहिए। भूख से मुक्ति मिले यानी पर्याप्त मात्रा में वांछित खाद्य एवं पेय पदार्थ मिलें, अभाव और अकाल के खतरे न आएं। कौशल हासिल करने तथा उसका उपयोग करने की आजादी और अवसर हों यानी बेरोजगारी न आए। जाति, धर्म, निवास, रंग और लिंग के आधार पर कोई भेदभाव न हो। सबको कपड़ा और मकान मिले। आवागमन में बाधा न हो। जीवन की गुणवत्ता में सुधार हो तथा मानवाधिकारों की पूर्णतया गारंटी हो, लोगों को सोचने, लिखने-पढ़ने और अपने विचारों के प्रचार-प्रसार की आजादी की गारंटी हो। सबको शिक्षा का अधिकार प्राप्त हो।
प्रो० सेन ने रेखांकित किया है कि सार्वजनिक सुविधाओं जैसे पार्कों, सड़कों, बारातघरों, सभा एवं गोष्ठी स्थलों, खेलकूद की जगहों आदि को नियमानुसार बिना भेदभाव सब नागरिकों के लिए खोला जाए। अहिष्णुता और दमनकारी राज्य को सार्वजनिक जीवन से बाहर कर दिया जाए। किसी भी संप्रदाय और जाति की पूजा-अर्चना में दूसरों को विघ्न न डालने दिया जाए और न उपासना-स्थलों पर कोई आक्रमण हो। समाज के कमजोर वर्गों, विशेषकर स्त्रियों, बच्चों, दलित वर्गों को सुरक्षा एवं प्रतिष्ठा प्रदान की जाए। दूसरे शब्दों में, आर्थिक संवृद्धि साम्य के सिद्धांत और नीतियों पर चले तथा समावेशी हो, तभी वह विकास बन सकती है।
आर्थिक विकास के लिए जरूरी है कि संवृद्धि की प्रवृत्ति निरंतर, पर्याप्त और ऊर्ध्वमुखी हो। मौसमी तथा व्यावसायिक उतार-चढ़ावों एवं बाढ़, भूकंप आदि प्राकृतिक और बाहरी हमलों, गृहयुद्ध एवं दंगा-फसाद से दीर्घकाल में अप्रभावित रहे। प्रतिव्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद जनसंख्या वृद्धि के बावजूद पर्याप्त मात्रा में धनात्मक रहे। कहने का मतलब है कि प्रतिवर्ष सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि की दर जनसंख्या वृद्धि की दर से पर्याप्त रूप से अधिक हो। इतना ही नहीं, सकल घरेलू आय की वृद्धि की दर कीमत वृद्धि से अधिक हो जिससे प्रति व्यक्ति वास्तविक आय बढ़े।
इसके लिए आवश्यक है कि आधुनिक विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास हो मगर ध्यान रहे कि इससे पर्यावरण को नुकसान न पहुंचे। आर्थिक इतिहास साक्षी है कि आधुनिक विकास के लिए राष्ट्रवाद और धर्म-निरपेक्षता आवश्यक शर्तें रही हैं। राष्ट्रराज्य और धर्म-निरपेक्षता ने विकास का रास्ता खोला है।
- डॉ० गिरीश मिश्र
आर्थिक हिंसा : मानव समाज को और उसके अभिन्न अंग मानव मात्र को अपनी जिंदगी को जीने की प्रक्रिया में अनेक प्रकार की वस्तुओं और सेवाओं की जरूरत होती है। आधुनिक विनिमय अर्थव्यवस्थाओं में इन वस्तुओं को पाने के लिए नियमित रूप से और आम तौर पर बढ़ती हुई मात्रा में मौद्रिक आय की जरूरत होती है। किंतु मौद्रिक आय अपने आप में समाज और व्यक्ति की जरूरतें पूरी नहीं कर सकती है। इस मौद्रिक राशि के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की और आम तौर पर बढ़ती हुई मात्रा में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन और उचित दामों पर वितरण होना जरूरी है; अन्यथा अर्थव्यवस्था का सबको जीवन-यापन के साधन उपलब्ध कराने का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा। सामाजिक श्रम-विभाजन के कारण किसी खास वस्तु या राशि के उत्पादन में लगे व्यक्ति में भी अपनी अनेक प्रकार की अन्य वस्तुओं और सेवाओं की जरूरतें पूरी होने का आश्वासन रहता है। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय-व्यापार के चलते सुदूर देशों में उत्पादित वस्तुएं और सेवाएं भी दूर-दूर के देशों में उपलब्ध हो जाती हैं। परस्पर संबंधित आर्थिक-सामाजिक प्रक्रियाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मनुष्य जैसे सामाजिक प्राणी का अस्तित्व, उसके व्यक्तित्व का समुचित पल्लवन और उसके जीवन की सार्थकता अपनी विविध भौतिक और गैर-भौतिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के साथ-साथ शेष समाज की इन जरूरतों की पूर्ति में समुचित योगदान करने में निहित माने जा सकते हैं। वास्तव में, अपनी निजी जरूरतों की पूर्ति और शेष समाज की इन्हीं उद्देश्यों हेतु सक्रियता एक तरह से संयुक्त अभिन्न रूप से जुड़ी हुई प्रक्रियाएं हैं। विभिन्न प्रकार की सामाजिक संस्थाएं, नियम-कायदे, ज्ञान, तकनीकें, भावानात्मक सांस्कृतिक पक्ष और इनसे जुड़ी अनवरत जारी तथा निरंतर विकासमार्गी प्रक्रियाएं आपस में गहराई से जुड़कर एक जीवंत समाज की रचना करते हैं। इस तरह व्यक्ति के वजूद के साथ-साथ समाज के सौहार्द, समरसता और सम्यक विकास की गहरी तथा अविच्छिन्न परिपूरकता सामाजिक संबंधों की न्यायसंगत प्रकृति और उनके टिकाऊपन अथवा सातत्य की शर्तों के अनुपालन की अपेक्षा करते हैं। वास्तव में यह कहा जा सकता है कि सामाजिक विकास की दशा, दिशा और गति के निर्धारण में इन सामाजिक संबंधों की प्रकृति अथवा गुणवत्ता की महती भूमिका होती है। आर्थिक जीवन में अहिंसा का स्थान इसी संदर्भ में प्रकट होता है।
आम तौर पर आधुनिक युग में बहुप्रचलित सिद्धांतों (अर्थात् विभेदित समाजों में वर्चस्ववान तबकों द्वारा स्वीकृत या मान्यता प्राप्त सिद्धांतों) के अनुसार उत्पादन वृद्धि और इस वृद्धि का विद्यमान बाजार की ताकतों, प्रक्रियाओं और उनके समीकरणों के द्वारा उनकी कुशलता के प्रतिमानों के अनुरूप निर्धारण आर्थिक जीवन के औचित्य की खरी और पर्याप्त कसौटी है। क्या अर्थजगत की वांछित मानी गई तथा स्वतः, स्वभावतः प्राप्त कुशलता सामाजिक जीवन के सुचारू संचालन और उच्च मानव मूल्यों की सार-तत्त्व अहिंसक जीवन प्रणाली से संगत है? इन सिद्धांतों (जिन्हें आरोपित विश्वास कहना ज्यादा वस्तुपरक अथवा तथ्यसंगत होगा) की खास बात यह है कि इन्हें लागू करने के लिए किन्हीं कानूनों या बाहरी सत्ता की जरूरत नहीं मानी गई है। प्रतिपादित किया गया है कि हर व्यक्ति अपने संसाधनों, क्षमताओं के अनुसार अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बिना रोक-टोक या व्यवधान के काम करे तो सभी लोगों के काम मिलकर एक व्यवस्थित आदर्श का बिना किसी पृथक प्रयास के निर्माण और संचालन कर पाएंगे।
इस स्व-प्रेरित, स्व-नियमित और स्वतः संचालित निजाम को स्वतंत्रता या स्वैच्छिक चयन अथवा वरण करने की आजादी के उच्च उदात्त आदर्श के अनुकूल बताकर प्रचारित या महिमामंडित किया जाता रहा है। हर व्यक्ति अपना-अपना रास्ता चुनता और तय करता है। इसलिए दावा किया जाता है कि यह व्यवस्था किसी पर किसी की हिंसा, वर्चस्व और दबाव नहीं थोपती है। यहां तक कि इस व्यवस्था का नाम भी स्वतंत्र अथवा उन्मुक्त या एकला चालो रे बाजार व्यवस्था रख दिया गया है। इस स्वचालित, स्वतः-नियमित बाजार या निजी पूंजी व्यवस्था में असंख्य लोगों में पृथक-पृथक अपने निजी स्वार्थ या मकसद से प्रेरित निर्णय और कर्म निजी लाभ को प्राथमिकता देने वाले और सचेतन रूप से बिना किसी सामाजिक प्रतिबद्धता के अथवा उत्तरदायित्त्वविहीन माने गए हैं। फिर भी इनका संयुक्त, अनिश्चित, वस्तुगत प्रभाव अर्थव्यवस्था की सभी इकाइयों को आदर्श संतुष्टि देने में सक्षम माना गया है। किसी जमाने में इसी स्थिति के लिए कहा गया था कि निजी क्षुद्र स्वार्थों पर आधारित व्यवस्था बाजार की आवश्यकताओं के कारण सभी की जरूरतें पूरा करने, सभी को अपने काम के अनुरूप पारिश्रमिक देने तक सबके बीच न्यायोचित संबंध बनाने वाले सार्वजनिक गुण में तब्दील हो जाती है। इस तरह मूल्यों और मान्यताओं के स्तर पर इस बाजार व्यवस्था और इसके कुशल संचालन को स्वतंत्रता, स्वैच्छिक निर्णय तथा आपसी संबंधों के औचित्य की कसौटी पर खरा बताकर प्रचारित किया जाता रहा है।
पिछली तीन-चार शताब्दियों से धीरे-धीेरे विश्व की आर्थिक-व्यवस्था इस स्वतः चालित, तथाकथित आदर्श व्यवस्था के तहत संचालित हो रही है। कहा जा सकता है कि यदि ये दावे सचमुच सही हैं तो यह व्यवस्था अहिंसक समाज के मूल्यों पर भी सटीक बैठती नजर आती है। सिद्धांतों तथा ऐतिहासिक तथ्यों की कसौटी पर ये दावे कैसे और कितने खरे बैठते हैं? यहां इस सवाल पर संक्षेप में विचार करेंगे। तथ्यों और इतिहास के आईने में झांककर देखने पर बाजार व्यवस्था का तथाकथित अहिंसक सामाजिक मूल्यों सामाजिक व्यक्ति के स्वतंत्र, स्वैच्छिक के निर्णय करने और उन्हें लागू करने की व्यवस्था करने वाला आदर्शीकृत चित्र बालू की दीवार पर खड़ा यथार्थ अर्थात् सर्वथा विपरीत नजर आएगा। अनेक वैकल्पिक और उच्च सामाजिक मूल्यों के प्रणेताओं ने इस काल्पनिक आदर्श-व्यवस्था का सही चेहरा ही नहीं दिखाया है, सर्व-सम्मत मूल्यों और मान्यताओं पर आधारित अहिंसक समता, स्वतंत्रता, भाईचारे की नींव पर खड़ी वैकल्पिक व्यवस्थाओं के प्रारूप भी पेश किए हैं।
बाजार व्यवस्था ने सभी इंसानों को मात्र आर्थिक मानव, केवल निजी लाभ-लालच की असीम चाहत से प्रेरित माना है। उनका राष्ट्र भी बाजार उसके मूल्यों और उनको अक्षुण रखने में लगे राष्ट्रवाद की नींव पर स्थापित किया गया है। संस्कृति भी इसी बाजार की चेरी मात्र बना दी गई है। इस अवस्था ने यह भी माना है कि सभी लोगों में शुरू से ही समान रूप से प्रतियोगिता में भाग लेने की क्षमता विद्यमान होती है। इस मत के अनुसार सभी के संसाधन, क्षमताएं, अक्सर शुरूआती दौर में समान मानने के बावजूद जो असमानताएं, एकाधिकारी प्रवृत्तियां तथा बढ़ता हुआ केंद्रीकरण आदि पैदा होते हैं और बढ़ते हैं, वे स्वाभाविक, प्राकृतिक और न्यायाधारित पुरस्कार माने गए हैं। विशेष क्षमताओं, परिश्रम, लगन आदि के बिना इस मत के अनुसार, मानव समाज की प्रगति बाधित और सीमित हो जाएगी। वैसे इस मत के कट्टर अनुयायी तो समाज का अस्तित्व तक स्वीकार नहीं करते हैं। कहा जाता है कि इस व्यवस्था के निर्णय बाजार में स्वतंत्र रूप से निर्धारित कीमतों के आधार पर किए जाते हैं, जो सूचनाओं, प्रेरणाओं और अवसरों का सर्व-सुलभ बयान करती हैं।
इतिहास और वर्तमान स्थिति पर नजर डालने पर उपरोक्त कथनों का असत्य और खोखलापन साफ नजर आ जाएगा। पूंजीवाद के पूर्व की व्यवस्थाओं ने एक गहरी और बहुमुखी विषमताओं वाला समाज जोड़ा था। स्वतंत्र, समान और न्यायपूर्ण प्रतियोगिता की इसमें रत्ती भर भी जगह नहीं थी। बाजार व्यवस्था का मूल नियम है जो जितना मजबूत और सक्षम है इस प्राणीजगत की डारविन द्वारा प्रतिपादित गलाकाटू सामाजिक प्रतियोगिता उसे लगातार उतना ही अधिक समृद्ध तथा विपन्न जन को उतना ही असमावेशित और विन्नतर करती रहेगी। केवल एक व्यक्ति के साथ बंधे रहने की मजबूरी एक पूरे वर्ग में से किसी के साथ बंधे रहने की विवशता बन गई। इससे भी खराब तो यह हुआ कि ऐसे मजदूरी के बंधन भी सर्वसुगम नहीं हो पाए। अनप्रयुक्त श्रमिको की फौज को एक अनिवार्य, नैसर्गिंक जरूरत या सच मान लिया गया।
इस पूंजीवादी बाजार की प्रक्रिया द्वारा संचालित आर्थिक जीवन में एक ओर लगातार बेरोजगारी बनी रहती है, दूसरी ओर संपत्ति चंद हाथों में बेशुमार मात्रा में सिमटती रहती है। इस तरह उत्पन्न विषमता शक्ति का केंद्रीकरण करके सामाजिक रिश्तों में गैर-बराबरी तथा कुछ लोगों की मरजी बहुसंख्यक लोगों पर थोप देती है। इस तरह यह व्यवस्था प्रच्छन्न हिंसा के अनेक रूपों का बीज बोती है। बेरोजगारी तथा अभाव रूपी हिंसा के अलावा लगातार तेजी से बढ़ती कीमतें (कीमत-स्फीति), प्राकृतिक संसाधनों का विनाश तथा पर्यावरणीय प्रदूषण तथा आम लोगों तथा राष्ट्रों के बीच हिंसक अपराध तथा युद्ध (जिसके पीछे शस्त्र-उत्पादक पूंजीपतियों की घृणित भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती इस हिंसक व्यवस्था की जन्मजात और अपरिहार्य विशेषताएं हैं)। यह बाजारवादी, हिंसक रूप कितना खतरनाक है यह पूंजीवादी व्यवस्था के पुनरोद्धारक तथा प्रबल समर्थक अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन के महंगाई के चरित्र के बारे में इस बयान से स्पष्ट हो जाता है : महंगाई बढ़ने की तेज रफ्तार राह चलते लोगों की पिटाई करने वाले बदमाशों की तरह हिंसक, हथियारबंद डकेतों की तरह खौफनाक और सुपारी-हत्यारों (हिटमैन) की तरह मृत्युदायी होती है।
व्यावहारिक स्तर पर हमेशा नहीं तो भी बहुधा सारे सांस्कृतिक, धार्मिक, कानूनी उपादान शक्ति के पिछलग्गू रहे हैं। इस तरह अस्वैच्छिक या प्रयच्छन, परिस्थितिगत असमावेशन तथा विपन्नता को राजकीय तथा सांस्कृतिक बल ने एक व्यवस्थागत हिंसा का रूप दे दिया। सच है कि प्रतिरोध की संस्कृति, व्यवहार और नैतिकता एक छोटे से तबके द्वारा अक्षुण रखी गई है जो इस व्यवस्था के चरित्र को उजागर करती है और परिवर्तन की प्रक्रियाओं और ताकतों की लौ को बाले रखती है। इस तरह कहा जा सकता है कि भयावह छद्म और खुली दोनों प्रकार की हिंसा पर आधारित बाजार व्यवस्था का उबड़-खाबड़ सातत्य बहुसंख्यक लोगों और उनके देशों, समुदायों के पसीने, आसूंओं और खून की नींव पर खड़ा है और उनसे तर-बतर रहा है। पिछली तीन-चार शताब्दियों जितनी खुली और प्रच्छन्न हिंसक और अन्याय भरी सदियां पहले कभी नहीं देखी गई थी। यह विडंबना और अधिक त्रासद इसलिए हो जाती है कि अब मानव मात्र को ऐसी हिंसा से मुक्ति के लिए सभी साज-सामान और स्थितियां उपलब्ध हो जाती हैं।
सारांश यह है कि मानव समाज की प्रगति अपनी संभावनाओं को सिकरा नहीं पाई है। वह अनेक परिस्थितियों वश पनपी हिंसाधारित सामाजिक संबंधों के नागपाश तोड़ने के संभावनाएं विकसित कर चुका है, खासकर तकनीकी क्षेत्र में किंतु सामाजिक व्यवहार तथा व्यवस्था में नहीं। वह अभी भी कबीर वाणी सहज मिले सो क्षीर सम, मांगे मिल से पानी/कह कबीर वह रक्त सम, ज्या में खींचतानी को जीवन का जीवंत, ठोस आधार नहीं बना पाया है। इसमें शक्तिशाली लोगों द्वारा संस्थागत, प्रच्छन्न रूप से थोपी गई हिंसा और इस हिंसा के विरोध में स्वैच्छिक, समता और एकजुटता को नष्ट करने की बार-बार देखी गई क्रूर, शारीरिक हिंसा की बहुत बड़ी भूमिका है। एक अहिंसक समाज के निर्माण के रास्ते ज्ञान-विज्ञान, चेतना तथा संवेदी एकजुटता तथा तात्त्विक सारगर्भित लोकतंत्र ने उपलब्ध करा दिए हैं। नतीजतन बहुस्तरीय, बहुआयामी प्रतिरोध और संघर्ष हिंसा और अहिंसा की पक्षधर शक्तियों के बीच चल रहा है। इस अहिंसक समाज रचना हेतु अहिंसक संघर्ष की सफल परिणति में ही मानवता का भविष्य निहित है।
- कमल नयन काबरा
आर्थिक हिंसा : इस्लाम : हिंसा चाहे आर्थिक हो या शारीरिक इस्लाम की नजर में अप्रिय है। हिंसा का कोई भी नकारात्मक रूप इस्लाम पसंद नहीं करता। यहां शब्द नकारात्मक जानबूझ कर इस्तेमाल किया गया है क्योंकि हिंसा सकारात्मक भी होती है और वह किसी भी व्यक्ति और समाज के लिए जरूरी है। इसका उदाहरण ऐसा ही है जैसे नश्तर। यदि वह डॉक्टर के हाथ में है तो वह सकारात्मक है क्योंकि उसका उद्देश्य रोगी की सेहत है और यदि वही नश्तर चोर के हाथ में है तो वह नकारात्मक है क्योंकि उसका उद्देश्य किसी को लाभ पहुंचाना नहीं बल्कि हानि पहुंचाना है और हानि पहुंचाने की मनोवृत्ति को इस्लाम नापसंद करता है।
ऐसी ही स्थिति आर्थिक मामलों की है। आर्थिक मामलों में भी दौलत कमाने के समस्त वैध तरीके प्रिय हैं और दौलत कमाने के वे सारे तरीके जिनमें घमंड, धोखा हो, किसी को नाजायज दबाया जाए या किसी का माल अवैध तरीके से हासिल किया जाए वे नकारात्मक हिंसा के रूप हैं। इस्लाम इनकी अनुमति नहीं देता। कुरआन पाक में स्पष्ट रूप से आया है-और तुम लोग न तो आपस में एक दूसरे के माल अवैध तरीके से खाओ और न शासकों के आगे उनको इस उद्देश्य के लिए प्रस्तुत करो कि तुम्हें दूसरों के माल का कोई हिस्सा जानते बूझते हकमारकर खाने का अवसर मिल जाए। (बक़रा-188)
एक दूसरी आयत में है- ऐ लोगो! जो ईमान लाए हो, आपस में एक दूसरे के माल गलत तरीके से न खाओ। (निसा-18)
कुरआन पाक में और भी कई स्थानों पर अवैध और गलत तरीके से दूसरों का माल हड़प करने की मनाही आई है, इस्लाम में आर्थिक हिंसा का एक रूप तो यह है कि दूसरों के माल अवैध रूप से खाए जाएं, इसके अलावा आर्थिक हिंसा का एक और रूप यह भी है कि अपार दौलत जमा कर ली जाए चाहे वैध तरीके से ही कमाई गई हो, लेकिन उसमें से गरीबों का हकन दिया जाए। इस्लाम की नजर में जितना बुरा अवैध तरीके से धन कमाना है उतना ही बुरा वैध तरीके से कमाए हुए धन में से गरीबों का हिस्सा न निकालना भी है। कुरआन में उन लोगों को कड़ी चेतावनी दी गई है जो धन को बटोर कर रखते हैं और उसमें गरीबों का हकनहीं देते। कुरआन में साफ तरीके से निर्देश दिया गया है कि मनुष्य के माल में गरीबों, मुहताजों, मांगने वालों और मुसाफिरों का हक है। एक आयत में है- और उनके माल में मांगने वालों और वंचित का एक निश्चित हक होता है। (मआरिज - 24-25)
कंजूसी की निंदा करते हुए कुरआन में लिखा है- वह तो भड़कती हुई आग की लपट होगी, गोश्त और खाल को चाट जाएगी। पुकार पुकार कर अपनी ओर बुलाएगी, हर उस व्यक्ति को जिसने हक से मुंह मोड़ा और पीठ फेरी और माल जमा किया और बटोर कर रखा। (मआरिज - 15-18)
इस भूमिका से इस्लाम में आर्थिक हिंसा के दो पहलू उभर कर सामने आते हैं-
(1) इस्लाम धन कमाने के हर तरीके को जिसमें घमंड और धोखा हो अवैध ठहराता है, इसी तरह शोषण द्वारा कमाए हुए धन को भी अवैध ठहराता है। अर्थात धन कमाने के वे तरीके जो इस्लाम की नजर में अवैध हैं और वे तरीके जिनमें शोषण की मिलावट हो, इस्लाम की नजर में आर्थिक हिंसा के खाने में आते हैं।
(2) इस्लाम की नजर में आर्थिक हिंसा का दूसरा पहलू माल को रोके रखना है और उसमें से उन लोगों के हक अदा न करना है जिनके हक इस्लाम ने हर धनवान के माल में निश्चित किए हैं। यदि कोई व्यक्ति इन अधिकारों को, जो अनिवार्य हैं, अदा नहीं करता और माल में कंजूसी करता है तो वह भी इस्लाम की नजर में कठोर यातना व दंड का हकदार है। कुरआन में है कि ऐसे लोगों का माल कियामत के दिन जमा किया जाएगा और उससे उन्हें दागा जाएगा। फारसी के प्रसिद्ध कवि शेख सादी ने इस बात को अपने एक शेर में इस प्रकार व्यक्त किया है-बखील अज बुवद जाहिद बहरो बर/बहिश्ती न बाशद बहुक्म खबर (कंजूस आदमी चाहे धरती व दरिया में उपासना करता रहे लेकिन हदीस का फैसला है कि उसको जन्नत नहीं मिलेगी)।
माल के बारे में इस्लाम की नियमित शिक्षा यह है कि माल मनुष्य नहीं कमाता बल्कि माल अल्लाह तआला अपनी कृपा से मनुष्य को देता है और इसका उद्देश्य मनुष्य की परीक्षा लेना होता है। कुरआन में बार बार यह बात दोहराई गई है कि माल हमने दिया उसमें से खर्च करो, या माल हमने दिया उसे एक दूसरे से गलत तरीकों से न खाओ। कुरआन की आयत है-हमने जो कुछ रिज़्क सामग्री उन्हें दिया है उसमें से खर्च करते हैं। (शूरा - 36)
एक आयत में है-देखो, तुम लोगों को दावत दी जा रही है कि अल्लाह के मार्ग में माल खर्च करो, इस पर तुम में से कुछ लोग हैं जो कंजूसी कर रहे हैं यद्यपि जो कंजूसी करता है वह असल में स्वयं अपने से ही कंजूसी करता है। (मुहम्मद - 38)
इसी प्रकार अन्य आयतें हैं जैसे सजदा-150, इब्राहीम-31, तगाबुन-10,16 आदि।
धन कमाने में और धन को इकट्ठा करने में इस्लाम के जो मौलिक निर्देश हैं यहां उनका क्रमवार उल्लेख किया जाता हैः
सूद या ब्याज इस्लाम की नजर में धन कमाने का अत्यन्त अप्रिय तरीका है। चूंकि इस तरीके में असल में शोषण की मनोवृत्ति होती है और इसके द्वारा समाज का एक वर्ग दुर्बल से दुर्बल होता जाता है और दूसरा वर्ग प्रत्यक्ष में धनी से धनी होता जाता है। ब्याज द्वारा ब्याज लेने वाले का मानसिक निर्माण इस प्रकार होता जाता है कि वह फिर गरीबों, असहायों और निर्धनों की मदद को अपने लिए एक अवैध बोझ समझने लगता है।
ब्याज के संबंध में कुरआन में है-ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, यह बढ़ता चढ़ता ब्याज खाना छोड़ दो और अल्लाह से डरो। (बकरा)
एक और आयत में है-अल्लाह ने विक्रय को हलाल किया है, और ब्याज को हराम किया है। (बकरा)
सूद का हराम होना इतना सख्त है कि जो सूद का कारोबार करे मानो उसने अल्लाह और उसके रसूल के विरुद्ध जंग छेड़ रखी है। सूरह बकरा में है-परंतु यदि तुमने ऐसा न किया तो सचेत हो जाओ कि अल्लाह और उसके रसूल की ओर से तुम्हारे विरुद्ध जंग की घोषणा है, अब भी तौबा कर लो तो अपना मूल धन लेने के तुम हकदार होगे। न तुम जुल्म करो और न तुम पर ज़ुल्म किया जाएगा। (कुरआन)
इस्लाम की दृष्टि में आर्थिक हिंसा का एक अत्यंत अप्रिय नमूना ब्याज है। इसके द्वारा समाज में शोषण की मनोवृत्ति को बढ़ावा मिलता है, इसलिए इस्लाम ब्याज की कड़ाई से मनाही करता है।
रिश्वत भी इस्लाम की नजर में एक संगीन अपराध है। हदीस में आता है कि रिश्वत लेने वाला, रिश्वत देने वाला, दोनों जहन्नम के हकदार है। रिश्वत असल में अवैध तरीके से अपने पक्ष में निर्णय कराने के लिए दी जाने वाले राशि को कहते हैं।
इसमें जो माल ले रहा है वह तो मानो बिना मेहनत के प्राप्त कर रहा है और जो दे रहा है वह अपने किसी भाई का हक छीन कर स्वयं लेना चाहता है। इसलिए इस्लाम की दृष्टि में रिश्वत भी आर्थिक हिंसा की घिनौनी शक्ल है। कुरआन में है-और तुम लोग न तो आपस में एक दूसरे का माल अवैध रूप से खाओ और न शासकों के आगे इस उद्देश्य के लिए प्रस्तुत करो कि तुम्हें दूसरों के माल का हिस्सा जानते बूझते हक मार कर खाने का अवसर मिल जाए। (बकरा - 188)
इस्लाम की नजर में जुआ भी अवैध है। जुए में बिना मेहनत के केवल अनुमान के आधार पर धन कमाने का रुझान पाया जाता है। इसलिए उसे भी इस्लाम में अप्रिय ठहरा दिया गया है। कुरआन में है कि शराब, जुआ, पांसे आदि अपवित्र हैं और शैतानी काम हैं इनसे दूर रहो। इसी तरह धन कमाने का हर वह तरीका जिसमें जुए की रूह पाई जाए वह भी अवैध है जैसे सट्टा और लाटरी आदि।
इस्लाम ने कुछ चीजों को अवैध ठहरा दिया है। इन अवैध चीजों का क्रय-विक्रय भी अवैध है और उनसे प्राप्त धन भी अवैध है। ऐसी तिजारत में शराब, ख़ून, सूअर और मुर्दार और बुतों की तिजारत है। इस संबंध में एक उसूली बात एक हदीस में इस प्रकार आई है कि अल्लाह तआला ने जिन चीजों को खाने को हराम ठहरा दिया है, उनकी कीमत को भी हराम ठहरा दिया है। (अबूदाऊद)
इस्लाम की नजर में ऐहतिकार अर्थात सामान को जमा करके रोके रखना भी अवैध है। इसकी सबसे घिनौनी शक्ल यह है कि जब कोई अनाज सस्ता हो उस समय बड़ी मात्रा में जमा कर लिया जाए और उसको उस वक्त तक रोके रखा जाए जब तक उसकी कीमत न बढ़ जाए, फिर महंगे दामों पर उसे बेचा जाए। अल्लाह के रसूल सल्ल० ने फरमाया-सामान को जमा करने वाले पर अल्लाह की फटकार हो। (इब्ने माजा, अध्याय ऐहतिकार)
इससे मिलती-जुलती एक शक्ल यह है कि जब काफिले अपनी तिजारत का सामान मुख्य रूप से अनाज और दूसरी सामग्री मंडी में ला रहे हों तो मंडी में पहुंचने से पहले उनको गलत भाव बता कर उनका सामान खरीद लिया जाए। हदीस में ऐसी तिजारत की मनाही आई है और आदेश यह है कि यदि बेचने वाले को मंडी में पहुंच कर यह मालूम हो कि उसे जो रेट बताया गया था वह सही नहीं था तो वह अपनी ओर से विक्रय को निरस्त कर सकता है।
इस्लाम में यह आवश्यक है कि कारोबार का हर मामला दोनों गिराहों की रजामंदी से पूरा किया जाए। यदि कोई एक पक्ष भी अपनी मर्जी से इस संधि को स्वीकार न करे तो वह संधि वजूद में ही नहीं आएगी। इसी प्रकार यह भी आवश्यक है कि जो कारोबार किया जाए उसमें मूल्य और माल दोनों मौजूद हों। ऐसी चीज की तिजारत जो मौजूद ही न हो वैध न होगी। जैसे कोई व्यक्ति अपनी गर्भवती बकरी के गर्भ को बेचे या हवा में उड़ते हुए पक्षियों की तिजारत करे या समुद्र में मछली बेचे तो चूंकि अभी वह इन चीजों का स्वामी नहीं हुआ है इसलिए वह इनकी तिजारत नहीं कर सकता। इसी प्रकार हर वह मामला जिसमें तिजारत का सामान मौजूद न होने के कारण विवाद पैदा हो सकता हो, उसकी तिजारत की इस्लाम में अनुमति नहीं है।
इस प्रकार के कारोबार की एक शक्ल बागों की तिजारत में सामने आती है। इस्लाम कहता है कि बाग में जब तक पेड़ पर फल न आ जाएं, उस समय तक उन फलों की तिजारत वैध न होगी।
कारोबार का हर वह तरीका जिसमें एक पक्ष का निश्चित लाभ हो और दूसरे का फायदा अस्पष्ट हो, वह भी इसमें दाखिल है। अल्लाह के रसूल सल्ल० ने स्पष्ट शब्दों में निर्देश दिया है कि हर वह तिजारत जिसमें धोखे की आशंका हो वह अवैध है। (अबू दाऊद)
दौलत कमाने के लिए तिजारत की अनुमति है, लेकिन, यह तिजारत उचित और भले तरीकों पर होगी। तिजारत के माल का दोष छुपाकर बेचना अवैध है। इस संबंध में अनेक हदीसों में निर्देश मौजूद हैं। एक हदीस में है कि जिसने धोखा दिया वह हम में से नहीं है। (तिमिर्जी)
एक और हदीस में है कि जो व्यक्ति झूठी कसम खाकर अपनी तिजारत का सामान बेचता है कियामत के दिन अल्लाह उससे बात नहीं करेगा। (मुस्लिम)
इस्लाम ने ऐसी चीजों की तिजारत से भी रोका है जो आचरण को खराब करने वाली हों और व्यक्ति या समाज के स्वास्थ्य और पवित्राता के लिए हानिकारक हों। जैसे नशे की चीजों की तिजारत, अश्लील चित्रों और फिल्मों की तिजारत आदि।
धन कमाने में इस्लाम के ये कुछ निर्देश हैं। इनसे अनुमान होता है कि इस्लाम की नजर में अवैध चीजों की तिजारत या गलत तरीके पर की गई वैध चीजों की तिजारत या तिजारत में धोखा या भ्रम की आशंका आदि को अवैध ठहराया है। ये आर्थिक हिंसा के कुछ रूप हैं जिनको इस्लाम अवैध ठहराता है।
इस्लाम में आर्थिक हिंसा को रोकने का दूसरा पहलू धन को न्यायोचित और वैध तरीके पर खर्च करना है। इस्लाम का निर्देश है कि जो धन कोई व्यक्ति वैध तरीके से कमाता है उसे अवैध तरीके से खर्च नहीं करना चाहिए। जिस प्रकार धन कमाने में वैध सीमाओं की पाबंदी जरूरी है उसी प्रकार धन को खर्च करने में भी वैध सीमाओं की पाबंदी जरूरी है।
धन कमाने के बाद मनुष्य उसका पूरी तरह से मालिक नहीं हो जाता बल्कि वह उसके पास अमानत होती है और इस अमानत को बताए हुए तरीके के अनुसार ही खर्च करना है। धन को खर्च करने के संबंध में इस्लाम के मौलिक निर्देश इस प्रकार हैं-
फिजूलखर्ची बड़ी बुरी चीज है। यह मनुष्य को अपनी इच्छाओं और नफ्स का दास बना देती है। इसलिए कुरआन में फिजूलखर्र्ची करने वालों को शैतान का भाई बताया गया है।
फिजूलखरची का मतलब है हर उस वैध काम में अत्यधिक माल खर्च करना, जो उससे कम में भी पूरा हो सकता हो। सामान्यतः लोग भोग-विलास, दिखावा, गर्व व घमंड को व्यक्त करने और समाज में यह दिखाने के लिए फिजूलखर्ची करते हैं कि उनके पास अपार धन है। इसका सबसे बड़ा प्रदर्शन शादी-विवाह या उत्सवों के अवसर पर होता है। इनमें भारी भरकम धन लुटाने का नतीजा प्रायः उस व्यक्ति के पक्ष में भी अच्छा नहीं होता। चूंकि फिजूलखर्ची किसी प्रकार की कैद व सीमा की पाबंदी नहीं होती और जो फिजूलखर्ची कर रहा है वह हर हाल में अपनी आर्थिक हैसियत से अधिक खर्च करेगा, इसलिए कर्ज का बोझ उस पर हो जाएगा और आर्थिक दौड़धूप में बाधा पैदा होगी। फिजूलखर्र्ची द्वारा जो धन वह लुटा रहा है, उसमें निर्धनों और असहायों का भी हक है। वह इस तरह उसे नष्ट करने का भी अपराधी होगा, जिससे कमजोर और निर्धन वगरें के लिए जीवन दुर्लभ हो जाएगा।
अमीरों के धन में इस्लाम ने निर्धनों के बहुत से अधिकार निश्चित किए हैं, इनमें से एक जकात है। जकात धनवान पर इसी तरह अनिवार्य और जरूरी है जिस प्रकार नमाज का पढ़ना जरूरी है। कुरआन में कम से कम 27 स्थानों पर जकात देने का आदेश आया है और जकात न देने वालों को कड़ी यातना की धमकी सुनाई गई है। जैसे जकात का एक उद्देश्य यह है कि समाज में लोग भूखे नंगे न रहें। सभी को धन के लाभ प्राप्त हों। दूसरा उद्देश्य यह है कि जकात द्वारा धनवानों का धन निर्धनों की ओर भी परिवर्तित होता रहे और धन अमीरों व धनवानों के बीच ही सिमट कर न रह जाए। वर्तमान दौर में एक अनुमान के अनुसार नव्वे मिलियन डालर वार्षिक जकात अदा की जाती है। यदि इसका न्यायोचित विभाजन हो तो निश्चय ही निर्धनता के मारे हुए लोग दुर्दशा की हालत में नहीं रहेंगे।
निर्धन और दुर्बल लोगों को ईद की ख़ुशियों में साथ में रखने के लिए इस्लाम ने मुख्य रूप से रमजानुल मुबारक में सदक- ए-फित्रा को अनिवार्य किया है। सदक-ए-फित्रा वह रकम है जो धनवान लोग ईद से पहले निर्धनों को देते हैं। इसका भी असल उद्देश्य यह है कि समाज के निर्धन और गरीब लोग ईद की ख़ुशियों में धनवानों के साथ रह सकें।
इस्लाम ने मांगने वालों, मुसाफिरों और पड़ोसियों को भी अधिकार प्रदान किए हैं। हदीस में है कि मांगने वाला यदि घोड़े पर सवार होकर आए, तब भी उसका हक है। इसी तरह मुसाफिर की मदद करना लोगों पर अनिवार्य है और हदीस में है कि यदि किसी का पड़ोसी भूखा हो और स्वयं पेट भर कर खाए तो वह मोमिन ही नहीं।
इस्लाम के इन निर्देशों और धन के विभाजन से संबंधित उसके दृष्टिकोण का खुलासा इस प्रकार किया जा सकता है कि यद्यपि अजीविका कमाने और धन पैदा करने की आजादी सभी को समान रूप से प्राप्त है, लेकिन, विभिन्न कारणों के आधार पर समाज के समस्त लोग समान नहीं होते और उनकी मानसिक और शारीरिक शक्तियां भिन्न भिन्न होती हैं और सबके साथ हालात और संयोग भी समान नहीं होते। इसलिए यह आशा नहीं की जा सकती कि सारे लोगों की आर्थिक कोशिशों के परिणाम समान होंगे, बल्कि संभव है और अनुभव बताता है कि केवल यही संभव है कि समाज के कुछ लोग लखपति बन जाएं तो कुछ दो समय की रोटी के भी मोहताज हों। अब क्या इन मोहताजों को उनकी मोहताजी के साथ छोड़ दिया जाएगा या उनके बारे में इस्लाम के कुछ निर्देश और शिक्षाएं भी हैं, जैसा कि ऊपर उल्लेख हुआ, इस्लाम ने उन निर्धनों को असहाय नहीं छोड़ा है बल्कि उनकी आर्थिक देख रेख की जिम्मेदारी समाज के धनवानों और राज्य पर डाली है।
इस्लाम की शिक्षा है कि सृष्टि अल्लाह का परिवार है। जिस प्रकार एक व्यक्ति अपने परिवार को भूखा और नंगा नहीं देख सकता, इसी तरह अल्लाह भी यह चाहता है कि उसके परिवार में कोई भूखा और नंगा न रहे। वह स्वयं समर्थ है, हरेक को अपार धन दे सकता है, लेकिन उसने इस आर्थिक असमानता को परीक्षा का साधन बनाया है। इसमें समाज के धनवानों की परीक्षा है कि वे उसके परिवार के लिए कितने निष्ठावान हैं और कितना त्याग कर सकते हैं।
हिंसा चाहे शारीरिक हो या आर्थिक, इस्लाम इसको नापसंद करता है और उपरोक्त उल्लिखित शिक्षाएं वे हैं जिनमें बताया गया है कि इस्लाम आर्थिक हिंसा को रोकने के लिए क्या साधन अपनाता है।
- प्रो० अख्तरुल वासे
आर्यरत्ने , ए०टी० ( Ariyaratne, A.T ) : श्रीलंका के दक्षिणी प्रांत के तटीय गांव उनावतुना (ठ्ठड्ड2ड्डह्लह्वठ्ठड्ड) में ए०टी० आर्यरत्ने का जन्म 5 नवबंर 1931 ई० को एक मध्यवित्त निष्ठावान बौद्ध परिवार में हुआ था। अपने घर के पास की मंदिर पाठशाला में ही उनकी प्रारंभिक शिक्षा हुई। उसके बाद अपने गांव के स्कूल और तदनंतर महिंदा कॉलेज, गाले से अपनी माध्यमिक शिक्षा पूरी कर उन्होंने राजकीय शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालय से विज्ञान-शिक्षण का प्रशिक्षण प्राप्त किया तथा नालंदा कॉलेज, कोलंबो में पढ़ाते हुए ही श्रीलंका विद्योदय विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की। उन्हें श्रीलंका के श्री जयवर्द्धने विश्वविद्यालय द्वारा डी०लिट और फिलीपींस के एमिलिओ ए गुइनाल्डो कॉलेज द्वारा डी०एम० की उपाधि से सम्मानित किया गया।
एक नवयुवक के रूप में महिंदा कॉलेज में अध्ययन के दौरान ही आर्यरत्ने ने अपने गांव से ही सामाजिक सेवा के जीवन का प्रारंभ कर दिया था। अपने माता-पिता, अन्य बुजुर्गों तथा ग्राम-मंदिर के भिक्षुओं की प्रेरणा एवं सहायता से नवयुवा आर्यरत्ने ने जूट श्रमिकों की सहकारी संस्था का गठन किया, जिसने जूट बुनने वाली लगभग सौ महिलाओं को बिचौलियों के शोषण से मुक्त करने में सफलता प्राप्त की। यह श्रीलंका में अपने ढंग की पहली सहकारी संस्था थी। शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय में भी सोशल सर्विस लीग का गठन किया गया और प्रशिक्षु शिक्षकों के लिए सामाजिक कार्य और सामुदायिक विकास पर केंद्रित विशेष कक्षाओं का आयोजन भी किया। इन प्रशिक्षुओं की सामाजिक सेवा में पेशेवर दक्षता के अनुभव के लिए आर्यरत्ने ने पिछड़े हुए गांवों में शिविरों का भी आयोजन किया।
एक सामुदायिक नेता और संगठक के रूप में डॉ० ए०टी० आर्यरत्ने की वास्तविक संभावनाओं का परिचय तब मिला जब उन्होंने कोलंबो के प्रतिष्ठित बौद्ध शिक्षण संस्थान नालंदा कॉलेज में उच्च कक्षाओं के छात्रों के अध्यापन का काम शुरु किया। उन्होंने बहुत शीघ्र अपने सहयोगियों और छात्रों का पूरा विश्वास अर्जित कर उन्हें स्कूल को समुदाय से जोड़ने की क्रांतिकारी अहिंसक पद्धति अपनाने के लिए सहमत करते हुए तत्कालीन समाज में व्याप्त जातिगत और नस्लवादी पूर्वग्रहों को मिटाने के लिए कृतसंकल्प किया।
एक जाति-वर्ग-विभाजित समाज में यह कोई आसान काम नहीं था-खास तौर पर उन शिक्षकों के लिए जिनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे इस तरह की सामाजिक कारर्वाई द्वारा यथास्थिति को विचलित करने के बजाय छात्रों को प्रचलित सामाजिक व्यवस्था के लिए शिक्षित करेंगे। तत्कालीन शिक्षण-व्यवस्था पाठ्य पुस्तक-केंद्रित, परीक्षामुखी तथा कक्षासीमित थी। लेकिन, आर्यरत्ने को अपने शिक्षाशास्त्रियों में दृढ़ विश्वास था कि वे शिक्षा मंत्रालय को नियंत्रित करने वाली नौकरशाही के क्रोध का सामना कर सकने का सामर्थ्य रखते हैं। आर्यरत्ने छुट्टियों तथा सप्ताहांतों में सैकड़ों विद्यार्थियों और शिक्षकों को सामाजिक रूप से अत्यधिक दलित और आर्थिक रूप से अत्यधिक पिछड़े हुए ग्रामीण समुदायों में ले जाकर शिविर लगाते तथा उन ग्रामीण समुदायों की बुनियादी आवश्यकताओं को उनके अपने संसाधनों और श्रमदान से पूरा करने के लिए संगठित करते। शीघ्र ही यह श्रमदान आंदोलन पूरे श्रीलंका में एक जन-आंदोलन के रूप में विकसित हो गया, जिसमें लोगों ने स्वयं पहल करके सैंकड़ों ग्रामीण मार्गों, तालाबों, सिंचाई-नहरों, कूंओं, सामुदायिक केंद्रों, शालाभवनों और गरीबों के लिए घरों के निर्माण के साथ-साथ पुनर्वनीकरण एवं अन्य ऐसे ही कार्य किए।
स्वातंत्र्योत्तर श्रीलंका में पहली बार आर्यरत्ने और उनके साथियों ने एक ऐसे आंदोलन का आगाज किया जिसने ग्रामीण इलाकों के विकास में आत्मनिर्भरता और सामुदायिक सहभागिता को एक मुख्य कारक बना दिया। सरकार पर निर्भरता कम होने लगी, साथ ही, वे सरकार से संबंधित अपने कर्त्तव्यों और अधिकारों के प्रति भी जागरुक होने लगे। पिछले साढ़े चार सौ सालों से हावी औपनिवेशिक मानसिकता धीरे-धीरे एक प्रभावी सहभागितापरक लोकतंत्र में रुपांतरित होने लगी। इसके साथ ही, आर्यरत्ने और उनके साथियों ने बौद्ध और गांधीवादी आदर्शों से प्रेरित सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए शिक्षित करने के प्रयोजन से एक संपूर्ण सैद्धांतिक ढांचा भी तैयार किया। उन्होंने इस शिक्षा-प्रक्रिया को विकास-शिक्षा कहा और स्कूली बच्चों से लेकर विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों के सभी स्तरों के लिए अल्पावधि और दीर्घावधि पाठ्यक्रम विकसित किए। इन पाठ्यक्रमों में नेतृत्व-निर्माण के साथ-साथ विभिन्न व्यावसायिक दक्षताओं के लिए प्रशिक्षण दिया जाता था।
1959 ई० से इस आंदोलन को श्रीलंका का सर्वोदय श्रमदान आंदोलन कहा जाने लगा। 1950 ई० में अपनी भारत-यात्रा में आर्यरत्ने ने भारत के गांधीवादी आंदोलन से गहरा परिचय प्राप्त किया। वह विनोबा भावे और अनंतर जयप्रकाश नारायण और अन्य नेताओं से मिलकर बहुत प्रेरित हुए। पहली बार प्रो० जी० रामचंद्रन के एक व्याख्यान में महात्मा गांधी द्वारा गढ़े सर्वोदय शब्द को सुनकर आर्यरत्ने को लगा कि बुद्ध की शिक्षाओं का सार पूरी दुनिया के लिए है। श्रीलंका लौटने पर उन्होंने अपने आंदोलन को सर्वोदय श्रमदान आंदोलन का नाम देने का प्रस्ताव किया जिसे उनके सहयोगियों ने सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया।
श्रीलंका के निहित स्वार्थों वाले वर्ग सर्वोदय श्रमदान आंदोलन और उसके करिश्माई नेतृत्व के विरोध में थे क्योंकि जनता और विशेषतया युवा वर्ग में उसकी लोकप्रियता और समर्थन बढ़ रहा था। उन्होंने येन केन प्रकारेण आर्यरत्ने और एक अन्य वरिष्ठ अध्यापक को झूठे आरोपों के आधार पर नालंदा कॉलेज से बर्खास्त करवाने में सफलता हासिल कर ली; लेकिन, ये लोग साहसपूर्वक संघर्ष करते हुए कॉलेज के बाहर अपनी सेवाएं देते रहे। कई महीनों बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती आर०डी० बंडारनायके द्वारा करवाई गई जांच के बाद उन्हें बहाल कर दिया गया।
आर्यरत्ने को लगा कि अब उनके लिए नौकरी से त्यागपत्र देकर एक पूर्णकालिक स्वयंसेवक के रूप में काम करने की जरूरत है। यह जनवरी 1972 ई० की बात है। एक कक्षा-शिक्षण से वह अब एक सामुदायिक शिक्षक हो गए। 1972 ई० में संसद द्वारा पारित एक विधेयक द्वारा सर्वोदय श्रमदान आंदोलन को कानूनी हैसियत प्रदान कर दी गई। इस आंदोलन के प्रारंभ से लेकर आज तक आर्यरत्ने को धनी भू-स्वामियों, अहंकारी नौकरशाहों, स्वकेंद्रित राजनीतिज्ञों, अपराधियों, सरकारों, राज्याध्यक्षों आदि सबकी ओर से पैदा की गई बहुत भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। लेकिन, हिंसा या अन्य किसी भी अनुचित साधन को बिना अपनाए आर्यरत्ने आज तक इस आंदोलन को अपने सहयोगियों के साथ नेतृत्व देते रहे हैं।
श्रीलंका सर्वोदय श्रमदान आंदोलन के सिद्धांत और कार्यक्रम बहुत कुछ भारत के गांधीवादी और सर्वोदय आंदोलन के समान ही हैं। कुछ भिन्नताएं भी हैं, जो श्रीलंका की भिन्न ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं अन्य विशिष्टताओं की वजह से स्वाभाविक हैं। उदाहरणार्थ, बौद्ध संस्कारिता के कारण सर्वोदय को सभी की जाग्रति-प्रक्रिया की तरह परिभाषित किया जाता है-सर्वम् + उदयम्। यह उदयम्-प्रक्रिया संपूर्ण मानवीय व्यक्तित्व-पूर्ण पौरुषोदय, कुटुंबोदय, ग्रामोदय और ग्राम-स्वराज्य, नगरोदय, देशोदय और विश्वोदय को अपने में समाहित करती है। जाग्रति-उदय के इन छहों स्तरों के छह घटक हैं जो प्रत्येक स्तर की प्रक्रिया को संपूर्णता देते हैं। ये हैं : आध्यात्मिक, नैतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक घटक।
अत्यंत धैर्य, गहन अध्ययन और बुनियादी प्रयोगशीलता की पांच दशकों से भी अधिक अवधि में श्रीलंका सर्वोदय श्रमदान आंदोलन ने ऐसी सैद्धांतिकी और उसका व्यावहारिक रूप विकसित कर लिया है, जो एक ऐसा अहिंसक समाज रचने में समर्थ है, जिसे महात्मा गांधी की अवधारणा का सर्वोदयी समाज कहा जा सकता है। यह आंदोलन 15,000 गांवों में काम कर रहा है, जो स्वशासित ग्राम बनने के विभिन्न चरणों से गुजर रहे हैं। ग्राम-स्तर से राष्ट्रीय स्तर तक ऐसे वैधानिक निकाय बनाए गए हैं, जो विभिन्न प्रकार के विशिष्ट कार्यक्रम आयोजित करते हैं। सर्वोदय राष्ट्रीय उच्च अध्ययन संस्थान के अंतर्गत देश के विभिन्न भागों में बारह सर्वोदयी विकास शिक्षा संस्थान सक्रिय हैं।
डॉ० आर्यरत्ने ने 1960 ई० में एक स्काउट युवती से विवाह किया और तब से उनकी पत्नी भी इन सभी कामों में सहभागी रही हैं। पूरे देश में फैले इस आंदोलन की कल्याण-शाखा का सारा उत्तरदायित्व वह संभालती हैं।
- डॉ० विनय आर्यरत्ने
( हिंदी रूपांतर : नंदकिशोर आचार्य )
आल्थ्यूजियस , जोहानेस ( Althusius, Johannes ) : जर्मन विचारक जोहानेस आल्थ्यूजियस (1557-1638 ई०) को राज्य की प्रभुसत्ता की अवधारणा के उस रूप का प्रवर्त्तक माना जाता है, जिसे लोकप्रिय प्रभुसत्ता (popular sovereignty) की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। फ्रेंच राजनीतिक-सिद्धांतबार ज्यां बोदां (Jean Bodin) ने सोलहवीं शताब्दी में प्रभुसत्ता की अपनी अवधारणा में राज्य को सर्वोच्च मानते हुए भी यह प्रतिपादित किया कि प्रभुसत्ता को प्राकृतिक विधि का ध्यान रखना होगा। लेकिन, उसके लिए प्रभुसत्ता का मूल मंतव्य कानून बनाने की शक्ति से था। जोहानेस आल्थ्यूजियस ने प्रभुसत्ता को राज्य में निहित मानने के बजाय यह प्रतिपादित किया कि यद्यपि विभिन्न निकाय प्रभुसत्ता की शक्ति का अवसरानुकूल उपयोग करते हैं, लेकिन, यह मूलतः और अंततः, सर्वसाधारण में निहित होती है। इस संकल्पना को उसने लोकप्रिय प्रभुसत्ता कहा। प्रत्येक नागरिक राज्य का सदस्य है और इस नाते वह प्रभुसत्ता का भागीदार है और राज्य क्योंकि सब सदस्यों से मिलकर बनता है, अतः सभी नागरिक प्रभुसत्ता के बराबर के भागीदार हैं। शासन चलाने की सुविधा के लिए प्रतिनिधियों के माध्यम से काम किया जाता है, सत्ता और वे आम नागरिक के प्रतिनिधि के नाते प्रभुसत्ता का प्रयोग करते हैं, लेकिन उसकी वास्तविक बागडोर आम नागरिकों के हाथों में रहती है। इस दृष्टि से प्रभुसत्ता का उद्देश्य सभी के भौतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए सक्रिय होना है। उसका इस्तेमाल नागरिक आकांक्षाओं के दमन के लिए नहीं किया जा सकता।
राज्य के व्यवहार को लेकर भी आल्थ्यूजियस ने यह मौलिक प्रस्थापना दी कि वह शक्ति के आधार पर नहीं बल्कि सहकार के आधार पर चलता है। उसका मानना था कि मनुष्य का स्वभाव सौहार्द और सहयोग का है, घृणा और द्वंद्व का नहीं। यही कारण है कि वह परिवार और विभिन्न सामाजिक-राजनीतिक संगठनों का निर्माण करता है। राज्य के जन्म से पूर्व भी परिवार थे, जो आपसी साहचर्य और समुदाय बनाते थे। राज्य का आधार भी सहवर्तन (Consociation) की प्रवृत्ति है और यही प्रवृत्ति पारस्परिक आदान-प्रदान और कानून का पालन करने का आधार बनती है। सहवर्त्तन एक ऐसी प्रवृत्ति है, जिसमें सौहार्द, मैत्री तथा पारस्परिक विनिमय की भावनाएं सक्रिय रहती हैं, जो किसी भी प्रकार के संगठन के लिए अनिवार्य है। परिवार, श्रेणी (Guild) नगर, प्रांत और राज्य-ये पांचों ही राजनीतिक संगठन के रूप हैं, जो पारस्परिक स्नेह और स्वैच्छिक समझौते के आधार पर टिके होते हैं। प्रभुसत्ता राज्य का लक्षण अवश्य है, जिसका आधार उसके सभी सदस्यों की सहमति हैं; लेकिन, साथ ही, प्रत्येक संगठन कुछ आवश्यकताओं के लिए आवश्यक है और उसका आधार भी पारस्परिक सहमति ही है।
आल्थ्यूजियस ऐसे संघवाद को ही लोकतंत्र का वास्तविक रूप मानता है, जिसमें नगरों और प्रांतों को पर्याप्त स्वायत्तता प्राप्त हो। इसलिए सभी स्वायत्त नगर और प्रांत प्रभुसत्ता के बराबर के भागीदार होते हैं। इसी कारण आल्थ्यूजियस को संघवाद का पिता माना जाता है।
इस प्रकार, आल्थ्यूजियस राज्य की शक्ति को नागरिकों के पारस्परिक सौहार्द पर आधारित मानता है, इसलिए वह उससे स्वाभाविक ही यह आशा करता है कि वह नागरिकों की अपेक्षाओं का सम्मान करेगा और उनके साथ सौहार्दपूर्ण संबंध रखेगा। राज्य और नागरिक का रिश्ता बल-प्रयोग के अधिकार से नहीं, अपितु सौहार्द और मैत्री से निरुपित होता है। आल्थ्यूजियस यह भी मानता है कि इसी सौहार्द और मैत्री से प्रसूत होने की वजह से सभी प्रकार की सांस्थानिकताएं परस्पर संबंद्ध हैं और इसलिए अर्थ-व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था और राजनीतिक व्यवस्था को एक-दूसरे से काटकर नहीं देखा जा सकता। वे परस्पर संग्रथित हैं और उनकी आधारभूत भावना भी सौहार्द, साहचर्य और मैत्री की होने के कारण उनकी अभिव्यक्ति सभी नागरिकों के प्रति समान स्तर पर होनी चाहिए। राजनीतिक चिंतन के क्षेत्र में आल्थ्यूजियस को लोकप्रिय प्रभुसत्ता तथा संवैधानिक संघवाद की अवधारणाओं और इनके आधार रूप में सौहार्द और सहकार की भावनाओं को स्थापित करने वाले ऐसे चिंतक के रूप में स्वीकार किया जाता है, जिसका व्यापक और गहरा प्रभाव भावी राजनीतिक चिंतन पर पड़ा।
- नंदकिशोर आचार्य
आवद , मुबारक ( Awad, Mubarak ) : फिलिस्तीन का गांधी माने जाने वाले मुबारक आवद का जन्म 1943 ई० में यरुशलम में ईसाई परिवार में हुआ था। उन्हें अपना बचपन अनाथालय में गुजारना पड़ा क्योंकि उनके पिता ने इजरायलियों द्वारा घर खाली करने के आदेश का पालन करने से मना कर दिया था और जब वह एक घायल मित्र को सुरक्षित स्थान पर ले जा रहे थे तो उन्हें मार डाला गया। अपने बच्चों की जान बचाने के लिए मुबारक की मां ने उन्हें अनाथालय को सौंप दिया। लेकिन, मुबारक की मां बहुत धार्मिक तथा रहमदिल थी। उन्होंने सदैव अपने बच्चों को यही शिक्षा दी कि प्रतिशोध से हमेशा दूर रहो। उनकी इस शिक्षा का मुबारक सहित सभी बच्चों पर ताउम्र प्रभाव रहा।
मुबारक की शिक्षा एक अमरीकी की मदद से हुई। अपनी माता और अनाथालय के प्रभाव के कारण वह क्वेकर तथा मेनोनाइट संप्रदायों की मान्यताओं से प्रभावित रहे। 1660 ई० में क्वेकर संप्रदाय की शांति घोषणा (Peace Testimony) में कहा गया है कि क्वेकर लोग शांति, प्रेम और एकता को बढ़ाने वाली बातों का समर्थन करते हैं। कुछ समय एक धार्मिक शिक्षक के रूप में काम करने के बाद मुबारक आवद 1970 ई० में अध्ययन के लिए अमेरिका चले गए। वहां उन्होंने बाल-अपराधियों को सुधारने के लिए परामर्श की शिक्षा ग्रहण की तथा 1978 ई० में एक यूथ एडवोकेट प्रोग्राम शुरू किया। 1983 ई० में यरुशलम लौटकर फिलिस्तीन परामर्श केंद्र की स्थापना की। इस समय उन्होंने फिलिस्तीन में काबिज इजरायलियों पर पत्थर फेंककर विरोध करने वाले किशोरों की तारीफ में एक पुस्तिका चिल्ड्रेन ऑफ स्टोन लिखकर प्रकाशित की। अनंतर इस पुस्तक में वर्णित विचारों को उन्होंने खुद ही त्याग दिया। कुछ ही अर्से में मुबारक आवद को यह महसूस हो गया कि फिलिस्तीनी लोगों का मुख्य सरोकार आजादी है। आवद यह समझ रहे थे कि फिलिस्तिनियों के लिए सशस्त्र संघर्ष में सफल होना संभव नहीं है, अतः उन्होंने संघर्ष के अहिंसक तरीकों का आग्रह करना शुरू किया। इसमें क्वेकर संप्रदाय की शिक्षाओं का भी असर तो था ही, साथ ही, आवद महात्मा गांधी के विचारों और व्यक्तित्व से भी बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने कई बार भारत की यात्राएं भी कीं। अमेरिका में रहने की वजह से मार्टिन लूथर किंग के विचारों तथा आंदोलन से भी वह बहुत प्रभावित हुए। जीन शार्प की दि पालिटिक्स ऑफ नॉन-वायलेंस का भी उन पर गहरा असर पड़ा। इन सब प्रभावों के परिणामस्वरूप, मुबारक आवद ने एक लंबा निबंध लिखकर प्रकाशित किया, जिसमें अहिंसा के संघर्ष के 120 तरीकों के बारे में समझाया गया था। अपने विचारों के लिए मुबारक आवद को कई बार जेल जाना पड़ा।
1985 ई० में आवद ने अहिंसा अध्ययन के फिलिस्तीनी केंद्र की स्थापना की और अपने लेखों तथा व्याख्यानों में संघर्ष की अहिंसक तकनीकी का प्रचार किया, जिससे इजरायली कब्जे का विरोध किया जा सकता था। 1988 ई० में आवद को इजरायल से बहिष्कृत कर दिया गया, उसके बाद से वह अमेरिका में मेरीलैंड में रहते हुए अपने केंद्र का काम करते तथा अमरीकी विश्वविद्यालयों में व्याख्यान देते रहे हैं।
यह स्वीकार किया जाता है कि मुबारक आवद के विचारों का फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष पर गहरा प्रभाव पड़ा तथा उनका स्वतंत्रता आंदोलन इंतिफादा यदि अधिकांशतः-स्वयं आवद के अनुसार 85 प्रतिशत अहिंसक रहा तो उसकी वजह आवद का प्रभाव है। आवद भी महात्मा गांधी की तरह यह मानते हैं कि प्रतिपक्ष में भी अच्छाई है और हमें उस अच्छाई को जगाने की कोशिश करनी चाहिए। एक साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि वे विरोधी होने के बावजूद यहूदियों की प्रशंसा क्यों करते हैं, आवद ने उत्तर दिया कि एक सच्चा यहूदी न्याय तथा पड़ौसी की मदद में विश्वास रखता है, इसलिए वह एक अच्छा आदमी है। उन्होंने यह भी कहा कि दुनिया में दमन तथा शोषण के खिलाफ यहूदियों ने निरंतर लिखा और संघर्ष किया है। इसलिए उन्हें यह समझाया जा सकता है कि फिलिस्तिनियों के साथ भी उन्हें न्याय करना तथा उन्हें स्वतंत्र कर दिया जाना चाहिए।
मुबारक आवद गांधीजी के स्वराज की अवधारणा से प्रभावित हैं। वह भी यह मानते हैं कि सबसे अच्छी सरकार वह है जो सबसे कम शासन करती है। इंतिफादा आंदोलन का-जो एक प्रकार का सविनय अवज्ञापूर्ण असहयोग आंदोलन है-उल्लेख करते हुए आवद कहते हैं कि इस आंदोलन के दौरान लोग सभी चीजों का खयाल खुद ही रख रहे थे; सरकार जैसी कोई चीज नहीं थी।
आवद यह मानते हैं कि इजरायलियों के भौतिक कब्जे से पहले उनके मानसिक कब्जे को मिटाना जरूरी है और वह तभी मिट सकता है, जब फिलिस्तीनी लोगों के दिमाग में बैठा हुआ उनका डर मिट जाए। अहिंसक संघर्ष की प्रक्रिया इस डर को मिटा देती है। इंतिफादा के अहिंसक संघर्ष का ही यह परिणाम है कि इजरायल नियंत्रित फिलिस्तीन में इजरायली लोग अपनी बस्तियां बनाने तथा फिलिस्तीनी लोगों का जमीन पर काबिज होने में सफल नहीं हो पाए हैं। इजरायल-नियंत्रित फिलिस्तीन में ये अहिंसक संघर्ष जारी है। आवद फिलिस्तीन मुक्ति संगठन-पीएलओ-की इस बात से भी सहमत नहीं है कि इजरायल का निर्माण अवैध है। वह यह मानते हैं कि यहूदियों को भी अपने राष्ट्र निर्माण का उतना ही अधिकार है, जितना फिलिस्तिनियों को। इसलिए वह दो राष्ट्र दो राज्य (Two people two states)) की बात करते हैं।
यह उल्लेखनीय है कि ईसाई होते हुए भी मुबारक आवद सभी धर्मों का आदर करते हैं। इजरायल के खिलाफ संघर्ष करते हुए भी वह यहूदी धर्म की प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार इस्लाम के बारे में पूछे जाने पर उनका उत्तर था कि ईसाइयत तथा यहूदी धर्म-या अन्य धर्मों-की तरह इस्लाम का उद्देश्य शांतिपूर्ण जीवन बिताने में लोगों की मदद करना है और उसे लेकर व्याप्त गलत फहमी का कारण यह है कि इस्लाम का अध्ययन सावधानीपूर्वक नहीं किया गया है। गलत लोग तो किसी भी धर्म में हो सकते और हुए हैं; पर उसके लिए धर्म को जिम्मेदार नहीं माना जा सकता-धार्मिक संगठनों के अनुकरण को धार्मिकता नहीं माना जा सकता।
अमेरिका में रहते हुए मुबारक आवद अपने संगठन नॉन-वायलेंस इंटरनेशनल के माध्यम से समूची दुनिया में अहिंसक प्रतिरोध और मानवाधिकारों के लिए सक्रिय रहते हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
इतिहास-प्रसूत अहिंसा : इतिहास केवल घटनाओं का विवरण नहीं है, और न वह मात्र महापुरुषों की जीवन गाथा है, यद्यपि इतिहास पर उनका गहरा प्रभाव रहा है। इतिहास मानव-विकास-उसके बहुआयामी विकास-का अध्ययन है और इस नाते वह यह जानने की कोशिश करता है कि इस विकास की प्रक्रिया और दिशा क्या है अर्थात् वह मानव-विकास के नियमों और उनकी सफलताओं-असफलताओं के कारणों और परिस्थितियों के विश्लेषणात्मक अध्ययन के माध्यम से मानव-भविष्य की भी विवेकसम्मत संकल्पना कर सकता है।
क्या अहिंसा इतिहासम्मत मूल्य है? यदि ऐसा नहीं है तो वह केवल यूटोपिया रहती है। इसे दो तरह से समझा जा सकता है। एक तो यह कि मनुष्य का विकास हिंसा के माध्यम से हुआ है या अहिंसा के माध्यम से और दूसरे यह कि इतिहास के अनुभव के आधार पर हम कैसा व्यक्ति और समाज चाहते हैं। जब हम अनुभव के आधार पर कोई आकांक्षा करते हैं, तो वह वायवीय नहीं रहती क्योंकि स्वयं मानव-इतिहास की प्रयोगशाला उसकी पुष्टि करती है। इतिहास मानव-जाति की प्रयोगशाला है, जिसमें भूलें और असफलताएं भी होती हैं, जो भावी प्रयोगों का आधार बनती हैं।
सामान्यतः, इतिहास साम्राज्य-निर्माणों और युद्धों तथा उनके कारणों-प्रभावों का वर्णन विश्लेषण करता रहा है। लेकिन, पिछली दो शताब्दियों में यह समझा जाने लगा है कि साम्राज्य-निर्माण और युद्ध-यद्यपि वे भी मनुष्य को प्रभावित करते हैं-मनुष्य की विकास-प्रक्रिया का न तो नियम है, न लक्ष्य। यह समझ लिया गया है कि उनसे इस विकास-यात्रा में बाधा या भटकाव ही आता है। दरअस्ल, यह इस पर भी निर्भर करता है कि विकास से हमारा तात्पर्य क्या है। यदि हम विकास का तात्पर्य संपूर्ण मनुष्य जाति का सांस्कृतिक-नैतिक विकास मानते हैं-चाहे उसका आधार आर्थिक प्रक्रिया भी रहती हो-तो युद्धों और साम्राज्य के निर्माण के प्रयत्नों को हम इसमें बाधा ही पाते हैं। तब हमें हिंसा को इतिहास के नियम की तरह नहीं, बल्कि उसके उल्लंघन के रूप में देखना होगा और उस उल्लंघन के मानव-समाज पर पड़ने वाले अस्वस्थ प्रभावों को भी समझना होगा-जैसे हम स्वास्थ्य के नियम में उल्लंघन का परिणाम व्यक्ति के स्वास्थ्य के लिए घातक मानते हैं, उसी तरह हिंसा द्वारा इतिहास के नियम का उल्लंघन अस्वस्थ समाज का निर्माण करता है, इसी दृष्टि से इतिहास को भी समझना होगा। यदि एक की संपन्नता किसी अन्य के शोषण-दमन या छल-फरेब पर आधारित है तो उसे स्वस्थ संपन्नता नहीं कहा जा सकता-यह व्यक्ति के लिए भी सच है और राष्ट्रों या सभ्यताओं के लिए भी। इस दृष्टि से देखा जाए तो हिंसक प्रक्रियाओं के माध्यम से हुए विकास को हम वास्तविक अर्थों में विकास नहीं कह सकते। यह इतिहास के हमारे अध्ययन का ही परिणाम है कि आज विश्व-जनमत हिंसा के स्थूल रूप युद्ध तथा उसके सूक्ष्म रूपों-किसी भी प्रकार के शोषण, दमन और उत्पीड़न को अनैतिक, अवांछनीय और मानव के अस्तित्व और विकास के लिए बाधक मानता है। स्पष्ट है कि इतिहास की प्रयोगशाला ने हिंसक प्रयोगों की असफलता को स्वीकार कर लिया है। यही कारण है कि हिंसा के रास्ते का अनुकरण करने वाले भी अपनी हिंसा को रक्षात्मक या विवशता बताने की कोशिश करते और मूल्य स्तर पर अहिंसा की वांछनीयता को स्वीकार करते हैं-चाहे दिखावे के लिए ही सही। कोई हिंसा को इसलिए उचित नहीं बताता कि वह हिंसा करने में सक्षम है, इसलिए उसे हिंसा करने का अधिकार है। अब कोई भी वीरभोग्या वसुंधरा अर्थात् जिसकी लाठी उसकी भैंस के नियम के औचित्य को स्वीकार नहीं करता। यह सब कम-से-कम भावना और विचार के स्तर पर इतिहास के हिंसक प्रयोगों की असफलता का स्वीकार है। हिंसक क्रांति में विश्वास करने वाले भी अपना लक्ष्य, अंततः, एक अहिंसक समाज की स्थापना ही मानते हैं, जिसका तात्पर्य है कि मूल्य रूप में तो वे भी अहिंसा को ही स्वीकार करते हैं-यह न समझते हुए कि जिसे वे मूल्य मानकर सिद्ध करना चाहते हैं, अपनी प्रक्रिया में वे उसे ही खारिज कर देते हैं।
इसका तात्पर्य यही है कि इतिहास अर्थात् मानव-विकास या मानवीय चेतना के विकास की दिशा अहिंसा की ओर उन्मुख है-अहिंसा ही इतिहास-सम्मत मूल्य है। अगर वैश्विक स्तर पर मानवाधिकारों को स्वीकृति मिली है-चाहे सैद्धांतिक स्तर पर ही सही-और सभी राष्ट्रों ने अपने को उनसे प्रतिबद्ध किया है तो यह इतिहास में अहिंसा की सैद्धांतिक स्वीकृति का तो प्रमाण है ही। यह नहीं कि हम हिंसामुक्त हो गए हैं, लेकिन विश्व समाज के स्वास्थ्य के नियम के रूप में तो अहिंसा ही स्वीकार हुई है।
यही कारण है कि बहुत से विचारक अहिंसा को केवल आदर्श नहीं बल्कि इतिहास के नियम के रूप में स्वीकार करते हैं। महात्मा गांधी कहते हैं : अगर दुनिया की कथा लड़ाई से शुरू हुई होती, तो आज एक भी आदमी जिंदा न रहता......दुनिया लड़ाई के हंगामों के बावजूद टिकी हुई है। इसलिए लड़ाई के बल के बजाय दूसरा ही बल उसका आधार है। हजारों बल्कि लाखों लोग प्रेम के बल रहकर अपना जीवन बसर करते हैं। करोड़ों कुटुंबों का क्लेश प्रेम की भावना में समा जाता है, डूब जाता है। सैंकड़ों राष्ट्र मेलजोल से रह रहे हैं, इसको हिस्टरी नोट नहीं करती, हिस्टरी कर भी नहीं सकती। जब इस दया की, प्रेम की और सत्य की धारा रूकती है, टूटती है, तभी इतिहास में वह लिखा जाता है। महात्मा गांधी को आध्यात्मिक विचारक माना जाता है। लेकिन, पूर्णतया भौतिकवादी विचारक एम०एन० राय भी यही बात कहते हैं-वह प्रेम या मेलजोल के स्थान पर सहकार शब्द का प्रयोग करते हैं : यह सही है कि मनुष्य का प्राथमिक सरोकार उसका अपना अस्तित्व है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उसकी स्वार्थवृत्ति अपना ही अतिक्रमण करने के सामर्थ्य को उपजाती है। वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत इस तथ्य की अनदेखी करता है कि सहकार सदैव ही एक दृढ़तर सामाजिक कारक रहा है। अन्यथा, सभ्यता के प्रारंभ में ही समाज टुकड़े-टुकड़े हो जाता। डॉ० राममनोहर लोहिया स्वतंत्रता और समता को इतिहास की प्रेरक प्रवृत्तियां मानते हैं, जो अंततः विश्व बंधुत्व में पर्यवसित होती है-वसुधैव कुटुंब-कम्-और ये सब अहिंसा की ही इतिहाससम्मत व्यावहारिक व्याप्तियां हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
इलिच, इवान : इवान इलिच (1926-2002 ई०) उन क्रांतिकारी विचारकों में अग्रणी हैं जो यह मानते हैं कि आधुनिक सामाजिक-राजनैतिक संस्थाएं, चाहे भिन्न राजनैतिक विचारधारा से प्रेरित समाजों में उनके घोषित उद्देश्य और औपचारिक संगठन एक-दूसरे से बिलकुल भिन्न और कभी-कभी विरोधी भी लगते हों, व्यक्ति के विकास के बजाय उसका विमानवीकरण करती जा रही हैं, और अब उनमें सुधार की कोई संभावना नहीं बची है, इसलिए उन्हें जड़ से नष्ट कर देना ही व्यक्ति के स्वतंत्र विकास की, और इसलिए समाज के विकास की भी, एक मात्र गारंटी हो सकती है। इसलिए इलिच जब वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था पर आक्रमण करते हैं तो वह आक्रमण पूरी समाज-व्यवस्था पर होता है, क्योंकि शिक्षा न केवल उसका एक अनिवार्य अंग है, बल्कि उसी के माध्यम से वर्तमान समाज-व्यवस्था अपने को बनाए रखने की साजिश करती है। इस प्रकार शिक्षा व्यक्ति और समाज के विकास का नहीं बल्कि यथास्थितिवाद का माध्यम हो जाती है। अपनी बहुचर्चित पुस्तक डिस्कूलिंग सोसाइटी के बाद इलिच ने आधुनिक चिकित्सा और उद्योग-व्यवस्था पर भी तेज आक्रमण किया है। इलिच का आक्रमण अधिकांशतः वैध लगता है यद्यपि उनके पास कोई स्पष्ट विकल्प नहीं है-शायद उनका विश्वास है कि वर्तमान व्यवस्था के ढांचे के टूट जाने पर स्वतः ही कोई-न-कोई विकल्प विकसित हो सकेगा। अतः, सबसे पहली आवश्यकता है उन संस्थाओं को नष्ट करना जो यथास्थिति की पोषक और समर्थक हैं। अपनी इस धारणा में इलिच उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी शून्यवादियों के आस-पास पहुंच जाते हैं। शिक्षा उनके आक्रमण का पहला निशाना होती है तो इसीलिए कि उसके माध्यम से समाज के भावी स्वरूप को भी वर्तमान से जकड़ दिया जाता है। डिस्कूलिंग सोसाइटी की इस बात के लिए तो प्रशंसा की गई कि उसमें वर्तमान शिक्षा-व्यवस्था के दोषों को बड़ी स्पष्टता से उजागर किया गया है, लेकिन साथ ही यह भी कहा गया है कि इलिच कोई ठोस विकल्प प्रस्तुत नहीं करते। अतः इलिच ने एक लंबा निबंध लिखा : आफ्टर डिस्कूलिंग व्हाट? जिसमें उन्होंने शिक्षा की स्कूली प्रक्रिया को समाप्त कर उसके वैयक्तिकीकरण पर बल दिया और इसकी व्यवस्था के लिए भी कुछ संकेत दिए। इस निबंध पर बहुत से प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्रियों ने अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं और उनसे भी यही लगा कि शिक्षा जगत् इलिच की आलोचना दृष्टि से तो सहमत है पर उनके सुझावों को स्वीकार्य नहीं मानता।
इलिच की मान्यता है कि अन्य संस्थाओं की तरह आधुनिक स्कूली शिक्षा-व्यवस्था भी औद्योगिक समाज का ही एक प्रतिफलन है। उद्योगीकरण की प्रक्रिया ने जिस प्रकार प्रत्येक वस्तु को एक उद्योग बना दिया है उसी प्रकार शिक्षा को भी; और इसलिए ज्ञान भी एक जिंस-एक कमोडिटी-हो गया है। ज्ञान के आदान-प्रदान की प्रणाली बिलकुल यांत्रिक है और उसका परिणाम बिलकुल औद्योगिक। सीखना एक मानवीय और वैयक्तिक कर्म न रहकर एक यांत्रिक प्रक्रिया हो गया है। इसलिए, अधिकांशतः यह समझा जाता है कि कुछ नई और अधिक कुशल संस्था बनाकर ज्ञानरूपी जिंस के उत्पादन खपत को अधिक व्यापक बनाया जा सकता है। उद्योग जिस प्रकार उत्पादन के साथ-साथ उपभोक्ताओं की वृद्धि पर निर्भर करते हैं, उसी प्रकार शिक्षा भी एक जिंस हो जाने पर अपने उपभोक्ताओं की संख्या पर निर्भर करती है, इस पर नहीं कि वह क्या दे रही है-बिना इस पर विचार किए कि वह जो दे रही है उससे कहीं उपभोक्तताओं की सीखने की सहजवृत्ति ही तो दमित नहीं हो जा रही! इसमें कोई संदेह नहीं कि स्कूली प्रक्रिया-यदि हम अनिवार्य उपस्थिति और प्रमाण-पत्र वितरण को उसमें से निकाल दें तब भी-इस बात की कतई चिंता नहीं करती कि शिक्षार्थी क्या और कैसे सीखना चाहता है। शिक्षार्थी की अपनी आवश्यकताओं के लिए कोई संवेदना उसमें नहीं है। इसी से स्पष्ट है कि शिक्षा का लक्ष्य शिक्षार्थी के स्वभाव और व्यक्तित्व के अनुकूल उसके विकास में सहायक होना नहीं, बल्कि उसे एक विशाल औद्योगिक समाज-तंत्र का एक पुर्जा बना देना हो गया है। इलिच का कहना है कि इसी कारण ज्ञान को भी इतना अधिक जटिल बना दिया गया है कि वह धीरे-धीेरे एक विशिष्ट वर्ग की संपत्ति होता जा रहा है। सामान्य व्यक्ति इस जटिलता और विशेषज्ञता तथा उसकी समर्थक व्यवस्था के सम्मुख स्वयं को तुच्छ और असहाय महसूस करने लगता है और विडंबना यह है कि इस प्रक्रिया में से गुजरने पर वह उन सब बातों को मानने के लिए विवश होता जाता है, जिन्हें वह ठीक से तो क्या सतही स्तर पर भी नहीं समझ पाता। यदि शिक्षार्थी में किसी चीज को बिना समझे ही मान लेने की प्रवृत्ति विकसित होने लगे तो इसे शिक्षा की सार्थकता कहा जाए या असफलता?
इस अबौद्धिक प्रवृत्ति के विकसित होने का दोष किसी तरह के पाठ्यक्रम का नहीं है-इसलिए पाठ्यक्रम को सुधार या बदल कर शिक्षा में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं लाया जा सकता और शायद इसी कारण साम्यवादी और लोकतांत्रिक दोनों ही प्रकार के समाजों में पाठ्यक्रम के आधारभूत अंतर के बावजूद यही अबौद्धिक प्रवृत्ति विकसित हो जाती है। इसका दोष स्कूली प्रक्रिया का है, जो दोनों ही प्रकारों के समाजों की शिक्षा-व्यवस्था का केंद्रीय आधार है। इलिच इस स्कूली प्रक्रिया को ही एक गुप्त पाठ्यक्रम की संज्ञा देते हैं, जिसमें से गुजरने पर शिक्षार्थी अपने निर्णय पर विश्वास नहीं करता बल्कि शिक्षक के निर्णय को मान लेने को अभिशप्त हो जाता है, चाहे वह उससे असंतुष्ट ही बना रहे-क्योंकि वह यह भी तो महसूस करने लगता है कि वह वास्तविकता को नहीं बदल सकता। यह प्रक्रिया शिक्षार्थी को शिक्षा से काट देती है और उसी प्रकार अजनबी बना देती है, जिस प्रकार वर्तमान औद्योगिक प्रणाली कारीगर को मजदूर बनाकर पूरी उत्पादन प्रक्रिया के प्रति उसमें एक अलगाव का भाव विकसित कर देती है। औद्योगिक समाज में ज्ञान भी एक पूंजी हो जाता है और विशेषज्ञों, सामान्य शिक्षितों तथा कम शिक्षितों या अशिक्षितों के बीच उसी प्रकार के वर्ग बन जाते हें जो समाज में पूंजी के आधार पर बनते हैं और मानव को मुक्त करने का दावा करने वाली विद्या उसके बंधन, शोषण और दमन का एक माध्यम हो जाती है।
इलिच समझते हैं कि इस स्थिति में छोटे-मोटे सुधारों द्वारा कोई परिवर्तन नहीं लाया जा सकता। स्थिति में बुनियादी परिवर्तन तभी हो सकता है, जब उस स्थिति को बनाए रखने वाली प्रक्रिया में बुनियादी परिवर्तन हो। स्कूली प्रक्रिया के होते हुए ज्ञान को और उसे प्राप्त करने वाले व्यक्ति और समाज को विमानवीकरण से नहीं बचाया जा सकता। इसलिए स्कूली प्रक्रिया का नष्ट होना आवश्यक है और उतना ही आवश्यक है उस व्यवस्था का नष्ट होना जो इस स्कूली प्रक्रिया का कारण और आधार है। लेकिन, क्योंकि स्कूली प्रक्रिया भी उस व्यवस्था को बनाए रखने की प्रकिया है, अतः उसको नष्ट करने से शुरू करने पर हम अपने आखिरी लक्ष्य तक पहुंच सकते हैं, इसलिए आवश्यक है कि शिक्षा का विस्कूलीकरण किया जाए।
लेकिन तब शिक्षा की नई प्रक्रिया क्या होगी? स्कूलीकरण का विकल्प क्या है? इलिच ने विकल्प प्रस्तुत करने की भी कुछ कोशिश की है, यद्यपि अधिकांश शिक्षा-शास्त्रियों की राय में यह कोशिश कोई ठोस शक्ल नहीं ले पाती। उनकी राय में स्कूल को समाप्त करने का तात्पर्य है शिक्षा की स्वतंत्रता की गारंटी। शिक्षार्थी का यह अधिकार है कि वह अपनी पसंद और अपने तरीके से शिक्षा ग्रहण करे-बल्कि समाज का इसमें कोई हस्तक्षेप न हो कि वह कैसी शिक्षा ग्रहण कर रहा है और उसे उससे क्या लाभ होगा। शिक्षा में भी वैयक्तिकता और प्राइवेसी की सुरक्षा होनी चाहिए। शिक्षक और शिक्षार्थी दोनों को ही उन परिणामों की जिम्मेदारी लेनी होगी जो उनकी आपसी पसंद की शिक्षा प्रक्रिया से उपजते हैं। लेकिन इसके लिए जरूरी होगा कि तथ्यों, उपकरणों और शिक्षक तक शिक्षार्थी की सीधी पहुंच हो। किसी भी प्रकार के ज्ञान का श्रेष्ठ शिक्षक वही हो सकता है जो उसी कर्म में लगा हो-वर्तमान शिक्षा-प्रणाली में इस तरह के लोगों के बजाय शिक्षक का पेशा करने वाले लोग ही महत्त्वपूर्ण हैं, उन्हीं के द्वारा दी गई शिक्षा प्रामाणिक है और वह अन्य किसी भी प्रकार की प्रामाणिक शिक्षा को समाज में अवैध करार देती है। स्कूल रहित समाज में यह जरूरी होगा कि व्यावहारिक स्तर पर कार्यरत लोगों के लिए भी कुछ लाभकारी प्रेरणास्रोत हों ताकि वे भी अपने ज्ञान में दूसरों की भागीदारी के लिए उत्सुक हों।
ज्ञान को अधिकाधिक लोगों तक पहुंचाना भी तभी संभव हो सकता है जब उसकी जटिलता और विशेषीकरण की प्रवृत्ति को हर संभव सीमा तक न्यूनतम किया जाए। विज्ञान के लाभों को सब तक पहुंचाने और वैज्ञानिक ज्ञान तक सब की पहुंच संभव करने के लिए एक ऐसी टेक्नॉलोजी का विकास भी आवश्यक है जिसके उपकरण अधिकाधिक लोगों द्वारा आत्म-निर्भरता के साथ इस्तेमाल किए जा सकें। इन शैक्षिक आवश्यकताओं के कारण इलिच वर्तमान उत्पादन प्रणाली के स्थान पर एक ऐसी उत्तर-औद्योगिक उत्पादन प्रणाली की मांग करते हैं जो श्रम-आधारित उपकरणों पर आधारित हों और वे भी इतने जटिल न हों कि उनकी मरम्मत के लिए भी विशेषज्ञों की आवश्यकता पड़ने लगे। इलिच की मान्यता है कि उपलब्ध तकनीकी ज्ञान के आधार पर इस तरह के उपकरण बनाए जा सकते हैं-यह विज्ञान पर नहीं, उसका इस्तेमाल करने वाली दृष्टि पर निर्भर करता है। अपनी पुस्तक डिस्कूलिंग सोसाइटी में भी इलिच ने स्कूल रहित शिक्षा-प्रक्रिया के विकल्प के रूप में चार तरह की प्रक्रियाओं का सुझाव दिया था जो शिक्षक के बजाय शिक्षार्थी पर आश्रित कही जा सकती है : (1) शैक्षणिक उद्देश्यों के लिए संदर्भ सेवाएं, जो औपचारिक शिक्षा के लिए उपयुक्त चीजों और प्रतिक्रियाओं तक पहुंच को आसान करती हों; (2) दक्षता का आदान-प्रदान, जिसमें कोई भी व्यक्ति अपनी दक्षताओं की सूची अपनी शर्तों के साथ प्रकाशित कर सकता है; (3) एक ऐसी संचार-व्यवस्था का विकास, जिसमें प्रत्येक शिक्षार्थी अपनी शैक्षिक गतिविधि का विवरण दे सकता हो, ताकि वह अपने लिए योग्य साथी चुनाव कर सके; तथा (4) शिक्षकों की एक ऐसी व्यापक संदर्भ-सेवा का विकास, जो सभी शिक्षकों की दक्षता, प्रक्रिया और शर्तों से दूसरों को परिचित करवाकर उन तक शिक्षार्थी की पहुंच संभव कर सके।
इलिच के इन प्रस्तावों पर जिन शिक्षा-शास्त्रियों ने विचार किया उनमें रोनाल्ड ग्रॉस, आर्थर पर्ल, जेडसन जीरोम, नील पोस्टमैन और हरबर्ट जिंटिस जैसे शिक्षाशास्त्री सम्मिलित हुए। लेकिन यह मानते हुए भी कि स्कूली प्रक्रिया की इलिचीय आलोचना न केवल गंभीर और पैनी है, बल्कि इस प्रक्रिया के सारे दोषों को उनके पूरे व्यापक परिणामों के साथ उजागर करती है, ये शिक्षाशास्त्री उसके द्वारा सुझाए गए हल और विकल्प को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हो सके।
- नंदकिशोर आचार्य
इस्लाम में हिंसा : हिंसा मानव प्रकृति का गुण नहीं है। मनुष्य की प्रकृति नर्मी और विनम्रता को पसंद करती है। लेकिन किसी भी जीवन व्यवस्था को छोटे या बड़े पैमाने पर सही प्राकृतिक बुनियादों पर कायम रखने के लिए वैकल्पिक चयन के तौर पर ही सही हिंसा (सकारात्मक) का इस्तेमाल एक अपरिहार्य बात है। इससे पलायन की किसी भी सूरत में यह व्यवस्था अपने समग्र ढांचे के साथ शेष नहीं रह सकती और इसके वांछित नतीजे नहीं निकल सकते। यही कारण है कि दुनिया का कोई भी लोकप्रिय धार्मिक या राजनीतिक दृष्टिकोण (सकारात्मक) हिंसा के वजूद से खाली नहीं है। दुनिया के समस्त देशों के कानूनों का एक हिस्सा दंड-विधान की धाराओं पर आधारित होता है और दंड-विधान की अधिकांश शक्लों में (सकारात्मक) हिंसा शामिल होती है और वह उन अपराधों के लिए अवरोध का काम करती है जो सामाजिक शांति को विनष्ट करने वाले और अहिंसा के उसूलों को रौंदने वाले होते हैं।
वैचारिक और व्यावहारिक स्तर पर इस्लाम में बेजा (और नकारात्मक) हिंसा के जो दृष्टांत नजर आते हैं उसके कारण दो हैं और उनको उन्हीं के परिपेक्ष्य में देखने की कोशिश करनी चाहिए। पहला कारण मुसलमानों का अपना स्वयं का गढ़ा हुआ और इस्लाम की शिक्षाओं से भटका हुआ अमल है, जिसका इस्लाम से कोई लेना देना नहीं।
इस्लाम के सिद्धांतों की रोशनी में मुसलमानों के अमल को देखने और परखने की कोशिश करनी चाहिए, न कि मुसलमानों के अपने चरित्र एवं कर्म की रोशनी में इस्लामी सिद्धांतों को। इस्लाम के विरुद्ध लोगों की जो धारणा बनी है, उसका कारण इस तथ्य में फर्क न करना है। दूसरा कारण इस्लाम की तीसरी सदी में व्यावहारिक इज्तिहाद पर रोक की वजह से इस्लाम के प्रेरक फिक्ही व कानूनी दृष्टिकोणों का जड़ता व शिथिलता का शिकार हो जाना है। इस संबंध में इस्लाम के दंड-विधान कानूनों और अंतर्राष्ट्रीय कानूनों को बड़ा भारी निशाना बनाया गया है।
जहां तक इस्लाम के दंड-विधान कानून का सवाल है, उससे संबंधित जिन तथ्यों की अवहेलना कर दी जाती है उनमें से एक यह है कि कानून दया की बजाए न्याय की धारणा पर आधारित है, अर्थात असल चीज न्याय की प्राप्ति है। क्षमा व दया निःसंदेह एक महत्वपूर्ण नैतिक मूल्य हैं, लेकिन न्याय के साथ टकराव में निश्चय ही वरीयता न्याय को दी जाएगी, दया को नहीं। दो पक्षों के बीच अत्याचार व हिंसा के अधिकांश मामलों में एक पक्ष पर दया व सहानुभूति दूसरे पक्ष पर अत्याचार के समान होती है। ऐसी सूरत में इस्लाम अत्याचारी से बराबर का बदला लेने का हक प्रदान करता है, लेकिन वह पीड़ित को इस बात की नसीहत करता और उसे प्रोत्साहित करता है कि यदि वह अत्याचारी को क्षमा कर दे तो उसे अल्लाह की ओर से उसका उत्तम प्रतिफल प्रदान किया जाएगा। (16:126) दूसरे यह कि ये सजाएं ऐसी इस्लामी रियासत के लिए हैं जहां नागरिकों के अधिकारों की पूरी रक्षा होती हो। राज्य अपराधों की वास्तविक बुनियादों को समाप्त करने के लिए पूरी तरह प्रयासरत हो। इसी तरह यह पहलू भी नजर में रहना चाहिए कि इन सजाओं को लागू करने में अपराधी के मनोवैज्ञानिक, आर्थिक और अन्य आवश्यक स्थितियों का भी ध्यान रखा जाएगा। रसूल ने कुछ मामलों में सिर्फ तौबा के आधार पर अपराधी को क्षमा कर दिया। कुछ मामलों में सजा को लागू करते समय अपराधी के भाग जाने के प्रयास के दौरान न भाग जाने देने पर दुख व्यक्त किया और कहा कि इसे छोड़ देना चाहिए था। हजरत उमर रजि० ने हजरत अली रजि० के सुझाव पर एक चोर को इसलिए सजा नहीं दी कि उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। इस प्रकार इस्लामी क्षमा में बहुत अधिक लचक है। आम हालात में इसके लागू करने की नौबत ही नहीं आती।
हिंसा के हवाले से आज कल सबसे अधिक इस्लाम का राजनीतिक दृष्टिकोण चर्चा का विषय बना हुआ है जो मूल रूप से एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था से बहस करता है, जिसकी रूपरेखा कुरआन व सुन्नत से ली गईं हो और वह इस्लामी शरीअत की अवधारणा पर आधारित हो।
इस्लाम ने आंतरिक स्तर पर मुसलमानों के सामाजिक व राजनीतिक सुधार और बाहरी स्तर पर इस्लाम के राजनीतिक प्रभुत्व दोनों के लिए अपने मानने वालों को हिंसा के इस्तेमाल से रोक दिया है। समाज में सुधार का केवल एक ही तरीका अहिंसा पर आधारित मौखिक नसीहत और समझाने-बुझाने का तरीका है। इस्लामी फिक्ह में यह बात लगभग निर्विवाद है कि एक स्थापित हुकूमत के विरुद्ध किसी भी सूरत में तलवार नहीं उठायी जाएगी।
हदीस की प्रसिद्ध पुस्तक सहीह मुस्लिम के व्याख्याकार अल्लामा नौवी ने इस पर उलमा की आम सहमति का उल्लेख किया है क्योंकि यह बात लगभग निश्चित है कि इस स्थिति में सत्ताधारियों के दमन व अत्याचार का जन-सामान्य को शिकार बनना पड़ेगा, जिसकी स्पष्ट मिसालें इस्लाम की पहली सदी में मिल जाती हैं। इस दृष्टिकोण की पुष्टि में पैगंबरे इस्लाम की वे हदीसें हैं जिनमें सख्ती से तलवार उठाने से मना किया गया है और इसकी अनुमति उस समय तक नहीं दी गयी है जब तक कि इस्लाम के मूल आदेशों और फराइज पर अमल करने की आजादी हासिल हो।
पैगंबरे इस्लाम ने फरमाया कि सर्वश्रेष्ठ जिहाद जालिम हुकूमत के सामने हक बात कहना है (तिर्मिजी) इस हिसाब से ऐसी जालिम मुस्लिम हुकूमतों से जिहाद करने का मतलब यह होगा कि उन्हें जबानी स्तर पर नसीहत की जाए व समझाया-बुझाया जाए। सत्ता की जंग और राजनीतिक तनाव व लूट के अवसर पर, जिसे हदीस में फितना की संज्ञा दी गई है, आपने हजरत अबूजर रजि० को नसीहत की कि वे सब्र करें, घर में खामोश बैठे रहें, यहां तक कि यदि उनके घर पर विरोधी और अतिवादी हमला भी कर दें तो उनका व्यवहार यह होना चाहिए कि वे तलवार की चमक के आगे अपने चेहरे को छुपा लें। इस स्थिति में वह आक्रमणकारी अपना और उनका (हजरत अबूजर का) दोनों का गुनाह अपने सर पर उठाने वाला होगा।
आंतरिक सुधार के संदर्भ में कुछ उपदेश जिनमें शक्ति के इस्तेमाल की अनुमति दी गई है या उसकी पुष्टि की गई है, वे भी ऐसी शतरें से जुड़े हैं जिनका ध्यान रखे बिना अमल करना इस्लामी मंशा के विरुद्ध है। इन उपदेशों में सबसे महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध उपदेश यह है-तुम में से यदि कोई गलत और गुनाह की बात (बुराई) देखे तो वह उसे हाथ से हटा दे, यदि उसकी ताकत न हो तो जबान से उसे बुरा कहे और इसकी भी ताकत न हो तो दिल से उसे बुरा जाने और यह ईमान का सबसे कमजोर दर्जा है। विश्वसनीय उलेमा की इस बारे में दो राय हैं। एक यह कि उसके संबोधित लोग और शासन दोनों हैं और दूसरे यह कि उसके संबोधित भी मूल रूप से शासन के लोग ही हैं। वास्तव में इस दूसरी राय को प्रमुखता हासिल है।
ऐसे उलेमा ने हदीस में यद (हाथ) के शब्द से अथारिटी तात्पर्य लिया है, अलबत्ता इमाम गजाली और उनके उस्ताद इमाम अल हरमैन आदि की इस बारे में यह राय है कि यदि इसके नतीजे में टकराव और रक्तपात की नौबत न आए तो जरूरत की शर्त के साथ जन सामान्य को कबीरा (बड़े) गुनाह करने से रोकने की अनुमति है।
फिर इस बुराई के विकार की भी विभिन्न शक्लें हैं। अल्लामा इब्ने कय्यिम ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में इसकी चार शक्लें बतायीं हैं। वे लिखते हैं-बुराई का इनकार (किसी बात को नाजायज मानते हुए उससे रोकने) के चार दर्जे हैं।
(1) बुराई को दूर करने की शक्ल में वह बुराई दूर हो जाए और इसके विपरीत (अर्थात भलाई) उसकी जगह ले ले।
(2) बुराई कम हो जाए यद्यपि पूरी तरह समाप्त न हो।
(3) इसी प्रकार की दूसरी बुराई पैदा हो जाए।
(4) जिस बुराई को दूर करने की कोशिश की जा रही है उससे बड़ी बुराई पैदा हो जाए। पहले दो दर्जे जायज हैं। तीसरे में इज्तिहाद यानी विवेकपूर्ण तर्कसंगत निर्णय की जरूरत है और चौथा हराम है।
वर्तमान दौर में इंकलाबी अतिवादी मुस्लिम आंदोलनों की ओर से इस हदीस के ताल्लुक से इस बिंदु की अवहेलना कर दी गई है। नतीजे में बुराई को दूर करने की कोशिश में अधिक बड़ी बुराई सामने आ गई और दोनों ओर से हिंसा की लहर चल पड़ी और इसमें मुसलमानों की अपनी जान व माल की तबाही सामने आई। इस संबंध में मिस्र, अल जजाइर और पाकिस्तान के उदाहरणों को सामने रख कर देखा जा सकता है कि वहां किस तरह इस्लामी आंदोलनों के लिए दावत और समाज-सुधार के रास्ते तंग हो गए।
जहां तक बाहरी सुधार या दूसरी जातियों के साथ संबंधों में हिंसा का मामला है, इस बारे में इस्लाम का जिहाद का दृष्टिकोण सामने आता है। आज इस्लाम पर हिंसा के जो आरोप लगाए जा रहे हैं उसके पीछे मूल रूप से इस्लाम के जिहाद के दृष्टिकोण को न समझ पाना एक कारण है और इस नासमझी में मुसलमान भी बराबर के शरीक हैं। इस्लाम में जिहाद की अनुमति दो उद्देश्यों के लिए दी गई है : एक सुरक्षा और दूसरे फित्ना को समाप्त करने के लिए। फित्ना से तात्पर्य प्राचीन दौर की वह परिस्थिति थी जब जनता की धार्मिक और वैचारिक आजादी तानाशाह बादशाह के अधीन हुआ करती थी और जनता के लिए यह संभव नहीं था कि वह बादशाह की मर्जी से हट कर कोई धार्मिक आस्था अपनाए। कुरआन में इसी को फित्ना बताया गया है और नबी सल्ल० ने इसके लिए तलवार उठाई।
इस धार्मिक बर्बरता का अनुमान रसूल सल्ल० के उन पत्रों से होता है जो आपने मिस्र, हब्शा, ईरान और रूम के बादशाहों के नाम लिखे। लगभग इन पत्रों में उन बादशाहों के लिए यह वाक्य मौजूद है कि यदि तुम इस्लाम स्वीकार नहीं करोगे तो जनता के इस्लाम न स्वीकार करने का गुनाह व प्रकोप तुम्हारे सर जाएगा। आज जबकि धार्मिक आजादी को एक सर्वमान्य सत्य के तौर पर स्वीकार कर लिया गया है, इस प्रकार के जिहाद की जरूरत बाकी नहीं रही। कुछ उलमा इस प्रकार के जिहाद को पैगंबर की ओर से अरब के बहुदेववादियों के लिए खास मानते हैं, जो पैगंबर की ओर से बात पूरी पहुंचाने के बाद दुश्मनी, उद्दंडता और विद्रोह पर उतारू थे।
जिहाद की दूसरी किस्म सुरक्षा अर्थात बचाव है और मूल रूप से कुरआन व हदीस में मुसलमानों को इसी का हुक्म दिया गया है। अतएव अल्लाह का इर्शाद है-उन लोगों को जंग की अनुमति दी गई जिनके विरुद्ध जंग की जा रही है, क्योंकि वे पीड़ित हैं और अल्लाह उनकी मदद के लिए निश्चय ही समर्थ है। ये लोग घरों से अकारण निकाले गए महज इस आधार पर कि वे कहते हैं कि हमारा पालनहार अल्लाह है और यदि अल्लाह लोगों को एक दूसरे के जरिए हटाता न रहता तो ईसाई खानकाहें, गिरजे, यहूदियों के पूजा स्थल और मस्जिदें जिनमें अधिकता से अल्लाह का गुणगान किया जाता है, ढा दी गई होतीं। (22:39-40)
इसी प्रकार कहा गया है-अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो जो तुम से लड़ते हैं और अत्याचार न करो, अल्लाह अत्याचार करने वालों को पसंद नहीं करता। (2:190)
अल्लाह तुम्हें उन लोगों के साथ सद्व्यवहार और न्याय करने से नहीं रोकता जिन्होंने धर्म के मामले में तुम से जंग नहीं की और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला। (60:8)
कुरआन में सुलह-समझौते को सबसे बेहतर बताते हुए इसका आदेश दिया गया है-यदि वह (दूसरा पक्ष) समझौता करने के लिए झुके तो तुम भी उसके लिए झुक जाओ और अल्लाह पर भरोसा करो।’’ (8:61)
जिहाद की पहल करने की अवधारणा इस्लाम के न्याय की अवधारणा के विरुद्ध है। कुरआन कहता है-दीन में कोई जबरदस्ती नहीं। (2:256) कुरआन में धार्मिक विविधता बहुलवाद को मान्यता दी गई है। कुरआन कहता है-तुम में से जो चाहे ईमान का रास्ता अपनाए और जो चाहे इनकार का। (18:29) इसी तरह कुरआन में कहा गया है-यदि अल्लाह तआला चाहता तो सारे लोगों को एक कौम बना देता। (5:48) कुरआन का उसूल है कि तुम्हारा दीन तुम्हारे लिए और हमारा अमल हमारे लिए। रसूल को कुरआन में बार बार कहा गया है कि आप केवल नसीहत करने वाले हैं, जबरदस्ती करने वाले नहीं हैं। बहुलवाद के इससे स्पष्ट उदाहरण और क्या हो सकते हैं? जिहाद की पहल करने का दृष्टिकोण कुरआन की इन आयतों से टकराता है। जिहाद से संबंधित एक बड़ी गलतफहमी यह है कि वह ख़ुदा के इनकार के खात्मे या उसकी महिमा को तोड़ने के लिए है, लेकिन यह सरासर गलत है। वास्तव में जिहाद का कारण जंग या विद्रोह है इनकार नहीं। विश्वसनीय उलमा की बड़ी संख्या इसी को मानती है।
इस समय इस्लामी देशों के अंदर या बाहर कुछ इस्लामी हलकों में हिंसा के जो रुझान पाए जाते हैं उनका संबंध इस्लामी शिक्षाओं से ज्यादा वहां की विशेष राजनीतिक परिस्थिति से है। उन देशों की अलोकतांत्रिक व्यवस्था, शासक वर्ग का पश्चिमी शक्तियों का एजेंट होना, राष्ट्रीय संसांधनों पर शासक वर्ग का एकाधिकार और उनका निर्ममतापूर्वक निजी इस्तेमाल।
ये और इस प्रकार के अन्य मामलों ने जनता के एक वर्ग को अधिक भावुक बना दिया है। यह वर्ग अपने उद्देश्यों की पूर्ति की लिए हिंसा को आखिरी हथियार समझता है यद्यपि इसके नतीजे उसके लिए कभी बेहतर नहीं रहे। लेकिन हकीकत यह है कि एक बार यदि एक रुझान को बढ़ावा हासिल हो जाए तो फिर बोतल से निकले जिन्न की तरह से वह रुझान शीघ्र काबू में नहीं आता। एक हदीस में इस स्थिति का चित्रण मिलता है। पैगम्बर ने फरमाया कि-जब एक बार हमारी उम्मत में तलवार उठा ली गई तो कियामत तक रखी नहीं जाएगी।
इस पूरी बहस का सारांश यह है कि इस्लाम हिंसा का नहीं शांति का धर्म है। इस्लामी दृष्टिकोण से हर हाल में शांति ही वांछित है क्योंकि शांति के वातावरण में ही अल्लाह और बंदों के अधिकारों का सही रूप से पालन हो सकता है। इसलिए कुरआन में सुलह को सबसे बेहतर और वांछित बताया गया है। (4:128) मानव संबंधों में असल चीज आपसी शांति व मेल-मिलाप है। जिहाद एक अपवादी कार्य है। (कुरआनः22) और इसकी इजाजत केवल आस्था और जान व माल की सुरक्षा एवं बचाव के लिए दी गई है।
यह एक बहुत बड़ी त्रासदी है कि वर्तमान दौर में इस्लाम के नाम पर उठने वाले बहुत से आंदोलनों ने हिंसा को अपने राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के माध्यम के रूप में अपनाया हुआ है। मूल रूप से इस्लाम के बारे में लोगों में इसी से भ्रम फैला हुआ है और इस्लाम को हिंसा के साथ जोड़ कर देखा जाने लगा है। कुछ अंतर्राष्ट्रीय शक्तियों के साम्राज्यवादी, शोषणात्मक रवैयों ने लोगों के कुछ वगरें में इस रवैए के फैलाव में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मुस्लिम देशों के हिंसक आंदोलन यद्यपि कौमी स्तर के थे, लेकिन उन्होंने जनता में लोकप्रियता हासिल करने के लिए उन्हें इस्लामी रंग देने की कोशिश की, जिससे लोगों के लिए इस्लाम के बारे में भ्रम का दरवाजा खोल दिया।
- प्रो० अख्तरुल वासे
ईसाई अहिंसा : तत्त्वमीमांसीय आधार : किसी भी धर्म या दर्शन में अहिंसा का तात्त्विक आधार सत्ता (Being) का एकत्व ही हो सकता है। ईसाई धर्मशास्त्र का आधार थोमसवादी तत्त्व-मीमांसा में है जिसमें ईसाई ईशशास्त्र सत्ता के एकत्व के सुदृढ़ आधार पर स्थापित है। उसी के आधार पर अहिंसा की अवधारणा को भी समझा जा सकता है। सत्ता को किसी गतिहीनता में नहीं, बल्कि सृजनात्मक प्रक्रिया की तरह देखा गया है। ईसाई विचार में सत्ता को पवित्र त्रियेक परमेश्वर (Absolute God) अर्थात् पिता ईश्वर, पुत्र और पवित्र आत्मा के बीच प्रेम-सहभागिता के रूप में देखा गया है। उनके बीच लेशमात्र भी विरोध या असहयोग नहीं है। प्रेम में संगतिपूर्ण सहभागिता त्रियेक में से प्रत्येक को अन्य के प्रति प्रेम के पूर्ण उपहार के लिए प्रेरित करती है। यहां हिंसा के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। प्रत्येक पूरी तरह अन्य के लिए है।
सरमन ऑन दि माऊंट ईसाइयत में अहिंसा के स्वरूप को स्पष्ट अभिव्यंजित करता है (मैथ्यू 5, 6, 7 अध्याय)। यद्यपि ओल्ड टेस्टमेंट के दस आदेश (टेन कंमांडमेंट्स) भी नैतिक सिद्धांतों पर आधारित हैं, सरमन ऑन दि माउंट के आठ आशीर्वचन न्यू टेस्टामेंट में प्रेम की आध्यात्मिकता के पृष्ठपट पर अंकित हैं। ईसा के ये आशीर्वचन केवल वर्तमान कठिनाइयों और भविष्य के शानदार यथार्थ का विरोध ही नहीं प्रकट करते, बल्कि अपने अनुयायियों के लिए मौलिक रूप से एक नई आध्यात्मिकता का संदेश देते हैं, जिसके अनुसार अपने अस्तित्व का प्रयोजन अन्य के लिए है। उदाहरणार्थ, शांति स्थापित करने वाले ईश्वर के कृपापात्र हैं, क्योंकि उन्हें ईश्वर का पुत्र कहा जाता है (मैथ्यू 5:9)। तात्पर्य स्पष्ट है कि प्रत्येक व्यक्ति को शांति का आचरण करने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है, जो कि प्रत्येक का दैवी कर्त्तव्य है। इसी प्रकार सरमन ऑन दि माउंट में सभी अनुयायियों को सृजनात्मक अहिंसात्मक कर्म की प्रेरणा दी गई है, जिससे यह दुनिया बेहतर बन सके। विनम्र कृपापात्र हैं, क्योंकि उन्हें पृथ्वी प्राप्त होगी..... वे कृपापात्र हैं, जिन्हें भले कामों के लिए दंडित किया जाता है, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं को मिलेगा।..... (मैथ्यू 5:5-12)।
ईसा की विनम्रता की सीख की आलोचना करते हुए कार्ल मार्क्स ने कहा था कि ईसाइयत के सामाजिक सिद्धांत सर्वहारा के हितों के विरूद्ध जाते हैं। उसकी आलोचना, दरअस्ल, इस तथ्य को प्रकट करती है कि पश्चिमी मनुष्य की अहिंसा की शिक्षा के साथ बुर्जुआ व्यवस्था के स्वार्थों ने जुड़कर वर्तमान अन्यायपूर्ण सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित करना चाहा है। लेकिन वह ईसा की विनम्रता की अवधारणा की सही समझ नहीं है।
वास्तव में, न्यू टेस्टामेंट में ईसाइयत की सच्ची और वास्तविक संकल्पना के अनुसार अहिंसा न केवल एक शक्ति है, बल्कि मनुष्य और समाज के रूपांतरण का एकमात्र सही रास्ता है। हिंसक क्रांतियों के परिणामस्वरूप दुनिया के बदलने का स्वप्न ध्वस्त हो चुका है। ईसाई अहिंसा यह मानती है कि सत्य के लिए संघर्ष के तरीके के अनुसार ही सत्य प्रकाशित अथवा धूमिल होगा। असत्य, हिंसा, अमानवीयता या अनुचित तरीकों को अपनाना उस सत्य के ही साथ छल करना होगा, जिसकी न्याय-संगतता हम सिद्ध करना चाहते हैं। ईसाइयत के बुनियादी सद्गुण आशा और विनम्रता अविभाज्य हैं। अहिंसा की गुणवत्ता मूलतः उसकी पृष्ठभूमि में सक्रिय आशा के अनुसार निर्धारित होती है। मनुष्यता का आशावादी ईसाई स्वप्न इस बात को पहचानता है कि प्रत्येक में गहन संभावनाएं हैं और विश्वास करता है कि प्रेम और कृपा (Grace) में वह ताकत है जो इन संभावनाओं को सर्वथा अनपेक्षित अवसरों पर मूर्त कर सकती है। इसलिए यदि हम विश्वास करते हैं कि ईश्वर इस दुनिया को शांति प्रदान करेगा तो इसकी वजह यह मान्यता ही है कि ईश्वर की रचना यह मानवता मूलतः बुरी नहीं है। हममें से प्रत्येक में शांति और सुव्यवस्था की संभावनाएं हैं, जिनके मूर्त होने के लिए अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता है। इन परिस्थितियों का निर्माण करने में हमें अपनी भूमिका का निर्वाह करने के लिए घृणा और संदेह के बजाय प्रेम और विश्वास को प्राथमिकता देनी होगी। स्पष्टतः मानवता में आशा एक भोला विश्वास भर नहीं है, बल्कि अनुभव ने, पश्चिमी दुनिया के ताजा अतीत ने, यह प्रदर्शित किया है कि सरलता और खुलेपन से संदेह के वे घेरे टूट सकते हैं, जिन्होंने लोगों को सदियों से विभाजित कर रखा है।
संत थोमस स्कॉलेस्टिकवाद में एक सहभागी तात्त्विकता का प्रस्ताव करते हैं, जिसमें वह ईश्वर को स्वयंभू (ipsum esse subsistens) मानते हैं। ईश्वर सत्ता है; ईश्वर अस्तित्व है। थोमस की इस अवधारणा के कई महत्त्वपूर्ण निहितार्थ है। पहला यह कि ईश्वर यहां कइयों में से एक नहीं; बल्कि सभी सीमित अस्तित्व की आधारभूमि है। इस प्रकार वह सभी में सार-तत्त्व, उपस्थिति और शक्ति के रूप में है। दूसरा महत्त्वपूर्ण निहितार्थ है ईश्वर के माध्यम से संपूर्ण सृष्टि का अंतस्संबंध। यद्यपि ईश्वर अन्य सब कुछ से मौलिक रूप से भिन्न है क्योंकि वह स्वयं अस्तित्व है, जबकि अन्य सभी का अस्तित्व उस पर आश्रित है, और इस प्रकार उसके माध्यम से परस्पर संबंधित है। ईश्वर के सृजन में सहभागी होने के कारण सभी एक दूजे से अंतरंग रूप से जुड़े हैं क्योंकि वे सभी उसकी तात्विक संतान है।
इस दृष्टि का एक महत्त्वपूर्ण निहितार्थ यह है कि ईश्वर के सभी कुछ का आधार होने के कारण जो कुछ भी अस्तित्व में है, वह एक शून्य में से उत्पन्न है। यदि स्वयंभू ईश्वर सब कुछ का आधार है तो जो कुछ रचा गया है, वह उसने शून्य में से रचा है और अस्तित्व में बने रहने के लिए उनकी ईश्वर के अस्तित्व में सहभागिता अनिवार्य है।
इसका तात्पर्य यह है कि सृष्टि की रचना स्वयं अनाक्रामक और छलमुक्त है। सर्जन-कर्र्म ईश्वर की परम उदारता है (क्योंकि उसे अपने से बाहर कुछ नहीं चाहिए), परम अहिंसा है (क्योंकि वह अपने से बाहर से कुछ नहीं बनाता)......सृष्टि की ईसाई अवधारणा का निहितार्थ यही है कि अहिंसा और अप्रतिद्वंद्विता अस्तित्व का आधार और गहनतर सत्य है। इसलिए अहिंसक जीवन जीना केवल नैतिक रूप से सही होना नहीं, बल्कि सृष्टि की प्रक्रिया के साथ होकर ब्रह्मांडीय स्तर पर सही होना है।
यदि हमारा मन सृष्टि की रचना के इस सत्य को समझ सके कि सभी कुछ एक-दूसरे से अविभाज्य रूप से तात्त्विक स्तर पर जुड़े हैं तो किसी भी प्रकार की हिंसा, प्रतिद्वंद्विता-मनुष्यों के बीच ही नहीं, मनुष्यों और मनुष्येतर के बीच भी-सृष्टि के उद्देश्य के ही प्रतिकूल होने के कारण इसका नाश करने की ओर-अर्थात् हमारा अपना संहार करने की ओर-उन्मुख होना है।
अधिकांश समकालीन समस्याएं-शोषण, उपनिवेशवाद, उपभोक्तावाद, गर्भपात, युद्ध, भ्रष्टाचार आदि-हमारे अंतस्संबंध को न समझ पाने तथा ईश्वर द्वारा निर्देशित मार्ग पर न चल पाने के कारण है। किसी भी रूप में हिंसा सृष्टि की ईसाई संकल्पना के बुनियादी सिद्धांत के विरूद्ध है।
- (फादर) वर्गीज पुत्तुपरंपिल
उत्तराध्ययन सूत्र : जैन साहित्य में उत्तराध्ययन सूत्र की गणना मूलसूत्रों में होती है। इसे तीर्थंकर महावीर की अंतिम वाणी के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त है। छत्तीस अध्ययनों में निबद्ध उत्तराध्ययन सूत्र के विभिन्न अध्ययनों में हिंसा-अहिंसा के संबंध में उपयोगी सामग्री प्राप्त होती है। इसमें हिंसा का निषेध भी निरूपित है तो मैत्री, दया, करुणा, क्षमाभाव आदि अहिंसा के सकारात्मक रूप भी पर्याप्त रूप से पुष्ट हुए हैं।
हिंसा के अर्थ में उत्तराध्ययन सूत्र में प्रयुक्त प्रमुख शब्द हैं-(1) प्राणवध (पाणवहं मिया अयाणंता 8.7, न हु पाणवहं अणुजाणे 8.8), (2) प्राणिवध (पाणिवह-मुसावाया 30.2), (3) वध (भूयाणं दिस्सए वहो 3(5) 8), (4) प्राणातिपात (पाणे य नाइवाएज्जा 8.9), (5) दंड अथवा दंडारंभ (नो तेसिमारभे दंडं 8.10), (6) हिंसा (किं हिंसाए पसज्जसि 18.11, चराचरे हिंसइ अणेगरूवे 32.79, तहेव हिंसं 3(5) 3), (7) समारंभ (छज्जीवकाए असमारभंता 12.41), (8) विराधना (छण्हं पि विराहओ होइ 2(6) 30)। ये सभी शब्द हिंसा के वाचक हैं।
वध शब्द का प्रयोग जैन साहित्य में हत्या करने, जीव रहित या प्राणरहित कर देने के अर्थ में ही नहीं, पीटने, मारने या आहत करने के अर्थ में भी हुआ है। हिंसा की क्रिया पीड़ाकारी होती है। इसलिए उत्तराध्ययन में श्रमण के 22 परीषहों में एक वध परीषह भी वर्णित है, जिसका तात्पर्य मारना-पीटना, चोट पहुंचाना या कष्ट पहुंचाना ही है। साधु को यदि कोई मारे-पीटे या पीड़ा पहुंचाए तो भी वह क्रोध न करे, मन में भी द्वेष न करे, क्षमा को परम धर्म जानकर भिक्षु-धर्म का चिंतन करे। (ओ न संजले भिक्खू, मणंपि न पओसए। तितिक्खं परमं नच्चा, भिक्खुधम्मं विचिंतए-2.26)
हिंसा मन, वचन एवं काया तीनों स्तरों पर त्याज्य है। जग के आश्रित जितने त्रस एवं स्थावर प्राणी हैं, उनकी मन, वचन एवं काया इन तीनों स्तरों पर हिंसा नहीं करनी चाहिए। (8.10) स्वयं हिंसा करना तो त्याज्य माना ही गया है, किंतु हिंसा का अनुमोदन भी त्याज्य निरूपित किया गया है। जो हिंसा का अनुमोदन करता है वह कभी सर्वदुःखों से मुक्त नहीं हो सकता। (8.8) हिंसा के कारण वैर उत्पन्न होता है तथा वैर की परंपरा में बंधा जीव नरक को प्राप्त करता है। (4.2) अज्ञानी अथवा बाल जीव ही हिंसा में प्रवृत्त होता है एवं वह उस हिंसा का परिणाम न जानता हुआ पापदृष्टि से युक्त होता है तथा नरक (घोर दुःख) को प्राप्त करता है। (8.7) महारंभ में लीन तथा सुरा-मांस का सेवी व्यक्ति नरकायु का पात्र होता है। (द्रष्टव्य, (7) 5-7)
इसलिए प्राणी का हित इसी में है कि वह किसी को त्रस्त न करे। (न य वित्तासए परं। -2.20) समस्त प्राणियों के अपने समान आयुष्य (जीवन) प्रिय है, ऐसा समझकर, भय एवं वैर से रहित होकर किसी भी प्राणी के प्राणों का हनन नहीं करना चाहिए। ((6) 7) जो प्राणों का अतिपात नहीं करता, वह त्रायी (रक्षक) एवं समित (समिति अथवा स्मृति युक्त) कहलाता है तथा स्थल से जल बहने की भांति उसका पापकर्म बह जाता है। (8.9)।
उत्तराध्ययन में दूसरों पर विजय प्राप्त करने की अपेक्षा आत्म-विजय को अधिक महत्त्व दिया गया है तथा युद्ध में हजारों लाखों को जीतने की अपेक्षा स्वयं को जीतने को परम जय कहा गया है। (9.34)
अहिंसा मन, वचन एवं काया इन तीनों स्तरों पर होनी चाहिए। उत्तराध्ययन सूत्र में अहिंसा की अभिव्यक्ति विविध रूपों में हुई है, यथा-(1) प्राणातिपात विरति (पाणाइवाय विरई जावज्जीवाए दुक्करा-19.26) अर्थात् प्राणों के अतिपात या हिंसा से उपरत होना। यह प्राणातिपातविरति जीवनभर के लिए स्वीकार करना दुष्कर होता है, किंतु साधु-साध्वी पंच महाव्रतधारी होते हैं, जिनमें एक महाव्रत हिंसा के पूर्ण त्याग का होता है। वे प्राणातिपात से विरत होते हैं। गृहस्थ श्रावक देशतः हिंसा का त्यागी होता है, अतः वह अणुव्रती कहलाता है। (2) प्राणातिपात से विरति तभी संभव है जब अन्य प्राणियों के प्रति आत्मभाव हो, उन्हें अपने समान समझा जाए। सभी प्राणियों के प्रति समत्वभाव हो, किसी के प्रति राग-द्व्रेष या वैर-विरोध न हो, शत्रु-मित्र सबके प्रति समता हो (19.26)। त्रस (द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय एवं पंचेंद्रिय) एवं स्थावर (एकेंद्रिय) सभी प्राणियों के प्रति सम रहे। (19.90) इस प्रकार अहिंसा की अभिव्यक्ति समस्त प्राणियों के प्रति राग-द्वेष रहित समता की परिणति रूप में भी हुई है। (3) जो अहिंसक होता है उसकी सभी प्राणियों के प्रति मैत्री होती है। इसलिए उत्तराध्ययन में सभी प्राणियों के प्रति मैत्री विकास की प्रेरणा की गई है। (मेत्तिं भूएसु कप्पए-(6) 2) (4) भिक्षु अथवा साधु समस्त प्राणियों के प्रति दया एवं अनुकंपाभाव से युक्त होता है। (सव्वेहिं भूएहिं दयाणुकंपी-21.13) सम्यग्दृष्टि के लिए यह आवश्यक भी होता है। (5) जीवरक्षा के भाव की उत्तराध्ययन में पराकाष्ठा दृग्गोचर होती है। अरिष्टनेमी जब राजीमती को ब्याहने हेतु बारात लेकर आते हैं तो बाड़ों में एवं पिंजरों में निरुद्ध अनेक पशु-पक्षियों को देखते हैं तथा जब सारथी से ज्ञात होता है कि इन पशु-पक्षियों का उपयोग उनके विवाह-भोज में होगा, तो वे करुणित हृदय होकर तत्काल निर्णय करते हैं कि वे ऐसा नहीं होने देंगे और तत्काल विवाह का विचार त्याग देते हैं। (द्रष्टव्य, अध्ययन 22) जीवरक्षा का दूसरा रूप निर्ग्रंथ साधु-साध्वियों की चर्या में दिखाई देता है जिसमें वे वस्त्रों एवं पात्रों की नेत्रों से नियमित प्रतिलेखना करते हैं तथा पदयात्रा करते हुए ईर्यासमिति का पालन करते हैं (24.14, 2(6) 22, 2(6) 36)। (6) सभी जीवों को अभयदान अहिंसा का अप्रतिम रूप है। अठारहवें अध्ययन में गर्दभालि मुनि संयती राजा को शिकार त्यागकर सभी प्राणियों के प्रति अभयदान द्वारा स्वयं निर्भय बनने की प्रेरणा करते हैं (18.11) दया से हीन व्यक्ति जब मृत्यु के मुख में जाता है तो उसे अपने कृतकार्य का पश्चाताप होता है (20.48)। (7) अहिंसक व्यवहार की दृष्टि से विनय का महत्त्वपूर्ण स्थान है। उत्तराध्यन सूत्र के प्रथम अध्ययन में आचार्य अथवा गुरु के प्रति शिष्य के व्यवहार का ऐसा रूप प्रस्तुत किया गया है, जो गुरु के क्रोध को भी नष्ट कर देता है। (कोहं असच्चं कुव्विज्जा 1.14)। (8) सहिष्णुता एवं क्षमाशीलता का अहिंसा के साथ घनिष्ठ संबंध है। साधु-जीवन में 22 परीषहों को सहते हुए सहिष्णुता एवं क्षमाशीलता का गहन अभ्यास होता है। क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण आदि विभिन्न परीषहों को सहते हुए सहिष्णुता एवं क्षमाशीलता का गहन अभ्यास होता है। क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण आदि विभिन्न परीषहों को समभाव से हता हुआ साधक तनिक भी क्रुद्ध नहीं होता। उदाहरणार्थ दंशमशक परीषह (डांस, मच्छर आदि के द्वारा काटना) होने पर साधक मच्छरादि से संत्रस्त अनुभव न करे, न उन्हें हटाए, न उनके प्रति मन में द्वेष करे, अपना रक्त मांस खाने पर भी उनको न मारे अपितु उपेक्षा भाव रखे। (2.11) (9) क्षमाशीलता के एक उदाहरण हैं हरिकेशी मुनि, जो यज्ञशाला में भिक्षा के लिए जाते हैं, किंतु उन्हें भिक्षा नहीं दी जाती एवं डंडों, बैंतों और चाबुकों से ताड़ित किया जाता है, तथापि वे शांत रहते हैं एवं मुनि की तपस्या का चमत्कारी प्रभाव होता है। (अध्ययन 12) ब्राह्मण का लक्षण यज्ञीय नामक 25वें अध्ययन में दृग्गोचर होता है, जिसमें त्रस एवं स्थावर जीवों की मन, वचन एवं काया से हिंसा नहीं करने वाले को ब्राह्मण कहा गया है (2(5) 33)। (10) क्षमा से प्रह्लाद भाव उत्पन्न होता है तथा प्रह्लाद भाव से समस्त प्राण भूत-जीव एवं सत्त्वों के प्रति मैत्रीभाव उत्पन्न होता है। मैत्रीभाव उत्पन्न होने पर भावविशुद्धि करके जीव निर्भय हो जाता है। (29.18) (11) बीसवें अध्ययन में अनाथी मुनि का प्रकरण है, जिसमें राजा श्रेणिक को भी अनाथ बताया गया है तथा नाथ का लक्षण देते हुए पूर्ण अहिंसक को नाथ कहा गया है। रक्षक ही नाथ होता है एवं जैन साधु त्रस एवं स्थावर सभी प्राणियों का रक्षक होने से उनका नाथ होता है। (20.35)। (12) उत्तराध्ययन में पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एवं त्रसकायिक जीवों का भेदोपभेदपूर्वक विस्तार से निरूपण है। वहां सूक्ष्म, बादर पर्याप्त, अपर्याप्त आदि विविध भेद उल्लिखित हैं। जीवों की विविध कोटियों का सूक्ष्म विवेचन है। (द्रष्टव्य अध्ययन 36)। इन षड्विधकायिक जीवों की रक्षा का संदेश उत्तराध्ययन में गुंजित हुआ है। श्रमण के लिए तो यहां तक कहा गया है कि जो श्रमण इन षड्कायिक जीवों की प्रतिलेखनापूर्वक रक्षा करने में प्रमाद करता है वह विराधक कहा जाता है।
हिंसा के अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें एक कारण है मनोज्ञ स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्दादि विषयों के सेवन की अभिलाषा। जो काम-भोगों के प्रति जितना अधिक लालायित है वह उतना अधिक हिंसक हो सकता है। (32.79) आज ऊंचे-ऊंचे भवन बन रहे हैं, किंतु उत्तराध्ययन सूत्र में गृहकर्म समारंभ में प्राणियों की हिंसा प्रतिपादित करते हुए श्रमण को स्वयं का घर बनाने का निषेध किया गया है (3(5) 8)। जो प्राणिवध से विरत होता है वह नए कर्मों का आस्रव नहीं करता। (30.2) उत्तराध्ययन सूत्र करुणा, मैत्री, दया, आर्जव, मार्दव, सहिष्णुता, क्षमाभाव, अभयदान आदि की स्थापना के साथ अहिंसा को प्रतिष्ठित करता है।
- डॉ० धर्मचंद जैन
उपचारात्मक न्याय (दंड) :दंड या सजा की अवधारणा की किसी भी न्याय-व्यवस्था में केंद्रीय हैसियत होती है। जब तक किसी अपराधी को सजा न मिले, तब तक यह नहीं माना जाता कि अपराध के शिकार व्यक्ति को न्याय मिल गया है-यद्यपि यह कतई आवश्यक नहीं रहता कि अपराधी को सजा मिल जाने पर भी शिकार को हुए नुक्सान की भरपाई हो ही जाए। कह सकते हैं कि नुक्सान की क्षतिपूर्ति न होने के बावजूद अपराधी को दंड दिया जाना आवश्यक माना जाता है। विधि-दर्शन में सजा के दो रूप माने जाते हैं : निवारक (Deterrent) सिद्धांत और प्रतिकारात्मक (Retributive) सिद्धांत। लेकिन, इन दोनों ही प्रकारों में यह आवश्यक नहीं होता कि अपराध के शिकार व्यक्ति की क्षतिपूर्ति हो जाए। हम्मूराबी की प्राचीन संहिता आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत के सिद्धांत का समर्थन करती और उसे ही न्याय मानती है। निवारक और प्रतिकारात्मक दोनों ही प्रकारों में सजा का रूप हिंसक होता ही है। कह सकते हैं कि हिंसा के बिना सजा की कल्पना ही नहीं की जा सकती। ऐसे में, अहिंसक न्याय या अहिंसक दंड एक विरोधाभासी पद लग सकता है।
संत फ्रांसिस ऑफ असीसी की मान्यता थी कि अपराधी द्वारा आत्मदंड ही वास्तविक दंड है। किसी अन्य को उसे दंड देने का कोई धार्मिक औचित्य नहीं है। इसे एक संत की आदर्श कल्पना भी कहा जा सकता है। लेकिन, हम्मूराबी के समय से आज तक न्याय की विकास-यात्रा में दंड की अवधारणा में बुनियादी परिवर्तन होता रहा है और आज हिंसक दंड को लेकर न्याय-शास्त्रियों में गहरी विचारोत्तेजक बहस है। मृत्यु-दंड को लेकर हो रही बहस को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है।
बहुत से विचारकों का मानना है कि आपराधिक मानसिकता को एक रोग मानना चाहिए और रोगी को उपचार की जरूरत होती है, सजा की नहीं। इसलिए अपराध का वास्तविक निवारण उपचार में है, सजा में नहीं। इन उपचारवादियों का मानना है कि जितना हम उपचार की दृष्टि से अपराध पर विचार करेंगे, सजा उतनी ही न्यून और कोमल होती जाएगी। कार्ल मेनिंगर (Karl Menninger) और लेडी बारबरा वूटन (Lady Barbara Wooton) इस विचार के प्रबल समर्थक कहे जा सकते हैं। मेनिंगर की किताब का तो नाम ही दि क्राइम ऑफ पनिशमेंट है, यानी दंड देना स्वयं में एक अपराध है। बारबरा वूटन ने भी अपनी पुस्तक सोशल सांइंस एंड सोशल पैथोलॉजी में इस सवाल पर गहराई से विचार किया है। मेनिंगर अपराध को एक रोग कहते हैं तथा बारबरा वूटन का प्रस्ताव है कि इसलिए अपराधी को अलग तो रखा जा सकता है, पर सजा के तौर पर नहीं, बल्कि वैसे ही जैसे एक रोगी को चिकित्सक के निरीक्षण में रखा जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि अभियोजक, न्यायाधीश और बंदीगृह-अधिकारी के स्थान पर मनोचिकित्सक और सामाजिक कार्यकर्ताओं को रखा जाना चाहिए ताकि वे रोगी का उपचार कर सकें। मार्टिन पी० गोल्डिंग ने वूटन के विचार की समीक्षा करते हुए यह तो माना ही है कि यद्यपि दंड को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता, लेकिन उपचारात्मक उपायों की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। स्पष्ट है कि यह विचार न्याय की एक अहिंसक व्याख्या करता है और इस व्याख्या का यह प्रभाव तो पड़ा ही है कि अब प्रमाणित अपराधियों को भी यंत्रणादायक या अमानवीय तरीके से दंडित किया जाना अनुचित माना जाकर संभव सीमा तक उन्हें सुधारने और समाज में पुनः शामिल होने के योग्य बनाने की और ध्यान दिया जाने लगा है। जेल में रखे गए अपराधियों के प्रति भी मानवीय व्यवहार की अपेक्षा की जाती है तथा उनके मानवाधिकारों को भी स्वीकार किया जाता है। प्रमाणित अपराधियों के प्रति न्याय के संस्थान के रुख में इस परिवर्तन को हिंसक न्याय से अहिंसक न्याय की ओर विकास का एक चरण माना जा सकता है।
- नंदकिशोर आचार्य
ऊर्जा-मुद्रा संबंध : सामान्यतः, लाभ की गणना करते समय मशीनों के ऊर्जा-व्यय को शामिल नहीं किया जाता। लाभ हमें किसी स्थिति की ऊर्जा-कुशलता के बारे में कुछ नहीं बताता। वह केवल यह बताता है कि निवेशित धन कितनी जल्दी वापस मिल जाएगा। विनिमय अर्थ-व्यवस्था से मुद्रा-अर्थव्यवस्था में आते ही हमारे समाज का ऊर्जा-संतुलन हमारे नियंत्रण में नहीं रहता। मुद्रा ऐसी परिघटना के लिए रास्ता खोल देती है जो विनियम अर्थ-व्यवस्था में असंभव या महत्त्वहीन होती है।
मुद्रा-अर्थव्यवस्था से पहले श्रम ऊर्जा निवेश और फसलों से प्राप्त ऊर्जा में प्रत्यक्ष संबंध था। जब खाद्य शारीरिक श्रम से प्राप्त होता है तो पैदावार को इच्छानुसार नहीं बढ़ाया जा सकता क्योंकि उसकी प्रक्रिया में किसी बाह्य ऊर्जा का प्रवेश नहीं होता। विनिमय अर्थ-व्यवस्था में कार्य-समय और ऊर्जा में विनिमय होता है। क्रय-विक्रय की जरूरत तभी होती है, जब किसी व्यक्ति के लिए किसी वस्तु का उत्पादन असंभव हो। व्यापार के लिए समय और उपकरणों तथा मध्यस्थ के लिए मुआवजे की भी जरूरत होती है। स्पष्टतः, यह मुआवजा प्राथमिक उत्पादन में व्यय योग्य श्रम-समय के समतुल्य होता है। इस प्रकार के निवेश और दूरगामी परिवहन ऊर्जा-कुशलता की दृष्टि से व्यापार को बेतुका बना देते हैं।
एक स्वाभाविक अर्थ-व्यवस्था में मुद्राहीन वस्तु-विनिमय जिन दो मुख्य पक्षों के बीच होता है, उन दोनों के लिए यह स्पष्ट होता है कि विनिमय से उन्हें कोई लाभ है या नहीं। मुद्रा या धन के प्रवेश के साथ ही इस विनिमय में अन्य पक्ष भी शामिल हो जाते हैं क्योंकि मुद्रा के इस्तेमाल करने के कारण माल की अदला-बदली के बिना भी व्यय में सहभागिता की जा सकती है। मांग और आपूर्ति से संबंधित वस्तुएं दृश्यमान हो जातीं और वस्तुओं के बीच तुलना भी संभव हो पाती है। इस स्थिति में किसी व्यापार का निर्णय ऊर्जा-निवेश के परिप्रेक्ष्य में नहीं, बल्कि कीमत के आधार पर होता है। मुद्रा या धन का इस्तेमाल ऊर्जा-निवेश की सूचना को धो देता है, जो स्वाभाविक विनिमय की स्थिति में विवेकसम्मत व्यापार के लिए आवश्यक तथा व्यापार के बिल्कुल भिन्न सिद्धांतों को स्थापित करता है।
वस्तुओं का बाजार में प्रवेश उनके बीच प्रतिस्पर्धा पैदा करता है। इसके दबाव में उत्पादक अपने उत्पाद की कीमत संभव सीमा तक कम रखने पर मजबूर होता है और इसका आसान रास्ता व्यय-साध्य मानव-श्रम की जगह सस्ती तेल-ऊर्जा को वरीयता देना है। एक लीटर पेट्रोल की कीमत दो सप्ताह के शारीरिक श्रम की ऊर्जा के बराबर होती है। इस प्रकार, हमारी अर्थ-व्यवस्था मानव-श्रम की कीमत पर हमें अधिक ऊर्जा इस्तेमाल करने के लिए विवश कर देती है।
उत्पादन में बाह्य ऊर्जा के इस्तेमाल का एक परिणाम यह होता है कि उत्पाद के विनिमय-मूल्य का हमारे शारीरिक श्रम से कोई संबंध नहीं रहता। हमारे शारीरिक श्रम के साथ बाह्य ऊर्जा का व्यय उत्पाद की कीमत बढ़ाने के बजाय कम कर देता है।
स्वाभाविक अर्थ-व्यवस्था का लघुस्तरीय व्यापार ऊर्जा की दृष्टि से अधिक विवेकसम्मत था। लेकिन व्यापार के एक लक्ष्य या आजीविका हो जाने के कारण उसे अपने साथ एक सत्ता की भी जरूरत होती है। अभी प्रचलित भूमंडलीय व्यापार और उत्पादन के कारण पैदा ऊर्जा-घाटे की भरपाई के लिए मध्य पूर्व जैसे अन्य स्थानों से ऊर्जा-स्रोत लाने पड़ते हैं। हमारी अर्थ-व्यवस्था के ऐसा करने में पूरी तरह सक्षम होने के कारण अभी तक ऊर्जा-घाटे वाला समाज चल पा रहा है। व्यापार में मुद्रा-विनिमय ऊर्जा-विनिमय का समतुल्य हो जाता है।
अधिक ऊर्जा-निवेश से उत्पादन-वृद्धि के दबाव के कारण प्राथमिक उत्पादन के ऊर्जा-संतुलन पर खतरनाक प्रभाव पड़ा है, जिसमें उत्पादन स्वाभाविक रूप से सीमित रहता था। वित्त-प्रबंधक कृषि में अतिरिक्त उत्पादन की बात कर सकते हैं, लेकिन इसका तात्पर्य बाजार में मांग से अधिक उत्पादन का होना है। प्रकृति के संदर्भ में वास्तविक स्थिति यह है कि इतिहास में इतना कम प्राथमिक उत्पादन कभी नहीं हुआ। भोजन-ऊर्जा की एक इकाई के लिए पाषाण-युग की तुलना में हम सैकड़ों-गुना ऊर्जा व्यय कर रहे हैं। कीमतों की स्थिरता के लिए हमें अतिरिक्त उत्पादन का हिस्से का व्यर्थ निपटारा करना पड़ता है, जो हमारे जीवन के ऊर्जा-घाटे को और बढ़ा देता है। जो कृषि कभी नवकरणीय ऊर्जा का संग्रह करती थी, वह आज अनवकरणीय ऊर्जा की सबसे बड़ी प्रयोक्ता है।
मैं इस विमर्श के आलोक में निम्नोक्त सामान्यीकरण कर सकता हूं : जो आर्थिक दृष्टि से व्यवहार्य है, वह पारिस्थितिकीय दृष्टि से सौम्य नहीं हो सकता और जो प्रकृति का परिरक्षण करता है, उसके लिए आर्थिक व्यवहार्यता पाना असंभव है। आर्थिक सहायताएं इस तथ्य को झुठलाने का प्रयास हैं, लेकिन वे उन्हीं उद्योगों से एकत्रित की जाती हैं, जो ऊर्जा की बड़ी मात्रा का इस्तेमाल करते हैं। इस तरह से प्रवर्तित हरित अर्थ-व्यवस्था उतनी ही संदेहास्पद है, जितना वह प्रकृति-संरक्षण, जिसे तभी अनुदान मिल सकता है, जब अर्थ-व्यवस्था में गरमबाजारी हो।
हमारी बाजार-व्यवस्था की दिशा नहीं बदली जा सकती क्योंकि वह प्रतिद्वंद्विता पर आधारित है। आर्थिक वृद्धि बाह्य ऊर्जा-निवेश का परिणाम है, वह हमारे श्रम से निर्मित संपदा नहीं है। यह व्यवस्था उत्पादन के लिए ऊर्जा और प्राकृतिक संसाधनों के अधिकाधिक शोषण करने वालों को ही पुरस्कृत करती है। स्वाभाविक अर्थ-व्यवस्था में रहने वाले लोग हमारे समाज के आधार अतिरिक्त उत्पादन के स्तर तक पहुंच ही नहीं सकते। स्वाभाविक अर्थ-व्यवस्था में शारीरिक श्रम के उत्कृष्ट इस्तेमाल से उतनी ही संपदा पैदा हो सकती है, जिसकी अनुमति पर्यावरण देता है।
ऊर्जा के सभी वैकल्पिक स्रोत वैकल्पिक ऊर्जा से पैसा बनाने के लिए तो अच्छे हैं, लेकिन वे हमें ऊर्जा-घाटे से नहीं बचा सकते। ये विकल्प असली समस्या से हमारा ध्यान बंटा देते हैं। उन्नत प्रौद्योगिकी के लिए अप्रत्यक्ष और गुप्त ऊर्जा आवश्यकता वैकल्पिक तकनीकी को भी प्रभावित करती है। एक सौर बैटरी बनाने के लिए निवेशित ऊर्जा उस बैटरी के जीवन-काल में मुश्किल से ही प्राप्त की जा सकती है। हमारी मुख्य समस्या ऊर्जा का अभाव नहीं बल्कि अपने संसाधनों के अनुकूल समाज में रह पाने की हमारी अक्षमता है। वास्तव में, हमारी समस्या ऊर्जा की विपुलता है क्योंकि ऊर्जा कार्य में परिणत होकर हमारे पर्यावरण को नाश के कगार से ऊपर ले जाएगी।
पर्यावरणीय मैत्री की दृष्टि से कम दूरी के स्थानों के बीच मुद्राहीन विनिमय के अतिरिक्त कोई उचित व्यापार नहीं हो सकता। बायोडीजल के इस्तेमाल पर भी हमें कुछ सावधानी बरतनी चाहिए : क्या पहले ट्रैक्टर से जैव-स्रोत पैदा कर उसका डीजल बनाकर आलू पैदा करने के लिए ट्रैक्टर में फिर उस डीजल का इस्तेमाल करना कोई समझदारी है? ऊर्जा-संतुलन के लिए परिरक्षण के लिए कोई प्रयत्न करने के बजाय मैं एक फावड़ा हाथ में उठाने का प्रस्ताव करता हूं। यह संतुलन बना रहेगा-बस हमें ट्रैक्टर को दिए जाने वाले समय से अधिक समय खेतों में बिताना पड़ेगा।
- लास्से नोर्डलुंड
(हिंदी रूपांतर : नंदकिशोर आचार्य)
ऊर्जा-श्रम संबंध : प्रारंभ में मनुष्य भोजन-प्राप्ति के लिए श्रम-ऊर्जा का इस्तेमाल करता था और भोजन-ऊर्जा प्रकृति से प्राप्त होती थी। इस प्रकार उसका जीवन ऊर्जा के संतुलित विनिमय पर आधारित था और यह संतुलन उसे आत्म-निर्भर बनाता था। मनुष्यों के द्वारा किया जा रहा संसाधनों का उपयोग उस काम पर आधारित था, जिसे वे स्वयं कर सकते थे। बाह्य ऊर्जा-संसाधनों द्वारा उसमें वृद्धि नहीं होती थी। मनुष्य और उसके द्वारा प्रयुक्त संसाधनों में एक संबंध था और इस संबंध के कारण जीवन टिकाऊ था। प्रकृति के संरक्षण के लिए यही संबंध बेहतर है। ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर स्पष्ट होता है कि यही संबंध टिकाऊ हो सकता है।
आज भी हम, मुख्यतः, इस प्राथमिक उत्पादन से प्राप्त ऊर्जा पर ही निर्भर हैं। पश्चिमी देशों में उनकी कुल जनसंख्या का एक बहुत छोटा हिस्सा ही खाद्य-सामग्री के उत्पादन में सक्रिय होता है और इस अल्पांश को भी भोजन, तापन और वस्त्रों के लिए ऊर्जा मानवीय श्रम या सीधे प्रकृति से नहीं प्राप्त होती। खाद्य-उत्पादन मशीनों और अतिरिक्त ऊर्जा से होता है। तात्पर्य यह है कि जो ऊर्जा मिलती है, उसका आधा तो उन्हीं क्षेत्रों के लिए व्यय हो जाता है, जिनसे हम ऊर्जा मिलने की अपेक्षा करते हैं।
दरअस्ल, औद्योगीकरण के आगमन के साथ ही हमारे श्रम और संकलित ऊर्जा का संतुलित संबंध समाप्त हो गया है। आजकल, हम उस ऊर्जा का निरंतर इस्तेमाल कर रहे हैं, जो मानवीय श्रम के माध्यम से प्रकृति से प्राप्त नहीं होती, जहां सूर्य वनस्पति-जगत में संग्रह करता रहता है; न हमारी आजीविका सीधे प्रकृति से प्राप्त होती है। इसके विपरीत, हम पूरी प्रक्रिया में खो गई ऊर्जा-जैसे अश्मीभूत ईंधन-का अंतःक्षेपण करते रहते हैं। इस प्रकार पूरी व्यवस्था के पारिस्थितिकीय संतुलन के लिए अजनबी ऊर्जा और पदार्थ जीव-मंडल को प्रदूषित करते रहते हैं।
हम, वास्तव में, तकनीकी के इस्तेमाल या विवेकसम्मत श्रम-विभाजन से प्राथमिक उत्पादन में ऊर्जा-संग्रहण का कुशल प्रबंधन नहीं कर पाए हैं। एक ट्रेक्टर कुशल लग सकता है, लेकिन यदि प्रयुक्त ऊर्जा और श्रम-समय की दृष्टि से मौटे तौर पर देखें तो वह बगीचे में कार्यरत एक व्यक्ति की तुलना में कम भोजन-ऊर्जा प्राप्त करता है। इसे समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि वह ट्रेक्टर स्वयं ऊर्जा का कितना इस्तेमाल करता है और साधारण औजारों की मदद से काम करने के लिए हमें कितनी ऊर्जा की जरूरत होती है। दरअस्ल, मशीनों को केवल ईधन और रख-रखाव के लिए ही नहीं, स्वयं अपने बनने और समापन-प्रबंध के लिए भी ऊर्जा की आवश्यकता होती है। एक मशीन जितना उन्नत होती है, उतनी ही अधिक ऊर्जा उसके बनने में लगती है-क्योंकि उस ऊर्जा में हमें उस ऊर्जा को भी सम्मिलित करना होगा जो उसे बनाने वाली मशीनों के बनने और रखरखाव आदि में लगती है। दरअस्ल, यही कारण है कि ऊर्जा-बचत वाली मशीनों के प्रचलन के बावजूद हमारा ऊर्जा-व्यय विस्फोटक गति से बढ़ता जा रहा है। नई मशीनों के आविष्कार के माध्यम से मशीनी विकास ऊर्जा-बचत का वादा करता है; लेकिन, साथ ही, वह ऊर्जा-व्यय के नए रास्ते भी खोल देता है। ऊर्जा-घाटे को सुधारने के सभी उपाय ऊर्जा-व्यय की नई ऊंचाइयों की ओर ले जाने वाले अथक प्रयास साबित हो रहे हैं। ऊर्जा-बचत की गणना करते समय उस अप्रत्यक्ष ऊर्जा-व्यय की अनदेखी कर दी जाती है, जिसकी जरूरत मशीन बनने, उसे उत्पादन-स्थल से कार्य-स्थल तक लाने तथा अन्य संबंधित कार्यों में पड़ती है। ऊर्जा-बचत पद के बजाय पारिस्थितिकीय पदचिह्न पद प्रकृति पर पड़ रहे हमारे प्रभाव को पूर्णरूपेण व्यंजित करता है।
दूसरी ओर, तकनीकी दृष्टि से हमारा शरीर एक बहुत कुशल मशीन है। उसे चलने के लिए सड़कों की जरूरत नहीं है और बिना विशेष यंत्रों की सहायता के वह पेड़ पर चढ़ सकता है। एक मनुष्य उतनी ऊर्जा का शारीरिक श्रम कर सकता है, जितनी ऊर्जा एक तापदीपित बत्ती की होती है। साठ वाट के पैमाने के स्तर पर हम स्वस्थ रहते हुए दिनभर श्रम कर सकते हैं और कभी जरूरत पड़ने पर यह ऊर्जा स्तर पांच सौ वाट तक ले जा सकते हैं। दिनभर काम करने पर हमारा श्रम 1 द्म2द्ध के बराबर होता है और अपने को इस योग्य बनाए रखने के लिए हमें 4 द्म2द्ध ऊर्जा वाले भोजन की आवश्यकता होती है।
आजकल हम जिसे कुशलता कहतें हैं, उसका संबंध अधिकांशतः प्रयुक्त समय से होता है, ऊर्जा-निवेश की मात्रा से नहीं। फिनलैंड में (और कहीं भी) एक ट्रेक्टर कृषक पचास लोगों का पोषण करता है, लेकिन इस पर जितनी ऊर्जा खर्च होती है, वह खेतों में काम कर रहे पंद्रह सौ लोगों के समतुल्य ठहरती है। मशीनीकरण से होने वाली समय-बचत प्रकारांतर से कार्य-समय का पुनर्विन्यास ही है, जिसमें खेत में काम करने के बजाय लोग किसान के काम को गति देने के लिए मशीनों-उपकरणों के उत्पादन-प्रबंधन में लगे रहते हैं। फिनलैंड का उदाहरण लें तो 1940 ई० में वहां की जनसंख्या का आधा हिस्सा प्राथमिक उत्पादन के कामों मे लगा था, जो 1988 ई० तक घटकर आठ प्रतिशत रह गया। लेकिन, इसके बावजूद, प्राथमिक उत्पादन से संबंधित मशीनों और उपकरणों के उत्पादन और संबंधित प्रक्रियाओं से जुड़े लोग संख्या पूरी जनसंख्या का आधा हिस्सा रहे। इसलिए मशीन के उत्पादन और प्रयोग में लगने वाली ऊर्जा और समय की सही-सही गणना तो असंभव ही है क्योंकि उसकी प्रक्रिया बहुत लंबी है और एक ऊर्जा-निवेश से दूसरे को अलगाना असंभव है। वास्तविक कुशलता अपेक्षाकृत सादा-सरल तकनीकी उपकरणों से ही मिल सकती है, जैसे पुराने ढंग का चरखा या काठनिर्मित बेलचा-लोहा जितना कम हो, बेहतर है।
- लास्से नोर्डलुंड
(हिंदी रूपांतरः नंदकिशोर आचार्य)
ऋत-केंद्रित नैतिकी : अहिंसा का तात्पर्य केवल मनुष्य को हानि न पहुंचाने तक सीमित नहीं है क्योंकि अहिंसा एक मनोवृत्ति या ऐसी संवेदनशीलता है जो मनुष्य सहित समूची सृष्टि को अपने वृत्त में ले लेती है। यदि कोई अहिंसक है तो ऐसा नहीं है कि वह मनुष्येतर के प्रति हिंसक हो सकेगा। अहिंसा चयनित अहिंसा नहीं है।
इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि औद्योगिक सभ्यता के परिणामस्वरूप प्राकृतिक पर्यावरण पर पड़ने वाले विकराल हानिकारक प्रभावों को देखकर विचारशील लोगों का ध्यान इस बात की ओर जाता है कि यह उद्योगवाद पर्यावरण के प्रति हिंसक है। इसलिए नीतिशास्त्रियों के लिए यह आवश्यक हो गया कि वे पर्यावरण के संदर्भ में भी मनुष्य के नैतिक आचरण को निर्दिष्ट करें। प्राचीन धार्मिक साहित्य में भी हमें प्रकृति और पशु-जगत के प्रति स्नेहपूर्ण व्यवहार के निर्देश लगभग सभी धर्मों में अनेक जगहों पर मिल जाते हैं। इसलिए पर्यावरणीय नैतिकता की अवधारणा कोई नई अवधारणा नहीं है। लेकिन आधुनिक संदर्भों में पर्यावरणीय नैतिकता नीतिशास्त्र की एक विशेष शाखा के रूप में यदि स्थापित हो गई है तो इसका कारण औद्योगिक क्रांति के बाद पर्यावरण का चिंतनीय मात्रा में प्रदूषित और नष्ट होना है। इसलिए इसे बचाने की चिंता जहां वैज्ञानिकों और शासकों को हो रही है, वहीं नीति-मीमांसकों का ध्यान भी इस ओर विशेष रूप से आकर्षित होने लगा और अध्ययन की एक विशिष्ट शाखा के रूप में नीति-दर्शन में इसका महत्त्व स्वीकार किया जाने लगा है।
पर्यावरणीय नैतिकता पर्यावरण-सरंक्षण के लिए मनुष्य को उत्तरदायी मानती है। एक वर्ग के अनुसार इसका कारण यह है कि पर्यावरण संतुलन के नष्ट होने का तात्पर्य मनुष्य का ही नष्ट होना है, अर्थात् मनुष्य के अपने अस्तित्व के लिए पर्यावरण-संरक्षण आवश्यक है। इस विचार में पर्यावरण की चिंता मनुष्य के लिए उसकी उपयोगिता की दृष्टि से है। इसमें अहिंसा की पुष्टि नहीं होती। लेकिन दूसरे वर्ग के विचारकों का मत है कि मनुष्य प्रकृति का मालिक नहीं, बल्कि उसका ही विकसित अंग है, इसलिए वह प्रकृति के प्रति उत्तरदायी है। जब हम पर्यावरण के प्रति हिंसक रवैया अपनाते हैं तो पर्यावरण की तो हानि होती ही है, हम स्वयं भी अपने को हिंसक अर्थात् अनैतिक बना रहे होते हैं क्योंकि नैतिक होने का तात्पर्य न केवल किसी को हानि नहीं पहुंचाना बल्कि उसके कल्याण के लिए भी प्रयासरत होना है। इसलिए पर्यावरणीय नैतिकता-विमर्श संपूर्ण मनुष्येतर जगत प्राकृतिक एवं प्राणी जगत को मनुष्य के आचार-शास्त्र की परिधि में ले लेता और उसके आचरण को मनुष्येतर के प्रति अहिंसा की कसौटी पर आंकता है।
पर्यावरणीय नैतिकता प्रकृति में अंतर्निहित मूल्य को पहचानती और मनुष्य के आचरण को उसी से निर्देशित मानती है। आधुनिक काल में बहुत से विचारकों ने मनुष्य-केंद्रित नैतिकता के बजाय ऋत-केंद्रित नैतिकता पर बल दिया है। रचेल कार्सन की साइलेंट स्प्रिंग (1962 ई०) और पीटर सिंगर की एनिमल लिबरेशन जैसी कृतियों ने मनुष्येतर के प्रति हमारे नैतिक दायित्व की ओर हमारा ध्यान आकर्षित किया है। आल्डो लियोपोल्ड की लैंड एथिक और अर्ने नैस की गहन पारिस्थितिकी की अवधारणाओं के मूल में पर्यावरणीय नैतिकता का दर्शन ही है।
पर्यावरणीय नैतिकता के विमर्श में प्रकृति के प्रति अहिंसक व्यवहार केवल भावात्मक नहीं रहता-बल्कि ठोस आर्थिक-राजनीतिक सवालों के साथ-साथ संपूर्ण आधुनिक जीवन-शैली का प्रश्न भी इस विमर्श की परिधि में आ जाता है। पर्यावरण का सवाल केवल पर्यावरण का नहीं, आधुनिक उत्पादन-पद्धति से जुड़ा सवाल है और इस उत्पादन-पद्धति पर ही सारी आर्थिक-राजनीतिक संरचना आधारित है। उत्पादन-पद्धति के बदलने पर उस पर आश्रित हमारी जीवन-शैली का बदलना भी लाजिमी है। इसलिए पर्यावरणीय नैतिकता मनुष्य और सभ्यता के वर्तमान को ही नहीं, भविष्य को भी अपने विचार के घेरे में ले लेती है। इसका केंद्रीय आधार प्रकृति में मनुष्य का स्थान है, अतः उसका अध्ययन करते हुए मनुष्य के भावी जीवन की विकास-प्रक्रिया पर विचार स्वाभाविक है, जिससे मनुष्य के साथ-साथ मनुष्येतर के अस्तित्व के भविष्य का सवाल भी जुड़ा है। मनुष्य का अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ होना उसे अन्य पर अधिकार नहीं देता, बल्कि उनके प्रति उसे अधिक उत्तरदायी बनाता है।
- नंदकिशोर आचार्य
ऋषभदेव : जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव राजा नाभिराय और रानी मारूदेवी के पुत्र थे। उनका जन्म दो युगों की संधिबेला में हुआ था जब ईषसृष्टि भोग युग का अंत होकर कर्मयुग प्रारंभ हो रहा था। जैन शास्त्रों में आदिकाल की युगलिक सभ्यता की क्रमशः प्रगति, विकास व संगठन चौदह कुलकरों के नेतृत्व में माना गया है, जिनमें राजा नाभिराय अंतिम चौदहवें कुलकर थे। उनके प्रतिभाशाली पुत्र व उत्तराधिकारी के राज्यशासन काल में गतिशील हुआ मूलभूत सामाजिक व आर्थिक परिवर्तन। जंगलों से निकल जनजातियों ने कृषि कर्म अपनाने, समाज को संगठित करने और मानव-बस्तियां बसाने की ओर कदम उठाए। राजा ऋषभ देव की दूरंदेशी दृष्टि ने कर्म के आधार पर समाज का वर्गीकरण और चतुर्वर्ण व्यवस्था शुरू की, जिसका उल्लेख चाणक्य के अर्थशास्त्र में आता है। लौकिक जीवन को संगठित व सुसंचालित करने के लिए उन्होंने समाज के लिए आजीविका के छः मुख्य कार्य क्षेत्र निर्धारित किए-(1) असी (क्षत्रिय कर्म व शस्त्र विद्या) (2) कृषि (3) मषी (पढ़ना, लिखना) (4) विद्या (विभिन्न ललित कलाएं) (5) वाणिज्य (उद्योग, द्रव्यों का क्रय विक्रय) (६) शिल्प (भवन, वस्त्र आदि का निर्माण)। क्रय सृष्टि के प्रवर्तक होने के कारण ऋषभदेव प्रजापति कहलाए।
अपने सांसारिक जीवन के प्रथम चरण में राजा ऋषभदेव सुगठित समाज-संगठन युग के प्रणेता के रूप में उभरे। उन्होंने समाज के सब वर्गों को कर्म-पुरुषार्थ की ओर प्रेरित किया। समाज में नई स्फूर्ति, गतिशीलता और उत्तदायित्व भरी कर्मठता का संचार हो गया। हिंदी के प्रसिद्ध कवि सूरदास ने श्रीमद्भागवत के पंचम स्कंध में ऋषभावतार के प्रंसग से प्रेरणा लेकर लिखा हैः बहुरो रिसभ बड़े जब भये/नाभिराज दे वन को गये/रिसभ राज परजा सुख पायो/जस ताको सब जग में छायो।
राजा ऋषभदेव ब्राह्मी लिपि और गणित शास्त्र के भी प्रणेता माने गए हैं। एशिया महाद्वीप की लिपियों में जो समानता दिखाई देती है उसका कारण है कि उनका उद्गम ब्राह्मी लिपि है। अपनी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में डॉ० रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा हैः द्राविड़ भाषाओं में सभी लिपियां ब्राह्मी से निकली हैं। दक्षिण भारत में प्रचलित जैन परंपरा के अनुसार ब्राह्मी ऋषभदेव की बड़ी पुत्री का नाम था। ऋषभदेव ने ही अठारह प्रकार की लिपियों का आविष्कार किया जिनमें से एक लिपि कन्नड़ हुई।
प्रजापति ऋषभदेव अपनी पुत्री ब्राह्मी और सुंदरी के सामने शिक्षा के महत्त्व को दर्शाते रहते थे। उन्हें कहते थे कि तुम दोनों का यह सुंदर शरीर, अवस्था और अनुपम शील यदि विद्या से विभूषित हो जाए तो तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा। उन्हें गंधर्व विद्या का प्रथम उपदेशक भी माना जाता है। अपने दोनों पुत्रों-भरत और बाहुबली को उन्होंने सर्वांगीण प्रशिक्षण दिया और उन्हें न केवल राज-करण और समाज व्यवस्था बल्कि अर्थशास्त्र, ललित कलाओं, अश्व व गज-विद्या, रत्न-परीक्षा, शस्त्र-विद्या एवं आध्यात्मक ज्ञान में भी पारंगत किया। आगे जाकर दोनों ने वैराग्य लेकर जैन धर्म साधना की। दक्षिण भारत में बंगलुरु शहर के निकट बाहुबली स्वामी की विशाल मूर्ति विख्यात जैन तीर्थ श्रवण बेलगोला की केंद्र बिंदु बनकर सदियों से खड़ी है और बाहुबली के विलक्षण व्यक्तित्व की याद दिलाती है।
कहते है कि ऋषभदेव की दो रानियों से कुल मिलाकर 100 पुत्र और 2 पुत्रियां थी। दीक्षा लेने से पूर्व अपने पुत्रों को दूर तक फैले साम्राज्य में अलग-अलग राज्यों का राजा बना दिया था।
ऐसे महान् कर्मवीर शासक के जीवन में एक प्रसंग घटा। अपनी आंखों के सामने थिरकती नृत्यांगना नीलंजना की एक क्षण में मृत्यु देखकर इस क्षण-भंगुर जीवन से उन्हें वैराग्य हो गया। अग्रज पुत्र भरत को सिंहासन देकर उन्होंने पुरिमताल उद्यान में अक्षयवट की छाया में बैठकर संसार के सारे मोह बंधन, लालसाएं वस्त्र आभूषण और अधिकार त्याग दिया। ओम नमो सिद्धेभ्या के उच्चारण से प्रारंभ की कैलाश पर्वत (अष्टपद पर्वत) पर अपनी कठोर तपस्या और अडिग साधना। ऋषभदेव अतींद्रिय ज्ञानी थे, जिसके आधार पर उन्हें सत्य से साक्षात्कार हुआ और उस आधार पर उन्होंने धर्मचक्र का प्रवर्तन किया। अंततः उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति पुरिमताल से उसी वट वृक्ष की छाया में मिली जहां वे पहले दीक्षा ले चुके थे। उनका निर्वाण कैलाश पर्वत पर हुआ, जो जैन परंपरा में सिद्ध क्षेत्र बन गया।
जैन शास्त्रों में समवशरण में दी गई तीर्थंकर ऋषभदेव की पहली दिव्य ध्वनि का वर्णन है जिसमें उन्होंने अहिंसा, संयम और तप धर्म के प्रमुख स्तंभ बताए। एक कीर्तिमान कर्मवीर ने गुणतीर्थ धर्मवीर बन मानवता को जैन धर्म का शाश्वत करुणा व शांति संदेश दिया। वैराग्य, कठोर तप साधना व कैवल्य ज्ञान की प्राप्ति के बाद अहिंसा और अपरिग्रह-वृत्ति के जीवंत तीर्थ के रूप में तीर्थंकर ऋषभदेव देश के विभिन्न भागों में भ्रमण कर प्रवचन देते रहे।
11वीं शताब्दी में आचार्य मानतुंग ने ऋषभदेव की महिमा में भक्तामर स्तोत्र लिखा, जो जैन समाज में अतिलोकप्रिय धर्मग्रंथ बन गया है और प्रतिदिन श्रावक गण उसका मुखाग्र भजन करते हैं। श्लोक 1 में मानतुंग लिखते है किः आस्तां तवस्त वनमस्त समस्त दोष/तवत्संकथापि जगतां दुरितानि हंति/दूरे सहसकिरणः गुरूते प्रभैव,/पद्माकरे सु जल जानि विकास भांति।
(जिस प्रकार अरूणोदय के समय सहस्ररश्मि सूर्य तो बहुत दूर रहता है किंतु उसकी कोमल प्रभा (किरणों का प्रकाश) का स्पर्श ही सरोवर में मुरझाए कमलों को विकसित कर देता है, उसी प्रकार हे जिनेश्वर देव, समस्त पापों का नाश करने वाली आपकी शक्ति का कहना ही क्या, श्रद्धा व भक्ति पूर्वक उच्चारण या जाप किया हुआ आपका नाम जगत जीवों के पापों का नाश कर उन्हें पवित्र बना देता है)
विविध हिंदू पुराणों जैसे मार्कंडेय पुराण, वायुपुराण, नारदपुराण, स्कंदपुराण, लिंग पुराण, श्रीमद् भागवत एवं जैन धर्मग्रंथों जैसे जिनसेन का महापुराण, जंबूद्वीप पण्णति, वसुदेवहिंड़ी, कवि चक्रवर्ती पंप का कन्नड़ में आदिपुराण आदि में लिखा है कि इन्हीं ऋषभदेव भगवान् का ज्येष्ठ पुत्र भरत भारत का सम्राट बना और उसी के नाम से देश का नाम भारतवर्ष पड़ा।
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने भी अपने ग्रंथ पुराण विमर्श में स्पष्ट किया है कि ऋषभदेव के पिता नाभिराय के नाम पर देश का नाम अजनाभ वर्ष पड़ा जो ऋषभदेव के पुत्र प्रथम चक्रवर्ती सम्राट भरत के राज्य में परिवर्तित होकर भारतवर्ष कहलाने लगा। उनका निश्चित मानना है कि जो इतिहासकार दुष्यंत-शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष का नामकरण बतलाते है, उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों पर ध्यान नहीं दिया है।
तीर्थंकर ऋषभदेव का व्यक्तित्व इतना विलक्षण था और उनका समन्वयवादी विचारदर्शन इतना प्रभावी था कि वैदिक धर्म के चौबीस अवतारों में भी ऋषभदेव का आठवें अवतार के रूप में उल्लेख आता है। ऋषभदेव की उपलब्धियां एक ओर तो कर्त्तव्यपरायण, कर्मठ व कर्मयुग के प्रवर्तक प्रभावशाली व्यक्तित्व और एक महान् राजा के रूप में हैं, और दूसरी ओर उनकी छवि उभर आई एक परम् वीतरागी, त्यागी तीर्थंकर के रूप में। उनके जीवन के ये दोनों भाग अपने-अपने क्षेत्र में अनूठे, अनुपम, अनुकरणीय हो गए।
- डॉ० नरेंद्र जैन
एंपीडोक्लीज : (490-430 ई०पू०) पाइथागोरस के मांसाहार-निषेध का समर्थन करने वाले ग्रीक दार्शनिकों में पोरफिरी के साथ एंपीडोक्लीज का नाम भी लिया जाता है। एंपीडोक्लीज एक राजनीतिज्ञ और चिकित्सक था। दर्शन और धर्म में उसे पाइथागोरस का अनुयायी माना जाता है। एंपीडोक्लीज में उसके पूर्ववर्ती दार्शनिकों के मतों का समन्वय मिलता है। थेल्स के अनुसार मूल तत्त्व जल हैं; अनेक्सीमीनीज के अनुसार हवा, अनेक्सीमेंडर के अनुसार असीमित अविशिष्ट पदार्थ पानी पृथ्वी तथा हेराक्लिटस के अनुसार अग्नि मूल तत्त्व है। एंपीडोक्लीज की मान्यता है कि चारों ही मूल तत्त्व हैं, जो मिलकर विश्व का निर्माण करते हैं। लेकिन वह इनमें दो और तत्त्व जोड़ता है : प्रेम और घृणा। लेकिन ये तत्त्व भौतिक नहीं है, बल्कि अन्य चारों तत्त्वों अर्थात् प्रकृति का स्वभाव है। प्रेम के कारण रचना होती है और घृणा या संघर्ष के कारण विघटन या विरचना। इससे यह स्वयमेव ही निकलता है कि प्रेम एक वांछनीय प्रवृत्ति है।
एंपीडोक्लीज भी पाइथागोरस की तरह आत्माओं की अमरता तथा पुनर्जन्म में यकीन करता है तथा यह भी मानता है कि एक ही आत्मा कभी मानव शरीर में आ सकती है और कभी पशु शरीर में। मांसाहार के विरुद्ध उसका एक तर्क यही है कि जिस पशु का मांस खाने के लिए हम उसे मारते हैं, उसमें हमारे ही किसी रिश्तेदार या मित्र, पुत्र अथवा पिता की आत्मा हो सकती है। इसलिए मांसाहार से बचना चाहिए।
यह भी उल्लेखनीय है कि एंपीडोक्लीज पूरे विश्व को एक चेतन अस्तित्व मानता है। वह पाइथागोरस के इस मत से सहमत लगता है कि यह पूरा विश्व सांस लेता है। एंपीडोक्लीज के अनुसार विश्व की प्रत्येक चीज इस चेतना की हिस्सेदार है। एंपीडोक्लीज भी, इसलिए, पाइथागोरस के इस मत से सहमत है कि जीवन के सभी रूपों में एक सगोत्रता या बंधुत्व है। यह मान्यता भी मांसाहार-निषेध के पक्ष में जाती है क्योंकि यदि हम पशु-मांस खाते हैं तो यह प्रकारांतर से सगोत्री का मांस खाना है-इसे एक प्रकार का नर-भक्षण कहा जा सकता है।
एंपीडोक्लीज के बारे में यह कहानी प्रचलित है कि उसने एक ज्वालामुखी में कूदकर जान दे दी। लेकिन आधुनिक शोधकर्त्ता इसे कपोल-कल्पना मानते हैं।
द्रष्टव्य : पाइथागोरस।
- नंदकिशोर आचार्य
एकात्म अर्थशास्त्र : अर्थशास्त्र का प्रयोजन मांग और आपूर्ति बाजार नहीं है। अपने व्यापकतर अर्थ में अर्थशास्त्र का तात्पर्य यह है कि हम मानव-प्राणी सामूहिक रूप से पृथ्वी तथा हमारे पारस्परिक संबंधों के परिप्रेक्ष्य में अपनी आजीविका कैसे अर्जित करते हैं। इसलिए मानव-अर्थशास्त्र हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति तथा अपने सपनों को साकार करने की प्रक्रिया में हमारे द्वारा विकसित सभी सामाजिक संबंधों को भी अपनी परिधि में सम्मिलित कर लेता है। पूंजीवाद का संबंध मुक्त-बाजार आर्थिकी और रोजगार-मजदूरी से होने के कारण हमारे सामाजिक संबंधों के पक्ष से उसका कोई रिश्ता नहीं रहता।
जब हम इस दैत्याकार आर्थिक व्यवस्था की पर्तें उघाड़ते हैं, तो ऐसी कई विविध आर्थिक प्रक्रियाओं को देख पाते हैं, जो अभी अच्छी तरह जीवित हैं तथा ऊपरी सतह के नीचे हमें पोषित करती रहती हैं। वे स्टॉक-दलालों और विशेषज्ञ अर्थशास्त्रियों की आर्थिकियां नहीं है। वे हमारी अपनी आर्थिकियां हैं-लोक-आर्थिकियां-ऐसी आर्थिकियां जिन्हें हम अपने दैनंदिन जीवन और संबंधों द्वारा निर्मित करते हैं।
यद्यपि वे अपनी अभिव्यक्ति में अविश्वसनीय रूप से विविध हैं, इनमें से बहुत सी जीवन-समर्थक व्यष्टि-आर्थिकियां समान रूप से जीविकोन्मुख हैं-स्वस्थ और पारस्परिक अनुपोषक तथा मानव-समुदाय के अविरत पुनरुत्पादन की ओर उन्मुख। अपनी सारी बदसूरती और खूबसूरती के साथ सामाजिक जीवन को बनाए रखना ही इन लोक-आर्थिकियों का प्राथमिक लक्ष्य है। अपने कर्म में यह लक्ष्य उस पूंजीवादी तर्क का मूल विरोध है, जो संग्रह तथा वृद्धि के लिए वृद्धि (संयोग से जो कैंसर का केंद्रीय लक्षण है) को आर्थिक जीवन के केंद्र में रखता है।
ऐसी बहुत-सी गैर-पूंजीवादी व्यष्टि आर्थिकियां हमारी परिचित हैं; यद्यपि, कदाचित ही उन्हें वैध माना जाता है। यह तो मानना ही होगा कि गैर-पूंजीवादी आर्थिकियों में कईयों को अनिवार्यतः मुक्तिदायी नहीं समझा जा सकता, मैं उनमें कुछ सकारात्मक और प्रेरक रूपों का उल्लेख करना चाहूंगा : (1) घरेलू आर्थिकियां (Household economies)-अपने घर और भूमि पर काम और उनसे संबद्ध कौशलों के माध्यम से बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति : बच्चों का पालन, उन्हें सुविधा या सलाह देना, रिश्ते की समस्याओं को सुलझाना, बुनियादी जीवन-कौशलों का प्रशिक्षण, पकाना, सीना, घर की सफाई, चैकबुक का लेखा-जोखा देखना, कार रखना, बागवानी, खेती, पशु-पालन आदि ऐसे कई प्रकार के काम जिन्हें पितृसत्ता द्वारा औरताना काम मानकर अनदेखा या अवमूस्यित किया जाता है। (2) विनिमय आर्थिकियां-मित्रों या पड़ौसियों के साथ व्यापारिक सेवाएं, एक उपयोगी वस्तु के बदले दूसरी उपयोगी वस्तु का विनियम; किसी भलाई का प्रतिदान, पौधों या बीजों का विनिमय, तथा स्थानीय मुद्रा का सावधि विनिमय। (3) सामूहिक आर्थिकियां-इन आर्थिकियों में संसाधनों के पारस्परिक लाभ के लिए साझा होता है; कभी-कभी साझा स्वामित्व या संसाधनों पर साझा नियंत्रण : सामूहिक स्वास्थ्य-सेवा, सामुदायिक भूमि न्यास आदि। (4) अपमार्जन आर्थिकी (Scavenging economies)-पृथ्वी की प्रचुर प्रदाता आर्थिकी पर जीवन-यापन, शिकार, मत्स्य-पालन, चारा। मनुष्यकृत अपमार्जन का उपयोग। ध्वस्त स्थलों से प्राप्त सामग्री, पुराने कार-पुर्जे, कूड़े का उपयोग आदि। (5) उपहार आर्थिकियां (Gift economies)-अन्य व्यक्तियों या समुदाय को अपने संसाधनों का कुछ अंश देना : सामुदायिक खाद्य भंडार। अनुरोधी यात्रियों Hitch-hikers) को सुविधा देना, पड़ौसियों को खाने पर आमंत्रित करना आदि। (6) श्रमिक-नियंत्रित आर्थिकियां (Worker-controlled economies)-श्रमिकों द्वारा अपने काम की शर्ते तय करना; स्वरोजगार, पारिवारिक कृषि, श्रमिक-स्वामित्व वाली कंपनियां तथा सहकारी संस्थाएं आदि। (7) चौर्य आर्थिकियां (Pirate economies)-ऐसी बहुत-से काम जो सत्तारूढ़ों द्वारा चोरी कहे जा सकते हैं, लेकिन सत्तावंचितों द्वारा जिन्हें उचित पुनर्विनियोग माना जाता है : रोबिनहुड पुनरावतार, परित्यक्त मकानों आदि में आबाद हो जाना आदि। (8) आजीविकामूलक बाजार आर्थिकियां (Subsistence market economies)-ऐसे हजारों बहुत छोटे-छोटे धंधे, जिनमें पूंजी-संचय की कोई संभावना नहीं होती। इनका प्रयोजन अपने उन मालिकों को बस स्वस्थ आजीविका (जो अधिकांशतः मजदूर होते हैं) तथा वृहत्तर समुदाय को सेवाएं प्रदान करना होता है।
ये कुछ ऐसी विविध गैर-पूंजीवादी आर्थिक श्रेणियां हैं, जो हमारे जीवन के ताने-बाने से बुनी होती है। इन श्रेणियों की पहचान की परियोजना उम्मीद की परियोजना है, जो साम्राज्य की आर्थिकी द्वारा आरोपित अवमूल्यित तथा निम्नीकृत करने वाले दृष्टिकोणों से हमारे विउपनिवेशीकरण की शुरुआत करती है। हम हमारे ही बीच उपस्थित स्वतंत्रता के शक्तिशाली प्रदेश को देखना शुरु कर सकते हैं।
आर्थिक संबंधों की इस विविधता के संदर्भ में हम पूंजीवाद की अपनी समझ का पुनः रुपायन कर सकते हैं। पूंजीवाद को एक आर्थिकी के रूप में देखने के बजाय हम उसे आर्थिक प्रदेश के उपनिवेशीकरण की अविरत परियोजना के रूप में देख सकते हैं। पूंजीवाद संग्रह की अपनी प्रवृत्ति और उसकी संतुष्टि के लिए नए बाजारों के अंतहीन विस्तार के रूप में एक मात्र आर्थिकी बनना चाहता है। हमारे सौभाग्य से अभी तक वह हर संबंध को मुनाफाखोरी के रूप में बदल सकने में सफल नहीं हो पाया है। पूंजीवाद उपनिवेशीकरण की एक अविरत परियोजना है-किंतु कभी पूरी सफल नहीं।
यदि सहकार और एकात्मता के ये बुनियादी रूप सतह के नीचे न बने रहें तो वर्चस्वशाली आर्थिकी ध्वस्त हो सकती है। ये वे चीजे हैं जो हमें उस समय भी जिंदा रखती है, जब कारखाने बंद हो जाते हैं, तूफान आते हैं, जब हमारे घर जला दिए जाते हैं और जब वेतन पूरा नहीं पड़ता है। ये वे संबंध है जो हमारे समाज को जोड़े रखते हैं, जो हमें मनुष्य बनाते तथा प्रेम, पारस्परिक पर्वाह तथा समर्थन की बुनियादी जरुरतों को पूरा करते हैं। निश्चय ही, पूंजीवाद हमारे लिए ये सब नहीं करता।
एकात्म आर्थिकी की शुरुआत यहां से होती है-इस समझ के साथ कि वैकल्पिक आर्थिकियां भी अस्तित्व में हैं, कि पूंजीवादी व्यवस्था के उदर में भी हमारी सृजनात्मकता और कौशल ने आर्थिक संबंधों के भिन्न प्रकार रच रखे हैं। संपदा और मूल्य के हमारे अपने प्रतिमान हैं जो मुद्रा द्वारा परिभाषित नहीं होते। प्रतिस्पर्धा और मुनाफाखोरी को प्राथमिकता देने के बजाय ये आर्थिकियां मानवीय जरुरतों और संबंधों को केंद्र में रखती हैं। वे एक ऐसी नयी आर्थिकी का बीजारोपण हैं जो सहकार, समानता, विविधता तथा आत्मनिर्णय की आर्थिकी है-एक एकात्म आर्थिकी।
यद्यपि पूंजीवादी आर्थिकी ने इन बीजों को हमसे छुपा रखा या अवमूल्यित कर दिया है, तो भी हम हमारे वैकल्पिक आर्थिक संगठन के लिए उन्हें प्रस्थान बिंदुओं की तरह इस्तेमाल कर सकते हैं। एकात्म आर्थिकी की परियोजना इन बीजों को सींचने की है-एकात्मता के प्राप्त रूपों की पहचान और विस्तार तथा इस प्रक्रिया में नए और वृहत्तर रूपों की रचना।
एकात्मता एक शक्तिशाली शब्द है जो स्थानीय और वैश्विक दोनों स्तरों पर हमारे अंतस्संबधों के लिए सक्रिय उत्तरदायित्व लेने की गतिशील और सामूहिक प्रक्रिया को नाम देता है। एकात्मता का आचरण करते हुए हम पहचान जाते हैं कि हमारी नियति अन्य की नियति से जुड़ी है-मनुष्यों और मनुष्येतर से-और हमारे अंतस्संबंध-जो कभी-कभी गंभीर रूप से विषम और दयाकारी हैं-सजग सक्रियता तथा परिवर्तन की मांग करते हैं। एकात्मता के माध्यम से ही हम विविधता, स्वायत्तता, शक्ति तथा दूसरों की गरिमा को पहचान पाने के योग्य होते हैं। हम यह समझने लगते हैं कि स्वतंत्रता और आनंद के लिए हमारे संघर्ष अन्य से भिन्न या दूर नहीं हैं। हमारे में साझा संघर्ष की नैतिकी विकसित होनी शुरु हो जाती है।
अक्सर यह सुना जाता है कि विरोध करना आसान है, पर विकल्प के लिए काम करना मुश्किल। यदि हम आर्थिकी से संबंधित वर्चस्ववाली कहानी पर विश्वास करें या किसी विकल्प के नामकरण में फंस जाएं अथवा एक नई आर्थिकी के तकनीकी ब्योरों का वर्णन करने लगें तो उपर्युक्त कथन सच हो सकता है। लेकिन दूसरी कहानी को देखें तो पा सकते हैं कि वैकल्पिक दुनिया के बीजों की बिजाई हो चुकी है-वे बढ़ भी रहे हैं-पूंजीवादी आर्थिकी की सतह के नीचे। हमारा काम एक नई अमूर्त प्रारूप योजना का विकास करना नहीं है, जिससे हम प्रत्येक आने वाले को आश्वस्त (या बाध्य) कर सकें; हमारा काम अपने चारों ओर उपलब्ध उम्मीद और रचनात्मकता के क्षेत्रों की पहचान, उनका नामकरण, उनका प्रशंसापूर्ण स्वागत, उन्हें संगठित कर मजबूत तथा परस्पर संबद्ध करना और ऐसा करने की प्रक्रिया में नई संभावनाओं और संबंधों की रचना करना है।
इन सृजनात्मक परियोजनाओं को अन्य प्रकार के परिवर्तनकारी कामों से भी जोड़ना होगा। हमें ऐसे सामाजिक आंदोलनों का निर्माण करना होगा, जो बहुविध प्रकार की सक्रियताओं को एक परिधि में ला सकेंः तात्कालिक हानि से बचाने वाले प्रतिरक्षात्मक उपायों के साथ दमन और शोषण को चुनौती देने वाली पहलकदमियां-सभी नस्लवादी, लिंगभेदवादी, सभी ऐकांतिकतावादी रूपों के विरुद्ध। हमारे पर आरोपित पीड़ा और टूटन के उपचारात्मक कामों के साथ-साथ नई वैकल्पिक संरचनाओं का निर्माण, जो हमें वर्चस्वशाली समाज और आर्थिकी के दमन से मुक्त करते हुए हमारी दैनंदिन जरुरतों को पूरा कर सके।
निष्कर्षतः, हम सभी एकात्म अर्थशास्त्री हैं। हम सब मिलकर उन आर्थिकियों को उनसे पुनः पा सकते हैं, जिन्होंने उन्हें चुरा लिया था। इकॉनॉमिक्स शब्द यूनानी OIKOS (घर) तथा NOMOS (नियम/प्रबंधन) से बना है। किसका घर? किसका प्रबंधन? हमारा घर! हमारा सामूहिक आत्मप्रबंधन! सब मिलकर हम अपने घरों के सुरक्षा, देखभाल, प्रेम, उपचार, वृद्धि तथा एकात्मता के घर बना सकते हैं।
- ईथान मिलर
(रूपांतर : नंदकिशोर आचार्य)
एक्विनास, सेंट थॉमस : संत थॉमस एक्विनास (1225-1274 ई०) मध्यकाल के वह दार्शनिक हैं जिन्होंने ईसाई धर्मशास्त्रीय अवधारणाओं को अरस्तू-पद्धति से पुष्ट करने का प्रयास किया। उनका मानना था कि दर्शन प्रदत्त तथ्यों का विश्लेषण कर सत्य को जानने की कोशिश करता है, जबकि धर्मशास्त्र इलहाम या श्रुति पर निर्भर करता है। यह दर्शन इस जगत की व्याख्या करता है, जबकि यह जगत, श्रुति-ज्ञान के अनुसार, ईश्वर का प्राकट्य है। ईश्वर आदि कर्ता है, जिसने अपने शुभ के संचार के लिए शून्य में से यह जगत रचा है। यह ईश्वरीय शुभ ही सत्य है, जिसके बारे में जानकारी तो दार्शनिक मीमांसा के माध्यम से हो सकती है, लेकिन जिसकी अनुभूति या ज्ञानानुभूति ईश्वरीय कृपा पर ही संभव है।
यह जगत क्योंकि ईश्वरीय शुभ (सत्य) का प्राकट्य है, इसलिए इस शुभ की उपलब्धि ही जगत का प्रयोजन है। यदि इसमें कुछ अशुभ है तो वह ईश्वरकृत नहीं है, पर ईश्वर उसकी अनुमति देता है ताकि हम अपनी स्वतंत्र इच्छा के आधार पर उसमें से गुजरते हुए परम शुभ तक पहुंच सकें। इस जगत की रचना का प्रयोजन सृष्टि में ईश्वर के शुभत्व का प्राकट्य है, अतः प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का प्रयोजन इस शुभत्व की साधना के परिणामस्वरूप अपने जीवन में इस परम शुभत्व की अनुभूति है। इस प्रकार मनुष्य ईश्वर के ज्ञान के माध्यम से ही अपने वास्तविक आत्म की अनुभूति संभव कर सकता है।
शुभत्व की यह साधना, एक्विनास के अनुसार, ईश्वरीय कृपा से परमानंद (Beatitude) की अनुभूति के रूप में परिणत होती है, लेकिन, इसके लिए नैतिक जीवन अनिवार्य है। नैतिक जीवन का तात्पर्य, एक्विनास के अनुसार, प्रेम और त्याग का जीवन है। एक्विनास यह मानते हैं कि साध्य के आधार पर साधन का औचित्य स्वीकार नहीं किया जा सकता, बल्कि शुभ साध्य के लिए शुभ साधन अपनाना आवश्यक है। इसलिए परमानंद या आशिषानुभूति (Blessedness) के लिए ऐंद्रिक सुखों और बाह्य जीवन का बहिष्कार वांछनीय है। स्वैच्छया गरीबी, ब्रह्मचर्य और आज्ञापालन ऐसी बातें हैं, जिन पर चलकर हम परम शुभ की ओर बढ़ सकते हैं।
दर्शन विवेकशील या बौद्धिक व्यक्ति को महत्त्व देता है, लेकिन परमानंद या ईश्वर की आशिषानुभूति के लिए बौद्धिकता से अधिक पवित्रता वांछनीय है। इसलिए एक्विनास के आदर्श व्यक्ति में प्रेम-सबके प्रति निरपेक्ष प्रेम-की अनुभूति होना आवश्यक शर्त है। आदर्श व्यक्ति वह है जो प्रेम से पवित्र है। निरपेक्ष प्रेमानुभूति में होना ईश्वरानुभूति या परमानंद में होना है क्योंकि ईश्वर तत्त्वतः प्रेम है। प्रेम और ईश्वर में असीम श्रद्धा से प्रेरित होना ही वह आचरण है, जो ईश्वर के प्रयोजन के अनुकूल होने के कारण मुक्ति (Salvation) की ओर ले जाने वाला है।
इस प्रकार थॉमस एक्विनास निरपेक्ष प्रेम के प्राकट्य को ही जगत रचना की प्रेरणा और प्रेमानुभूति की ओर ले जाने वाले आचरण को ही ईश्वरीय आदेश मानते हैं, जिसका निर्वचन ईसाई धर्मशास्त्र में किया गया है। इसके विपरीत आचरण चाहे वह घोषित रूप से किसी अच्छे उद्देश्य के लिए भी किया जा रहा हो, एक्विनास की दृष्टि में धर्माचरण नहीं माना जा सकता। इसी कारण, एक्विनास राज्य से भी यह अपेक्षा करते हैं कि वह इस ईश्वरीय प्रयोजन के अनुसार शासन करेगा। संत आगुस्तीन राज्य को जहां मनुष्य के पापाचरण का परिणाम मानते हैं, वहीं, इसके विपरीत, थॉमस एक्विनास उसे एक दैवी संस्था के रूप में स्वीकार करते हैं, जिसका प्रयोजन अपने नागरिकों को ईश्वरीय प्रयोजन के अनुसार आचरण की प्रेरणा देते रहना तथा उन्हें बाह्य हस्तक्षेप से बचाना है। राज्य द्वारा इस प्रयोजन की पूर्ति न किए जाने की स्थिति में एक्विनास विधिसम्मत रास्ता अपनाने की सलाह देते तथा किसी प्रकार विद्रोह और क्रांति को उचित नहीं मानते। उनकी राय में राजनीतिक व्यवस्था एक ईश्वरीय व्यवस्था है, अतः राज्य का व्यवहार किसी भी तरह के दमन-उत्पीड़न से मुक्त एवं प्रेम अर्थात् ईश्वरीय प्रयोजन से प्रेरित होना चाहिए और उसके विधि-विधान भी इसके अनुसार ही होने वांछनीय हैं। लेकिन यदि राज्य विधि-सम्मत तरीकों की अवहेलना करते हुए अपना दमनकारी व्यवहार जारी रखता है तो, एक्विनास के अनुसार, परिणाम ईश्वर पर छोड़ दिया जाना बेहतर होगा।
एक्विनास द्वारा प्रेम को ईश्वर का स्वरूप मानने तथा सारे मानवीय रिश्तों में इस प्रेम को ही मूल प्रेरणा और अंतिम कसौटी के रूप में स्वीकार करने के कारण स्वयमेव ही अहिंसा का सिद्धांत एक मानव-मूल्य बल्कि मानवीय विधि के रूप में स्थापित हो जाता है। अरस्तूवादी नीतिशास्त्र में भी शुभ की बात केंद्रीय है, लेकिन यह शुभ सांसारिक सुख (Happiness) में है, जबकि एक्विनास उसे परमानंद या आशिषानुभूति के रूप में व्याख्यायित करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप प्रेम या अहिंसा केवल आचरणगत गुण न रहकर आशिषानुभूति का रूप ग्रहण कर लेते हैं। प्रेम केवल बाह्य आचरण अर्थात् अन्य के प्रति व्यवहार न रहकर एक आंतरिक अनुभूति में बदल जाता है। नैतिक का आध्यात्मिक में रुपांतरण हो जाता है-प्रेम साधन ही नहीं, स्वयं साध्य हो जाता है।
- नंदकिशोर आचार्य
एडलर, अल्फ्रेड (Adler, Alfred): मनोविज्ञान की पितृ-त्रयी में फ्रायड और जुंग के साथ अल्फ्रेड एडलर (1870-1937 ई०) को भी शामिल किया जाता है। मनोवैज्ञानिक के रूप में एडलर शुरु में फ्रायड के साथ रहे तथा वियना एनेलेटिक सोसाइटी के अध्यक्ष भी हुए। लेकिन, जुंग व फ्रायड से असहमत होकर शीघ्र ही उन्होंने अपने अलग मनोविज्ञान स्कूल (1912 ई०) की नींव डाली जिसे व्यक्ति मनोविज्ञान अथवा व्यक्तित्व मनोविज्ञान कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि कुछ ही अर्से बाद जुंग भी फ्रायड से असहमत होकर (1914 ई०) अलग हो गए।
फ्रायड और एडलर में मुख्य मतभेद इस बात को लेकर था कि जहां फ्रायड का मनोविश्लेषण दमित यौन वासनाओं पर आधारित है, वहीं एडलर व्यक्ति मन की बनावट में परिवेश अर्थात् बाह्य तत्त्वों की महत्त्वपूर्ण भूमिका स्वीकार करते हैं। एडलर मानते हैं कि मनुष्य का व्यक्तित्व केवल यौन-भावनाओं के आधार पर निर्मित नहीं होता है। प्रत्येक व्यक्ति में शक्ति की आकांक्षा भी होती है, जिसकी सिद्धि में सफलता-असफलता भी उसके व्यक्तित्व के विकास को प्रभावित करती है।
शुरू में यह माना गया कि एडलर के इस सिद्धांत पर नीत्शे के विचारों की गहरी छाप है क्योंकि नीत्शे भी शक्ति की आकांक्षा को केंद्रीय महत्त्व देता है। लेकिन एडलर का राजनीतिक रूझान समाजवादी होने के कारण शक्ति की आकांक्षा की उनकी अवधारणा नीत्शेवादी नहीं हुई। उसका विकास भिन्न दिशा में हुआ और एडलर ने उसका परिष्कार करते हुए उसे व्यक्तित्व की पूर्णता (Perfection) की आकांक्षा की तरह व्याख्यायित किया। उन्होंने हीनता-ग्रंथि (Inferiority complex) और श्रेष्ठता-ग्रंथि की अवधारणाओं का प्रतिपादन करते हुए यह स्पष्ट किया कि प्रत्येक व्यक्ति की अचेतन आकांक्षा श्रेष्ठता प्राप्त करने की होती है। उसमें एक आत्म-आदर्श होता है, जिसे सामाजिक और नैतिक परिवेश से सामंजस्य बिठाना पड़ता है। यदि यह सामंजस्य ठीक से नहीं बैठ पाता तो व्यक्ति में हीन-ग्रंथि विकसित होने लगती है जो अहं-केंद्रीयता, सत्ताकांक्षा और आक्रामकता के रूप में अभिव्यक्त होने लगती है।
इसलिए एडलर उस परिवेश को बहुत महत्त्व देते हैं, जिसके साथ व्यक्ति-चेतना का सामंजस्य होना है। इसी कारण एडलर पारस्परिक संबद्धता और एकत्व के बोध को व्यक्तित्व के विकास के केंद्र में रखते हैं। एडलर चार प्रकार के व्यक्तित्वों का जिक्र करते हैं : (1) गृहीता (Gettling or Leaning)-ये लोग सदैव बिना प्रतिदान के कुछ-न-कुछ प्राप्त करने की आकांक्षा से प्रेरित होते हैं और सामान्यतः असामाजिक हो जाते हैं; (2) बचावात्मक (Avoiding)-ये लोग पराजय या असफलता के डर से कोई जोखिम नहीं लेना चाहते-इनके सामाजिक संबंध सीमित होते हैं; (3) शासक अथवा प्रभु (Ruling or Dominant)-शक्ति हासिल करने के उद्देश्य से किसी भी व्यक्ति, स्थिति अर्थ बात को अपने हित में दलयोजित कर सकते हैं। इनका आचरण सामान्यतः असामाजिक होता है और (4) सामाजिक उपयोगी (Socially useful)-ये लोग समाज को बेहतर बनाने के लिए सक्रिय होते हैं तथा विस्तृत सामाजिक संबंध रखते हैं। एडलर इन प्रकारों को एकायामी नहीं मानते हैं; एक व्यक्ति में एकाधिक प्रकारों का संगम हो सकता है। विश्लेषण की सुविधा के लिए इन्हें प्रस्तावित किया गया है।
एडलर बालक के सामाजिक उपयोगी व्यक्तित्व के विकास के लिए माता-पिता, परिवार और व्यापक स्तर पर पूरे सामाजिक परिवेश को उत्तरदायी मानते हैं तथा उन्हें सलाह देते हैं कि उन्हें ऐसे प्रयत्न करने चाहिए कि बालक परिवार और समाज में अपने को अन्य के समान अनुभव कर सके क्योंकि समानता के बोध के अभाव में या तो उसमें हीन-ग्रंथि का विकास होगा या श्रेष्ठता ग्रंथि का। एडलर को मनोविज्ञान में नारीवाद का समर्थन भी माना जा सकता है क्योंकि वह हीनता-श्रेष्ठता की अवधारणा में परिवेशगत लैंगिक पूर्वग्रह की पहचान भी करते हैं। एडलर व्यक्ति में सामाजिक भावना के विकास को इसलिए भी महत्त्व देते हैं कि इसी के कारण व्यक्ति अन्य से जुड़ाव महसूस करता है। पूर्णता का लक्ष्य केवल वैयक्तिक नहीं है-यह एक आदर्श समाज का लक्ष्य है। यह जुड़ाव, एडलर के अनुसार, केवल मनुष्य-समाज तक सीमित नहीं है। इसमें प्रकृति-भौतिक, वनस्पति एवं मानवेतर जीव-जगत-भी शामिल है अर्थात् संपूर्ण ब्रह्मांड के साथ एकत्व के बोध तक इसका विस्तार होता है। कहा जा सकता है कि एडलर का मनोविज्ञान यहां साकल्यवादी (Holistic) होता हुआ आध्यात्मिक आयाम (Metaphysical Dimension) ग्रहण कर लेता है। माना जाता है कि एडलर की इस अवधारणा पर जान क्रिश्चियन स्मट्स की पुस्तक होलिज्म एंड इवोल्यूशन का प्रभाव रहा है।
एडलर की मनोविश्लेषणात्मक अवधारणाओं का मनोविज्ञान के भावी विकास पर गहरा प्रभाव रहा है। उन्होंने फ्रायड के योगदान की प्रशंसा करते हुए भी मनोविज्ञान को यौन-भावना के सीमित दायरे से बाहर निकालकर सामाजिक परिवेश तथा सामाजिक आदर्श और तत्लक्ष्यार्थी शिक्षा से उसे जोड़ा। मनुष्य यौन-भावनाओं से ही प्रेरित नहीं होता तथा सामाजिक परिवेश और परंपराओं की भी उसके व्यक्तित्व निर्माण में गहरी भूमिका रहती है, इस बात को स्पष्ट करते हुए एडलर ने व्यक्तित्व-विकास के माध्यम से एक साकल्यवादी समतामूलक समाज के मनोविज्ञान की अवधारणा का भी विकास किया। बाद के मनोवैज्ञानिकों में एरिक फ्राम (Eric Froum) तथा विक्टर ई० फ्रेंकल (Victor E. Frankl) पर एडलर का प्रभाव स्वीकार किया जाता है। विक्टर फ्रेंकल यह मानते हैं कि फ्रायड की सुख की आकांक्षा (Pleasure principle) और एडलर भी सत्ता की आकांक्षा से अलग उन्होंने मनोचिकित्सा के तीसरे सिद्धांत की स्थापना की है, जिसे सार्थकता की आकांक्षा कहा जा सकता है। लेकिन जब एडलर शक्ति की आकांक्षा की व्याख्या पूर्णता के परिप्रेक्ष्य में करते तथा पूर्णता की व्याख्या में सामाजिक एकत्व को शामिल करते हुए उसके लिए सक्रियता को महत्त्व देते हैं तो उनकी धारणा सार्थकता की आकांक्षा के बहुत निकट आ जाती है।
एडलर की तीन सौ से अधिक पुस्तकों तथा लेखों में दि प्रेक्टिस एंड थियरी ऑफ इनडिविजुअल साइकोलॉजी, अंडरस्टैंडिग ह्यूमन नेचर, वाट लाइफ कुड मीन टु यू, दि न्यूरोटिक कैरेक्टर, तथा सोशल इंटरेस्ट : ए चैलेंज टु मैनकांइड को विशेष ख्याति मिली है। इन पुस्तकों के शीर्षक ही बता देते हैं कि एडलर समता और बंधुत्व के मूल्यों को मनोविज्ञान-सम्मत मानते तथा उसी दिशा में व्यक्ति और समाज के विकास के लिए मनोवैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करते हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
एपीक्यूरियनवाद : एपीक्यूरियनवाद का उदय यूनान के भौतिकवादी एवं निरीश्वरवादी दार्शनिक एपीक्यूरस (Epicurus) (341-270 ई०पू०) के दार्शनिक चिंतन एवं शिक्षाओं के परिणामस्वरूप हुआ। एपीक्यूरस ने 307-306 ई०पू० एथेंस में एपीक्यूरियन संप्रदाय एवं विद्यालय की स्थापना की। एपीक्यूरस ने अपने आश्रम और संप्रदाय को Garden नाम से स्थापित किया और यह Epicurian Garden के नाम से जाना जाता था। यह Garden एपीक्यूरियनवाद का एक प्राथमिक या आदि प्रारूप था।
एपीक्यूरस मूलतः संवाद के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करता था। एपीक्यूरस ने ज्ञानमीमांसा, भौतिकशास्त्र या तत्त्वमीमांसा, नीतिशास्त्र, धर्मशास्त्र आदि पर अपने दार्शनिक चिंतन को प्रकट किया। वह लेखन का आदी था, अतः उसने वृहद लेखन किया। लेखों, पुस्तकों एवं पत्रों के माध्यम से उसने अपने चिंतन को अपने शिष्यों और संप्रदाय के सदस्यों आदि तक पहुंचाया, किंतु ऐसा होते हुए भी उसकी लेखनी और चिंतन का अधिकांश आज अप्राप्य है। ऐतिहासिक दृष्टि से ईसाइयत के उदय के पश्चात् ईसाई शासन द्वारा एपीक्यूरस के विचारों को अनिश्वरवादी होने के कारण समाप्त किया गया है। डायोजेनीज लाएर्शियस ने तीसरी सदी के पूर्वार्द्ध में 10 खंडों का एक ग्रंथ Lives and the Opinions of the Famous Philosophies प्रकाशित किया जिसमें एपीक्यूरस के जीवन एवं दर्शन के अतिरिक्त विशेष रूप से Epicuru’s will, letter to Herodots जो एपीक्यूरस के तत्त्वमीमांसीय अवधारणाओं के सार (को पत्र के माध्यम से) का विवरण देता है, Letter to Pythocles जिसमें एपीक्यूरस के द्रव्य संबंधी विचार एवं मौसम विज्ञान व अणुओं के संबंध में एपीक्यूरस द्वारा दी गई व्याख्या मिलती है तथा Letter to Menoeceus में एपीक्यूरस के नीति संबंधी विचारों का सार मिलता है। इसके अतिरिक्त इस अध्याय में एपीक्यूरस के जीवन-दर्शन एवं प्रमुख सिद्धांतों के साथ नीति एवं मानवीय जीवन के आदर्शों का निरूपण करने वाले 40 कथन हैं।
इस प्रकार एपीक्यूरस का दर्शन मूल रूप से केवल डायोजेनीज लाएर्शियस के The lives and opinions of famous philosophers के book 10, के अध्याय The life of Epicurus में ही प्राप्त है। इसके अतिरिक्त एपीक्यूरस के विचार बाद के विचारकों में Cicero (106-43 ई०पू०), Lucretius (94-55 श०-ई०पू०) तथा Plutarch (50-120 श०-ई०पू०) के लेखन में प्राप्त होते हैं, किंतु उन्होंने एपीक्यूरस के साथ न्याय नहीं किया है। अतः, दार्शनिक दृष्टि से एपीक्यूरस के विचारों को मूल रूप से डायोजेनीज के लेखन में प्राप्त विवरण और उसके द्वारा लिखे गए तीन पत्रों के माध्यम से ही जानना अधिक उचित है।
एपीक्यूरस ने अपनी तत्त्वमीमांसीय अव-धारणाओं में पदार्थ के सूक्ष्मतम अविभाज्य कणों की सत्ता को स्वीकार किया है और उसी प्रकार सृष्टि की उत्पत्ति मानी है, जैसे पुरुष सूक्त में शून्य या एपीक्यूरस की दृष्टि से Nothing से यह सब कुछ उत्पन्न है। इसलिए अणु, आण्विक गति एवं अस्तित्व की सीमाओं में ही यह संसार गतिशील एवं अभिव्यक्त हो रहा है।
वह मन एवं ज्ञान के व्यापार को अणु निर्मित विश्व की सीमाओं में ही स्वीकार करता है। मन, मति, स्मृति, अवधारणा, इंद्रिय प्रत्यक्ष आदि सभी एक प्रकार की गत्यात्मक आण्विक अभिव्यंजना के रूप में है। वह यह मानता है कि मानवीय चेतना और विश्व में प्राथमिक एवं अंतिम आधार संवेदना अर्थात् इंद्रिय संवेदन है, जिसके अभाव में मानव के लिए कुछ भी अस्तित्ववान एवं संभव नहीं है। अतः ज्ञान एवं सत्य पूर्णतया इंद्रियप्रदत्तों पर टिके हैं। यह संवेदन ही जीवन के अनुभव के प्रामाणिक होने का आधार है।
धर्मशास्त्र की दृष्टि से एपीक्यूरस ने ईश्वर के विश्व का रचयिता होने के सिद्धांत को अस्वीकार कर दिया। एपीक्यूरस के अनुसार विश्व में बुराई (पाप) का अस्तित्व ईश्वर के सर्वशक्तिमान एवं उपकारक देवता होने के सिद्धांत का पर्याप्त खंडन है। इसी प्रकार एपीक्यूरस ने आत्मा के विषय में शरीर एवं आत्मा के सायुज्य को स्वीकार किया है, जिसके अनुसार आत्मा एक नामरहित आण्विक स्वरूप वाली चेतन सत्ता है, जिसे उसने Sui-generis कहा। एपीक्यूरस की दृष्टि से इस संसार का न तो कोई रचयिता है और न ही कोई संहारक। तथापि, वह देवत्व के विचार को स्वीकार करता है। एपीक्यूरस के अनुसार देवत्व की अवधारणा वस्तुतः मानवीय आचरण के उत्कर्ष एवं श्रेष्ठता के आदर्श का निरूपण है। यह एक प्रकार से किसी व्यक्ति की परम आनंदमय एवं कृपापूर्ण अवस्था है और इससे किसी प्रकार के भय की आवश्यकता नहीं है।
अतः, एपीक्यूरस इस संसार को एक स्वस्फूर्त, अंतर्निहित विचलन युक्त आण्विक विश्व मानता है जिसमें मानवीय विश्व एक सीमा तक स्वतंत्र एवं गतिशील है। एपीक्यूरस के पश्चात् मेट्रोडोरस (Metrodorus) (330-277 ई०पू०) तथा हरमेर्कस ( Hermarchus) (325-250 ई०पू०) ने, जो एपीक्यूरस के पश्चात् एपीक्यूरियन गार्डन का मुखिया बना, एपीक्यूरस के सिद्धांत और दर्शन को आगे बढ़ाया। इन दोनों ने एपीक्यूरस के दर्शन पर महत्त्वपूर्ण रचनाएं लिखी, किंतु वे भी आज अप्राप्य है।
प्राप्त विवरणों के अनुसार एपीक्यूरस एक प्रकार का संप्रदाय विकसित करना चाहता था जो तर्क, विवेक, बुद्धि के साथ-साथ व्यावहारिक विवेक से युक्त जीवन को साकार कर सके एवं आदर्श एवं दार्शनिक प्रतिभा से युक्त समाज के व्यवहारों के प्रतिमानों का जीवंत प्रदर्शन कर सके। उसने इसी को ध्यान में रखकर जीवन के सामने दो आदर्श रखे, पहला विवेकपूर्ण आनंद प्राप्त करना न्यायोचित है तथा दूसरा अताराक्सिया (Ataraxia) अर्थात् प्रशांतता-अर्थात् शांतिपूर्ण, उल्लासपूर्ण एवं उत्साहपूर्ण अवस्था।
मानवीय जीवन को वह शांतिपूर्ण एवं विवेकपूर्ण प्रयासों द्वारा अभ्युदय की प्राप्ति के उद्देश्य के रूप में देखता था। उसके अनुसार हमारे अनुभव को हम दो भागों में बांट सकते हैं (1) आनंद या सुख, (2) पीड़ा या दुःख। इसी प्रकार अंतिम लक्ष्य में हम दो परिणाम प्राप्त करते हैं (1) शुभ, (2) अशुभ। शुभ आनंद एवं सुख से युक्त लक्ष्य को प्राप्त करना है। यह विवेकपूर्ण एवं शांतिपूर्ण कर्मों का परिणाम है।
सुख या आनंद भी वह दो प्रकार का मानता है-(1) गत्यात्मक अथवा तात्कालिक जैसे भोजन का आनंद लेना, (2) अपेक्षाकृत स्थाई जैसे निरामयता, नीरोगिता आदि। गत्यात्मक सुख को वह ष्टद्धड्डह्म्ड्ड कहता था। न्याय, सहनशीलता, संयम, साहस आदि के साथ अताराक्सिया के लिए वह दर्शन के अध्ययन को अनिवार्य मानता था। वह मानता था कि दर्शन से व्यक्ति व्यावहारिक विवेक को जगा सकता है। व्यावहारिक विवेक के बिना शांति एवं सुखपूर्ण जीवन संभव नहीं है। प्रशांतता एवं अपेक्षाकृत स्थाई आनंद एवं सुखपूर्ण जीवन के लिए दार्शनिक एवं व्यावहारिक विवेक आवश्यक है, जिससे हम भय से मुक्त हों, हमारे अनुभव और जीवन की सीमाओं को जान सकें, अनुभव की गुणवत्ता का विकास एवं चयन कर सकें। वासनाओं एवं इच्छाओं को बढ़ाना, जो आवश्यकता, प्राकृतिक अनिवार्यता से आगे बढ़ती हो, निश्चय ही उत्तरोत्तर अधिक दुःख और पीड़ा में ले जाता है। इसी प्रकार विवेकपूर्ण जीवन उसका चयन करता है जो अभी तो दुःखपूर्ण प्रतीत होती है, किंतु आगे जाकर स्वयं एवं दूसरों के लिए कहीं अधिक सुख एवं आनंद उत्पन्न करने वाली है जो अधिक स्थाई है, वांछनीय है।
एपीक्यूरस ने मान और प्रसिद्धि उचित नहीं मानी है। उसका कथन है, वह जीवन प्रशंसनीय है जो लोगों के ध्यान से अछूता है। उसने आत्मपूर्णता एवं एकांतिक जीवन को महान माना-ऐसा जीवन जिसमें आवश्यक आनदं एवं सुख के साथ प्रशांतता हो। बाद के दार्शनिकों ने एपीक्यूरस को स्वार्थवादी सुखवाद का पोषक माना है। किंतु स्वयं एपीक्यूरस ने व्यक्तिगत सुख को महत्त्व देते हु ए भी स्पष्ट कहा है एक विवेकी पुरुष यातना में भी आनंद से विचलित नहीं होता।
एपीक्यूरस के अनुसार हम जो कुछ भी करते हैं वह दुःख एवं चिंता से मुक्त होने के लिए करते हैं। वह सुख को आनंदपूर्ण एवं सुखी जीवन आरंभ एवं लक्ष्य (अंत) मानता था।
लेकिन वह निरे सुखवाद या अविवेकपूर्ण या पाश्विक सुख को अपना लक्ष्य नहीं मानता था। सुख से उसका तात्पर्य था-सुख जीवन का लक्ष्य है, इसका यह अर्थ नहीं कि विषयासक्ति, वासना, लंपटता, विलासिता और व्यभिचार सुख है। सुख वही श्रेष्ठ है जो सद्गुणयुक्त जीवन का परिणाम है, जो विवेक एवं बुद्धिमतापूर्ण संयमयुक्त जीवन का परिणाम है। एपीक्यूरस के अनुसार विवेक समस्त सद्गुणों का आधार है। सद्गुण और आनंदमय जीवन परस्पर अवियोज्य है। एक सुखमय, निरामय, नीरोग एवं विवेकपूर्ण जीवन तभी संभव है जब एक व्यक्ति अपने प्राकृतिक आवश्यकताओं और संवेगों पर विजय प्राप्त करे, जिसकी मैत्री अच्छे सद्गुण युक्त लोगों से हो और जो ऐसे सुख का अभिलाषी हो जिसको साज संभाल और श्रमपूर्वक उपयोगी बनाने की आवश्यकता नहीं है-ऐसा सुख जो सहज एवं विवेकयुक्त मानव-जीवन का परिणाम हो।
एक विवेकीपूर्ण जीवन जीने वाला व्यक्ति एक ऋषि है। जो समदृष्टि है, वह अपने विवेक के द्वारा उन सभी संवेगों/अभिप्रेरणाओं (घृणा, शत्रुता, ईर्ष्या और तिरस्कार आदि) को पराभूत कर देगा जो दूसरों की हानि/चोट/हिंसा/पीड़ा का कारण हैं। एक विवेकी व्यक्ति भावनात्मक रूप से अन्यों से अधिक संवेदनशील होता है, किंतु यह उसके विवेकपूर्ण जीवन में कोई व्यवधान उत्पन्न नहीं करती।
भारतीय दृष्टि से विचार करने पर एपीक्यूरस एक ऐसे आदर्श जीवन की कल्पना करता है, जिसमें हम दूसरों को पीड़ा न पहुंचाए, विवेकी बनें, संयमी एवं साहसी बने, न्यायप्रिय बने, ज्ञान एवं सत्य के मार्ग पर चलें, मितव्ययी बने; लेकिन दरिद्र न हों, अपने और अन्यों के साथ अभ्युदय के लिए यत्नशील रहें। सद्गुण युक्त जीवन विवेकी, ज्ञान पर आश्रित, सत्य एवं न्याय से युक्त तो होना है, लेकिन एपीक्यूरस सांसारिक सुख और आनंद को इसके साथ जीवन के लक्ष्य के रूप में रखता है। अहिंसा की दृष्टि से एपीक्यूरस का कथन है कि Neither to harm nor to be harmed क्योंकि एक सुखद एवं आनंदपूर्ण जीवन की यह पहली शर्त है। अहिंसा सद्गुणों की पूर्णता में अभिव्यक्त होती है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि एपीक्यूरस और Garden के सदस्य और उसके अनुयायी शाकाहारी थे।
यह स्पष्ट करता है कि जिस प्रकार जैन धर्म में जीओ और जीने दो का सकारात्मक आदर्श है वही Neither harm nor to be harmed का आदर्श व्यावहारिक विवेकपूर्ण परस्पर सहयोग, मैत्री, शांतिपूर्ण अभ्युदय के मार्ग को प्रशस्त करता है। एपीक्यूरस के दर्शन को सुसंस्कृत चार्वाक की श्रेणी में रखा जा सकता है।
संक्षेप में, कहा जा सकता है कि एपीक्यूरियनवाद एपीक्यूरस के विचार एवं आदर्शों के अनुरूप गठित एक संप्रदाय तथा विद्यालय के रूप में स्थापित हुआ और ईसाइयत के प्रभाव में समाप्त हो गया। मैत्री, आनंद एवं सुखमय जीवन, जिसमें परस्पर सहयोग, शांति एवं संयम के साथ ज्ञान, सत्य, न्याय आदि पूर्वक अभ्यूदय के आदर्श को प्राप्त किया जा सके, यही एपीक्यूरियनवाद का मूल आदर्श है। शाकाहार, विवेकपूर्ण एवं प्रशांतता युक्त जीवन, सद्गुणयुक्त जीवन का आदर्श एक निश्चयपूर्ण, अहिंसक और लौकिक आनंद एवं सुख से पूर्ण जीवन जीने वाले का विकास करना दार्शनिक चिंतन का सार है और व्यावहारिक विवेक द्वारा उसको प्राप्त करना एपीक्यूरियनवाद का परामर्श है। एपीक्यूरस यह नहीं मानता कि शक्ति, धन और नाम या प्रसिद्धि आदि के द्वारा कोई व्यक्ति इस सुख, आनंद और अताराक्सिया (मन की शांति-या-प्रशांतता) को प्राप्त कर सकता है। यह केवल विवेक, सत्य, ज्ञान, संयमपूर्ण जीवन के द्वारा ही प्राप्त हो सकते हैं। फिर भी यह एक संयोग ही है कि ग्रीक भाषा में एपीक्यूरस का शाब्दिक अर्थ है Dark Philosopher -अंधकारमय दार्शनिक। जहां तक अहिंसा का प्रश्न है, स्वयं एपीक्यूरस और उसके संप्रदाय ने इसके मूल्य को समझा है और इसे व्यावहारिक विवेक के निकष के रूप में प्रतिपादित किया है। अहिंसा और विवेकपूर्ण समाज के अभ्युदय के लिए निश्चय एपीक्यूरस का दर्शन स्मरणीय है और रहेगा।
- डॉ० चंद्रशेखर
एरिकसन, एरिक (Erikson, Erik) (1902-1994 ई०) : एरिकसन विकासात्मक मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषक के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने मानव के सामाजिक विकास का सिद्धांत प्रतिपादित कर मनोविज्ञान के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान दिया। एरिकसन की तुलना फ्रायड से की जाती है। एरिकसन ने मानव विकास के आठ मनोवैज्ञानिक चरणों का प्रतिपादन किया, जिनसे मनुष्य को अपने संपूर्ण जीवन-काल में गुजरना होता है। मनोविज्ञान के क्षेत्र में एरिकसन का अस्मिता संकट (Identity Crisis) का सिद्धांत भी विशिष्ट महत्त्व रखता है।
1902 ई० में जर्मनी में फ्रेंकफर्ट में डेनिश परिवार में जन्मे एरिकसन की व्यक्तित्व मनोविज्ञान विषय पर रुचि अपनी प्रारंभिक जीवन स्थितियों के कारण बचपन में ही निर्मित हो गई थी। एरिकसन इस बात से काफी समय तक अनजान रहे थे कि उनका जन्म उनकी माता के विवाहेतर संबंधों के कारण हुआ था। उनकी माता कारला कोपेनहेगन के विशिष्ट यहूदी परिवार से संबंधित थी। उसके पिता एक यहूदी शेयर दलाल थे। ऐसा कहा जाता है कि जब एरिकसन के माता-पिता का विवाह हुआ तब वह अपनी माता के गर्भ में थे। एरिकसन के जन्म के बाद उनकी माता ने नर्स का प्रशिक्षण लेकर एक यहूदी बाल चिकित्सक से विवाह कर लिया। कुछ समय पश्चात् एरिकसन के सौतेले पिता द्वारा एरिकसन को आधिकारिक रूप से अपनाया गया। लंबे कद और नीली आंखों वाले एरिकसन की परवरिश यहूदी धर्म में हुई। उनके व्यक्तित्व विकास का सिद्धांत उनके स्वयं के जीवन से बहुत संबंध रखता है। शिक्षा ग्रहण करने के दौरान टेंपल स्कूल में अन्य विद्यार्थी एरिकसन को नारडिक होने के कारण चिढ़ाते थे और ग्रामर स्कूल में उनके यहूदी होने के कारण स्कूली शिक्षा के दौरान एरिकसन ने बहुत सी भाषाओं को सीखा और कला का प्रशिक्षण लिया; तत्पश्चात् जीव-विज्ञान और रसायन शास्त्र विषय का भी अध्ययन किया। एरिकसन औपचारिक शिक्षा के परिवेश के समर्थन में नहीं थे, इसलिए उन्होंने महाविद्यालय जाने के बजाय यूरोप की यात्रा की और अपने अनुभवों को डायरी में लिखा। वयस्क होने पर एरिकसन विद्यार्थी के साथ-साथ कला के शिक्षक भी बन गए। मनोविश्लेषण की अंतर्निहित योग्यता एवं आकांक्षा और स्वयं के अनुभवों से एरिकसन ने स्वयं को विश्लेषित करने का निर्णय किया। विएना साइकोलोजिकल इंस्टीट्यूट से एरिकसन ने मनोविज्ञान के प्रशिक्षण के साथ-साथ बाल विकास पर आधारित मोंटेसरी शिक्षण पद्धति का भी अध्ययन किया। विएना में नाजियों के सत्ता में आने के बाद एरिकसन अपनी पत्नी के साथ पहले डेनमार्क व बाद में अमरीका चले गए, जहां बोस्टन में वे पहले बाल मनोचिकित्सक बने। एरिकसन ने मैसाचूसेट्स अस्पताल, जज बेकर गाइडेंस सेंटर, हार्वर्ड मेडिकल स्कूल और साइकोलोजिकल क्लीनिक में विभिन्न पदों पर काम किया और एक विशिष्ट चिकित्सक के रूप में ख्याति अर्जित की। 1936 ई० में एरिकसन ने येल विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ ह्वूमन रिलेशंस और मेडिकल स्कूल में शिक्षण-प्रशिक्षण का काम किया। बाद में वे केलीफोर्निया विश्वविद्यालय से जुड़े। 1950 ई० में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक चाइल्डहुड एंड सोसायटी के प्रकाशन के बाद एरिकसन ने 10 वर्ष तक ऑस्टन रिग्स सेंटर और स्टॉकब्रिज में भावनात्मक रूप से व्यथित युवा लोगों के साथ काम किया। 1960 ई० में एरिकसन मानव विकास के प्रोफेसर के रूप में हार्वर्ड लौटे और अपनी सेवानिवृत्ति तक वहीं रहे।
मनोविज्ञान के क्षेत्र में एरिकसन की महत्त्वपूर्ण देन मानव विकास के आठ चरणों की खोज थी। एरिकसन ने फ्रायड की मनोयौनिक (Psychosexual) विकास प्रक्रिया के चरणों को विस्तार प्रदान किया था। उन्होंने फ्रायड के Gevital Stage को किशोरावस्था में विस्तार दिया और वयस्कता के तीन चरणों को और जोड़ा। एरिकसन की पत्नी ने पश्चिमी सभ्यता में बढ़ते हुए जीवनकाल को देखते हुए एरिकसन के मानव विकास के 8 चरणों में एक चरण (Ego Psychology) और जोड़ा। एरिकसन ने अहम् मनोविज्ञान (Child Development) और बाल विकास के संबंध में महत्त्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए। एरिकसन के अनुसार जिस वातावरण में बच्चा रहता है, वह वातावरण बालक के विकास-समायोजन, स्व-जागरूकता एवं पहचान के लिए निर्णायक भूमिका अदा करता है। 1969 ई० में प्रकाशित हुई एरिकसन की पुस्तक Gandhi’s Truth जीवन में प्रयोग में लाए जाने वाले ऐसे सिद्धांतों पर आधारित थी, जिसके कारण एरिकसन को पुलित्जर पुरस्कार और संयुक्त राज्य राष्ट्रीय पुस्तक पुरस्कार मिला।
एरिकसन के अध्ययन-विषयों का क्षेत्र अत्यंत व्यापक है। उन्होंने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकन सैनिकों की संकटकालीन स्थितियों,साउथ डेकोटा के बच्चों के पालन-पोषण के तरीकों, परेशान व सामान्य बच्चों का खेल, व्यक्तित्व पहचान से ग्रसित किशोरों का वार्तालाप और भारत के सामाजिक व्यवहार जैसे गहन विषयों को अपने चिंतन का आधार बनाया। एरिकसन अमेरिका में घटित होने वाले सामाजिक परिवर्तनों के प्रति भी उतने ही जागरूक थे और साथ ही उन्होंने पीढ़ी अंतराल, जातीय तनाव, किशोर अपराध, बदलती सामाजिक दशाओं और आणविक युद्ध के खतरों के बारे में भी लिखा। उनके लेखन में चाइल्डहुड एंड सोसायटी, यंग मैन लूथर, आइडेंटिटी : यूथ एंड क्राइसिस, गांधीज ट्रुथ, वाइटल डेवलपमेंट इन ओल्ड एज आदि प्रमुख है।
एरिकसन के नवीन, प्रखर और बहुविषयक चिंतन के कई स्रोत रहे हैं। एरिकसन के नैसर्गिक कलात्मक स्वभाव और कलात्मक अनुभूति ने उनकी संवेदन-क्षमता तथा व्यवहार व व्यक्तित्व की सूक्ष्मता को समझने में योगदान दिया। उनके संतुष्ट पारिवारिक जीवन और Laurence K. Frank, Margaret Mead, A.L. Kroeber और Gardner Murphy जैसे लोगों से व्यापक संपर्कों ने एरिकसन के लिए मानवीय व्यवहार के अध्ययन को और अधिक परिपक्व बनाया। प्रशासनिक अनुशासन के कठोर नियमों की स्वतंत्रता ने एरिकसन को मूल सिद्धांतों को प्रतिपादित करने और मनोविज्ञान के क्षेत्र में नई अनुकूलता और नए अर्थ देने के लिए प्रेरित किया। जीवन के प्रति प्रेम उनके स्वभाव में था तथा विभिन्न आयु वर्ग के लोगों एवं विभिन्न संस्कृतियों से अंतर्क्रिया उनके ओजस्वी चिंतन और लेखन का स्रोत बनी। उनकी इस विशेषता ने अनेक क्षेत्र के विद्यार्थियों को प्रभावित किया। एरिकसन के विचार उस समय परिपक्वता की स्थिति में आए जब पश्चिमी युवा का भाग्य हिंसा और मूल्यहीनता के द्वारा भयभीत था। वह ऐसा समय था जब स्वास्थ्य, मूल्य और शक्ति जैसे तत्त्वों को समझने और समर्थन देने की आवश्यकता थी। उनकी उत्तरकालीन पुस्तकों ने इन विरोधी युवाओं की मांग का पूर्वानुमान लगा लिया था, जो राजनीति के झूठ को त्याग चुके थे, जिन्होंने आर्थिक भौतिकवाद को त्याग दिया था और जिनकी पुकार सादगी, शांति, प्रेम और मानवीय मूल्यों की थी।
बाल-विकास विशेषज्ञ एरिकसन ने अपने विकास के सिद्धांत को चाइल्डहुड एंड सोसायटी पुस्तक में आबद्ध किया है। एरिकसन ने फ्रायड के विकास के सिद्धांत के मूल अभिप्राय को समझा था, पर उनका यह विश्वास था कि मानव विकास के कुछ पहलुओं के साथ फ्रायड ने अन्याय किया है। एरिकसन के अनुसार मनुष्य के विकास की प्रक्रिया जीवन पर्यंत चलती है, जबकि फ्रायड के अनुसार पांच वर्ष की आयु के पश्चात् मनुष्य के व्यक्तित्व को आकार मिलता है। एरिकसन ने आठ मनोवैज्ञानिक चरणों की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसे मनुष्य अपने पूरे जीवनकाल में पूरा करता है। जीवन के इस प्रत्येक चरण में मनुष्य आंतरिक संघर्ष का सामना करता है और उसे उस संघर्ष से बाहर निकलना होता है। एरिकसन ने इन आठ चरणों को शैशव अवस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था, युवावस्था व प्रौढ़ावस्था में क्रमशः वर्गीकृत किया है। एरिकसन के अनुसार मानव विकास का प्रथम चरण विश्वास बनाम अविश्वास (Trust Vs. Mistrust) है। इस अवस्था का उद्भव लगभग जन्म से लेकर एक वर्ष तक होता है। उनके अनुसार इस अवस्था में विश्वास की विशेषता प्रमुख होती है जो शिशु को मूलतः अपनी माता से प्राप्त होती है। शिशु में विश्वास की यह भावना शिशु को अन्य पर विश्वास करने अथवा न करने की सीख देती है। एरिकसन के अनुसार शिशु में विश्वास का यह अनुभव उसकी देखभाल के स्तर और देखभाल करने वाले लोगों के शिशु के साथ संबंध पर निर्भर करता है। उनके अनुसार जब शिशु को भूख लगने पर भोजन की प्राप्ति और आराम की आवश्यकता होने पर आराम की प्राप्ति होती है, तो उसमें विश्वास का जन्म होता है। वह यह भी कहते हैं कि इस अवस्था में बच्चों में कुछ अविश्वास भी होना आवश्यक है, जिससे ईमानदार और बेईमान का फर्क मालूम हो सके। एरिकसन के अनुसार यदि इस अवस्था में विश्वास पर अविश्वास की जीत हो जाती है तो बच्चा कुंठित, अंतर्मुखी एवं संदेही स्वभाव वाला बन जाता है एवं साथ ही इसमें आत्मविश्वास का भी अभाव हो जाता है।
एरिकसन के अनुसार मानव विकास की दूसरी अवस्था स्वायत्तता बनाम शर्म और संदेह (Autonomy Vs. Shame and Doubt)) का समय 2 से 3 वर्ष की आयु में होता है। इस अवस्था में बालकों का मुख्य कार्य अपनी स्वायत्तता का निर्माण करना होता है। यह स्वायत्तता बालकों में आत्म-नियंत्रण (Self-Control) सीखने और अपनी पसंद के निर्माण के दौरान प्रकट होती है। इस अवस्था में यह आवश्यक होता है कि अभिभावकगण बालकों के विकास के लिए ऐसे अनुकूल वातावरण का निर्माण करे, जिसमें बच्चा अपने आत्म-सम्मान को खोए बिना आत्म-नियंत्रण करना सीख सके। इस अवस्था में बालकों में आत्मनियंत्रण और स्वायत्तता के संबंध में संदेह और शर्म की संभावना इसलिए रहती है क्योंकि यह संभव है कि बालकों में अपनी पूर्वावस्था में विश्वास का विकास अपर्याप्त हुआ हो अथवा माता-पिता के द्वारा बच्चों की इच्छा पूरी न होने पर वह टूट गया हो। एरिकसन के अनुसार बालक इस अवस्था में घर के कुछ कानूनों और नियमों से परिचित होता है। विकास की इस अवस्था में सामाजिक नियमों और कानूनों की अनुपालना के दौरान आने वाली कठिनाइयों से उत्पन्न भ्रम और संदेह को जीतने में बालकों का आत्मविश्वास सहायक होता है।
एरिकसन के अनुसार मानव विकास-प्रक्रिया का तीसरा चरण पहल शक्ति बनाम अपराध बोध (Initiative Vs. Guilt) है। 4 से 5 वर्ष की उम्र में विकास की यह अवस्था आती है, जिसमें यह पता चलता है कि बालक किस तरह का है अथवा बालक का व्यक्तित्व किस दिशा में जा रहा है। इस अवस्था में बालक सक्रियता से अपने पर्यावरण में खोजबीन करने लगता है और अपने कार्यों को स्वयं करने की पहल करने लगता है। इसमें बालकों को अपने दायित्व का बोध होने लगता है, जिससे पहल शक्ति का भी विकास होता है। एरिकसन के अनुसार इस अवस्था में बालकों में लक्ष्य की ओर बढ़ने की योग्यता का विकास होता है। साथ ही, यह भी संभावना रहती है कि स्वयं पर प्रभाव डालने के दौरान बालक अपराध बोध से ग्रसित हो जाए। एरिकसन के मत में इस अवस्था में बालकों में कुशलता का विकास कर इस अपराध बोध की क्षतिपूर्ति की जा सकती है।
एरिकसन की मानव विकास प्रक्रिया का चौथा चरण परिश्रम बनाम हीनता (Industry Vs. Inferiarity) है, जो लगभग 6 वर्ष की आयु में आता है। यह वह समय होता है जब बालक ज्ञान और कार्य के बड़े विश्व में प्रवेश करना चाहता है। इस अवस्था के घटनाक्रमों में से मुख्य है-बालक का विद्यालय में प्रवेश। विद्यार्थीकाल के दौरान बालक की नए कायरें को करने का सामर्थ्य एवं योग्यता उसे अपूर्णता की भावना को बाहर निकालने में सहायक होती है। एरिकसन के अनुसार इस अवस्था में बालक अपने समाज की विभिन्न तकनीकों यथा-पुस्तक, क्राफ्ट, चित्र, मानचित्र, सूक्ष्मदर्शी, फिल्म, टेपरिकार्डर आदि से परिचित होता है। इस अवस्था का लक्ष्य मूल रूप से बालकों की योग्यताओं का विकास करना होता है। इस अवस्था में बालक में सीखने की प्रक्रिया केवल विद्यालय में ही नहीं, अपितु घर, मित्रों के घर, गली-मोहल्ले आदि में भी चलती रहती है। एरिकसन के अनुसार इस अवस्था के अच्छे अनुभव बालक में परिश्रम, समर्थता एवं अधिकार की भावना का विकास करते हैं, वहीं दूसरी ओर बुरे अनुभव बालक में हीनता एवं अपूर्णता की भावना को बढ़ाते हैं, जो उसके लिए अच्छा नहीं है। एरिकसन के अनुसार इस अवस्था में पिछले विकास चरणों का विकास भी जुड़ जाता है। साथ ही ये सभी विकास के चरण आगे की विकास प्रक्रिया को जोड़ने के लिए आधार का कार्य करते है। किसी एक विकास के चरण की कठिनाई भविष्य के विकास में बाधा पहुंचाती है।
मानव-विकास-प्रक्रिया का एरिकसन का अगला चरण पहचान बनाम् पहचान का भ्रम (Identity Vs. Identity Confusion)) है। एरिकसन की पिछली चार अवस्थाओं के तत्त्व इस पांचवे चरण में योगदान देते हैं। इस समय किशोरों में पहचान का तत्त्व अपने उच्चतम स्तर पर होता है। किशोरावस्था के इस चरण में बालकों में अपनी बदलती शारीरिक एवं भावनात्मक स्थितियों के बीच स्वयं की पहचान का निर्माण करना होता है। एरिकसन पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने जीवन की इस अवस्था के साथ अस्मिता संकट पद का प्रयोग किया। उनके अनुसार इस अवस्था में किशोरों के पास व्यक्तित्व पहचान के अनेक विकल्प होते हैं और उनमें से चयन का भ्रम और चिंता किशोरों को रहती है। इस अवस्था से ही व्यक्ति को निश्चित मूल्यों और लक्ष्यों की ओर गतिमान होना होता है। विकास की इस अवस्था में किशोरों को अपने शारीरिक विकास और लैंगिक परिपक्वता का सामना करने के साथ-साथ शिक्षा और भविष्य निर्माण के विविध विकल्पों में से भी चयन करना होता है। एरिकसन के मत में जिन युवा लोगों में अपनी पहचान के संघर्ष से लड़ने के लिए स्वजागरूकता का अभाव होता है, उनमें उपलब्ध विकल्पों की व्याख्या करने की असमर्थता होती है; उन युवाओं का विकास वयस्कता में अवरूद्ध हो जाता है।
एरिकसन की मानव-विकास प्रक्रिया का छठा चरण घनिष्ठता बनाम अलगाव (Intimacy Vs. Isolation) है, जो युवावस्था के दौरान आता है। इस अवस्था का केंद्र व्यक्ति का अन्य लोगों के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित करना होता है। एरिकसन के अनुसार ऐसा तभी संभव हो पाता है जब पिछले चरण में व्यक्ति के व्यक्तित्व को एक समग्र रूप से पहचान मिल गई हो।
मानव-विकास-प्रक्रिया का अगला चरण उत्पादकता बनाम निष्क्रियता (Generativity Vs. Stagnation) है। इस चरण का मुख्य केंद्र आने वाली पीढ़ी को उपयोगी जीवन जीने के लिए प्रेरित करना है। इस काम में व्यक्ति को अपनी योग्यता को ऐसे कायरें और गतिविधियों में समर्पित करना होता है, जिनका सकारात्मक प्रभाव आने वाली पीढ़ी पर पड़ सके। जब व्यक्ति यह अनुभव करता है कि उसने भावी पीढ़ी की सहायता के लिए कुछ नहीं किया है तो उसके अनुभव निष्क्रिय हो जाते हैं। एरिकसन के अनुसार इस अवस्था में व्यक्ति के पास दो विकल्प उपलब्ध होते हैं-उत्पादक बनने का और दूसरा स्वकेंद्रित व निष्क्रिय बनने का।
एरिकसन की विकास प्रक्रिया का अंतिम चरण है एकात्मकता बनाम पृथकता (Integrity Vs. Despair)। यह चरण युवावस्था के बाद आता है। यह वह समय होता है जब व्यक्ति अपने पूर्व के बिताए गए जीवन का अवलोकन कर उसका विश्लेषण करता है। यदि व्यक्ति का विकास पिछले चरणों में समुचित रूप से हुआ है तो वह उसके जीवन को समग्रता प्रदान करता है और विकास यदि सकारात्मक नहीं हुआ है तो व्यक्ति निराशा का अनुभव करता है। एरिकसन के अनुसार यदि व्यक्ति ने इस अवस्था तक आते-आते पिछले चरणों को समुचित रूप से पार किया है और विकास के पिछले चरणों में आए संघर्ष को समाप्त किया है तो व्यक्ति अपनी वृद्धावस्था की कमजोरियों से लड़ने के लिए शक्ति और बुद्धि की प्राप्ति करते हैं।
एरिकसन के विकास की प्रक्रिया के उपरोक्त चरणों में अस्मिता-संकट की अवधारणा मुख्य है। एरिकसन के अस्मिता का संकट (Identity Crisis) और अस्मिता का भ्रम (Identity Confusion) के सिद्धांत उनके स्वयं के जीवन के अनुभवों पर आधारित है। उनका भ्रम यह था कि उनकी परवरिश यहूदी माहौल में हुई, जबकि उनके लक्षण डेनिश परिवार के थे। अपनी पहचान के इसी भ्रम के कारण एरिकसन अंतर्मुखी बन गए। बचपन की अपनी व्यक्तित्व पहचान की इस उलझन को दूर करने के लिए एरिकसन ने 1920 ई० के बाद अपना नाम बदलकर Erik Hamburger Erikson कर लिया। अपने जीवन के अनुभवों के आधार पर विकास के मनोवैज्ञानिक चरणों का प्रतिपादन कर एरिकसन 20वीं सदी के रचनात्मक और नवाचारों की शृंखला में प्रमुख बन गए। एरिकसन का विकास का यह सिद्धांत व्यापक रूप से प्रभावशाली रहा। 1970 ई० में एक पत्रकार Gail Sheely ने एरिकसन के विकास के सिद्धांत को अपने बहुचर्चित आलेख Predictable Crises of Adult Life में विस्तार देकर उसे प्रसिद्ध किया।
- वंदना कुंडलिया
औपनिषदिक अहिंसा : सभी प्राणियों को मनसा, वाचा, कर्मणा दुख न पहुंचाने वाला सिद्धांत अहिंसा है। शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से हिंसा का त्याग ही अहिंसा है, लेकिन उपनिषद अहिंसा को केवल निषेधात्मक आदर्श न मानकर, कहीं अधिक व्यापक मानते है। इसका मतलब न केवल दूसरों को हानि पहुंचाने से बचना है, बल्कि परोपकार की भावना से सचेष्ट रहकर दूसरों को अपने समान प्रेम करना है। अतः उपनिषदों का अहिंसावाद आत्मवत् सर्वभूतेष की भावना पर आधृत है। यह भावना अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष की जगह उसके भावात्मक पक्ष को पुष्ट करती है, जिसका मूल भाव सबके प्रति आत्मवत् व्यवहार रखना और अपने समान स्नेह करना है। उपनिषदों की तरह बाइबल में भी माना गया है कि अपने पड़ोसी को अपने ही समान प्यार करो। किंतु मैं ऐसा क्यों करूं? प्राकृतिक दृष्टि से मैं तो केवल अपने ही सुख-दुख का अनुभव करता हूं, अपने पड़ोसी के सुख-दुख का नही। इस प्रश्न का उत्तर उपनिषदों का महावाक्य तत्त्वमसि बड़ी आसानी से देता है कि आप अपने पड़ोसी को अपने ही समान इसलिए प्यार करेंगे, क्योंकि आप और आपका पड़ोसी एक है। अतः तत्त्वमसि महावाक्य अहिंसा के भावात्मक पक्ष को उजागर करता है। लेकिन, उपनिषदों में अहिंसा सिद्धांत का प्रथम उन्मेष इसके निषेधात्मक अर्थ से ही हुआ, क्योंकि उस समय यज्ञ में पशुबलि की प्रधानता थी और उपनिषदों का विकास इस वैदिकी हिंसा की प्रतिक्रिया के रूप में ही हुआ, जो सही मायनों में हिंसा के प्रतिकार और अहिंसक चेतना को जागृत करने वाला प्रथम भारतीय आंदोलन कहा जा सकता है। उपनिषद युग से पूर्व वैदिक काल में यह मान्यता जन मानस में घर की हुई थी कि वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, लेकिन उपनिषदों ने याज्ञिक कर्म में, हिंसा परंपरा का खुलकर विरोध करते हुए कहा कि यज्ञों से श्रेय लाभ की जो आशा करता है वह मूढ है (मुंडकोपनिषद 1/2/7)। अतः, उपनिषदों में हिंसात्मक कर्मकांडीय यज्ञों के स्थान पर अहिंसापरक ज्ञानयज्ञ को प्रमुखता दी जाने लगी। उदाहरणतः, अश्वमेज्ञ यज्ञ को, जिसमें पशु घोड़े की बलि दी जाती है, बृहदारण्यक उपनिषद् (1/1/1) सूक्ष्म यज्ञ बना देता है और ध्यान की एक क्रिया में रूपातंरित कर देता है, जिसमें ध्याता अश्व के स्थान पर संपूर्ण जगत को समर्पित करता है।
यहां यह बतलाना प्रासंगिक होगा कि अहिंसा शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग छांदोग्य उपनिषद में इस प्रकार हुआ-अथ यत्तपो दानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणाः (छांदोग्य उपनिषद् 3/17/4)’ अर्थात जो व्यक्ति तप, दान, ऋजुता, अहिंसा और सत्यवचन में जीवन व्यतीत करता है, उसका जीवन मानों दक्षिणा का जीवन है। अतः, यहां अन्य सद्गुणों के साथ ही अहिंसा को जीवन में उतारने की शिक्षा दी गई है।
इसके साथ ही कठोपनिषद (1/10) में उल्लिखित नचिकेता और यम का संवाद भी अहिंसा की संकेतात्मक विवेचना है। जब यम नचिकेता के व्यवहार से प्रसन्न होकर उससे तीन वर मांगने का अनुरोध करते हैं, तब नचिकेता यमाचार्य से पहला वर अपने पिता के क्रोधित स्वभाव को शांत करने का मांगते हैं, क्योंकि क्रोध एक तरह से मानसिक हिंसा है। नचिकेता के पिता ने क्रोध में आकर उसे मृत्यु को सौंप दिया था। इसलिए नचिकेता यमाचार्य से प्रार्थना करते है कि मुझे प्रथम वरदान यह दो कि मेरे पिता शांत संकल्प और क्रोध रहित हों और जब आप मुझे उनके पास पुनः भेजें तो वे मेरे साथ प्रसन्न चित्त रहें। यहां स्पष्ट है कि नचिकेता अपने पिता के क्रोधयुक्त व्यवहार से मृत्यु को प्राप्त होते हैं, लेकिन नचिकेता मृत्यु के मुख में जाकर भी बिना डरे-सहमें अपने पिता के व्यवहार से क्रोध के भावों को शांत कर स्वयं के प्रति प्रसन्न होने का वरदान मांगते हैं। नचिकेता के इस वरदान से अहिंसा के दोनों ही सकारात्मक और नकारात्मक पक्षों की संकेतात्मक पुष्टि होती है। नकारात्मक दृष्टि से वे पिता के क्रोध को शांतचित्त करना चाहते हैं, वहीं अहिंसा में सकारात्मक रूप में वे पिता को प्रसन्न चित्त करना चाहते हैं।
वस्तुतः, उपनिषदीय दृष्टि से अहिंसा सिद्धांत उपनिषदों की समस्त तत्त्व-मीमांसा का बुनियादी आधार है। इस संदर्भ में ईशोपनिषद के निम्नलिखित सूत्र अहिंसा-सिद्धांत का समष्टिगत प्रतिपादित करते हुए प्रतीत होते है-यस्तु सर्वाणि भूतान्यात्मन्यवानुपश्यति। सर्वभूतेषु चात्मांन ततो विजुगुप्सते।/यस्मिन् सर्वाणि भूतान्या-त्मैवाभूद्विजानतः। तत्र को मोहः कः शोक एकत्वमनुपश्चतः। (ईषावास्योपनिषद् 1/6,7)
यहां भाव है कि जो मनुष्य समस्त भूतों को अपनी आत्मा में ही देखता है और अपनी आत्मा में ही समस्त भूतों को देखता है, वह किसी से घृणा नहीं कर सकता, अर्थात् जो मनुष्य प्राणीमात्र को सर्वाधार परब्रह्म परमात्म में देखता है और सर्वांतर्यामी परब्रह्म को प्राणीमात्र में देखता है, वह कैसे किससे घृणा व द्वेष कर सकता है, क्योंकि वह स्वयं में ही सबके दर्शन करता है और सब में स्वयं को देखता है। कोई भी स्वयं को हानि नहीं पहुंचाता। यहां मनसा, वाचा व कर्मणा हिंसा के त्याग का भाव व्यक्त होता है। दूसरा मंत्र इससे भी आगे जाकर बताता है कि जीव समस्त भूतों को अपने रूप में जानता है और दर्शनीय समस्त भूत मेरी आत्मा हो गए हैं, ऐसी दृष्टि रखने वाला मनुष्य परमात्मा को भलीभांति पहचान लेता है। तब वह प्राणी मात्र में एक मात्र तत्त्व परब्रह्म परमात्मा को ही देखता है।
अतः, उनके प्रति पाप,घृणा, द्वेष व उनको क्षति पहुंचाने की जगह उनसे दया, करुणा और मैत्री की अनुभूति का जन्म होता है।
प्रथम सूत्र जहां अहिंसा के निषेधात्मक पक्ष को उभारता है, वही द्वितीय सूत्र अहिंसा के भावात्मक पक्ष को पुष्ट करता है। अतः, स्पष्ट है कि एक में अनेक और अनेक में एक सिद्धांत द्वारा उपनिषदें अहिंसा सिद्धांत को प्रस्तुत करती हैं। इस तथ्य की पुष्टि अनेक उपनिषदीय वाक्यों से होती है जैसे-स ते आत्मा सर्वान्तरः (बृह.उप.) अर्थात् वह तेरा आत्मा सबके भीतर है एष ते आत्मा सर्वान्तर (बृह.उप.) यह तेरा आत्मा सबके भीतर है। तत्त्वमसि (छा. उप.) अर्थात् वह (ब्रह्म) तू (जीव) है। अयमात्मा ब्रह्म (मा. उप.) यह आत्मा ब्रह्म है, अहंब्रह्मस्मि (बृह.उप.) मैं ही ब्रह्म हूं। सर्वंखल्विंद (छा.उप.) नेहनानास्ति किचंन (बृह.उप.) इन समस्त उपनिषदीय वाक्यों से स्पष्ट होता है कि हमारी आत्मा और ब्रह्म एक ही है।
यहां उल्लिखित अहंब्रह्मस्मि महावाक्य में अहिंसा की चेतना का वह मर्म छिपा हुआ है, जो विश्व के किसी अन्य दर्शन में देखने को नहीं मिलता। अहिंसा संबंधी समस्त पुस्तकीय ज्ञान का व्यावहारिक पक्ष अहंब्रह्मस्मि में प्रतिफलित होता है, क्योंकि यह एक महावाक्य ही इस सत्य को सिद्ध करने के लिए काफी है कि जो जीवन किसी एक प्राणी के अंदर है, वही जीवन दूसरे प्राणी के अंदर भी मौजूद है। जब सबके भीतर एक ही जीवन व्याप्त है, तब दूसरे को दुख देना असल में स्वयं को ही दुख देना है; अतः, इस दुख से बचने के लिए अहिंसा अनिवार्य है। अंहब्रह्मस्मि की अनुभूति आत्मबोध या आत्मज्ञान से होती है और आत्मज्ञान से हिंसा नष्ट हो जाती है। इसीलिए उपनिषदों में आत्मसाक्षात्कार की बात कही गई है, क्योंकि स्वयं के साक्षात्कार से हिंसा नष्ट होती है, जिससे अहिंसा स्वतः ही प्रतिफलित हो जाती है। उपनिषदीय दृष्टि से स्वयं से साक्षात्कार का उपाय ध्यान, योग-समाधि आदि विधियां है, इसलिए ये विधियां अहिंसा के प्रतिफलन की भी है। इन विधियों द्वारा आत्मज्ञान हो जाता है तो अहिंसा स्वयमेव जीवन में उतर आती है। अतः, उपनिषदों में अहिंसा का प्रयोगात्मक रूप ध्यान है। उपनिषदों के अनुसार इस ध्यान क्रिया का अधिकारी आत्मज्ञानी का स्पष्ट निर्देश है कि-नाविरतो दुश्चरितान्नाशांतो नासमाहितः।/नाशांतमानसो वापि प्रज्ञानेनैन-माप्नुयात्।। (कठोपनिषद् 2/24)।
अर्थात् जो व्यक्ति दुराचार से हटा नहीं, जो अशांत है, जो तर्क-वितर्क में उलझा हुआ है, जो चंचल चित्त वाला है, वह उसे प्राप्त नहीं कर सकता। उसे प्रज्ञा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यहां दुराचरण व अशांति का स्पष्ट तात्पर्य हिंसकवृत्ति से है अर्थात् हिंसकवृत्ति वाला ब्रह्म को प्राप्त नहीं कर सकता। उसे प्राप्त करने के लिए उपनिषदें हिंसात्मक वृत्तियों पर अंकुश लगाती हैं और अहिंसक विचारधारा को ब्रह्म प्राप्ति का जरिया मानते हुए प्रतीत होती हैं। यह तथ्य प्रश्नोपनिषद के निम्न सूत्र से पूर्णतः प्रमाणित होता है। तेषामसौ विरजो ब्रह्मलोको न येषु जिह्ममनृतं न माया चेति (प्रश्नोपनिषद 1/16) अर्थात् शुद्ध निर्मल ब्रह्म लोक तो उनका है जिनमें कुटिलता नहीं, अनृत नहीं, माया नहीं।
उपरोक्त विवेचन में प्रयुक्त शब्द दुराचार, कुटिलता, असत्य आदि उपनिषदों की दृष्टि से अनुचित या पाप कर्म है और ये पाप कर्म मनुष्य की हिंसक गतिविधियों के ही परिणाम हैं, जबकि पुण्य कर्म अहिंसात्मक भावना के फलन कहे जा सकते हैं, क्योंकि बिना अहिंसात्मक भावों के व्यक्ति पुण्य कर्म की ओर अग्रसर नहीं हो सकता। यदि मन में हिंसक विचारधारा के साथ पुण्य किया जाए तो वह पाप की कोटि में ही आता है। अतः, हिंसा से जहां पाप फलित होता है, वहीं पुण्य कर्म अहिंसा के प्रत्यक्ष परिणाम हैं। उपनिषदीय दृष्टि से पाप और पुण्य को वर्तमान जीवन के साथ मनुष्य को पुनर्जन्म में प्राप्त होने वाली योनि का भी निर्धारिक माना गया है। आगे बताया गया है कि पाप-कर्म करने वाले व्यक्ति छोटे-छोटे जंतु, कीट-पतंगों की तरह बार-बार जन्म लेने वाले बनते हैं। इसलिए अपने को पाप से बचाना चाहिए ताकि इन कीट पतंगों की तरह जन्मते-मरते न रहें, आवागमन के चक्कर में बारंबार न पड़े रहें (छंदोग्य उपनिषद् 5/10/11)।
वर्तमान पारिस्थितिकीय असंतुलन पर विचार करें तो हमारे अविवेकपूर्ण भोग ने हमारे समक्ष पर्यावरण विनाश का महासंकट खड़ा किया है। हम प्रकृति का हिस्सा हैं, प्रकृति से अपने को काटकर केवल स्व मंगल की कामना ने हमें प्रकृति का विरोधी नहीं, अपितु शत्रु भी बना दिया है। स्व-कल्याण हेतु हम प्रकृति के प्रति हिंसक बनते जा रहे हैं। परिणामतः, आज समस्त मनुष्य जाति का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। इस संदर्भ में उपनिषदीय दृष्टि से विचार करें तो हमें अपने स्व को विस्तारित करना है-इतना विस्तारित जिसमें पर भी समाहित हो जाए, तभी सच्चे अर्थों में अद्वैतानुभूति होती है। औपनिषदिक दृष्टि से स्व और पर दोनों एक सत्ता के दो पहलू हैं, चाहे मनुष्य हो या वनस्पति या अन्य जीव सभी उसी एक मूल सत् के भिन्न-भिन्न रूप हैं। अतः, इनमें से किसी के प्रति भी हिंसा भाव रखना मनुष्य को आत्म-अस्तित्व की अनुभूति से दूर ढकेलता है। वहीं एक तत्त्व संपूर्ण प्रकृति में समाया है, इसकी पुष्टि छांदोग्य उपनिषद् (3/19/1-4) से होती है, जहां बताया गया है कि सृष्टि के प्रारंभ में उस परम तत्त्व ने विचार किया कि मैं एक से अनेक हो जाऊ। तब उसने तेज की रचना की। तेज से पानी, पानी से पृथ्वी और अन्न की रचना की इसी तरह संपूर्ण सृष्टि का निर्माण किया। सृष्टि के इन सभी स्वरूपों में वह तत्त्व जीवन रूप में प्रविष्ट होकर उसने उनके अलग-अलग नाम व रूप बनाए जैसे अंडज (पक्षी-मछलियां आदि) जरायुज (पशु मनुष्य) उद्भिज अर्थात् जमीन से उत्पन्न होने वाले जो वनस्पति है। अतः, सृष्टि के अलग-अलग नाम व रूप वाले पदार्थ उसी परमात्मतत्त्व के सहज स्वाभाविक परिणाम या स्वरूप हैं। इसलिए इसमें से किसी के प्रति हिंसक विचार रखना परमात्मा के अस्तित्व को दूषित करना है, क्योंकि सर्वंखल्विदंब्रह्म अर्थात् यह समस्त संसार के रूप में जो दृश्यमान है अथवा अनुभव होता है, वह वास्तव में परमात्मत्व अथवा ब्रह्म ही है और उसके अलावा और कुछ भी नहीं। इस प्रकार मनुष्य से लेकर समस्त जीवों, पेड़, पौधों तक में एक ही आत्म तत्त्व का वास है। उपनिषदों की इस धारणा में जैव नैतिकता का समावेश स्वतः हो जाता है। प्रकृति से छेड़-छाड़ वास्तव में हिंसा ही है, इससे पर्यावरण दूषित होता है और काफी जीव-जंतु काल के ग्रास में समा जाते हैं, मनुष्य के अनैतिक शोधों से पृथ्वी पर अनेक जीव-जंतु विलुप्त होते जा रहे है और एक दिन शायद पृथ्वी पर जीवन ही समाप्त हो जाए। यह हिंसा का समष्टिगत स्वरूप होगा। इसीलिए उपनिषदों की धारणा सभी जीवों के प्रति आत्मवत् भाव को प्रोत्साहित करती है। कहा जा सकता है कि उपनिषदों का अहिंसा संप्रत्यय इतना व्यापक है कि मनुष्य द्वारा वैचारिक समस्त नैतिक संप्रत्यय उसमें अंतर्भूत हैं, चाहे वह जैव नैतिकता हो या पर्यावरणीय नैतिकता। यदि समस्त विश्व औपनिषदिक अहिंसा के मूलमंत्र को पहचान ले तो विश्व में पर्यावरण संबंधी समस्त समस्याओं का अंत संभव है। अहिंसा का मार्ग ही एक ऐसा मार्ग है जो विश्व में जीवन को अनंत काल तक यथावत् रख सकता है। इस प्रकार उपनिषदों की अहिंसा चेतना विश्व बंधुत्व व मानव मात्र के कल्याण का बेड़ा उठाती प्रतीत होती है।
उपनिषदों की तत्त्वमीमांसा जहां समष्टिगत अहिंसा की भावना को व्यक्त करती है, वहीं उपनिषदों की नीतिमीमांसा अहिंसा को एक सद्गुण मानकर उसका वैयक्तिक रूप स्पष्ट करती है। वस्तुतः, अहिंसा अन्य समस्त सद्गुणों की बुनियादी मांग है। अहिंसक चेतना के अभाव में अन्य सद्गुणों की कल्पना करना व्यर्थ है, अर्थात उपनिषदों के व्यावहारिक नीतिशास्त्र में जिन सद्गुणों की विवेचना है, वे समस्त अहिंसा पर आधारित हैं। उदाहरणतः, बृहदारण्यक उपनिषद् (5/2/1-3) में प्रजापति अपनी तीनों संतानों मनुष्य, देवता और असुर को दान, दमन और दया का उपदेश देते है। देवों के लिए भोगों की विपुलता है, अतः उन्हें दमन सद्गुण का पालन अनिवार्य है। असुर स्वभाव से क्रोधी होते है, अतः उनकी हिंसक वृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए दया का पालन जरूरी है। इन तीनों के अतिरिक्त अन्य समस्त उपनिषदीय सद्गुण, दया, क्षमा, करुणा, सहानुभूति, पर-कल्याण जैसी उच्चतर भावनाएं निश्चित रूप से अहिंसा की चेतना को साथ लेकर चलती है।
वस्तुतः, यदि यह कहा जाए तो कोई अति-शयोक्ति नहीं होगी कि उपनिषदों की तत्त्वमीमांसा हो या नीतिमीमांसा, अहिंसा भावना दोनों का अनिवार्य अनुबंध है, क्योंकि जिस अद्वैतानुभूति की उपनिषद् बात करते है, वह अहिंसा का ही अनिवार्य फलन है। अहिंसा ही उपनिषदों के समत्व दर्शन का मूल है। अतः, अहिंसा की चेतना का प्रथम उन्मेष और विकास उपनिषदों में ही हो चुका था, जिसे बाद के महापुरुषों ने उपादेय बनाने का प्रयास किया।
- डॉ० संतोष आचार्य
कन्फ्यूश्यस : कन्फ्यूश्यस के बारे में ज्ञात और सामान्यतया स्वीकृत जानकारी यह है कि उनका जन्म 552 ई० या 551 ई०पू० में लु राज्य में हुआ। यह इलाका आधुनिक शांतङ क्षेत्र में है। वे कुंग परिवार के थे। उनका अपना नाम चियू था और उन्हें कुंग की उपाधि से पुकारा जाता था। कुंग फूत्जे (महान् विद्वान कुंग) का यूरोपीय उच्चारण कन्फ्यूश्यस हो गया और दुनिया में यही नाम सर्वाधिक प्रचलित है। (और इसीलिए इस अनुवाद में भी इसी यूरोपीय नाम का इस्तेमाल किया गया है।)
एक कुलीन लेकिन निर्धन वंश में जन्मे कन्फ्यूश्यस के पिता का निधन जब हुआ कन्फ्यूश्यस तीन वर्ष के थे। वे मेहनती और स्वाध्यायी व्यक्ति थे तथा अनेक विद्वानों के संपर्क में रहे थे। किसी एक निश्चित गुरु के बिना ही उन्होंने अध्ययन किया और संभवतः अपने समय के सर्वाधिक पढ़े-लिखे विद्वान बने। चीन के इतिहास में उल्लिखित वे पहले ऐसे व्यक्ति हुए जिन्होंने अपना पूरा जीवन मूलतः अध्ययन और अध्यापन को समर्पित किया।
युवावस्था में अनेक प्रशासनिक पदों पर काम कर चुके कन्फ्यूश्यस ने इक्यावन वर्ष की अवस्था में पहले न्यायाधीश और फिर लु राज्य के न्याय मंत्री का पद संभाला। राजनीतिक उठा-पटक से जी उचटने पर वे छप्पन वर्ष की अवस्था में अपने शिष्यों के साथ देशाटन पर निकल पड़े। इस अवधि में वे अनेक राज्यों और शहरों में राजनीतिक और सामाजिक सुधार के उद्देश्य से घूमते रहे। अनेक राजाओं, राजकुमारों, सांमतों और कुलीनजनों ने ही नहीं, सामान्यजन ने भी उनसे चर्चा और विचार-विमर्श कर लाभ उठाया। अड़सठ साल की उम्र में वे अपने मूल स्थान पर लौट आए। तिहत्तर वर्ष की अवस्था में उनका देहावसान हो गया। कहा जाता है कि जीवनकाल में उनके तीन हजार से ज्यादा शिष्य रहे।
कन्फ्यूश्यस की शिक्षाओं की सबसे बड़ी और प्रसिद्ध पुस्तक लन यू है जिसमें बीस अनुच्छेदों में विभाजित 499 परिच्छेदों में उद्धरण, संवाद या उनके जीवन से संबंधित घटनाएं वर्णित हैं। इनका संकलन उनके किसी शिष्य (या शिष्यों) ने किया है। इस पुस्तक से जो दर्शन सामने आता है उसके केंद्र में है मानवीयता से परिपूर्ण एक श्रेष्ठ जन।
कन्फ्यूश्यस ने एक श्रेष्ठजन के लिए चूनत्जू शब्द का प्रयोग किया है जिसका शाब्दिक अर्थ है राजा का पुत्र। कई लोग इसीलिए लन यू को सामंतों और राजाओं को व्यवहार तथा राजनीति की शिक्षा देने वाली पुस्तक कहकर खारिज करते रहे। लेकिन पूरा पढ़ने पर स्पष्ट है कि कन्फ्यूश्यस इस शब्द का प्रयोग व्यंजना में कर रहे हैं। गहरे अर्थों में जीवन के साम्राज्य का शासन सुसंचालित करने के लिए एक व्यक्ति में जो राजसी गुण होने चाहिए वे ही उसे असली राजपुत्र बनाते हैं। अतः अनुवादों में इसे राजकुमार या राजपुत्र न कहकर श्रेष्ठजन कहा गया है।
एक श्रेष्ठजन के मौलिक चरित्र को कन्फ्यूश्यस ने जेन (इसे या झेन न समझें) अर्थात् मानवीयता कहा है। इससे पूर्व जेन का अर्थ होता था प्रजाजनों या आश्रितों के प्रति शासक की करुणा। लेकिन कन्फ्यूश्यस ने इस शब्द का भी व्यापक विस्तार देते हुए उन तमाम उदात्त, आदर्श गुणों का संघात बना दिया है जो ताओ के वाहक श्रेष्ठजन में होने चाहिए। अंग्रेजी तथा योरपीय भाषाओं में हुए अनुवादों में इसके लिए इंसानियत, करुणा, सदाशयता आदि के समकक्ष शब्दों का प्रयोग हुआ है पर हिंदी में आदर्श मानव के लक्षण के लिए मानवीयता शब्द का प्रयोग किया गया है।
कन्फ्यूश्यस द्वारा वर्णित श्रेष्ठजन में जो मानवीयता है उसमें एक आदर्श उदात्त मानव का ही चित्र नहीं बल्कि एक ऐसे मनुष्य का वर्णन है जो रोजमर्रा के जीवन में दैनिक व्यवहार में न्याय और औचित्य के आधार पर संतुलन बना कर चल रहा है। यह कृति इन अर्थों में महत्त्वपूर्ण है कि इसमें वास्तविक जीवन का व्यावहारिक स्वीकार करते हुए सामाजिक कर्त्तव्यों और संबंधों के दबावों को मानते हुए और जीवन के अनेक अवसरों पर अनिवार्य किंकर्तव्यविमूढ़ता को समझते हुए, आचरण कैसा होना चाहिए इसका चित्रण है। इसमें शामिल वार्तालाप कोई विचार या अवधारणा पर आधारित नहीं है बल्कि कन्फ्यूश्यस लगातार अपने स्वयं के, प्रसिद्ध लोगों के या फिर अन्य विद्वानों के उदाहरण देकर ठोस तरीके से बात करते हैं।
अपनी शिक्षाओं में कन्फ्यूश्यस उचित आचरण को अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। वे बार-बार व्यवहार और उपलब्धियों को उचित-अनुचित की कसौटी पर कसने की याद दिलाते हैं। औचित्य उनके लिए हर कार्य के मूल्यांकन की अंतिम कसौटी है और इस प्रकार का मूल्यांकन जिस बात को स्थापित करता है वह है-न्याय। कन्फ्यूश्यस का न्याय आश्चर्यजनक रूप से आधुनिक है। वह प्राचीन सामंती जीवन मूल्यों का अतिक्रमण करके पूर्णतः मानवतावादी और समानता के आधारों पर खड़ा नजर आता है। परस्पर सामाजिक व्यवहार और शिक्षा, प्रतिभा आदि के संदर्भ में वे इसी न्याय की स्थापना करते हुए कुलीन एवं धनी तथा कामगार, निर्धन जनों में किसी तरह के मौलिक भेद को अस्वीकार करते हैं।
उनकी यह दृष्टि सहज ही राज-सत्ता के लोकोन्मुखी होने के उपदेशों का आधार बनती है। एकाधिक स्थानों पर वह जनता के विश्वास को राजसत्ता की एकमात्र शक्ति और प्रजा के सुख को शासक का इकलौता साध्य प्रतिपादित करते हैं। इस साध्य के लिए शासक वर्ग और प्रशासनिक अधिकारियों की विलासिता, अयोग्यता और सत्ता संघर्षों को वे बार-बार अनुचित ठहराते हैं और युद्ध तथा वैमनस्य के विरोध में खड़े नजर आते हैं।
अपनी तरह से संघर्षविहीन, अनाक्रामक समाज में ताओ के सहज प्रवाह को मानने वाले कन्फ्यूश्यस बिना इस शब्द का प्रयोग करे गहरे अर्थों में एक अहिंसक समाज की स्थापना का संदेश देते हैं।
अहिंसा यहां व्यक्तिगत व्यवहार में भी फलित होती दिखाई देती है। कोरे परिवर्तन के आदर्श को लेकर किए गए विद्रोह (या क्रांति) को कन्फ्यूश्यस स्पष्ट रूप से गलत मानते हैं। वे औचित्य पूर्ण सुधार के लंबे रास्ते को अपनाने का संकेत करते हैं। प्रचलित सामाजिक रीतियों, अनुष्ठानों, संस्कारों और पारिवारिक संबंधों के व्यवहार का केवल तर्क-वितर्क के आधार पर उल्लंघन उनकी दृष्टि में समरसता को तोड़ने वाला है। वे भावनात्मक संबंधों को पूरी अहमियत देते हुए विनयशीलता, संतान धर्म, सद्व्यवहार, विवेक और निष्ठा का बार-बार उपदेश देते हैं।
इसी प्रकार वे राजकाज, समारोह, धार्मिक अनुष्ठान, खान-पान और शोक से जुड़े तमाम शिष्टाचारों को पूरी तरह से निभाने की सीख देते हैं और अपने निजी जीवन में भी इस सबका पालन करते हैं। एक प्रशासक के रूप में शासन की नीतियों से असहमत होते हुए भी वे अपने पद के धर्म का पालन करते हैं और यदि ऐसा करना संभव न हो तो पद त्याग देते हैं। सिद्धांत के लिए पद, संपत्ति, राज्य और जीवन तक त्याग देने वालों का उल्लेख करते हुए वे उनकी निर्बाध प्रशंसा करते हैं।
इस प्रकार के निजी और सामाजिक व्यवहार में फलित समरसता को अंततः वह मानवीयता से युक्त एक श्रेष्ठजन के विकास का सोपान मानते हैं और अंततः ऐसे समाज की परिकल्पना रूपायित करते हैं जो ताओ की गति के अनुकूल हो। इसके आदर्श व्यक्ति में एक संतुलन है जो आंतरिक विकास को अध्ययन, चिंतन, करुणा, उदारता, विनय आदि से साध रहा है और सामाजिक प्रवाह को न्याय, औचित्य, समानता, अहिंसा और निष्ठा के द्वारा।
- संजीव मिश्र
कबीर : कबीरपंथी मान्यताओं के अनुसार कबीर का समय 1398 से 1518 ई० तक है। स्वतंत्र विद्वानों के बीच उनके जन्मवर्ष पर तो मतभेद है, लेकिन यह सर्वसम्मति से माना जाता है कि कबीर का निधन 1518 ई० के आसपास ही हुआ था। इसका अर्थ यह हुआ कि कबीर ईसा की पंद्रहवीं सदी के अधिकांश में सक्रिय थे। कबीर का जन्म मुस्लिम जुलाहा परिवार में हुआ था, और वे जिद करके स्वतंत्रचेता विचारक रामानंद के शिष्य बने थे। उपासना ही नहीं, सामाजिक व्यवहार के क्षेत्र में भी जातिगत ऊंच-नीच का विरोध करके रामानंद ने भक्ति की समावेशी धारणा का प्रस्ताव और प्रचार किया था।
कबीर पर वैष्णव, नाथपंथी और सूफी जीवन-दृष्टियों का प्रभाव पड़ा था, लेकिन उनकी कविता इन तीनों में से किसी का भी काव्यानुवाद नहीं है। किसी भी बड़े कवि की तरह कबीर अपने समय के महत्त्वपूर्ण विचारों और परंपराओं से संवाद करते हैं, लेकिन अपनी स्वायत्तता बनाए रखकर। इसलिए उनकी कविता में दार्शनिक व्यवस्था न होने की शिकायत और इसे दूर करने के नाम पर कबीर को नाथपंथी या सूफी सिद्ध करने की कोशिशें-दोनों ही कबीर की कविता और व्यक्तित्व के साथ अन्याय हैं।
कबीर अपने समय में ही अत्यंत प्रभावी व्यक्तित्व मान लिए गए थे। उनके कनिष्ठ समकालीन और गुरुभाई, गागरोन के राजा पीपा ने इन मार्मिक शब्दों में कबीर के प्रति अपनी ही नहीं, अपने समय की भी कृतज्ञता प्रकट की है-जो कलि नाम कबीर न होते, तो लोक वेद और कलिजुग मिलि करि भगति रसातल देते।
कबीर निर्गुणपंथी वैष्णव थे, लेकिन उनका सम्मान सभी करते थे। उनके बारे में सबसे व्यंजक बात रसिक संप्रदाय के वैष्णव नाभादास की ही है। अपनी भक्तमाल में नाभादास सभी भक्तों के व्यक्तित्व और योगदान की केंद्रीय विशेषताओं को अत्यंत सटीक ढंग से रेखांकित करते हैं। यही उन्होंने कबीर के प्रसंग में किया हैः भक्ति विमुख जो धर्म सु सब अधरम करि गाए।/योग यज्ञ व्रत दान भजन बिन तुच्छ दिखाए।।/हिंदू तुरक प्रमाण रमैनी सबदी साखी।/पक्षपात नहीं वचन सबन के हित की भाखी।।/आरूढ़ दशा है जगत पर, मुख देखी नाहिंन भनी।/कबीर कानि राखी नहीं, वर्णाश्रम षटदर्शनी।।
नाभादास बता रहे हैं कि कबीर के लिए जीवन और धर्म का मूल प्रतिमान भक्ति ही थी। जो भक्ति की कसौटी पर खरा न उतरे, उस धर्म को कबीर अधर्म और भक्तिविहीन पूजापाठ, कर्मकांड को तुच्छ मानते थे। वे पक्षपातविहीन ढंग से सबके हित की बात करते थे, सब को खुश करने वाली, मुंहदेखी बातें करने में उनकी रुचि न थी। इसीलिए दुनिया में उनका मान है। वर्णाश्रम को अमान्य करने वाले कबीर ने पारंपरिक छह दर्शनों को प्रमाण मानने के बजाय अपने अनुभव को ही प्रमाण माना, और इस प्रमाण को रमैनी, सबदी, साखी के रूप में प्रस्तुत किया।
कबीर-पंथियों के मान्य ग्रंथ बीजक में रमैनी, साखी, सबदी के सिवाय दो-एक काव्य-रूप और भी मिलते हैं। लेकिन कबीर की रचनाओं का प्राचीनतर लिखित संकलन दादूपंथी स्रोतों और आदिग्रंथ में मिलता है। इन्हीं स्रोतों के आधार पर श्री श्यामसुंदर दास ने 1928 ई० में कबीर-ग्रंथावली नामक संकलन तैयार किया था। कबीर के रचना का प्राचीनतम लिखित रूप 1582 ई० के संकलन पद सूरदासजी का में मिलता है, जिसमें कबीर के पंद्रह पद संकलित हैं।
कबीर-पंथ की मान्यता है कि पंथ की स्थापना कबीर ने स्वयं की थी। इसी मान्यता के आधार पर कुछ आधुनिक विद्वान भी कबीर को धर्मगुरु मानते हैं, लेकिन कबीर की अपनी रचनाओं से न तो उनके द्वारा पंथ की स्थापना का कोई संकेत मिलता है, न धर्मगुरु बनने की इच्छा का। सच तो यह है कि ग्रंथावली में धर्म शब्द ही कुल मिलाकर ग्यारह बार आता है, और उनमें से दस बार इस शब्द का प्रयोग विडंबनापरक अर्थ में हुआ है। कबीर का बल धर्मेतर अध्यात्म पर, निज ब्रह्म विचार पर था, किसी नए धर्म-मत की स्थापना पर नहीं।
कबीर ने जन्मगत ऊंच-नीच और धार्मिक भेद-भाव की कठोर आलोचना की है। वे किसी भी धर्म के पूजा-पाठ आदि के बाहरी रूप को व्यर्थ मानते थे। उनकी मान्यता थी कि सहज और सच्ची समाधि वही है जो चलने-फिरने, खाने-पीने, सोने-जागने जैसी दैनिक क्रियाओं में ही परमपद के साथ होने का अहसास कराए। जाहिर है कि ऐसी मनोदशा को सहज बनाना सहज नहीं, इसके लिए संयम और साहस की जरूरत है। इसीलिए समझ रखना चाहिए कि प्रेम का घर खाला का घर नहीं है, इसमें प्रवेश करने के लिए तो सर कटाने का साहस, अपना घर फूंकने की दीवानगी होनी चाहिए। ऐसी अनभय साधना के फलस्वरूप ही उन्मुनि रहनी की प्राप्ति होती है, जिसमें मनुष्य बिना किसी सजग प्रयत्न के सहज रूप से ही सारे जगजीवन में व्याप्त राम को, परमपद को देखता रहता है।
कबीर के लिए उन्मुनि रहनी केवल साधना के पलों तक सीमित नहीं है। वे मांग करते हैं कि दैनिक जीवन का एक-एक पल इस रहनी से स्पंदित हो। यह नहीं कि देवस्थान में जाकर पवित्र बने, बाहर निकलते ही जस के तस हो गए। पवित्रता यदि महत्त्वपूर्ण है तो उसे जीवन में चौबीसों घंटे व्यापना चाहिए। कबीर धार्मिक और अन्य कर्मकांडों की आलोचना इसी निंरतर रहनी के प्रस्थान-बिंदु से करते हैं। कबीर मूलतः प्रेम के कवि हैं। उनकी सामाजिक आलोचना के मूल में उनकी प्रेम-धारणा ही है। इस प्रेम-धारणा के आधार पर ही कबीर सवाल उठाते हैं कि यदि परमात्मा से संबंध प्रेम और संवाद का हो सकता है, तो समाज में किसी को जन्म से ही पवित्र और किसी को अपवित्र मानने का क्या औचित्य है? यदि परमात्मा ने ही सबकी रचना की है, तो किसी को काफिर, किसी को मोमिन कैसे माना जा सकता है?
प्रेम के प्रस्थान से दुनिया को देखने वाले कवि के लिए स्वाभाविक ही है कि सच्ची रहनि की मांग करे। इस रहनि (जीवन-पद्धति) को कबीर अपनी भगति नारदी का परिणाम मानते हैं-भगति नारदी मगन सरीरा। इहि विधि भव तरै कबीरा। यह भी स्वाभाविक है कि अहिंसा कबीर की जीवन-पद्धति के केंद्र में है।
अहिंसा की यह केंद्रीयता केवल कबीर की नहीं, सारे वैष्णव भक्ति-भाव की विशेषता है। नामदेव से लेकर पलटूदास तक सारे भक्त अपनी-अपनी भाषाओं में, अपने-अपने समयों में नरसी मेहता के मुख से निकले सत्य के ही किसी न किसी रूप की याद दिलाते हैं-वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाने रे। कबीर और दूसरे भक्तों के लिए अहिंसा कोई राजनैतिक रणनीति या तात्कालिक भंगिमा नहीं, उनके जीवन-मूल्यों का आधार है।
कबीर का अहिंसा पर इतना अधिक बल है कि मांसाहार के विरोध में रची गई उनकी अनेक पंक्तियों को आक्रामक शाकाहारवाद के पक्ष में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन कबीर की अहिंसा ऐसे शाकाहारवाद तक सीमित नहीं है। उनकी कविता को समग्रता में पढ़ा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि कबीर के लिए अहिंसा का अर्थ है-संयम और करुणा। वही-पीर पराई जाने रे। हिंसा उत्पन्न ही होती है असंयम से, अबाध भोग-लिप्सा से। यह मान लेने से कि प्राकृतिक संसाधनों की रचना बस मनुष्य की भोग-लिप्सा को तृप्त करने के लिए ही हुई है। यह भोग-लिप्सा उस सहजात करुणा को बाधित करती है जिसके कारण मनुष्य मनुष्य है। कबीर की कविता संयम और करुणा पर बल देकर मनुष्य को उसकी मनुष्यता याद दिलाने का काम करती है।
कबीर सब कुछ त्यागकर वैरागी न स्वयं हुए, न आपसे मांग करते हैं कि आप हो जाएं। उनकी मांग थोड़ी ज्यादा कठिन है। संसार में रहते हुए, जीवन-यापन करते हुए भी संचय और संयम का संतुलन बनाए रखने की बात करते हैं कबीर। सांई ऐता दीजिए जामें कुटुम समाए के साथ ही कबीर का यह भी कहना हैः कबीर सो धन संचिए जो आगे कूं होइ।/सीस चढ़ाए पोटली, ले जात न देखा कोइ।।
बहुत सारे धार्मिक और राजनैतिक अभियानों में भोग-लिप्सा को मनोहर नाम देकर हिंसा को जायज ठहराया जाता है। मूल बात है स्वाद की, जिस पर संयम न कर पाने के कारण ही पाखंड भी उत्पन्न होता है, और व्यक्तिगत तथा सामूहिक हिंसा भी। इसीलिए कबीर केवल मांसाहार की ही नहीं, उन साधुओं की भी आलोचना करते हैं, जो बड़ी-बड़ी सेनाएं लेकर एक दूसरे का विनाश धर्म और आस्था के नाम पर करते हैं। मांसाहार की हो, या बाह्याचार की, कबीर जब आलोचना करते हैं, तो अंततः याद यही दिलाते हैं कि भूला वे अहमक नादाना, जिन्ह हरदम राम न जाना। जो लोग विभिन्न बहानों से लोगों को लड़ाने का, हिंसा को जायज ठहराने का काम करते हैं, उनसे और उनकी बात मानने वालों से कबीर का दो टूक कहना हैः उसका खून तुम्हारी गर्दन, जिन्ह तुमको उपदेश दिया। स्याही गई सफेदी आई, दिल सफेद अजहूं नहीं हुआ।
कबीर भक्त थे, ऐसे भक्त जिनके लिए भक्ति केवल उपासना पद्धति नहीं, जीवन-पद्धति या रहनि थी। वे उन्मुनि अवस्था को उचित रहनि की परिणति ही मानते थे। संयम और करुणा से परिभाषित होने वाली अहिंसा कबीर की उन्मुनि और रहनि दोनों का सार है। पंथी मान्यताओं के अनुसार इस जन्म में कबीर का अवतार लेने वाले सत्यपुरुष का पिछला अवतार करुणामय स्वामी के रूप में ही हुआ था। यह इस बात का एक और संकेत है कि आधुनिक लोगों द्वारा कबीर की खोज के दावे किए जाने के बहुत पहले कबीर का अपना समाज उनकी संवेदना का मर्म खोज चुका था।
कबीर एक परंपरा में थे। अहिंसा-दृष्टि की यह परंपरा न तो कबीर से आरंभ होती है, न उनके साथ समाप्त हो गई। हमारे अपने समय में गांधीजी भी अहिंसा को ऐन कबीर और दूसरे संतों की तरह करुणा और संयम से ही परिभाषित करते थे।
कबीर को अपनी प्रेम-धारणा और अहिंसा-दृष्टि पर, दूसरे शब्दों में अपनी रहनि और उन्मुनि पर उससे प्राप्त होने वाली निर्मलता पर इतना भरोसा था कि वे कह सकते थे : ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया। यही नहीं, वे जानते थे कि यदि मनुष्य संयम और करुणा (यानी अहिंसा) का मार्ग अपनाए तो : कबीर मन निर्मल भया जैसे गंगा नीर।/पीछै लागा हरि फिरै कहत कबीर-कबीर।।
- प्रो० पुरुषोत्तम अग्रवाल
कलह शमन : (कॉनफ्लिक्ट-रिजोल्यूशन) : कलह-शमन इन वर्षों में शांति-शोध के एक महत्त्वपूर्ण विषय के रुप में उभरा है। यह ध्यातव्य है कि शांत समाजों में भी कलह संभव है। यह इस पर निर्भर करता है कि कलह से हमारा क्या तात्पर्य है। सामान्य तौर पर कलह का तात्पर्य अव्यवस्था पैदा करने वाली परिस्थिति से लिया जाता है। लेकिन, यह कलह को समग्रतः समझना नहीं है। यद्यपि, कलह के सभी प्रकार एक जैसे नहीं होते, लेकिन, कलह का कोई भी प्रकार एक चेतावनी होता है कि कहीं कुछ गलत हो रहा है। यह एक प्रकार से उस यथास्थिति से असंतोष की अभिव्यक्ति है, जिसे सामान्य और शांतिपूर्ण समझा जाता है। इसलिए कलह की स्थिति को तटस्थतापूर्वक समझा जाना चाहिए ताकि हम उसके अंतर्निहित कारणों को समझकर उनका समुचित हल खोज सकें। प्रो० लास्की ने एक बार कहा था कि लोग मौज करने के लिए विद्रोह नहीं करते; वे विद्रोह करते हैं क्योंकि उनकी वैध शिकायतों और तकलीफों की अनदेखी की जाती है।
लुई क्रिसबर्ग कलह को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि कलह की संभावना तब होती है जब दो या अधिक व्यक्ति अथवा समूह इस मान्यता को व्यक्त करने लगते हैं कि उनके उद्देश्य परस्पर विरोधी हैं। कलह की स्थिति तब आती है जब प्रतिद्वंद्वियों में कम से कम ये चार प्रवृत्तियां लक्षित होने लगती हैं : एक सामूहिक अस्मिता का बोध, एक शिकायत, यह धारणा कि इस शिकायत के लिए दूसरा पक्ष उत्तरदायी है तथा यह विश्वास कि वे दूसरे पक्ष पर दबाव डालकर अपनी शिकायत को दूर या कम कर सकते हैं।
कलह का कारण अन्याय, विषमता, अनुचित व्यवहार, अच्छे शासन के लिए कुछ स्थापित मर्यादाओं से वंचित किया जाना हो सकते हैं। कलह के समाधान का सबसे प्रभावी तरीका उसका तटस्थ निदान और समाधान के लिए रचनात्मक एवं सकारात्मक रवैया अपनाना है।
कलह का कारण हितों में परस्पर विरोध या टकराहट होता है। हितों के कारण सही या गलत धारणाएं बनती हैं, जिनसे घृणा की प्रवृत्ति विकसित हो जाती है, और उसके परिणामस्वरुप शत्रुतापूर्ण व्यवहार। हितों, प्रवृत्तियों और व्यवहार में परस्पर विरोध कलह के त्रिगुण की तीन भुजाएं हैं।
कलह होना स्वाभाविक है, लेकिन, उसका अनिवार्यतः हिंसक होना आवश्यक नहीं। सबसे पहला सरोकार तो कलह को रोकना ही होना चाहिए, लेकिन वह संभव न होने पर उसे सीमित करने, उसके प्रभाव को कम करने और उसका रूप बदलने के प्रयास करते हुए अंततः उसके समाधान की दिशा में अग्रसर होना चाहिए।
चीनी भाषा में चुनौती और अवसर के लिए एक ही शब्द है। कलह दोनों है-एक ऐसी चुनौती जिसका इस्तेमाल एक बेहतर भविष्य के लिए किया जा सकता है। सकारात्मक दृष्टि से लेने पर इस चुनौती का लाभ समाज की सुव्यवस्था के लिए किया जा सकता है, जिससे अतीत की कमियों को दूर किया जा सकता है। कलह के अंतर्निहित कारणों के दूर हो जाने पर विकसित परिस्थिति अधिक स्वीकार्य और शांतिपूर्ण हो जा सकती हैं।
कलह-शमन के कई सोपान हैं। प्रथम, विश्लेष-णात्मक पद्धति जिससे प्रतिद्वंद्वी समूहों के मन को समझा जा सके। दूसरा सोपान है कलह की पूरी प्रक्रिया का उचित प्रबंधन-इसमें कलह को कम करने और उसकी गति को बाधित करने के प्रयास सम्मिलित हैं। तीसरा सोपान है प्रतिद्वुंद्वी पक्षों को किसी मध्यस्थ के जरिए मिलाकर कलह के समाधान के रास्ते और तरीके खोजने के प्रयत्न-यह सबसे रचनात्मक सोपान है। इसमें प्रतिद्वंद्वी पक्षों के सम्मुख समाधान के अभी तक अनन्वेषित प्रदेशों को प्रस्तुत करना ताकि उनके बीच एक उभयनिष्ठ रास्ता बन सके और वे स्वयं अपने पक्ष को एक नई तरह से समझ सकें। कलह-शमन के लिए यह वास्तविक तत्त्व है।
अध्ययन के विषय के रुप में कलह-शमन भविष्य के लिए अपार संभावनाएं लिए है क्योंकि इसमें कलह को अहिंसात्मक तरीके से देखा-समझा-सुलझाया जाता और संवाद एवं समझौते को सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है।
कलह व्यक्तियों-परिवारों-पड़ौसियों के बीच हो सकता है और राज्यों तथा जातीय समूहों के बीच भी। सभी प्रकार की कलहों में कुछ सामान्य तत्त्व होते हैं और धीरे-धीरे उनके शमन के कुछ सर्वाधिक उपाय भी विकसित और व्यवहृत होते गए हैं :
(1) उत्तेजना शांत होने देने के लिए धैर्य रखने की जरुरत।
(2) प्रतिद्वंद्वी पक्षों को तटस्थ भूमि पर मिलाना। इसमें मध्यस्थ पक्ष का होना भी शामिल है।
(3) दोनों ही पक्षों को समान मानते हुए पूर्वग्रहरहित होकर उनकी बात समझना क्योंकि दोनों की अपनी उचित शिकायतें हो सकती हैं।
(4) दोनों पक्षों के मूल्यों और जरुरतों को परिभाषित करना ताकि दोनों एक-दूसरे को समझ सकें।
(5) सबसे बड़ी जरुरत है उभयनिष्ठ क्षेत्र की खोज-इससे समझौते के लिए आवश्यक आधार मिल जाता है।
(6) कलह-शमन के लिए अन्वेषक कल्पनाशक्ति तथा समाधान की खोज में अनवरत लगन जरुरी है।
(7) कलह-शमन को शून्य से पूर्ण समाधान की स्थिति तक पहुंचना होता है।
(8) सामान्यतः, हिंसक कलह की पृष्ठभूमि में अतीत की चुनिंदा घटनाओं की स्मृति सक्रिय रहती है। अहिंसा ही भविष्य की नई संभावनाएं दे सकती है। भविष्य ही नई संभावनाएं पूर्ण कर सकता है। इसलिए अतीत के बजाय भविष्य को केंद्र में रखकर सोचना और सक्रिय होना होता है।
कभी-कभी ऐसा भी होता है कि किसी वास्तविक शिकायत की अनदेखी हो जाती है। न्याय में विलंब का तात्पर्य न्याय से वंचित रहना हो जाता है। ऐसी स्थितियों में भविष्य के नए आयामों का अन्वेषण ऐसे नए विकल्प प्रस्तुत कर सकता है, जिन पर पहले विचार न किया जा सका हो और जो दोनों पक्षों के लिए हितकारी साबित हो सकते हैं।
कलह के अहिंसात्मक समाधान के लिए हिंसा की सही समझ-उसके विभिन्न रुपों और आयामों की समझ-अनिवार्य है। प्रत्यक्ष हिंसा को समझना आसान है-जिसका एक बड़ा रुप युद्ध है-लेकिन हिंसा के सूक्ष्म संरचनागत रुप भी कम भयंकर नहीं होते। इनका तरीका बुनियादी जरूरतों का अस्वीकार, वंचना और अमानवीय व्यवहार होता है। दोनों प्रकार की हिंसा सांस्कृतिक हिंसा से अपनी वैधता, स्वीकृति और प्रचलन पाती हैं। यह हिंसा को औचित्य देती और उसके व्यवहार को सामान्य बताती है।
- देवव्रत एन० पाठक
कलह-शमन पद्धति : सामान्यतः, कलह प्रतिद्वंद्वात्मक व्यवहार-हार-जीत-की प्रक्रिया के माध्यम से प्रकट होती है। लेकिन, सभी प्रकार की प्रतिद्वंद्विता अनिवार्यतः झगड़े से नहीं बदलती बल्कि दोनों पक्षों द्वारा कलह के वास्तविक कारणों की समझ अथवा किसी तीसरे पक्ष के प्रभावी हस्तक्षेप से प्रतिद्वंद्विता के खतरे को सबके लिए लाभदायक और सहयोगी उद्यम में बदला जा सकता है। जिस तरह प्रतिद्वंद्विता कलह के लिए आवश्यक परिघटना है, उसी प्रकार कलह-शमन के लिए प्रतिद्वंद्वी पक्षों में सहकारी प्रयास एक आवश्यक प्रक्रिया है, जिसके बिना कलह-शमन संभव ही नहीं है। डेविस० डब्ल्यू० ऑग्सबर्गर के अनुसार कलह को लाभदायक उद्यम में बदलने के लिए निम्नलिखित प्रक्रिया आवश्यक है :
(1) कलह की परिभाषा केंद्र और संबंधित मसलों को सीमित रखना ताकि उसे स्पष्टता के साथ समझा और व्यक्त किया जा सके;
(2) संबंधित विवाद को मूल मसलों तक सीमित रखना तथा द्वितीयक मसलों का प्रवेश रोकना;
(3) विवाद को सहयोगात्मक समाधान तथा नियंत्रित प्रतिद्वंद्विता (समांतर न कि प्रतिसम प्रतिद्वंद्विता) की ओर निर्देशित करना; और
(4) उस नेतृत्व में विश्वास जो परस्पर संतोषजनक परिणामों का आग्रही हो।
प्रतिद्वंद्विता के परिणामस्वरुप विवाद अधिक जटिल, कठोर, ध्रुवीकृत, घुमावदार होकर जीत और सीधी टकराहट के लिए एक तात्कालिक दुराग्रह पैदा कर देते हैं, जबकि सहयोगात्मक प्रक्रिया में, ऑग्सबर्गर के अनुसार, सूचनाओं का मुक्त आदान-प्रदान होता है, अंतर्निहित धारणाएं सतह पर आ जाती हैं, संयुक्त परिभाषाओं को स्वीकार किया जाता है, पूर्वग्रह दूर किए जाते हैं, तथ्यों तक पहुंच पारस्परिक होती है, एक-दूसरे की जरुरतों की वैधता तथा एक-दूसरे की स्थिति के तर्क को समझा जाता है। अंततः, सहयोगात्मक प्रक्रियाएं निर्णय थोपे जाने के बजाय निर्णय-प्रक्रिया में फलित होती हैं। इस तरह प्रतिद्वंद्वी पक्षों की भागीदारी से होने वाला कलह-शमन न केवल कलह को शांत करता बल्कि उसमें से रचनात्मक लाभ प्राप्त कर लेता है।
कलह-शमन की प्रक्रिया में उन तरीकों का भी बड़ा महत्त्व है, जिनके माध्यम से प्रतिद्वंद्वी पक्ष परस्पर संवाद संभव करते हैं। इसे तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है-
तथ्यात्मक-आगमनात्मक (वैज्ञानिकों द्वारा व्यवहृत)
स्वयंसिद्ध-निगमनात्मक (परंपरावादियों द्वारा व्यवहृत)
भावात्मक-अंतःप्रज्ञात्मक (कलाकारों द्वारा व्यवहृत)
तथ्यात्मक-आगमनात्मक पद्धति प्रत्यक्ष आधार-सामग्री से चयनित महत्त्वपूर्ण तथ्यों के तर्कसम्मत विश्लेषण के आधार पर एक निष्कर्ष तक पहुंचती है।
स्वयंसिद्ध-निगमनात्मक पद्धति एक सामान्य सिद्धांत या मूल्य से प्रारंभ करके विशिष्ट परिस्थिति तक जाती है। इसमें उस मूल्य को क्रियान्विति की जाती है, जो संबंधित परिस्थिति में महत्त्वपूर्ण और व्यवहारिक हो।
भावात्मक-अंतःप्रज्ञात्मक पद्धति संबंधों, भावनाओं और परिस्थिति की वैयक्तिक धारणाओं तथा उन धारणाओं से प्रसूत रुझानों पर निर्भर होती है।
भारतीय संदर्भ में गांधीजी द्वारा व्यवहृत कलह-शमन के उपाय ऐतिहासिक महत्त्व के रहे हैं। वह विवादमूलक परिस्थिति का सामना करने के लिए भावात्मक-अंतप्रज्ञात्मक पद्धति (नमक-सत्याग्रह) का सहारा लेते हैं। अन्य संदर्भों में उन्होंने अन्य पद्धतियों को भी अपनाया। एक वकील की हैसियत से अहमदाबाद सत्याग्रह में उन्होंने तथ्यात्मक-आगमनात्मक पद्धति का सहारा लिया तथा हरिजन और स्त्री-स्वतंत्रता के लिए स्वयंसिद्ध-निगमनात्मक पद्धति का। अतः, कलह-शमन के लिए एक ऐसे सर्वसमावेशी अभिगम की जरुरत होती है, जिसमें आवश्यकतानुसार सभी पद्धतियों और शैलियों का इस्तेमाल किया जा सके। हर परिस्थिति में एक ही पद्धति तक सीमित रहने से समस्या का पूर्ण समाधान संभव नहीं है। उदाहरणार्थ, न्यायपालिका तथ्यात्मक-आगमनात्मक पद्धति तक सीमित रहने के कारण कलह को सीमित कर सकती या रोक सकती है, उसका समाधान नहीं कर सकती।
- विलियम बास्करन
(संक्षिप्त रूपांतरण : नंदकिशोर आचार्य)
कल्याणकारी राज्य : राजनीति-विज्ञान में कल्याणकारी राज्य के विचार को, सामान्यतः, औद्योगिक क्रांति और आधुनिकीकरण की परिस्थितियों का परिणाम माना जाता है। राज्य की पारंपरिक अवधारणा के अनुसार उसका काम कानून और व्यवस्था बनाए रखने तक सीमित माना गया, जिसका तात्पर्य यह था कि उसे कानून-व्यवस्था के अतिरिक्त अन्य मामलों-विशेषतः आर्थिक प्रक्रियाओं में-अहस्तक्षेप की नीति का पालन करना चाहिए। इसे प्रहरी राज्य की अवधारणा कहा गया। लेकिन, औद्योगिकीकरण, पूंजीवाद के विकास तथा नगरीकरण ने कई तरह की नई समस्याएं पैदा कर दी, और राज्य के लिए उन सबकी अवहेलना करना संभव नहीं रह गया-विशेषतया लोकतांत्रिक राज्य के लिए। लोकतांत्रिक राज्य की प्रभुसत्ता क्योंकि सामान्य नागरिकों पर निर्भर करती है, अतः, उस प्रभुसत्ता का यह नैतिक दायित्व हो जाता है कि वह उनके जीवन में आने वाली उन समस्याओं का समाधान करे, जिनके लिए किसी नागरिक को व्यक्तिशः जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। औद्योगीकरण और नगरीकरण ने प्राकृतिक संसाधनों, पर्यावरण, तथा स्वास्थ्य से संबंधित जो समस्याएं पैदा कीं, उनका निराकरण राज्य के हस्तक्षेप के बिना नहीं किया जा सकता था। इसके अतिरिक्त, बढ़ती आर्थिक-सामाजिक विषमता के कारण नागरिकों को होने वाली कठिनाइयों और संभावित हिंसक उपद्रवों तथा विद्रोह को केवल दमनकारी उपायों से नहीं रोका जा सकता था। उसके लिए राज्य द्वारा कुछ ऐसे सकारात्मक उपाय अपनाने की जरूरत थी, जो इन प्रवृत्तियों को उभरने की परिस्थिति न पैदा होने दे। ऐसी स्थिति में राज्य द्वारा सामान्य नागरिकों के कल्याण का उत्तरदायित्व स्वीकार करना अपरिहार्य था। इस उत्तरदायित्व को निभाने का प्रयत्न करने वाले राज्य को ही मोटे तौर पर कल्याणकारी राज्य कहा जा सकता था। अब राज्य प्रहरीन रहकर लोक-कल्याण का संरक्षक हो गया।
लेकिन, भारतीय राजनीतिक चिंतन में लोक-कल्याण के लिए राज्य के उत्तरदायित्व की अवधारणा प्राचीन काल में भी मिल जाती है। कौटिल्य राज्य को मनुष्य के समग्र कल्याण का दायित्व सौंपता है तथा अंतर्वैयक्तिक तथा सामाजिक संबंधों की पवित्रता की रक्षा के साथ-साथ गरीबों, नवजात बच्चों, अनाथों, बूढ़ों आदि के कल्याण के लिए भी राज्य को निर्देश देता है। स्त्रियों के संरक्षण के लिए कौटिल्य में विशेष उल्लेख है। इसी तरह शुक्रनीति ने भी चिकित्सालयों, शिक्षा, मार्ग-निर्माण तथा सिंचाई, जंगल खानों आदि की व्यवस्था के लिए राज्य को जिम्मेदार माना है। अशोक के राज्य के स्वरूप को काफी हद तक लोक-कल्याणकारी कहा जा सकता है। अपने शिलालेखों में वह स्वयं को प्रजा के भौतिक और नैतिक दोनों प्रकार के कल्याण के लिए प्रयासरत बताता है। यह कहा जा सकता है कि जहां पश्चिमी चिंता में राज्य को एक आवश्यक बुराई बताया गया है, वहीं भारतीय चिंतन उसे एक अनिवार्य संरक्षक या हितकारी संस्था मानता है।
यद्यपि राज्य को संगठित हिंसा का ही एक प्रकार माना जा सकता है क्योंकि अंततः हिंसक बल ही उसकी मूल ताकत है, लेकिन लोकतांत्रिक राज्य के नागरिक इच्छाओं का प्रतिनिधि होने के नाते उसकी हिंसा का रूप चिकित्सक द्वारा होने वाली हिंसा का हो जाता है, जिसमें कोमलता और सहानुभूति की भावना उसे अत्याचारी और यंत्रणादायक नहीं होने देती। वह प्रकारांतर से नागरिकों की ओर से की गई आत्मरक्षा का प्रयास ही होती है।
आधुनिक काल में कल्याणकारी राज्य का तात्पर्य एक ऐसे राज्य से है जो अपने नागरिकों की आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा और कल्याण के लिए प्रयासरत रहता है-इस कल्याण में मुख्यतया शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा निस्सहायों के लिए पेंशन आदि सम्मिलित हैं। यह माना जाता है कि कल्याणकारी राज्य पद का सर्वप्रथम प्रयोग ब्रिटिश आर्चबिशप विलियम टेंपल द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान किया गया था। जर्मनी में 1870 ई० के बाद से ही सामाजिक राज्य पद का इस्तेमाल होता था। फ्रांस, स्वीडन आदि अन्य यूरोपीय देशों में भी बीसवीं शताब्दी में यह अवधारणा बहुत लोकप्रिय हुई तथा कई देशों ने इसके अनुरूप नीतियां व कार्यक्रम विकसित किए।
लेकिन, पद का प्रयोग चाहे जब हुआ हो, राज्य के कल्याणकारी उत्तरदायित्व का जिक्र पश्चिमी राजनीतिक चिंतन में जान स्टुआर्ट मिल से ही शुरू हो जाता है। मिल का विचार था कि आर्थिक-सामाजिक क्षेत्र में बढ़ती विषमता को देखते हुए राज्य को वंचितों के कल्याण के लिए सकारात्मक कदम उठाने चाहिए ताकि उनका शोषण न हो सके। अनिवार्य शिक्षा, भू-संपत्ति का सीमा-निर्धारण, बाल-मजदूरी पर नियंत्रण, श्रम की समय-सीमा का निर्धारण आदि ऐसे ही उपाय हैं। प्रसिद्ध राजनीतिक दार्शनिक हेरल्ड जे० लास्की ने आर्थिक शक्ति के लोकतंत्रीकरण का प्रस्ताव करते हुए आर्थिक विषमता कम करने और राज्य द्वारा कल्याणकारी नीतियों को लागू किए जाने की वकालत की। इसीलिए ब्रिटिश समाजवादी विचारक आर०एच० टॉनी ने समान नैतिक मूल्यवत्ता अर्थात प्रत्येक व्यक्ति के नैतिक महत्त्व को समान मानते हुए कहा कि प्रत्येक व्यक्ति को आत्मविकास के अवसर मिलने चाहिए। समानता, टॉनी के अनुसार, इंसानी जरूरतों को पूरा करने तथा मनुष्य में निहित संभावनाओं को चरितार्थ करने के लिए आवश्यक है। टॉनी ने माना कि समस्या अनुपात की है, मात्रा की नहीं; न्याय की है, खुशहाली की नहीं।
यह उल्लेखनीय है कि केवल समाजवादी ही नहीं, पूंजीवाद के समर्थक केंस जैसे अर्थशास्त्री भी कल्याणकारी राज्य का समर्थन करते दिखाई देते हैं। वह मानते हैं कि राज्य को अपनी अहस्तक्षेप की नीति को त्यागते हुए पूर्ण रोजगार की स्थितियों के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए। केंस यह मानते थे कि उत्पादन के लिए बाजार में मांग का होना अनिवार्य है और यह तभी हो सकता है, जब लोगों के पास रोजगार हो। इसी प्रकार, गैलब्रेथ भी राज्य द्वारा सार्वजनिक सेवाओं के विस्तार तथा कल्याणकारी भूमिका अपनाने का समर्थन करते हैं। वह पूंजीवाद द्वारा उत्पन्न निजी समृद्धि और सार्वजनिक दारिद्र के सह-अस्तित्व की आलोचना करते हुए प्रति-संतुलनकारी शक्ति तथा संगठनों के विकास के लिए राज्य को प्रयासरत रहने के लिए कहते हैं। गैलब्रेथ बेरोजगारी, मुद्रास्फीति पर नियंत्रण के साथ चिकित्सा, आवास आदि से संबंधित सेवाओं में भी राज्य की भूमिका पर बल देते हैं।
इस प्रकार, कहा जा सकता है कि न केवल समाजवादी, बल्कि पूंजीवादी अर्थशास्त्री भी, राज्य के कल्याणकारी स्वरूप पर बल देने लगे हैं क्योंकि उनकी दृष्टि में निर्धन वर्ग पर हो रही अप्रत्यक्ष आर्थिक-सामाजिक हिंसा से बचाव का एक लोकतांत्रिक और अहिंसक रास्ता है। जब तक राज्य संस्था का अस्तित्व है, तब तक उसे ऐसे ही उपायों से संभव सीमा तक अहिंसक बनाया जा सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद लगभग सभी यूरोपीय देशों में कल्याणकारी नीतियां लागू की गई हैं-और अब तो सऊदी अरब, ब्रूनेई, कुवैत, कतर, बहराइन, ओमान तथा संयुक्त अरब अमीरात भी-शायद तेल से आई समृद्धि के कारण-कल्याणकारी दायित्वों का निर्वाह कर रहे हैं। कल्याणकारी राज्य के लिए शक्ति का केंद्रीकरण भी कोई अनिवार्य शर्त नहीं है। कल्याणकारी नीतियों और कार्यक्रमों के लिए राज्य-शक्ति का विकेंद्रीकरण अधिक उपयोगी हो सकता है।
- नंदकिशोर आचार्य
कांट, इमानुएल : इमानुएल कांट (1724-1804 ई०) आधुनिक यूरोप में एक अत्यंत प्रभावशाली जर्मन दार्शनिक हुए हैं। 1755 से कनीज्बर्ग (अब कालिनिन ग्राड) के विश्वविद्यालय में उन्होंने आचार्य के रूप में अध्यापन आरंभ किया। योहान गॉटफ्रीड हर्डर ने, जो उनके विद्यार्थी रहे थे, उनका एक सच्चे गुरू के रूप में स्मरण किया है। कांट ने जिन विषयों को पढ़ाया, उनमें तर्कशास्त्र, तत्त्वमीमांसा, गणित, प्राकृतिक भूगोल, नृतत्त्वशास्त्र, नीतिशास्त्र, प्राकृतिक विधिशास्त्र तथा प्राकृतिक ईश्वरविद्या जैसे विषय शामिल थे।
1781 ई० में उनकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कृति क्रिटिक डर रायनेन फेर्नुफ्ंट (शुद्ध बुद्धि की मीमांसा) प्रकाशित हुई। यह उनके पिछले दस से अधिक वर्षों के चिंतन-मनन का परिणाम थी। इसके पूर्व में, प्राणशक्तियों, तत्त्वमीमांसीय ज्ञान, प्रकृति तथा अंतरिक्ष, तर्कशास्त्र, ईश्वर के अस्तित्व के प्रमाण, निषेधात्मक परिमाण, सुंदर तथा उदात्त, सिर की पीड़ा, प्राकृतिक ईश्वरविद्या एवं नैतिकता, एक संत के स्थान, मानव की विभिन्न प्रजातियों, जैसे विषयों पर लिख चुके थे तथा एक विचारक के रूप में प्रख्यात हो चुके थे।
कांट पर लाइब्नीज, वूल्फ, लॉक तथा रूसो जैसे विचारकों का प्रभाव था। न्यूटन की भौतिकी के सत्य के विषय में आश्वस्त होते हुए भी वह उसके तत्त्वमीमांसीय आधार के विषय में सुनिश्चित नहीं थे। ह्यूम के विषय में उनकी यह उक्ति प्रसिद्ध है कि ह्यूम ने उन्हें उनकी रूढ़िवादी निद्रा से जगाया।
क्रिटिक के परिचय तथा भूमिका में कांट ने यह प्रश्न उठाया कि अन्य विज्ञानों की तुलना में तत्त्वमीमांसा की स्थिति बदतर क्यों है। इस प्रश्न के समाधान के निमित्त कांट को ज्ञान के स्वरूप तथा संभावना के प्रश्नों पर विचार करना आवश्यक प्रतीत हुआ। ज्ञान के स्वरूप के विषय में दो प्रकार की विशेषताओं की चर्चा होती है : प्रामाणिकता एवं अनिवार्यता तथा ज्ञान में वृद्धि एवं नवीनता। प्रथम को कांट ने प्रागनुभविक (ए प्रायोरि) बताया तथा दूसरी को आनुभविक अथवा संश्लेषणात्मक। ज्ञान के इस स्वरूप के आधार पर ज्ञान की संभावना के प्रश्न को कांट ने इस रूप में रखा कि प्रागनुभविक संश्लेषणात्मक प्रतिज्ञप्तियाँ कैसे संभव हैं? कांट का विचार था इस प्रश्न का उत्तर उस समाधान को प्रस्तुत कर सकता है जो बुद्धिवाद तथा अनुभववाद के मध्य विवाद का निराकरण कर सकता है। बुद्धिवादी, जिनमें दकार्ते, स्पीनोजा तथा लाइब्नीज के नाम लिए जाते हैं, यह मानते थे कि ज्ञान में मनस् अथवा बुद्धि की संक्रिया की प्रमुख भूमिका होती है। इसके विपरीत, अनुभववादी, जिनमें लॉक, बर्कले तथा ह्यूम को गिना जाता है, यह मानते थे कि मन तो एक कोरा पटल है, जब तक अनुभव उस पर कुछ नहीं लिखता, तब तक ज्ञान नहीं होता। कांट की दृष्टि में ये दोनों मत एकांगी थे। उनका कहना था कि बिना प्रतीति के प्रत्यय रिक्त होता है, तथा बिना प्रत्यय के प्रतीति अंध। अन्य शब्दों में, ज्ञान में प्रदत्त तथा मानसिक संरचना दोनों की अपरिहार्य भूमिका है।
बुद्धि के विभिन्न पक्षों की ओर ध्यान दिलाते हुए कांट ने संवेदनग्राह्यता (सैंसिबिलिटि), बुद्धिग्राह्यता (अंडर्स्टेंडिंग), एवं बुद्धि (रीजन) के कार्यों का तार्किक एवं विश्लेषणात्मक वर्णन किया। संवेदनग्राह्यता के द्वारा दिक् तथा काल के प्रागनुभविक आकारों के माध्यम से प्रदत्त प्रस्तुत होता है। यह ध्यातव्य है कि कांट यहां इन्द्रियसंवेदन की बात नहीं करते। दूसरे, दिक् तथा काल के विषय में उनका मत लाइब्नीज तथा न्यूटन दोनों से भिन्न था। न्यूटन के विरूद्ध उन्होंने दिक् तथा काल को वस्तुनिष्ठ तत्त्वों के रूप में नहीं देखा। लाइब्नीज की भांति उन्होंने उन्हें केवल संबंधात्मक बोध के रूप में भी नहीं देखा। उनका सोच था कि दिक् काल अनुभव से स्वतंत्र ऐसे माध्यम है, जिनके कारण अनुभव संभव होता है।
बुद्धिग्राह्यता के कार्यों में कांट ने बारह प्रत्ययात्मक कोटियों के विषय में बताया, जिनमें से प्रत्येक का कार्य आनुभविक प्रदत्त को एक बुद्धिग्राह्य आकार में व्यवस्थित करना था। उदारहरणार्थ, कार्य-करण का संबंध एक प्रागनुभविक प्रत्ययात्मक कोटि है। इसी कोटि के आधार पर बुद्धिग्राह्यता प्रदत्तों को कार्य-करण के रूप में देखती है। इस संदर्भ में कांट को एक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। उनके सामने यह प्रश्न आता है कि यदि संवेदनग्राह्यता तथा बुद्धिग्राह्यता परस्पर प्रकारगत रूप से भिन्न हैं, तब उनके बीच किसी प्रकार का संबंध कैसे संभव है? संवेदनग्राह्यता निष्क्रिय होती है तथा उसके माध्यम से प्रदत्त प्रस्तुत होता है। बुद्धिग्राह्यता सक्रिय होती है। तथा वह प्रदत्त को कोटि के कारण संरचना प्रदान करती है। इस प्रकार दोनों एक दूसरे से नितांत भिन्न हैं। प्रश्न का समाधान कांट एक दूसरी अवधारणा के द्वारा प्रस्तुत करते हैं, उसे वे स्कीमा अथवा आकृति कहते हैं। उनका कहना था कि काल आंतरिक इंद्रिय (इनटसेंस) अथवा अंतःबोध का भी कार्य करता है। वही स्कीमा के रूप में ऐसी आकृतियों का स्रोत है जो प्रदत्त पर कोटि के प्रयोग को संभव बनाता है। स्कीमा को कांट इमेज अथवा निम्न से अलग मानते हैं। बिंब सक्रिय कल्पना की आनुभविक उत्पत्ति है। स्कीमा शुद्ध प्रागनुभविक कल्पना की उत्पत्ति है। शुद्ध कोटि का स्कीमा बिंब के रूप में प्रकट नहीं होता। वह इकाई देने वाले नियम से अनुशासित प्रत्ययात्मक कोटि में सन्निहित संरचना अथवा संश्लेषण का कार्य करता है। कांट के शब्दों में-कारण अथवा कारणता का स्कीमा जब भी सामान्य रूप में प्रदत्त पर प्रयुक्त होता है, तब सदा ही कुछ उसके बाद आता है या घटता है। अतः इस स्कीमा की संक्रिया प्रदत्तों के नियमाधीन अनुवर्तन में संभव होती है। (क्रिटिक.......बी 148)
कांट के मत में बुद्धिग्राह्यता के द्वारा प्रयुक्त होने वाली कोटियों को तब तक वैध रूप में काम में नहीं ले सकते, जब तक कोई प्रदत्त प्रस्तुत न हो। ज्ञान के रूप में जो हम जानते हैं वह प्रदत्त को प्रत्ययात्मक कोटि के द्वारा संरचित रूप में होता है। प्रदत्त के उस रूप का हमें कोई ज्ञान नहीं होता है जो वह स्वयं अपने में है। इस प्रकार कांट ने एक महत्त्वपूर्ण भेद किया। वस्तु जैसी वह प्रतीत होती है-फेनॉमेना, तथा वस्तु जैसी वह निज में होती है-नोमिना। कांट का विचार था कि हमारा ज्ञान, जिसमें गणित, प्राकृतिक विज्ञान आदि लिए जाते हैं, फेनॉमेना तक सीमित है। फेनॉमेना के क्षेत्र के बाहर, अथवा उसके अतिरिक्त कोटियों का प्रयोग न केवल अवैध है, अपितु वह हमें विरोधाभासों की ओर ले जाता है।
पूर्व में किये गये तत्त्वमीमांसीय प्रयास इसलिये उलझे रहे कि तत्त्वमीमांसी विषयों को फेनॉमेना के क्षेत्र में मान लिया गया। कांट ने क्रिटिक के डायलैक्टिक (द्वंद्वन्याय) परिच्छेद में यह बताने का प्रयास किया कि बुद्धि (रीजन) किस प्रकार तत्त्वमीमांसीय भूलभूल्लयाओं में ग्रस्त हो जाती है। कोटियों के अवैध प्रयोग के कारण, आत्मा समग्रता में जगत् तथा ईश्वर के विषय में जो विसंगतियां उत्पन्न हो जाती हैं उन्हें कांट ने क्रमशः पैरालोजिज्म, एंटिनॉमि तथा बुद्धि के आदर्श के रूप में स्पष्ट किया है।
वस्तुतः द्वंद्वन्याय का परिच्छेद एक दृष्टि से निषेधात्मक तथा एक दूसरी दृष्टि से विध्यात्मक रूप रखता है। ज्ञान के स्वरूप तथा उसकी संभावना के विषय में जो निष्कर्ष क्रिटिक के एस्थेटिक तथा अनालीटिक परिच्छेदों से प्राप्त होते हैं, उनके आलोक में आत्मा, विश्व की समग्रता तथा ईश्वर, ज्ञान का विषय नहीं हो सकते। विध्यात्मक दृष्टि से ज्ञान की सीमा निर्धारित करना श्रद्धा के लिए स्थान बनाना था। क्रिटिक के दूसरे संस्करण की भूमिका में कांट ने लिखा-इस प्रकार श्रद्धा (फेथ) के लिए स्थान बनाने के निमित्त मुझे ज्ञान का निषेध करना पड़ा,...... इसके पूर्व कांट ने लिखा कि बुद्धि के व्यावहारिक प्रयोग के निमित्त, ईश्वर, स्वतंत्रता तथा अमरता को तब तक नहीं माना जा सकता था, जब तक कि वह यह न दिखा दें कि चिंतनात्मक बुद्धि का यह भ्रम दूर कर दिया गया है कि वह तत्त्वमीमांसीय विषयों के बोध में कोई अधिकार रखती है। (क्च.333)
कांट का मत था कि ईश्वर का अस्तित्व, स्वतंत्रता तथा अमरता नैतिक जगत् अथवा कर्म क्षेत्र की पूर्वापेक्षाएँ हैं, जिनके विषय में प्रपच्चीय-फेनॉमेनल संदर्भ में ज्ञान की बात नहीं की जा सकती। नैतिकता के विषय में कांट ने तीन पुस्तकें लिखीं। ग्राउंडवर्क ऑन द मैटाफिजिक्स ऑव मॉरल्स- 1785 ई० (नैतिकता की तत्त्वमीमांसा की आधारभूमि); क्रिटिक ऑव प्रेक्टिकल रीजन- 1788 ई० (व्यावहारिक बुद्धि की मीमांसा) तथा मैटाफिजिक्स ऑव मॉरल्स- 1797 ई० (नैतिकता की तत्त्वमीमांसा)।
कांट यह मानते थे कि नैतिकता की अवधारणा में एक ऐसे संकल्प की अवधारणा सन्निहित है जो मूलतः शिव होता है तथा जिसका शिवत्व किसी बाह्य अथवा अन्य सत्ता अथवा विचार से निर्धारित नहीं होता। शिवसंकल्प स्वयं में ही शिव होता है। जब व्यक्ति कर्म करते समय केवल इस प्रेरणा से ही कर्म करता है कि कर्म विशेष उसका कर्त्तव्य है, अथवा उसका कर्म केवल कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित होता है जब उसके कर्म में शिवसंकल्प सन्निहित होता है।
कर्त्तव्य की भावना के अतिरिक्त अनेक अन्य प्रेरक हो सकते हैं और होते हैं, परंतु वे नैतिकता को परिभाषित नहीं करते। इन दूसरे प्रेरकों को कांट ने सोपाधिक आदेशों (हाइपोथेटिकल इंपरेटिव्ज) के अंतर्गत रखा है। इसके विपरीत, कर्त्तव्य की भावना से प्रेरित कर्मों को निरुपाधिक आदेश (कैटेगॉरिकल इंपरेटिव) से निर्धारित माना। निरुपाधिक आदेश को कांट ने तीन प्रकार से रूपायित किया है : (1) सदैव उस नियम के अनुसार काम करो, जिसे तुम एक सार्वभौमिक नियम के रूप में मान सको; (2)मानवता को, चाहे स्वयं में अथवा अन्यों में, सदैव साध्य मानकर चलो, केवल साधन मात्र मानकर नहीं। (3) सभी नियम स्वायत्त विधान का रूप हैं। वे साध्यों तथा प्रकृति के क्षेत्र से संगत होते हैं। अतः, हम यह मानते हुए कर्म करें कि हम साध्यों के राज्य के सदस्य हैं।
स्वतंत्रता केवल विचार मात्र नहीं है। नैतिकता की पूर्वापेक्षा के रूप में वह एक वास्तविक मान्यता है। परंतु हम ऐसा नहीं कह सकते कि हम जानते हैं कि हम स्वतंत्र हैं। नैतिक क्षेत्र अथवा कर्म का क्षेत्र, ज्ञान के क्षेत्र की तरह नहीं है। नैतिक क्षेत्र में जानने की बात नहीं की जा सकती। जैसा हम देख चुके हैं, जानना तो प्रदत्त तथा बौद्धिक प्रत्ययों के संयोग का फल है। परंतु अनुभव की बात अधिक व्यापक रूप में की जा सकती है। हम नैतिक अनुभव की बात कर सकते हैं। और नैतिक अनुभव हमें कर्म करने की स्वतंत्रता के विषय में आश्वस्त करता है।
नैतिक अनुभव की एक विकट समस्या यह है कि भला कर्म अथवा शिवसंकल्प-प्रेरित कर्म सदा ही सुखदायी नहीं होता। क्या भले कर्म में तथा सुख में कोई अनिवार्य संबंध नहीं है? कांट भले कर्म तथा सुख के संबंध को संश्लेषणात्मक मानते हैं। यह संबंध हमें यह मानने के लिए बाध्य करते हैं कि कभी न कभी इसका सत्य प्रकट होना चाहिए। इस जन्म में नहीं तो अन्य जन्म में। और यह धारणा अमरता की धारणा की मान्यता की ओर इंगित करती है। यह इस मान्यता की ओर भी इंगित करती है कि विश्व में एक नैतिक व्यवस्था होनी चाहिए और उसके संरक्षक के रूप में ईश्वर की सत्ता भी होनी चाहिए। पुनश्चः यह ध्यान रखना आवश्यक है कि ज्ञान के क्षेत्र की तरह, इन तीनों मान्यताओं के संबंध में जानने तथा तद्जन्य सत्य के प्रश्न नहीं उठाये जा सकते।
अपनी तीसरी प्रमुख कृति क्रिटिक ऑव जजमेंट- 1790 ई० (निर्णय की मीमांसा) में सौंदर्य बोध, उदात्त भाव तथा प्रयोजनात्मकता की अवधारणाओं का अन्वेषण प्रस्तुत किया है। कांट कहते हैं कि सौंदर्य किसी कलाकृति अथवा प्राकृतिक छटा का गुण नहीं है, अपितु वह उस आनंद का बोध है जो कल्पना तथा समझ की स्वतंत्र क्रीड़ा का सहवर्ती है। सुंदरता के विषय में विकार करते समय हम प्रतिज्ञप्तियों का उपयोग करते हैं परंतु ये प्रतिज्ञप्तियां संज्ञानात्मक न होकर भावबोधपरक होती है। भावनापरक प्रतिक्रिया के रूप में रसबोध (टेस्ट) का कथन आत्मगत् होता है। आत्मगत् होते हुए भी वह निस्संग (डिसिंटरेस्टेड) आनंद का परिचायक होता है। ऐसे कथन सार्वभौमिकता से युक्त प्रतीत होते हैं।
सौंदर्य की भांति औदात्य (सब्लाइम) भी आत्मगत होता है, परंतु, वह कल्पना तथा बुद्धि (रीजन) के परस्पर अनिश्चित संबंध की ओर इंगित करता है। औदात्य की अनुभूति दो प्रकार से अभिव्यक्त होती है- गणितात्मक तथा गत्यात्मक। जब कल्पना असीम तथा निराकार को ग्रहण करने में अक्षम रहती है, तब गणितात्मक औदात्य की अनुभूति होती है। यह अक्षमता बुद्धि द्वारा अपरिमितता (इंफिनिटि) के संप्रत्यय के आनंद से संपुष्ट हो जाती है। गत्यात्मक औदात्य की अनुभूति में संवेद्य आत्म के खंडित होने का भाव होता है। अपार शक्ति की उद्भावना आत्म को शून्य में घटा देती है। यद्यपि इस भावना में प्रकृति की असीम शक्ति का आतंक समाविष्ट होता है, बुद्धि का सामना करने की सामर्थ्य विषयी को एक उल्लास की अनुभूति कराती है तथा नैतिक प्रवृत्ति की ओर उत्साहित करती है। औदात्य की अनुभूति नैतिक चरित्र के विकास में प्रेरणा का रूप रखती है।
क्रिटिक ऑव जजमेंट का अंतिम भाग लक्ष्य-ज्ञान (टीलियॉलोजि) से संबंधित है। इस भाग में कांट यह बताते हैं कि वैज्ञानिक अनुसंधान में क्यों और कैसे लक्ष्य संबंधी विचार-दिशा तथा व्यवस्था देने का कार्य कर सकते हैं। परंतु ये विचार स्वयं प्रकृति के विषय में कोई ज्ञान प्रदान नहीं करते। वस्तुतः, ये विचार स्वयं हमारे तथा हमारी निर्णय शक्ति के विषय में प्रकाश डालते हैं। यह स्मरणीय है कि सौंदर्य भाव बोध में कांट ने बिना किसी बाहरी लक्ष्य के, बोध के विभिन्न घटकों के संयोजन को लक्ष्यपरक माना है। इसके अतिरिक्त इस क्रिटिक में कांट ने अपने समग्र विचार-तंत्र की एकात्मकता पर भी विचार किया है।
1784 ई० के एक निबन्ध में कांट ने इस प्रश्न पर विचार किया कि प्रबोध (एन्लाइटेन्मेंट) क्या है। कांट का कहना था कि स्वयं अपने पर लादी हुई अपरिपक्वता से मुक्ति पाना ही प्रबोध है। अपरिपक्वता से कांट का आशय था बिना किसी अन्य अथवा बाह्य स्रोत तथा मार्गदर्शन के अपनी समझ के प्रयोग की अक्षमता। अतः उनका सुझाव था अपनी समझ के उपयोग का साहस करो (सापेरे आउडे)।
1795 ई० में विभिन्न राज्यों के परस्पर संबंधों को लेकर तथा युद्ध के विरूद्ध कांट ने एक प्रबंध लिखा जिसका शीर्षक था परपीच्युल पीस : अफिलॉसोफिकल स्कैच अर्थात् सतत् शांति : एक दार्शनिक रूपरेखा। इस प्रबंध में उन्होंने अनेक ऐसे विचारों को प्रस्तुत किया जो आज भी विश्वशांति के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक है। उनका कहना था कि सेना को रखने का अर्थ है, लोगों को मारने तथा मरने के लिए वेतन देना। जिसका अर्थ यह है कि हम लोगों को उपकरण अथवा यंत्रों की तरह इस्तेमाल करते हैं जिसकी बागडोर दूसरों (राज्य) के हाथ में होती है। व्यक्ति के साध्यत्व की दृष्टि से तथा उसके अधिकारों की दृष्टि से यह नितांत असंगत है।
कांट का विचार है कि सेनाओं को भंग करने के साथ-साथ युद्ध की परिस्थिति उत्पन्न होने पर जनमत संग्रह द्वारा नागरिकों से पूछा जाना चाहिए कि क्या वे युद्ध चाहते हैं। उनके अनुसार सामान्य नागरिक अधिकांशतः युद्ध नहीं चाहते। कांट उन विचारकों में है जिन्होंने साम्राज्यवाद को असहनीय मानते हुए और युद्ध के आर्थिक कारणों की ओर स्पष्ट इंगित करते हुए कहा कि युद्ध किन्हीं विचारधारात्मक आग्रहों के बजाय अधिकांशतः आर्थिक प्रतिद्वंद्विता के कारण लड़े जाते हैं। उन्हीं ने अपने समकालीन यूरोपीय राज्यों के इस अंतर्द्वंद्व की ओर भी इशारा किया कि वे ईसाई होते हुए भी अपने नागरिकों का आर्थिक शोषण तो करते ही हैं, साथ ही, पूर्वी देशों में बर्बरता के उदाहरण भी प्रस्तुत करते हैं। कांट ने राजतंत्र के बजाय गणतंत्र को वरीयता दी। और इसी कारण फे्रंच क्रांति का समर्थन भी किया-यद्यपि अनंतर उसमें हुई हिंसा और विनाश ने उन्हें बहुत क्षुब्ध किया।
1793 ई० में उन्होंने रेलिजन विदिन द लिमिट्स ऑव रीज़न (बुद्धि की सीमाओं में धर्म) जैसी कृति लिखी, जिसमें प्रबोध की विचारधारा को अपनाते हुए यह प्रतिपादित किया कि समस्त धर्म अंततः नैतिकता में घटाया जा सकता है। यदि धर्म को कर्त्तव्य के रूप में लें, जैसा भारतीय परंपरा में माना गया है, तब कांट की अवधारणा भारतीय अवधारणा के निकट लगती है। केवल कर्मकांड तथा मूर्तिपूजा में संलग्न कृत्यों को धर्म मानने की रीति की कांट आलोचना करते हैं।
पाश्चात्य दर्शन के संदर्भ में कांट के विचारों की महती भूमिका है। प्लेटो तथा अरस्तू की भांति कांट का प्रभाव अति व्यापक है। यद्यपि अहिंसा अथवा हिंसा के विषय में उनकी कोई स्वतंत्र कृति नहीं है, उनके विचारों के आलोक में यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि उनका झुकाव अहिंसा की ओर है। हिंसा तथा व्यक्ति की साध्यपरकता का कोई मेल नहीं है। जिस समाज में प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक अन्य व्यक्ति के समान समझा जायगा, तथा जिस समाज में प्रत्येक व्यक्ति मात्र कर्त्तव्य की भावना से कर्म करेगा, वह समाज अहिंसक समाज ही हो सकता है। कांट के शांति संबंधी विचार स्पष्टतः एक अहिंसा-दृष्टि के संकेत हैं।
- प्रो० राजेन्द्र स्वरूप भटनागर
काप्रा, फ्रिट्जोफ : द्रष्टव्य : साकल्यवादी जीवन
किंग, मार्टिन लूथर : (जूनियर) : अमरीका में नागरिक अधिकार आंदोलन के अग्रगामी नेताओं में प्रमुख मार्टिन लूथर किंग 1929-1968 ई० मात्र 35 वर्ष की उम्र में नोबेल शांति पुरस्कार प्राप्त करने वाले सबसे कम उम्र के व्यक्ति थे। उनके पिता बैपटिस्ट चर्च में मंत्री और माता एक स्कूल अध्यापिका थीं। क्रोजर रिलिजियस सेमिनरी से डाक्टरेट की उपाधि लेने के बाद मार्टिन भी मोंटगोमरी चर्च में पैस्अर बनने के लिए अल्बामा लौट आए।
मार्टिन पहली बार तब चर्चा में आए जब उन्होंने मोंटगोमरी की बसों में अश्वेतों के साथ होने वाले भेदभाव के विरोध में सर्वप्रथम अश्वेतों को संगठित कर बस सेवाओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा। इस आंदोलन की शुरुआत एक महिला रोजा पार्क्स के एक अश्वेत व्यक्ति के लिए अपनी सीट छोड़ने से इनकार करने से हुई। उस समय दक्षिण अमरीका में बसों में यात्रा के दौरान अश्वेतों को सिर्फ पीछे की सीटों पर बैठने की ही इजाजत थी। इसके विरोध में मार्टिन के नेतृत्व में शुरू हुआ बहिष्कार आंदोलन 382 दिनों तक जारी रहा। अंततः, बस कंपनी को अपने नियम बदलने पड़े और सर्वोच्च न्यायालय ने भी इस तरह के भेदभाव को असंवैधानिक करार दिया।
वर्ष 1957 ई० में मार्टिन लूथर किंग अश्वेतों के खिलाफ होने वाले भेदभाव के विरोध में सदर्न लीडरशिप क्रिश्चियन कान्फ्रेंस (एससीएलसी) को संगठित कर रहे थे। महात्मा गांधी के नेतृत्व में भारतीय स्वाधीनता संग्राम के लिए अपनाए गए अहिंसात्मक तरीकों से प्रेरणा लेने वाले मार्टिन लूथर किंग ने अमरीका में नागरिक अधिकार आंदोलनों के लिए भी अहिंसा को ही अपने प्रमुख उपकरण के रूप में चुना। अल्बामा के बर्मिंघम में वर्ष 1963 ई० में श्वेत लोग अश्वेतों के नागरिक अधिकार अभियान का हिंसक विरोध कर रहे थे। अश्वेतों पर आए दिन हमले हो रहे थे। हालात ऐसे हो गए थे कि शहर को ही बर्मिंघम के नाम से पुकारा जाने लगा था। इस दौरान भी मार्टिन ने अहिंसा का रास्ता नहीं छोड़ा। उन्हें गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जेल से छूटने पर अगस्त 1963 ई० में मार्टिन ने वाशिंगटन में एक विशाल जनसभा को संबोधित किया। यहीं उन्होंने अपना वह प्रसिद्ध भाषण दिया जो मेरा एक सपना है के शीर्षक से याद किया जाता है। इस भाषण में उन्होंने यह कल्पना की थी कि एक दिन अमरीका में सबको आजादी और समान अधिकार होंगें। मेरा यह सपना है कि एक दिन इस देश में मेरे बच्चों को उनकी चमड़ी के रंग से नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं के आधार पर पहचाना जाएगा।
वर्ष 1964 ई० में मार्टिन लूथर किंग को विश्व नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इस अवसर पर अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा कि मैं शांति का नोबेल पुरस्कार एक ऐसे समय में ग्रहण कर रहा हूं जब अमरीका के सवा दो करोड़ अश्वेत नस्लवादी अन्याय की लंबी काली रात को मिटाने के लिए संघर्ष में जुटे हुए हैं। मैं उस नागरिक अधिकार आंदोलन की ओर से इस पुरस्कार को स्वीकार करता हूं, जो सारे जोखिम उठाकर भी न्याय और स्वतंत्रता का साम्राज्य स्थापित करने के लिए संघर्षरत हैं। मार्टिन लूथर किंग ने नोबेल पुरस्कार राशि के रूप में प्राप्त 54,000 डॉलर की राशि को नागरिक अधिकार आंदोलनों में बांट दिया। इसके कुछ ही समय बाद राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने नागरिक अधिकार कानून पर हस्ताक्षर किए, जिसमें यह गांरंटी दी गई कि अमरीका में किसी भी व्यक्ति के साथ रंग, नस्ल या उसकी राष्ट्रीयता के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होगा और उसे मिलने वाले फायदों से वंचित नहीं रखा जाएगा।
वर्ष 1965 ई० में उन्होंने अमरीका में अश्वेतों को मताधिकार दिलाने के लिए आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने अल्बामा में सेल्मा से एक रैली निकाली, जिसे मोंटगोमरी तक जाना था। लगभग 600 लोगों की इस रैली का सामना सशस्त्र सेना के बल से हुआ और उन्हें वापस खदेड़ दिया गया, जिस पर फुटपाथों पर खड़े लोगों ने नारे लगा कर खुशी जाहिर की। इस मुठभेड़ में एक श्वेत और एक अफ्रीकी अमरीकी मंत्री सहित 70 लोग मारे गए। मार्टिन लूथर किंग को पहली बार ऐसी हिंसा का सामना करना पड़ा था। लेकिन इसके बाद अदालत का आदेश आया और आंदोलन पर से रोक हटा ली गई और उन्हें आगे बढ़ने की इजाजत मिल गई। मोंटगोमरी पहुंचने पर हम होंगे कामयाब की गूंज के साथ 25,000 लोगों ने उनका स्वागत किया। 6 अगस्त 1965 ई० को अश्वेत अमरीकियों को मतदान का अधिकार मिल गया और एक भेदभावपूर्ण व्यवस्था को खत्म कर दिया गया।
मार्टिन लूथर किंग यह मानते थे कि अमरीका में अशांति का प्रमुख कारण गरीबी है। सिर्फ अश्वेतों की गरीबी नहीं, बल्कि श्वेत, हिस्पानी और एशियाई लोगों की गरीबी भी इसके लिए जिम्मेदार है। उनका यह भी मानना था कि वियतनाम युद्ध में अमरीका की भागीदारी भी एक कारण है, जिसने देश के वातावरण में जहर फैला रखा है, जिसके कारण मानवाधिकार से संबंघित राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान नहीं हो पा रहा है। इस मुद्दे पर अश्वेत अमरीकियों के नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले समूहों के साथ उनका मतभेद शुरू हो गया क्योंकि आंदोलन के अन्य नेताओं का मानना था कि उन्हें सिर्फ देश में व्याप्त नस्लवादी अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं के खिलाफ संघर्ष पर ही अपना पूरा ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। लेकिन माटिर्न लूथर किंग वर्ष 1967 ई० के शुरुआत में युद्ध विरोधी आंदोलन से जुड़ गए।
उन्होंने पूरे अमरीका की यात्रा कर जगह-जगह नागरिक अधिकारों और समाज के वंचित वगरें के अधिकारों की रक्षा के बारे में सभाओं को संबोधित किया।
अप्रेल 1968 ई० में वे हड़ताल पर बैठे सफाई कर्मचारियों की मदद करने के लिए टेनेस्से के मेम्फिस शहर की यात्रा पर गए, जहां 4 अप्रेल 1968 ई० को उनकी हत्या कर दी गई। उनकी हत्या पर अमरीका के कई शहरों में हिंसा भड़क गई और कम से कम 46 लोग मारे गए। अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था यह सही है कि आने वाला समय हमारे लिए मुश्किलों से भरा है, लेकिन मुझ पर इसका ज्यादा फर्क अब नहीं पड़ता क्योंकि मैंने सबसे कठिन समय को देखा है। अब मैं और कठिनाइयों की परवाह नहीं करता। किसी भी अन्य व्यक्ति की तरह मैं भी दीर्घायु होना चाहता हूं, लेकिन फिलहाल मुझे उसकी भी परवाह नहीं है। मैं सिर्फ ईश्वर की इच्छा में यकीन करता हूं। उसने मुझे वह शिखर दिखा है जहां से आगे के सुंदर संसार को देखा जा सकता है। यह हो सकता है कि मैं आपके साथ वहां तक जा न सकूं, लेकिन मैं आपको यह बताना चाहता हूं कि हम वहां तक पहुंच सकते हैं। मार्च 1969 ई० में जेम्स अर्ल रे नाम के व्यक्ति को उनकी हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया, और उसे आजीवन कैद की सजा सुनाई गई।
महात्मा गांधी से प्रेरणा लेने वाले मार्टिन लूथर किंग 1959 ई० में भारत यात्रा पर आए और उन्होंने गांधी परिवार के सदस्यों से मुलाकात भी की। यहां रहते हुए उन्होंने गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों को पढ़ा और उनमें उनका विश्वास और गहरा होता चला गया। अपनी भारत यात्रा के अंतिम दिन रेडियो पर प्रसारित एक संदेश में उन्होंने कहा भारत आने के बाद मेरा इस बात में यकीन और बढ़ गया है कि अहिंसात्मक प्रतिरोध वंचितों और शोषितों के हाथ में सबसे कारगर हथियार है। न्याय और गरिमा को पाने के अपने संघर्ष को वे इसी के माध्यम से दूर तक ले जा सकते हैं।
- देवयानी भारद्वाज
कुंदकुंदाचार्य : कुंदकुंद एक महान् प्रभावशाली जैनाचार्य हुए हैं, जिनकी कृतियों समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसंग्रह, नियमसार एवं अष्टपाहुड (दर्शनपाहुड, सूत्रपाहुड, चारित्रपाहुड आदि) को दिगंबर जैन परंपरा में पंच परमागम के रूप में मान्यता प्राप्त है। आचार्य कुंदकुंद आध्यात्मिक दृष्टि संपन्न हैं तथा निश्चय नय अथवा शुद्धनय से आत्म-स्वरूप एवं उसकी प्राप्ति के उपायों का प्रतिपादन मुख्यता से करते हैं। व्यवहार नय से अहिंसा सम्यक् चरित्र का अंग है, अतः अहिंसा के संबंध में भी उनका चिंतन गुंफित हुआ है। चारित्र पाहुड में वे जहां हिंसा से विरति को अहिंसा कहते हैं (हिंसाविरई अहिंसा, चारित्र पाहुड, 30) वहां नियमसार में जीवों की हिंसा (आरंभ) के निवर्तनरूप परिणाम को अहिंसा कहते हैं। (नियमसार, 56)। हिंसा से निवृत्ति रूप जीवों के परिणाम/भाव ही अहिंसा के रूप में जाने जाते हैं। यह अहिंसा धर्म है तथा इसके होने पर आरंभयुक्त मोह को छोड़ने की प्रेरणा की गई है। (अह मोहं सारंभं परिहर धम्मे अहिंसाए-चारित्रपाहुड, 15) यह अहिंसा महाव्रत एवं अणुव्रत दोनों रूपों में हो सकती है। अहिंसा अणुव्रत में जहां स्थूल त्रसकायवध का त्याग होता है (थूले तसकायवहे परिहारो-चारित्रपाहुड, 24) वहां महाव्रती श्रमण मुनि पूर्णतया हिंसा का त्यागी होता है। अहिंसा महाव्रत के पालन हेतु पांच भावनाएं प्रतिपादित हैं, यथा-वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, सुदान-निक्षेप एवं अवलोक्य भोजन। (चारित्रपाहुड, 32)। इन पांच भावनाओं के माध्यम से अहिंसा महाव्रत का पालन सुकर हो जाता है। ये पांचों भावनाएं साधक को अप्रमत्त, सजग या सावधान होकर प्रवृत्ति करने का प्रशिक्षण देती हैं। इनके अतिरिक्त कायगुप्ति का पालन भी ठीक से किया जाए तो अहिंसा का पालन सधता है। कायगुप्ति के अंतर्गत बंधन, छेदन, मारण, आकुंचन, प्रसारण आदि शारीरिक क्रियाओं से निवृत्ति की जाती है, जो अहिंसा के पालन में सहायक बनती है। (नियमसार, 68)
कुंदकुंद भी आचारांग सूत्र की भांति षड्निकायिक जीवों पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एवं त्रसकायिक का उल्लेख करते हैं (द्रष्टव्य, पंचास्तिकायसंग्रह, गाथा 110) तथा जिनेंद्रों की वाणी को इन षड्कायिक जीवों के लिए हितकारी मानते हैं (बोधपाहुड, 9) भावपाहुड में इन सभी षड्विध जीवों पर मन, वचन एवं काययोग से दया करने की प्रेरणा की गई है। (भावपाहुड 133) अहिंसा के लिए जीवदया शब्द का प्रयोग करते हुए वे जीवदया को शील के परिवार में स्थान देते हैं (सीलपाहुड, 19) जो दया से विशुद्ध है वह धर्म है (धम्मो दयाविसुद्धो। बोधपाहुड, 25) तथा हिंसारहित धर्म पर श्रद्धा सम्यकत्व है। (हिंसारहिए धम्मे........सद्दहणं होइ सम्मत्तं। मोक्षपाहुड 90)
जैन धर्म के अनुसार मृत्यु के समय जीव या आत्मा का नाश नहीं होता, इसलिए कुंदकुंद निश्चयनय से कहते हैं कि जो यह मानता है कि मैं हिंसा करता हूं अथवा दूसरे प्राणियों के द्वारा हिंसित होता हूं वह मूढ़ अज्ञानी है। (समयसार, 247) जीवों का मरण आयुक्षय से होता है, अतः कौन किसको मार सकता है? (समयसार, 248-249) (नोट-कुंदकुंदाचार्य की यह मान्यता जैनदर्शन की अकालमरण की अवधारणा के अनुरूप नहीं है।)
मृत्यु के समय जीव या आत्मा का विनाश न होकर दश प्रकार के प्राणों का विनाश होता है। वे दश प्राण हैं-श्रोत्रेंद्रियबल प्राण, चक्षुरिंद्रियबल प्राण, घ्राणेंद्रियबल प्राण, रसनेंद्रियबल प्राण, स्पर्शनेंद्रियबल प्राण, मनोबल प्राण, वचनबल प्राण, कायबल प्राण, श्वासोच्छ्वासबल प्राण एवं आयुष्यबल प्राण। (बोधपाहुड 35) इनमें से एकेंद्रिय जीव में चार प्राण होते हैं (स्पर्शनेंद्रिय, कायबल, श्वासोच्छ्वास एवं आयुष्य) तथा मनुष्य सदृश्य प्राणियों में दसों प्राण होते हैं।
यह मनुष्य कंद, मूल, बीज, पुष्प, पत्ते आदि सचित्त द्रव्यों का भक्षण करके व्यर्थ ही अभिमान करता है, जबकि यह उसके अनंतर संसार में भ्रमण का कारण है (भावपाहुड 103)। किसी ने भोग के सुखों के कारण अनंतसंसार में परिभ्रमण करते हुए मन, वचन एवं काया से दश प्रकार के प्राणों का हरण (आहार) किया है, किंतु प्राणिवध से जीव ने चौरासी लाख योनियों में उत्पन्न होकर निंरतर दुःख प्राप्त किया है। (द्रष्टव्य, भावपाहुड 134-135) अतः प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्वों को मन, वचन एवं कायशुद्धि के साथ उनके कल्याण एवं सुख के निमित्त अभयदान देना चाहिए। (भावपाहुड 136)
सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में एक वात्सल्य भी है, वात्सल्यभाव में अहिंसा का सकारात्मक रूप प्रकट होता है। समयसार में कहा गया है कि जो मोक्षमार्ग में निरत त्रिविध साधुओं (आचार्य, उपाध्याय एवं साधु) के प्रति वात्सल्य करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है (समयसार, 235) अनुकंपा का लक्षण वे इस प्रकार देते हैं-तृषित, भूखे अथवा दुःखी को देखकर जो जीव मन में दुःखित होकर दुःखी के प्रति करुणायुक्त व्यवहार करता है, वह उसकी अनुकंपा है (पंचास्तिकाय संग्रह, 137)। जीवों के प्रति अनुकंपा को कुंदकुंद शुभोपयोग में सम्मिलित करते हैं (प्रवचनसार, 2.65)। वे कहते हैं-अनुकंपापूर्वक उपकार करो, यद्यपि इसमें अल्पलेप (अल्प कर्म बंधन) है। (प्रवचनसार, 51)
हिंसा के साथ प्रमाद का घनिष्ठ संबंध है तथा अहिंसा के साथ अप्रमत्तता का। साधु को विशेष रूप से इसके लिए सजग रहना होता है। यदि कोई श्रमण शयन, आसन, स्थान, भ्रमण आदि में असावधान होकर प्रवृत्त होता है तो उसे सर्वकाल में हिंसा का दोष लगता है। कोई जीव मरे या जीवे, किंतु अयत (असंयत, अयतनापूर्वक) आचार वाले को निश्चित रूप से हिंसा का दोष लगता है। यदि वह प्रयत (सावधान होकर प्रयत्नशील) होता है तो हिंसामात्र के कारण उसके कर्मबंध नहीं होता, क्योंकि वह समिति का पालन कर रहा है। असजग (अयत) आचरण करने वाले को षड्विध जीवनिकायों का हिंसक माना गया है तथा जो यत्नपूर्वक आचरण करता है वह जल में कमल की भांति निर्लेप होता है। (प्रवचनसार, 3.16-18)
कुंदकुंद के टीकाकार एवं उनके विचारों के मर्मज्ञ आचार्य अमृतचंद्र (9वीं शती) ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक ग्रंथ में हिंसा-अहिंसा का विशद विवेचन किया है। वे कहते हैं कि रागादि का प्रादुर्भाव न होना अहिंसा है तथा इनकी उत्त्पत्ति होना हिंसा है। (पुरुषार्थसिद्धयुपाय) हिंसा का दायरा उनकी दृष्टि में अत्यंत व्यापक है और आत्मपरिणामों की हिंसा करने के कारण अनृत, अस्तेय, मैथुन एवं परिग्रह भी हिंसा ही हैं, उनका पृथक् उल्लेख शिष्यों को बोध कराने के लिए किया गया है (पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय, 42)। हिंसा का स्वरूप उन्होंने अन्य शब्दों में प्रकट करते हुए कहा है कि कषाय के योग से द्रव्य एवं भाव प्राणों का जो व्ययरोपण है वह निश्चित ही हिंसा है। कषाय भावों में होने पर जीव पहले स्वयं का हनन करता है, बाद में भले ही अन्य प्राणियों की हिंसा हो या न हो (पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय, 47)। हिंसा से अविरित एवं हिंसा का परिणमन भी हिंसा ही है, इसलिए यह मानना उचित है कि प्रमत्तयोग में हिंसा का दोष नित्य है। (पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय, 48) अमृतचंद्र ने हिंसा में भावों को महत्त्व दिया है। इसलिए उनके अनुसार बाह्य हिंसा न होने पर भी कोई हिंसा का फल भोगता है तथा कोई बाह्य हिंसा करने के बाद भी हिंसा के फल का भाजन नहीं होता। (पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय, 51) भले ही पर वस्तु के कारण जीव के सूक्ष्म हिंसा भी न हो, तथापि परिणाम की विशुद्धि के लिए हिंसा के आयतन परिग्रहादि का त्याग करना चाहिए (पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 49) हिंसा का फल कब प्राप्त होता है, इसके संबंध में अमृतचंद्रसूरि कहते हैं कि कोई हिंसा पहले ही फल जाती है, कोई करते-करते फलती है, कोई कर चुकने पर फलती है और कोई हिंसा प्रारंभ करके न करने पर भी फल देती है। वस्तुतः, हिंसा का फल कषायों के अनुभाव के अनुसार प्राप्त होता है, (पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 54)। यह भी प्रतिपादित किया गया है कि कभी हिंसा एक व्यक्ति करता है और उसका फल बहुतों को मिलता है, कभी हिंसा बहुत से करते हैं तथा फल एक को मिलता है (पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 56)। इस प्रकार हिंसा के विविध आयामों का प्रतिपादन कुंदकुंद के टीकाकार अमृतचंद्रसूरि के पुरुषार्थसिद्धयुपाय में प्राप्त होता है। इसमें अहिंसाव्रत के पांच अतिचार इस प्रकार अभिहित हैं-अन्य जीवों के अंग का छेदन करना, उन्हें ताड़ना, बांधना, अधिक भार लादना एवं अन्नन पान पर रोक लगाना। कुंदकुंद का संदेश है-शत्रु एवं बंधुवर्ग के प्रति सम रहो (समसत्तुबंधुवग्गो-प्रवचनसार, 3.41)
द्रष्टव्य : अमृतचंद्र।
- डॉ० धर्मचंद जैन
कुमारपाल : आचार्य हेमचंद्र रचित द्व्याश्रय काव्य द्विसंधान काव्य है। यह संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में है। संस्कृत का द्व्याश्रय काव्य में जहां एक ओर सिद्धहेमशब्दानुशासन के सात अध्यायों के सूत्र और साधनिका के प्रयोग दिए गए हैं वहीं दूसरी ओर चापोत्कठ (चावड़ा) वंश की उत्पत्ति चालुक्य वंश का उद्भव, अणहिलपुर पत्तन का निर्माण और संस्थापकों से लेकर कुमारपाल तक का ऐतिहासिक वर्णन इसमें दिया गया है। इसके अनुसार कुमारपाल चालुक्य वंशीय देवराज के पौत्र और त्रिभुवनपाल के पुत्र थे। त्रिभुवनपाल लाटदेश के दंडनायक थे।
जयसिंह अणहिलपुर के महाराजाधिराज थे और उन्होंने 1151 ई० से 1199 ई० तक गुजरात राज्य की धुरी संभाल रखी थी। किंतु उनके कोई संतान नहीं थी। सर्वदा इसके लिए चिंतित रहा करते थे और अपने राज्यवहन की चिंता करते रहते थे। तुम्हारे पीछे इस गुर्जर भूमंडल का अधिपति कुमारपाल होगा, यह भविष्य का संकेत सुनकर वे एकाएक चौकें और कुमारपाल के प्रति हृदय में रही हुई घृणा जाग्रत हो उठी। जयसिंह नहीं चाहते थे कि मेरे पश्चात् कुमारपाल का राज्याभिषेक हो और वह कुमारपाल के नाश के लिए सर्वदा प्रयत्नशील रहा करते थे। उनके पीछे अपने अनुचरों को लगा रखा था। इस कारण से कुमारपाल अपने को छिपाते हुए गांव-गांव, नगर-नगर भटकते रहते थे। एक समय कुमारपाल खंभात पहुंचे और उनके सुलक्षणों को देखकर हेमचंद्र ने निश्चय किया कि यह सम्राट होकर जैन दर्शन की प्रभावना करेगा। अतः, इसका संरक्षण आवश्यक है।
कुमारपाल ने जब यह पूछा कि हे प्रभो! क्या मेरे भाग्य में इसी तरह कष्ट भोगना लिखा है या और कुछ भी। हेमचंद्र ने तत्क्षण ही उत्तर दिया कि मार्ग शीर्ष वदी 14 संवत् 1199 ई० में आपका राज्याभिषेक होगा। मेरे यह वचन असत्य नहीं हो सकते। आचार्य के उक्त वचन सुनकर कुमारपाल ने कहा-हे प्रभु! यदि आपका यह वचन सत्य सिद्ध हुआ तो आप ही पृथ्वीनाथ होंगे, मैं तो आपके चरण कमलों का सेवक बना रहूंगा। इस पर आचार्य ने स्मित हास्य करते हुए कहा-हमें राज्य से क्या लेना-देना। यदि आप राजा होकर जैन धर्म-दर्शन की सेवा करेंगे तो हमें अत्यधिक प्रसन्नता होगी। कुछ ही समय के पश्चात् सिद्धराज जयसिंह के राजपुरुष कुमारपाल को ढूंढते-ढूंढते खंभात पहुंचे। जब उन राजपुरुषों को मालूम हुआ कि कुमारपाल आचार्य के पास है तो वे उनके स्थान पर पहुंचे। आचार्य ने तत्काल ही भूमि-गृह में उन्हें छिपा लिया और द्वार को पुस्तकों से ढककर कुमारपाल के प्राण बचाए। राजपुरुषों के पूछने पर आचार्य ने यही कहा-भूमिगृह में पुस्तकों की तलाशी ले लो। राजपुरुषों ने सोचा कि ऐसे समर्थ आचार्य के यहां खोज करना अपनी ही ऊपर आफत मोल लेना है, इसीलिए वे चले गए। अनेक स्थानों पर विविध प्रकार के कष्टों को सहन करता हुआ कुमारपाल अपने को बचाता हुआ, अपने को छिपाता हुआ इधर-उधर भटकता रहा। जब सिद्धराज जयसिंह भी ईहलोक से प्रयाण कर गए तो अपुत्रीय होने के कारण राजकीय अधिकारियों ने संवत् 1199 ई० माघ शीर्ष कृष्णा चतुर्दशी को कुमारपाल का राज्याभिषेक किया और गुजरात का महाराजाधिराज घोषित किया।
कुमारपाल प्रबंध, प्रबंध चिंतामणि, पुरातन प्रबंध संग्रह के अनुसार जिस समय कुमारपाल का राज्याभिषेक हुआ उस समय उसकी अवस्था 50 वर्ष ही होगी। इसका लाभ यह हुआ कि उसने अपने अनुभव और पुरुषार्थ द्वारा राज्य की सुदृढ़ व्यवस्था की। यद्यपि कुमारपाल सिद्धराज के समान विद्वान् तथा विद्यारसिक नहीं था, तब भी राज्य-प्रबंध के करने के पश्चात् धर्म तथा विद्या से प्रेम करने लगा था। कुमारपाल की राज्यप्राप्ति के संवाद सुनकर हेमचंद्र कर्णावती से पाटण गए, तब मंत्री उदयन से ज्ञात हुआ कि वह उन्हें बिल्कुल भूल चुका है। हेमचंद्र ने उदयन से कहा कि आज आप राजा से कहें कि वह अपनी नई रानी महल में न जावें। आज वहां दैवीय उत्पात होगा। यह किसने कहा यह जानने की जिज्ञासा हो तो अत्यंत अनुरोध करने पर मेरा नाम बताना। उदयन ने वैसा ही किया। रात्रि को महल पर बिजली गिरी और रानी की मृत्यु हो गई। राजा ने यह विस्मयकारक चमत्कार देखकर आचार्य हेमचंद्र को गुरु के रूप में स्मरण किया और वे उसकी राज्यसभा में गए। राजा ने उनका सन्मान किया और प्रार्थना की कि उस समय आपने मेरे प्राणों की रक्षा की थी और यहां आने पर हमें दर्शन भी नहीं दिए, लीजिए अब अपना राज्य संभालिए। आचार्य ने उत्तर दिया-राजन्! यदि आप कृतज्ञता के कारण प्रत्युपकार करना चाहते हैं तो भगवान महावीर की वाणी अनेकांतवाद और अहिंसा का प्रचार-प्रसार करें। राजा ने शनैःशनैः उक्त आदेश के स्वीकार करने की प्रतिज्ञा की और अपने राज्य से कुमारपाल ने प्राणीवध, मांसाहार, असत्य भाषण, द्यूतव्यसन, वेश्यागमन, परधन हरण, मद्यपान आदि दुर्व्यसनों का जड़मूल से निषेध कर दिया। अमारिघोषणा करवाई। उसने अपने अधीन 18 प्रांतों में पशुवध का पूर्णतया निषेध कर दिया था। अहिंसा का इतना व्यापक प्रचार किया कि कुमारपाल का जीवन अहिंसामय हो गया। कुमारपाल प्रतिबोध के अनुसार कुमारपाल के आचार-विचार और व्यवहार देखने से तथा हेमचंद्र के अनन्योपासक होने से कुमारपाल ने जीवन के अंतिम दिनों में जैन धर्म स्वीकार किया और प्रायः उनका जीवन द्वादशव्रतधारी श्रावक जैसा हो गया होगा। इसीलिए कुमारपाल को हेमचंद्र स्वयं अपने ग्रंथों में परमार्हत कहते हैं। यह सत्य है कि वह जैन विचारों का पालन करते हुए तन्मय हो गया था और हेमचंद्र को गुरु मानकर वह उन्हीं के आदेशों का अनुसरण करता था।
राजाधिराजाओं की दृष्टि से देखा जाए तो महावीर के उपासकों में महाराज श्रेणिक (बिंबिसार) और महाराजा अजातशत्रु (कुणिक) महाराजा उदयन, तत्पश्चात् जैन दर्शन के प्रचार-प्रसार की दृष्टि और मंदिरों का नवनिर्माण तथा जीर्णोद्धार की दृष्टि से संप्रति का स्थान आता है। किंतु, अहिंसा की साधना, उपासना और राज्य में अमारि उद्घोषणा इत्यादि का जो सर्वाङ्ग पूर्ण कार्य आचार्य हेमचंद्र की निश्रा में महाराजाधिराज कुमारपाल ने किया है, उतना शायद ही किसी ने किया हो!
कुमारपाल ने जीवहिंसा का सर्वत्र निषेध करा दिया था। इनकी कुलदेवी कंटेश्वरी देवी के मंदिर में पशुबलि होती थी। आश्विन मास का शुक्ल पक्ष आया तो पुजारियों ने राजा से निवेदन किया कि यहां पर सप्तमी को 700 पशु और 7 भैंसे, अष्टमी को 800 पशु और 8 भैंसे, तथा नवमी को 900 पशु और 9 भैंसे राज्य की ओर से देवी को चढ़ाये जाते हैं। राजा इस बात को सुनकर आचार्य हेमचंद्र के पास गया और इस प्राचीन कुलाचार का वर्णन किया। उन्होंने कान में ही राजा को समझा दिया। इसे सुनकर राजा ने कहा, अच्छा जो दिया जाता है वह हम भी यथाक्रम देंगे। तदनंतर राजा ने देवी के मंदिर में पशु भेजकर उनको ताले में बंद करा दिया और पहरा रख दिया। प्रातःकाल स्वयं राजा आया और देवी के मंदिर के ताले खुलवाए। वहां सब पशु आनंद से लेटे थे। राजा ने कहा देखिए, ये पशु मैंने देवी को भेंट किए थे, यदि उन्हें पशुओं की इच्छा होती तो वे इन्हें खा लेती, परंतु देवी ने एक पशु को भी नहीं खाया। इससे स्पष्ट है कि उन्हें मांस अच्छा नहीं लगता। तुम उपासकों को ही यह अच्छा लगता है। राजा ने सब पशुओं को छुड़वा दिया।
एक उदाहरण और भी मिलता है-राजकीय नियमानुसार कोई भी निःसंतान मरता है तो उनकी संपत्ति भी राजकोष में जमा होती है और उसका परिवार साधारण परिवार हो जाता है। उस अवस्था में उस परिवार की दृष्टि से देखा जाए तो एक प्रकार से द्रव्य अर्थात् 11वां प्राण होता है। वह दूसरों के अधिकार में चले जाने पर जो मानसिक आघात होता है वह मानसिक हिंसा से कम नहीं है।
एक समय महाराजा कुमारपाल अपने शयनागार में सो रहे थे। किसी स्त्री की रुदन ध्वनि सुनकर, सन्नद्ध होकर उसी ध्वनि की ओर चले। एक हवेली पर पहुंचे तो क्या देखा कि श्रेष्ठी पत्नी रुदन कर रही है। कारण पूछने पर उसने यह बताया कि यहां का राजकीय नियम है कि निःसन्तान की सारी चल और अचल संपत्ति राजा के कोषागार में जमा हो जाती है। हमारे कोई संतान नहीं है मेरे पति का स्वर्गवास हो गया है, मैं संपत्ति विहीन होकर दर-दर की ठोकर खाती फिरुंगी, इसीलिए रो रही हूं।’ कुमारपाल अपने स्थान पर लौटे और दूसरे दिन आदेश निकाला कि निःसन्तान की संपत्ति राजकीय कोषागार में जमा नहीं करवाई जाए और उस संपत्ति का अधिकारी उसका परिवार ही होगा।
गुजरात का जीवन उन्नत करने के लिए उन्होंने अहिंसा और तत्त्वज्ञान का रहस्य जन-साधारण को समझाया। हेमचंद्र के कारण ही कुमारपाल ने अपने अधीन अट्ठारह बड़े देशों में चौदह वर्ष तक जीव हत्या का निवारण किया था। कर्नाटक, गुर्जर, लाट, सौराष्ट्र, कच्छ, सिंधु, उच्च भमेरी, मरुदेश, मालव, कोंकण, कीर, जांगलक, सपादलक्ष, मेवाड़, दिल्ली और जालंदर देशों में कुमारपाल ने प्राणियों को अभयदान दिया और सातों व्यसनों का निषेध किया। कुमारपाल ने अपने राज्य में प्राणिवध, मांसाहार, असत्य-भाषण, द्यूत-व्यसन, वेश्या-गमन, पर-धन हरण, मद्य-पान आदि का निषेध कर दिया। कुमारपाल के आचार-विचार और व्यवहार देखने से अनुमान होता है कि उसने जीवन के अंतिम दिनों में जैन धर्म स्वीकार कर लिया होगा।
कुमारपाल ने अनेक जैन मंदिर बनवाए, चौदह सौ विहार भी बनवाए एवं शैव होते हुए भी जैन धर्म की राज्य-धर्म बनाया। उसके कुमार विहार का वर्णन हेमचंद्र के शिष्य रामचंद्रसूरि ने कुमारविहारशतक में किया है। कुमारपाल ने अनेक तालाब, धर्मशालाएं, विश्राम-स्थल, विहारादि आचार्य हेमचंद्र की प्रेरणा से ही बनवाए।
परमार्हत् कुमारपाल रचित साधारण जिनस्तवः नम्राखिला-खंडलमौलिरत्न 33 पद्यों का यह स्तव भी प्राप्त होता है। ऐसा लगता है कि जैन शासन में वासितचित्त होकर कुमारपाल ने अंतिम समय में वीतराग स्तोत्र, योगशास्त्र आदि ग्रंथों का पारण करते हुए और गुरु की आज्ञा पालन करते हुए ही इस एहिक लोक का त्याग संवत् 1229 ई० में किया हो!
अनेकांत और अहिंसा का ध्वज सफलता के साथ जो कुमारपाल ने फहराया, वह एक राजा के लिए संभव नहीं होता। दृढ़निश्चय वाला राजा ही अट्ठारह राज्यों में अमारिउद्घोषण करवा सकता है, सामान्य व्यक्ति नहीं। विरोध होते हुए भी राज्य के नियमों में परिवर्तन कर निःसन्तान का धन त्यागना भी उसकी दृढ़ न्यायप्रियता का परिचायक है।
द्रष्टव्य : हेमचंद्र, आचार्य।
- सा०वा० महोपाध्याय विनयसागर
कुमारप्पा, जे०सी० : (4 जनवरी 1892 - 30 जनवरी 1960 ई०) कुमारप्पा का जन्म तंजावूर में 4 जनवरी 1892 ई० को हुआ। पिता श्री एस० डी० कारनेलियस मद्रास सरकार के सार्वजनिक निर्माण विभाग में अधिकारी थे, जिनका स्थानांतरण होते रहता था। ईसाई समुदाय के धार्मिक-आध्यात्मिक भावना से ओत-प्रोत इस परिवार में कुमारप्पा को ईसा के प्रेम एवं अहिंसा की सीख मिली थी।
प्रारंभिक शिक्षा के बाद 1913 ई० में विलायत गए और पांच वर्ष तक अध्ययन कर 1919 ई० में स्नातक की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 1919 ई० से 1924 ई० तक बंबई में चाटर्ड एकाउंटेंट के रुप में कार्य किया। वर्ष 1924 ई० में कारनेलियस एंड डावर के नाम से स्वतंत्र आडिटिंग फर्म की स्थापना की। इसी कार्य के दौरान उनका अमेरिका अध्ययन-शोध के लिए जाना-आना होता रहा। प्रो० कुमारप्पा की रुचि वित्तीय प्रबंध में थी। 1928 ई० में अमेरिका में रहते हुए सार्वजनिक वित्त व्यवस्था और भारतीय दरिद्रता विषय पर प्रबंध तैयार किया। इस अध्ययन के दौरान उन्हें अंग्रेजों के अन्याय एवं शोषण की अनुभूति हुई और इस प्रकार कुमारप्पा की सोच राष्ट्रवाद की ओर झुक गई।
इस शोध प्रबंध के प्रकाशन की बात चली तो मित्रों ने सलाह दी कि इसकी भूमिका के लिए गांधीजी से संपर्क करना उचित होगा। उन्होंने अपना प्रबंध बंबई के मणि भवन पहुंचा दिया। गांधीजी ने निश्चित तारीख को साबरमती आश्रम, अहमदाबाद में मुलाकात के लिए समय दिया। वर्ष 1929 ई० में गांधीजी के साथ मुलाकात ने कुमारप्पा के जीवन एवं विचार को बदल दिया। गांधीजी ने इस प्रबंध को यंग इंडिया में प्रकाशित करने की इच्छा व्यक्त की। सामान्य झोपड़ी में ग्रामीण भेष में चरखे पर कताई करते गांधी से मिलने पर उन्हें अर्थशास्त्र की कुंजी मिली, जिससे अर्थशास्त्र के ताले को खोलने के लिए पूरा जीवन समर्पित कर दिया और गांधी के निर्देश के अनुसार अर्थशास्त्र के विचार और व्यवहार के प्रयोग प्रारंभ किए।
दांडी यात्रा के समय राजस्व और हमारी दरिद्रता पर लेख प्रकाशित हुआ। कुमारप्पा गुजरात विद्यापीठ में प्राध्यापक बनाए गए और इस अवधि में 1930 ई० में गांधीजी की सलाह पर मातार तालुका का विस्तृत आर्थिक सर्वेक्षण किया। यह भारत का प्रथम आर्थिक सर्वेक्षण था। यह एक ऐसा सर्वेक्षण था जिसमें भारतीय गांव की, किसानों की गरीबी की स्थिति का प्रामाणिक विश्लेषण किया गया था। योजना निर्माण में आधारभूत सर्वेक्षण की भूमिका को स्थापित करने वाला यह मौलिक सर्वेक्षण माना जाता है।
जब भी गांधीजी एवं श्री महादेव देसाई जेल गए यंग इंडिया के संपादन की जिम्मेदारी कुमारप्पा ने निभाई।
स्वतंत्रता आंदोलन में जेल यात्रा का क्रम चलता ही रहता था। सर्व प्रथम 3 फरवरी 1931 ई० को यंग इंडिया में उनके लेखों के कारण गिरफ्तार किया गया। बाद में जेल यात्रा का यह क्रम कई बार चला।
1934 ई० में बिहार भूकंप के समय बिहार में रहकर वित्तीय संयोजन का स्मरणीय कार्य किया। इस कार्य के बारे में डॉ० राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है, यदि वे न आ गए होते और सारे हिसाब को अच्छी तरह संगठित नहीं किया होता तो हम मुश्किल में पड़ते।
गांधीजी के सेवाग्राम, वर्धा आने पर कुमारप्पा का कार्य क्षेत्र वर्धा हो गया। वर्ष 1931 ई० में कुमारप्पा वर्धा आ गए और 1934 ई० में मगनबाड़ी को अर्थशास्त्र का प्रयोग स्थल बनाया। गांधीजी की अध्यक्षता एवं कुमारप्पा के मंत्रित्व में अ०भा० ग्रामोद्योग संघ की स्थापना हुई। ग्रामोद्योग संघ के सलाहकार समिति में श्री रवींद्रनाथ ठाकुर, श्री जे०सी० बोस, श्री पी०सी० राय, श्री सी०वी० रमण, श्री जमाल मुहम्मद, श्री जी०डी० बिरला, श्री सॉम हिगिनबाथम, श्री एम०ए० अंसारी, श्री राबर्ट मेककारिसन आदि थे। अ०भा०ग्रा० संघ के पांच कार्य माने गए। (1) शोध (2) उत्पादन (3)प्रशिक्षण (4) विस्तार और संगठन (5) प्रचार प्रकाशन।
20 वर्षों तक कुमारप्पा ने अ०भा०ग्रा० संघ के माध्यम से उपरोक्त कार्य को मूर्त रुप दिया-अनेक शोध प्रयोग किए, साहित्य-प्रकाशन किया। ग्रामोद्योग पत्रिका का हिंदी-अंग्रेजी में प्रकाशन उल्लेखनीय है। कुमारप्पा ने 30 से अधिक पुस्तकों का प्रकाशन किया जो कि अर्थ-विचार एवं प्रयोग की दृष्टि से आज भी पठनीय है।
आजादी के बाद सरकार ने उनका सहयोग लेने की दृष्टि से प्रथम पंचवर्षीय योजना समिति में शामिल किया, परंतु भारत के आर्थिक विकास, औद्योगिकीकरण, वित्तीय प्रबंधन के बारे में कुमारप्पा और योजना आयोग की सोच एवं नीति-रीति में मौलिक अंतर था। परिणाम स्वरुप, उन्होंने समिति में रहकर समय गंवाना उचित नहीं समझा और उससे मुक्त हो गए। देश के आर्थिक नीति की दिशा को देखते हुए उन्होंने व्यक्तिगत स्तर पर ही प्रयोग करने का निर्णय लिया और 1951 ई० में वर्धा से 20 मील दूर शहडोल गांव में कृषि ग्रामोद्योग केंद्र में प्रयोग प्रारंभ किया।
शोध एवं अध्ययन में रुचि के कारण कुमारप्पा ने साम्यवादी देशों की अध्ययन यात्रा की और अपने विचार से देश को अवगत कराया। कठिन निजी जीवन और शहडोल आश्रम में तपस्यापूर्ण प्रयोग ने उनके स्वास्थ्य को जर्जर कर दिया। अपने शारीरिक स्वास्थ्य की स्थिति को देखते हुए सभी जिम्मेदारियों एवं कार्यों से मुक्त होकर मदुराई जिले के कल्लूपटी ग्राम स्थित गांधी निकेतन आश्रम में रहने का निर्णय लिया। अंतिम दिनों में अस्पताल में रहना पड़ा। 30 जनवरी 1960 ई० को अंतिम सांस लेकर देह मुक्त हो गए।
प्रो० जे०सी० कुमारप्पा ने आधुनिक पाश्चात्य आर्थिक विचार को संदर्भगत रखते हुए स्थायी समाज व्यवस्था के रुप में अर्थ-विचार एवं व्यवहार के अनेक प्रयोग किए। इस विचार को संबोधन की दृष्टि से कई समानार्थी शब्दों का उपयोग किया जाता रहा है। गांधी ने सर्वोदय, ग्राम स्वराज्य, रामराज्य जैसे शब्द का प्रयोग किया। बीसवीं सदी में श्री ई०एफ० शुमाकर ने बुद्ध के नाम से शांतिलक्ष्यी बौद्ध अर्थव्यवस्था कहा। इसे स्माल इज ब्युटिफुल जैसे शब्दों से संबोधित किया। शांतिलक्ष्यी अर्थव्यवस्था भी कहा गया। कुमारप्पा ने उसे स्थायी समाज व्यवस्था कहा जो कि समग्र चिंतन को प्रतिध्वनित करता है। उनकी मौलिक पुस्तक का शीर्षक है स्थायी समाज व्यवस्था-अहिंसा पर आधारित समाज व्यवस्था की खोज। मेरी दृष्टि में यह शीर्षक कुमारप्पा के अर्थ-विचार का आधार है। इसमें अहिंसा पर आधारित स्थायी समाज-व्यवस्था के सूत्र हैं।
कुमारप्पा ने अर्थशास्त्र के बारे में जो विचार रखे, उसमें उदाहरण देकर लोक जीवन एवं व्यवस्था का विश्लेषण किया है। उनके विचार स्पष्ट एवं सामान्य जन की पकड़ की सीमा में है। अतः, उनके विचार को उन्हीं की भाषा में समझना उचित होगा। स्थायी समाज व्यवस्था की भूमिका गांधी जी ने लिखी। भूमिका में गांधीजी ने लिखा है इसका पूरा मतलब (पुस्तक का) समझ में आने के लिए इसे कम से कम दो या तीन बार ध्यानपूर्वक पढ़ जाना चाहिए; ग्रामोद्योग के इस डॉक्टर ने इस प्रबंध द्वारा यह बतलाया है कि इन उद्योगों द्वारा ही देश की क्षणभंगुर मौजूदा समाज व्यवस्था को हटा कर स्थायी समाज व्यवस्था कायम की जा सकेगी। उन्होंने इस सवाल को हल करने की कोशिश की है कि क्या मनुष्य का शरीर उसकी आत्मा से श्रेष्ठ है। दूसरे शब्दों में इसी को सादा रहन-सहन और ऊंचा विचार कह सकते हैं। (मो०क० गांधी, 20-08-1945)
कुमारप्पा ने स्थायी एवं अस्थायी व्यवस्था को स्थायी एवं क्षणभंगुर के रुप में विश्लेषण किया। उनकी राय में ईश्वर के अलावा ऐसा कुछ नहीं है, जिसे स्थायी कहा जाए। ईश्वर, सत्य और प्रेम के नियम पूर्ण हैं तथा अक्षरशः अपरिहार्य और स्थायी है। इस प्रश्न को प्रकृति-प्रदत्त संसाधन एवं पारिस्थितिकी (इकोलाजी) की दृष्टि से देखा जा सकता है। कुदरत में ऐसी कुछ चीजें हैं, जिसमें प्रत्यक्ष रुप से कोई जान नहीं दिखाई देती और जो बढ़ती नहीं और इस्तेमाल होने पर खत्म हो जाते हैं। धरती (पर्यावरण/प्रकृति) में कई पदार्थों का संग्रह है जैसे-कोयला, पेट्रोल, लोहा, तांबा, सोना आदि। इनका इस्तेमाल करने से यह संग्रह समाप्त होगा, कम होगा, अतः इन्हें हम क्षणभंगुर कह सकते हैं। दूसरी ओर प्रकृति का ऐसा चक्र है, जिसमें अधिकांश चीजें, उस चक्र की प्रक्रिया में स्वतः ही नष्ट होती, पुनः जन्म लेती, बढ़ती है। पर्यावरण चक्र के कारण एक दाने (बीज) से सैकड़ों दाने पैदा होते, एक आम का बीज (पौध) बढ़कर पेड़ से असंख्य आम फल के रुप में देता। पत्तियां एक वर्ष में जन्म से वृद्ध होकर गिरती और खाद के रुप में पोषण देती है। कुमारप्पा प्रकृति की इस व्यवस्था, इस चक्र को स्थायी मानते हैं। इस पर्यावरण चक्र को स्थापित रखना, उसका संरक्षण एवं संवर्धन करने की व्यवस्था ही स्थायी व्यवस्था है और यह अहिंसक अर्थरचना का आधार है। कुमारप्पा का मानना है कि क्षणभंगुर प्राकृतिक संसाधन पर आधारित व्यवस्था क्षणभंगुर होगी, अस्थायी होगी साथ ही स्वार्थ, हिंसा एवं शोषण पर आधारित होगी-उसे बढ़ाने वाली होगी।
इस विचार का आज की परिस्थिति, विश्व में स्थापित व्यवस्था एवं नीति के संदर्भ में स्थिति विश्लेषण करें तो समझ अधिक मजबूत हो सकेगी। आज का अर्थशास्त्र, उसका व्यावहारिक स्वरुप क्षणभंगुर संसाधनों पर आधारित है-निर्भर है। अपने आस-पास, गांव-घर की गतिविधियों, देश-परदेश की गतिविधियों को देखें तो पाते हैं कि पूरा विश्व क्षणभंगुर संसाधनों के दोहन-शोषण में जुटा है; उसे अपने कब्जे में रखने, उस पर आधिपत्य जमाने में जुटा है। आज की व्यवस्था तेल, खनिज, लोहा, ऊर्जा-संसाधनों का शोषण-दोहन कर धरती को खाली कर देने में जुटी है। हमारी अर्थ-व्यवस्था इसी क्षणभंगुर संसाधनों पर निर्भर है। देश की खेती, उद्योग सभी उसी पर निर्भर हो गई है। खेती, पेड़-पौधे, जो कि हमें स्थायी आधार देते रहे हैं, उन्हें हमने, डीजल, यंत्र, रासायनिक खाद आदि का गुलाम बना दिया है। जल के दोहन एवं दुरुपयोग ने प्रकृति को, धरती एवं पर्यावरण को प्यासा बना दिया है। सार रुप में कहें तो आज का अर्थशास्त्र-अर्थ व्यवहार क्षणभंगुर संसाधनों पर निर्भर है। इस परनिर्भर अर्थव्यवस्था में स्थायी समाज व्यवस्था की कल्पना कैसे की जा सकती है! यह चिंतन एवं चिंता का विषय है जो प्रो० जे०सी० कुमारप्पा की सोच की गहराई में जाने के लिए उत्साहित करता है।
कुमारप्पा ने बहुत ही सीधी एवं सरल भाषा में स्थिति विश्लेषण कर विकल्प का विचार रखा है। कुदरत जिसे हम प्रकृति, पर्यावरण, इको सिस्टम के नाम से संबोधित कर सकते हैं, इनको आधार मानकर क्षणभंगुर या अस्थायी समाज व्यवस्था में सुधार करके भी स्थायी व्यवस्था स्थापित की जा सकती है। इसके अनुसार क्षणभंगुर विनाशकारी व्यवस्था हिंसक है क्योंकि इसमें अपने लिए दूसरों के हितों की बलि दी जा सकती है, जबकि स्थायी व्यवस्था दूसरों के हितों का खयाल करने वाली कर्त्तव्य आधारित व्यवस्था है जो समूह-प्रधान तथा सेवा-प्रधान होने के कारण अहिंसक है।
सामाजिक व्यवस्था में जीवन में अपनाए जाने वाले मूल्यों (वैल्यूज) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। मूल्य-आधारित जीवन सभी जीवों से मनुष्य को अलग करता है। मूल्य समाज के, मानव जीवन के आधार हैं। प्रो० कुमारप्पा ने इन मूल्यों को स्पष्ट किया और स्थायी समाज (जिसमें व्यक्ति आधार है) के लिए उसे आवश्यक माना। इन मूल्यों को दो वर्गों में विभाजित किया, क्षणभंगुर व्यवस्था में स्वार्थी मूल्यों की प्रधानता मानी, जबकि स्थायी व्यवस्था में व्यक्ति के जीवन में निःस्वार्थी मूल्य का होना आवश्यक माना है।
प्रो० कुमारप्पा का मानना है कि कुदरत (प्रकृति) की व्यवस्था कायम रखने या बिगाड़ने की ताकत अकेले मनुष्य में है-अन्य प्राणी तो कुदरत की व्यवस्था के अनुरुप चलते ही हैं। तात्पर्य यह है कि अन्य प्राणी स्थायी समाज व्यवस्था के पोषक हैं। कुमारप्पा ने सभ्य एवं सुसंस्कृत समाज के लिए अहिंसक या स्थायी व्यवस्था आवश्यक माना है। उन्होंने अपने जीवन में व्यक्तिगत एवं संस्था स्तर पर अनेक प्रयोग किए। इस कार्य में उद्योग एवं व्यापार के स्तर पर अ०भा० ग्रामोद्योग संघ को माध्यम बनाया और ग्रामोपयोगी प्रौद्योगिकी के प्रयोग किए-उनका शास्त्रीय विश्लेषण किया। यह जानकारी कुमारप्पा साहित्य में उपलब्ध है।
- अवध प्रसाद
कुरआन : इस्लामी अकीदे और कानून का मूल स्रोत कुरआन है। रसूल की हदीस और सुन्नत, कुरआन ही की व्याख्या एवं टीका हैं इसमें किसी का मतभेद नहीं। रसूल कुरआनी शिक्षाओं का व्यावहारिक नमूना और साक्षात मूर्ति थे। इसलिए आपकी पत्नी हजरत आइशा रजि० ने एक व्यक्ति के रसूल सल्ल० के आचरण के बारे में सवाल के जवाब में कहा कि-आपका आचरण कुरआन था। कुरआनी नैतिकता में जिन बातों का संबंध मनुष्य के सामूहिक जीवन से है उनमें सबसे अधिक जिन बातों पर बल दिया गया है वे हैं- सब्र (2:135, 41:35, 76:12, 11:15, 8:46 आदि), क्षमा कर देना (7:199, 3:134, 2:237, 64:14, 24:220), न्याय (4:58, 16:76, 16:90, 49:9), विरोधियों को सही बात से अवगत करने के लिए भी अंतिम चरण तक बेहतर तरीका अपनाना (16:125), नजरअंदाज करना (4:63, 15:94, 7:199, 4:36, 2:195, 5:13) और उपकार आदि हैं। सब्र व अनदेखापन और क्षमा करने की विशेषता वह मौलिक विशेषता है जो मनुष्य को हिंसा का रास्ता अपनाने से रोकती है। मुसीबत और परेशानी में सब्र के साथ प्रतीक्षा को हदीस में सबसे श्रेष्ठ उपासना ठहराया गया है।
सब्र का उल्लेख कुरआन में 100 से अधिक बार आया है। कुरआन में रसूल को आदेश दिया गया है कि-आप सब्र करें जिस प्रकार साहसी और दृढ़ संकल्प पैगंबरों ने (आप से पहले) सब्र किया। (46:35) और आप जल्दी न करें। इसी प्रकार मुसलमानों को सब्र और नमाज से मदद हासिल करने की बात कही गई (2:45) सब्र का बदला जन्नत ठहराया गया (76:12) और मुसलमानों से कहा गया कि वे आपस में एक दूसरे को सब्र की नसीहत करें। (103:3) रसूलुल्लाह ने मुसलमानों को सब्र की नसीहत करते हुए फरमाया कि-जान लो कि अप्रिय चीजों पर सब्र करने में तुम्हारे लिए बहुत अधिक भलाई है और सफलता सब्र के साथ है और विकास व विस्तार परिश्रम के साथ है और मुश्किल के साथ आसानी है।
क्षमा करना और छोड़ देना यानी नजरअंदाज करना सब्र ही की विस्तारित विशेषताएं हैं। कुरआन में बार-बार पैगंबरे इस्लाम को आदेश दिया गया है कि-ऐ मुहम्मद! आप दरगुजर करने और क्षमा करने का तरीका अपनाएं, लोगों को भले काम की शिक्षा दें और जाहिलों को नजरअंदाज करें। (7:199)। मुसलमानों को इस बात की नसीहत करते हुए कहा गया कि अल्लाह क्रोध को पी जाने वालों और लोगों को क्षमा कर देने वालों को पसंद करता है (3:134)। कुरआन में न केवल जाहिलों से न उलझने को अल्लाह के सच्चे बंदे का गुण बताया गया है बल्कि जाहिलों से छेड़छाड़ करने के बजाए उन्हें भले व शांति के शब्द कहते हुए आगे बढ़ जाने के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया गया है (25:63)।
हिंसा सदैव न्याय का रास्ता छोड़ कर अत्याचार व अन्याय का रास्ता अपनाने से सामने आती है। एक कौम या गिरोह दूसरी जमाअत या गिरोह के साथ, मुख्य रूप से जबकि इन दोनों के बीच रंजिश व तनाव पैदा हो, न्याय के स्वाभाविक तकाजे पूरे नहीं कर पाता। इस प्रकार उसकी ओर से अन्याय का रास्ता दूसरी कौम के लोगों को उत्तेजना और हिंसा पर उतारू कर देता है। तमाम सामूहिक मामलों में हिंसा का खतरा सदैव अन्याय के मामले में सामने आता है। इसलिए कुरआन में दसियों स्थानों पर न्याय को अपनाने और स्थापित करने का आदेश दिया गया है। किसी कौम की दुश्मनी तुम्हें इस बात के लिए तैयार न कर दे कि तुम (उसके पक्ष में) न्याय न करो, न्याय अवश्य करो। इसी तरह दूसरे स्थान पर कहा गया है कि जिन लोगों ने तुम्हें मस्जिदे हराम में जाने से रोक दिया था, उनकी दुश्मनी तुम्हें इस बात पर विवश न कर दे कि तुम सीमा से आगे बढ़ जाओ। (5:2)
अंग्रेजी की कहावत है कि जंग सदैव मस्तिष्क में पलती बढ़ती है। कुरआन लोगों को जिन आचरणों का पाबंद बनाता है उनका उद्देश्य मानव मस्तिष्क से उन नकारात्मक तत्वों को समाप्त करना है जो मनुष्य को दूसरे मनुष्य के प्रति हिंसा, दमन और अन्याय के लिए प्रोत्साहित करते हैं। कौमी और सामूहिक आचरण के हवाले से कुरआन ने जो लोगों को शिक्षा दी है उसका खुलासा कुरआन की इस आयत में व्यक्त कर दिया गया-भलाई और बुराई समान नहीं होतीं, तुम बुराई को भलाई से दूर करो। फिर वह व्यक्ति जिसके और तुम्हारे बीच शत्रुता और दुश्मनी है वह ऐसा हो जाएगा जैसे गहरा दोस्त। (41:35)।
पैगंबरे इस्लाम ने लोगों को जो शिक्षा दी वह कुरआनी शिक्षाओं पर आधारित थी। आपने टकराव के मौकों पर समझौता किया। बदला लेने के अवसरों पर और ज्यादतियों व अत्याचार के अवसरों पर सहनशीलता व सब्र की शिक्षा दी। आपने अत्याचार व आक्रामता के मुकाबले में आदम के दो बेटों में से उस बेटे को कर्म करने के लिए नमूना बनाने का निर्देश दिया जिसने कुरआन के अनुसार अपने भाई से कहा था-
यद्यपि तुम मेरे कत्ल के लिए हमला करो लेकिन मैं तुम्हें कत्ल करने के लिए अपना हाथ आगे नहीं बढ़ाऊंगा क्योंकि मैं अल्लाह, जो सारे जगत का स्वामी है, से डरता हूं। (5:28)
आपका कहना है-अल्लाह नर्मी पर जो कुछ प्रदान करता है वह हिंसा पर प्रदान नहीं करता। इसी प्रकार आपने फरमाया कि जो नर्मी से वंचित हो गया वह तमाम भलाइयों से वंचित हो गया। नर्मी के लिए इन दोनों हदीसों में रिफ्क का शब्द इस्तेमाल हुआ है जो अरबी भाषा में शब्द उन्फ (ङ्कद्बशद्यद्गठ्ठष्द्ग) का विलोम है। आपने रिफ्क पर अमल किया और इसी की अपने मानने वालों को प्रेरणा दी। आपने फरमाया-रिफ्क जिस अमल में मौजूद होता है उसमें उसके कारण सुंदरता पैदा हो जाती है और जिस अमल में वह मौजूद नहीं होता वह दोषपूर्ण हो जाता है। आपकी पवित्र जीवनी इसकी व्यावहारिक मिसालों से भरी पड़ी है। आपकी पवित्र जीवनी पर लिखी गई किताबों में इसका अध्ययन किया जा सकता है। इन्हीं में से एक घटना यह है कि-कुछ यहूदी आपसे मिलने के लिए आए। मुलाकात के समय उन्होंने अस्सलामु अलैकुम (तुम पर सलामती हो) की जगह अस्सामु अलैकुम (तुम्हें मौत आए) कहा। अस्सामु का अर्थ अरबी भाषा में मौत होता है। आपकी पाक पत्नी हजरत आइशा रजि० ने यह सुन कर उसके जवाब में कहा कि तुम पर अल्लाह की फटकार और प्रकोप हो। हजरत आइशा रजि० का यह जवाब और कठोर प्रतिक्रिया सुन कर आपने फरमाया-ऐ आइशा! अल्लाह तआला नर्म है और नर्मी को पसंद करता है और वह नर्मी पर वह कुछ देता है जो वह कठोरता पर और किसी दूसरी चीज पर नहीं देता। आप दुनिया वालों के लिए रहमत बनाकर भेजे गए थे आपने स्वयं भी फरमाया कि-मैं लोगों की ओर दयालुता का उपहार हूं। कुरआन में आपको रऊफ और रहीम की विशेषताओं से सुशोभित किया गया है। (10:128) जो मूल रूप से स्वयं अल्लाह के गुण हैं। इनसे अनुमान होता है कि आप अपने दयालुता के गुणों में सामान्य मानवीय स्तर से बहुत बढ़ कर थे।
चूंकि आप पैगंबर के साथ निःसंदेह एक मनुष्य भी थे, इसलिए इसकी संभावना थी कि आपके स्वभाव में कठोरता और सख्ती हो। लेकिन, अल्लाह की कृपा से आपका दिल लोगों के लिए अत्यंत नर्म हो गया था। कुरआन कहता है-अल्लाह की कृपा से आप लोगों के लिए नर्म हो गए। यदि आप दुष्ट स्वभाव और कठोर दिल होते तो सारे लोग आपके पास से दूर हो जाते। (3:159) आपने फरमाया कि लोगो! तुम सख्ती करने वाले न बनो। आसानी करने वाले बनो, स्वयं आपका तरीका आपकी पत्नी के अनुसार नर्म और सरल चीजों को अपनाने का था।
मक्का में आपने 13 साल का जीवन गुजारा लेकिन एक भी ऐसी घटना नहीं जब आपने हिंसा का कोई तरीका अपनाया हो। आपको और आपके साथियों को विभिन्न अवसरों पर बर्बर तरीकों से जुल्म व अत्याचार का निशाना बनाया गया लेकिन आपने इसकी प्रतिक्रिया में उठने से यह कह कर इंकार कर दिया कि मुझे इसका हुक्म नहीं दिया गया है। आपने टकराव से हर संभव दूर रहने की कोशिश की, यहां तक कि आपकी इच्छा थी कि काबा के उस भाग को जो इब्राहीमी बुनियाद से हट कर बना हुआ है, सही इब्राहीमी बुनियाद पर स्थापित कर दें लेकिन टकराव से बचने के लिए आपने ऐसा नहीं किया। टकराव से बचने की आपने इस हद तक ताकीद की कि फरमाया-इस स्थिति में तुम अपने तीर-कमान तोड़ डालो, अपनी तलवार को पत्थर पर दे मारो और आदम के दो बेटों में से एक (पीड़ित व मक्तूल) की भांति हो जाओ। (इब्ने माजा)
हिंसा सदैव आत्मसंयम को खो देने की बुनियाद पर घटित होती है। यदि मनुष्य अप्रिय बातों पर स्वयं पर संयम करना सीख ले तो वह उत्तेजना पूर्ण अवसरों पर भी उत्तेजित नहीं होगा और इस तरह बात हिंसा तक नहीं पहुंचेगी। इसलिए आपने फरमाया कि शक्तिशाली वह नहीं जो कुश्ती में लोगों को पछाड़ दे, बल्कि शक्तिशाली वह है जो क्रोध के समय भी अपने आपको काबू में रखे।
हिंसावाद का एक कारण अपनी सोच और आस्था में अतिरंजना व उग्रता भी है। कुरआन में इसीलिए धर्म में अतिरंजना करने की कड़ी मनाही है।(4:171) पैगंबरे इस्लाम ने भी बार बार ताकीद की कि देखो दीन में अतिरंजना व उग्रता से बचो क्योंकि पिछली जातियां दीन में अतिरंजना के कारण ही विनष्ट हुईं। (नसई, किताबुल मनासिक)
आज हिंसा के जो दृश्य नजर आते हैं उनमें इस पहलू का दखल सबसे अधिक है। यह धर्म की सही शिक्षाओं से अनभिज्ञता और दूसरी सूरतों में अज्ञान और दुराग्रह की मानसिकता का नतीजा है। जो मुसलमान धर्म की सही नैतिक और शरअी शिक्षाओं की आवश्यक जानकारी रखता हो और उसी के साथ, जैसा कि प्रायः देखने में आता है, राजनीतिक कार्य-कलापों के नतीजे में उसका मस्तिष्क कठोर और सत्य को स्वीकार करने में संवेदनहीन न बन गया हो तो इसकी कोई वजह नहीं कि वह हिंसा का मार्ग अपनाए। वह हर हाल में अहिंसा में विश्वास रखने वाला शांतिप्रिय मनुष्य होगा।
- प्रो० अख्तरुल वासे